सामग्री पर जाएँ

प्रेमसागर/६० भौमासुरवध

विकिस्रोत से
प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २६० से – २७० तक

 

साठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, एक समय पृथ्वी मनुष तन धारन कर अति कठिन तप करने लगी। तहाँ ब्रह्मा विष्णु, रुद्र इन तीनो देवताओ ने आ विससे पूछा कि तू किस लिये इतनी कठिन तपस्या करती है। धरती बोली-कृपासिन्धु, मुझे पुत्र की वासना है इस कारन महातप करती हूं, दया कर मुझे एक पुत्र अति बलवंत महाप्रतापी बड़ा तेजस्वी दो, ऐसा कि जिसका साम्हना संसार में कोई न करे, न वह किसीके हाथ से सरै।

यह बचन सुन प्रसन्न हो तीनो देवताओं ने बर दे उसे कहा कि तेरा सुत नरकासुर नाम अति बली महाप्रतापी होगा, उससे लड़ कोई न जीतेगा, वह सृष्टि के सब राजाओ को जीत अपने बस करेगा स्वर्गलोक में जाय देवताओ को मार भगाय, अदिति के कुण्डल छीन आप पहनेगा और इंद्र का छत्र छिनाय लाय अपने सिर धरेगा, संसार के राजाओं की कन्या सोलह सहस्र एक सौ लाय अनब्याही घेर रक्खेगा। तब श्री कृष्णचंद सब अपना कटक ले उसपर चढ़ जायँगे और उनसे तू कहैगी इसे मारो, पुनि वे मार सब राजकन्याओं को ले द्वारका पुरी पधारैगे।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, तीनो देवताओ ने बर दे जब यो कहा तब भूमि इतना कह चुप हो रही कि मैं ऐसी बात क्यों कहूँगी कि मेरे बेटे को मारो। आगे कितने एक दिन पीछे भूमिपुत्र भौमासुर हुआ, तिसीका नाम नरकासुर भी कहते हैं। वह प्रागुजोतिषपुर में रहने लगा। उस पुर के चारों ओर पहाड़ो की ओट और जल, अग्नि, पवन का कोट बनाय, सारे संसार के राजाओं की कन्या बलकर छीन छीन, धाय समेत लाय लाय उसने वहाँ रक्खीं। नित उठ उन सोलह सहस्त्र एक सौ राजकन्याओं के खाने ने पहरने की चौकसी वह किया करे और बड़े अन्न से उन्हें पलवावे।

एक दिन भौमासुर अति कोप कर पुष्पविमान में बैठ, जो लंका से लाया था, सुरपुर में गयी और लगा देवताओं को सताने। जिसके दुख से देवता स्थान छोड़ छोड़ अपनी जीव ले ले जिधर तिधर भाग गये, तब वह अदिति के कुंडल औ इन्द्र का छत्र छीन लाया। आगे सब सृष्टि के सुर, नर, मुनियों को अति दुख देने लगा। विसका आचरन सुन श्रीकृष्णचंद्र जगबंधु जी ने अपने जी में कहा-

वाहि मार सुंदरि सब ल्याऊँ। सुरपति छत्र तही पहुँचाऊँ॥
जाय अदिति के कुण्डल दैहौं। निर्भय रोज इन्द्र को कैहौ॥

इतना कह पुनि श्रीकृष्णचंद्रजी ने सतिभामा से कहा कि हे नारि, तू मेरे साथ चले तो भौमासुर मारा जाय, क्योकि तू भूमि का अंस है, इस लेखे उसकी माँ हुई। जब देवताओं ने भूमि को पुत्र का बर दिया था तब यह कह दिया था कि जब से मारने को कहेगी तद तेरा पुत्र मरेगा, नहीं तो किसीसे किसी भाँति मारा न मरेगा। इस बात के सुनतेही सतिभामाजी कुछ मनही मन सोच समझ इतना कह अनमनी हो रही कि महाराज, मेरा पुत्र आपको सुत हुआ तुम उसे क्यौकर मारोगे। प्रभु ने इस बात को टाल कहा कि उसके मारने की तो मुझे कुछ इतनी चिन्ता नहीं पर एक समै मैने तुन्हें बचन दिया था जिसे पूरा किया चाहता हूँ। सतिभामा बोली-सो क्या। प्रभु कहने लगे कि एक समय नारदजी ने आय मुझे कल्पवृक्ष का फूल दिया, वह ले मैंने रुक्मिनी को भेजा। यह बात सुन तू रिसाय रही तब मैने यह प्रतिज्ञा करी कि तू उदास मत हो मैं तुझे कल्पवृक्षही ला दूँगा, सो अपना बचन प्रतिपालने को और तुझे बैकुण्ठ दिखाने को साथ ले चलता हूँ।

इतनी बात के सुनतेही सतिभामाजी प्रसन्न हो हरि के साथ चलने को उपस्थित हुइ, तब प्रभु उसे गरुड़ पर अपने पीछे बैठाय साथ ले चले। कितनी एक दूर जाय श्रीकृष्णचंदजी ने सतिभामा जी से पूछा कि सच कह सुंदरि, इस बात को सुन तू पहले क्या समझ अप्रसन्न हुई थी, उसका भेद मुझे समझायके कह जो मेरे सन का सन्देह जाय। सतिभामा बोली कि महाराज, तुम भौमासुर को मार सोलह सहस्र एक सौ राजकन्या लाओगे तिनमें मुझे भी गिनोगे, यह समझ अनमनी हुई थी।

श्रीकृष्णचंद बोले कि तू किसी बात की चिन्ता मत कर मैं कल्पवृक्ष लाय तेरे घर में रक्खूँगा और तू विसके साथ मुझे नारद मुनि का द न कीजो, फिर मोल ले मुझे अपने पास रखना मैं तेरे सदा अधीन रहूँगा। ऐसेही इन्द्रानी ने इन्द्र को वृक्ष के साथ दान दिया था औ अदिति ने कश्यप को। इस दान के करने से कोई नारी तेरी समान मेरे न होगी। महाराज, इसी भाँति की बाते कहते कहते श्रीकृष्णजी प्रागजोतिषपुर के निकट जा पहुँचे। वहाँ पहाड़ का कोट, अग्नि, जल, पवन की प्रोट देखतेही प्रभु ने गरुड़ औ सुदरसन चक्र को आज्ञा की। विन्होने पल भर में ढाय, बुझाय, बहाय, थाम अच्छा पंथ बनाय दिया।

जो हरि आगे बढ़ नगर में जाने लगे तो गढ़ के रखवाले दैत्य लड़ने को चढ़ आए, प्रभु ने तिन्हें गदा से सहजही मार गिराए । विनके मरने का समाचार पाय मुर नाम राक्षस पाँच सीसवाला, जो उस पुरगढ़ का रलवाला था, सो अति क्रोध कर त्रिशूल हाथ में ले श्रीकृष्णजी पर चढ़ आया औ लगा आँखें लाल लाल कर दाँत पीस पीस कहने कि

मोर्ते बली कौन जग और। वाहि देखिहौ मै या ठौर॥

महाराज, इतना कह मुर दैत्य श्रीकृष्णचंद पर यों दपटा कि जो गरुड़ सर्प पर झपटे। आगे उसने त्रिशूल चलाया, सो प्रभु ने चक्र से काट गिराया। फिर खिजलाय मुर ने जितने शस्त्र हरि पर घाले, तितने प्रभु ने सहजही काट डाले। पुनि वह हकबकाय दौड़कर प्रभु से प्राय लिपटा औ मल्लयुद्ध करने लगा। निदान कितनी एक बेर मे युद्ध करते करते, श्रीकृष्णजी ने सतिभामाजी को महा भयमान जान सुदरसन चक्र से उसके पाँचों सिर काट डाले। धड़ से सिर गिरतेही धमका सुन भौमासुर बोला कि यह अति शब्द काहे का हुआ? इस बीच किसी ने जा सुनाया कि महाराज, श्रीकृष्ण ने आय मुर दैत्य को मार डाला।

इतनी बात के सुनतेही प्रथम तो भौमासुर ने अति खेद किया, पीछे अपने सेनापति को युद्ध करने का आयसु दिया। वह सब कटक साज लड़ने को गढ़ के द्वार पर जा उपस्थित हुआ और विसके पीछे अपने पिता का मरना सुन मुर के सात बेटे जो अति बलवान और बड़े जोधा थे, सो भी अनेक अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारन कर श्रीकृष्णचंदजी के सनमुख लड़ने को जा खड़े हुए। पीछे से भौमासुर ने अपने सेनापति औ मुर के बेटो से कहला भेजा कि तुम सावधानी से युद्ध करो मैं भी आवता हूँ।

लड़ने की आज्ञा पातेही सब असुरदल साथ ले मुर के बेटो समेत भौमासुर का सेनापति श्रीकृष्णजी से युद्ध करने को चढ़ आया औ एकाएकी प्रभु के चारो ओर सब कटक दल बादल सा जाय छाया। सब ओर से अनेक अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र भौमासुर के सूर श्रीकृष्णचंद पर चलाते थे औ वे सहज सुभावही काट काट ढेर करते जाते थे। निदान हरि ने श्रीसतिभामाजी को महा भयातुर देख असुर दल को मुर के सात बेटो समेत सुदरसन चक्र से बात की बात मे यो काट गिराया कि जैसे किसान ज्वार की खेती को काट गिरावे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, मुर के पुत्रो समेत सब सेना कटी सुन, पहले तो, भौमासुर अति चिन्ता कर महा घबराया, पीछे कुछ सोच समझ धीरज कर कितने एक महाबली राक्षसो को अपने साथ लिये, लाल लाल आँखें क्रोध से किये, कसकर फेट बांधे, सर साधे, बकता झकता श्रीकृष्णजी से लड़ने को आय उपस्थित हुआ। जों भौमासुर ने प्रभु को देखा तो उसने एक बार अति रिसाय मूठ की मूठ बान चलाए, सो हरि ने तीन तीन टुकड़े कर काट गिराए, उस काल-

काढ़ खड़ग भौमासुर लियौ। कोपि हंकारि कृष्ण उर दियौ।
करै शब्द अति मेघ समान। अरे गंवार न पावै जान॥
करकस पवन तहाँ उच्चरै। महायुद्ध भौमासुर करै॥

महाराज, वह तो अति बल कर इनपर गदा चलाता था और श्रीकृष्णजी के शरीर में उसकी चोट यो लगती थी कि जो हाथी के अंग में फूलछड़ी। आगे वह अनेक अनेक प्रश्न शस्त्र ले प्रभु से लड़ा औ प्रभु ने सब काट डाले। तब वह फिर घर जाय एक त्रिशूल ले आया औ युद्ध करने को उपस्थित हुआ।

तब सतिभामा टेर सुनाई। अब किन याहि हतौ यदुराई॥ बचन सुनत प्रभु चक्र संभार्यौ। काटि सीस भौमासुर मार्यौ॥ कुण्डल मुकुट सहित सिर पर्यौ। धर के गिरत शेष थरहर्यौ॥ तिहूँ लोक में आनंद भयौ। सोच दुःख सबही को गयौं। तासु जोति हरि देह समानी। जै जै शब्द करैं सुर ज्ञानी॥ घिरे विमान पुहुप बरसावै। वेद बखानि देव जस गावैं॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, भौमासुर के मरतेही भूमि औ भौमासुर की स्त्री पुत्र समेत आय प्रभु के सनमुख हाथ जोड़, सिर नवाय, अति बिनती कर कहने लगी-हे जोतीस्वरूप ब्रह्मरूप, भक्तहितकारी तुम साध संत के हेतु धरते हो भेष अनंत, तुम्हारी महिमा, लीला, माया है अपरंपार, तिसे कौन जाने और किसे इतनी सामर्थ है जो बिन कृपा तुम्हारी विसे बखाने। तुम सब देवो के हो देव, कोई नहीं जानता तुम्हारा भेव।

महाराज, ऐसे कह छत्र कुंडल पृथ्वी प्रभु के आगे धर फिर बोली-दीनानाथ, दीनबंधु, कृपासिन्धु, यह सुभगदंत*[] भौमासुर का बेटा आपकी सरन आया है अब करुना कर अपना कोमल कमल सा कर इसके सीस पर दीजे औ अपने भय से इसे निर्भय कीजे। इतनी बात के सुनतेही करुनानिधान श्रीकान्ह ने करुना


कर सुभगदंत के सीस पर हाथ धरा और अपने डर से उसे निडर करा। तब भौमावती भौमासुर की स्त्री बहुत सी भेट हरि के आगे धर, अति विनती कर हाथ जोड़, सीस झुकाय, खड़ी हो बोली-

हे दीनदयाल, कृपाल, जैसे आपने दरसन दे हम सबको कृतार्थ किया, तैसे अब चलकर मेरा घर पवित्र कीजै। इस बात के सुनतेही अन्तरयामी भक्तहितकारी श्रीमुरारी भौमासुर के घर पधारे। उस काल वे दोनो माँ बेटे हरि को पाटंबर के पाँवड़े डाल घर मे ले जाय सिंहासन पर बिठाय, अरघ दै चरनामृत ले अति दीनता कर बोले-हे त्रिलोकीनाथ, आपने भला किया, जो इस महा असुर का वध किया। हरि से विरोध कर किसने संसार में सुख पाया? रावन कुम्भकरन कंसादि ने बैर कर अपना जी गँवाया। और जिसने आप से द्रोह किया तिस तिसका जगत मे नामलेवा पानीदेवा कोई न रहा।

इतना कह फिर भौमावती बोली-हे नाथ, अब आप मेरी बिनती मान, सुभगदंत को निज सेवक जान, जो सोलह सहस्र राजकन्या इसके बाप ने अनब्याही रोक रक्खी हैं सो अंगीकार कीजे। महाराज, यो कह उसने सब राजकन्याओंको निकाल प्रभु के सोही पाँत का पाँत ला खड़ा किया। वे जगत उजागर, रूपसागर श्रीकृष्णचंद आनंदकंद को देखतेही मोहित हो, अति गिड़गिड़ाय, हा हा खाय, हाथ जोड़ बोलीं-नाथ जैसे आपने आय हम अबलाओ को इस महादुष्ट की बंध से निकाला, तैसे अब कृपा कर इन दासियो को साथ ले चलिये औ निज सेवा में रखिये तो भला। यह बात सुन श्रीकृष्णचंद ने विन्हें इतना कह कि हमने तुम्हारे साथ ले चलने को रथ पालकियों मँगावे हैं, सुभगदंत की ओर देखा। सुभगदंत प्रभु के मन का कारण समझ अपनी राजधानी में जाय, हाथी घोड़े सजवाय, घुड़बहल औ रथ झमझमाते जगमगाते जुतवाय, सुखपाल, पालकी, नालकी, डोली, चंडोल, झलाबोर के कसवाय लिवाय लाया। हरि देखते ही सब राजकन्याओ को उनपर चढ़ने की आज्ञा दे, सुभगदंत को साथ ले राजमंदिर में जाय, उसे राजगादी पर बिठाय, राजतिलक विसे निज हाथ से दे, आप बिदा ले जिस काल सब राजकन्याओ को साथ लिए वहाँ से द्वारका को चले तिस समै की सोभा कुछ बरनी नहीं जाती, कि हाथी बैलो की झलाबोर गंगा जमुनी झूलो की चमक और घोड़ो की पाखरो की दमक औ सुखपाल, पालकी, मालकी, डोली, चडोल, रथ, घुडबहलो के घटाटोपो की ओप औ उनकी मोतियो की झालरो की जात सूरज की जीत से मिल एक हो जगमगाय रही थी।

आगे श्रीकृष्णचंद सब राजकन्याओं को लिए कितने दिन मे चले चले द्वारकापुरी पहुँचे। वहाँ जाय राजकन्याओ को राजमंदिर में रख, राजा उग्रसेन के पास जाय प्रनाम कर पहले तो श्रीकृष्ण जी ने भौमासुर के मारने और राजकन्याओ के छुड़ाय लाने का सब भेद कह सुनाया। फिर राजा उग्रसेन से बिदा होय प्रभु सतिभामा को साथ ले, छत्र कुडल लिये गरुड़ पर बैठ बैकुंठ को गये। तहाँ पहुँचते ही-

कुँडल दिये अदिति के ईस। छत्र धर्यो सुरपति के सीस॥

यह समाचार पाय वहाँ नारद आया, तिससे हरि ने कह
सुनाया, कि तुम जाय इंद्र से कहो जो सतिभामा तुमसे कल्पवृक्ष माँगती है। देखो वह क्या कहता है? इस बात का उत्तर मुझे ला दो पीछे समझा जायगा। महाराज, इतनी बात श्रीकृष्णचंदजी के मुख से सुन नारदजी ने सुरपति से जाय कहा कि सतिभामा तुम्हारी भौजाई तुमसे कल्पतरु माँगती है, तुम क्या कहते हो सो कहो, मैं उन्हे जाय सुनाऊँ कि इंद्र ने यह कहा। इस बात के सुनतेही इंद्र पहले तो हकबकाय कुछ सोच रहा, पीछे उसने नारदमुनि का कहा सब इंद्रानी से जाय कहा।

इंद्रानी सुन कहै रिसाय। सुरपति तेरी कुमति न जाय॥
तू है बड़ौ मूढ़ पति अँधु। को है कृष्ण कौन को बँधु॥

तुझे यह सुध है कै नही, जो उसने ब्रज मे से तेरी पूजा मेट प्रजवासियो से गिर पुज्वाय, छल कर तेरी पूजा का सब पकवान आप खाया। फिर सात दिन तुझे गिर पर बरसवाय उसने तेरा गर्व गँवाय सब जगत मे निरादर किया। इस बात की कुछ तेरे ताई लाज है कै नहीं। वह अपनी स्त्री की बात मानता है, तू मेरा कहा क्यो नहीं सुनता।

महाराज, जब इंद्रानी ने इंद्र से यो कह सुनाया तब वह अपना सा मुँह ले उलट नारदजी के पास आया और बोला-हे ऋषिराय, तुम मेरी ओर से जाय श्रीकृष्णचंद से कहो कि कल्पवृक्ष नंदन बन तज अनत न जायगा औ जायगा तो वहाँ किसी भाँति न रहेगा। इतना कह फिर समझाके कहियो जो आगे की भाँति अब यहाँ हमसे बिगाड़ न करें, जैसे ब्रज में ब्रजवासियो को बहकाय गिरि का मिस कर सब हमारी पूजा की सामा खाय गये, नहीं तो महा युद्ध होगा। यह बात सुन नारदजी ने आय श्रीकृष्णचन्द से इंद्र की बात कही। कह सुनाय के कहा-महाराज, कल्पतरु इंद्र तो देता था पर इंद्रानी ने न देने दिया। इस बात के सुनतेही श्रीमुरारी गर्वप्रहारी नंदनवन में जाय, रखवालो को मार भगाय, कल्पवृक्ष को उठाय, गरुड़ पर धर ले आये। उस काल वे रखवाले जो प्रभु के हाथ की मार खाय भागे थे, इंद्र के पास जाय पुकारे। कल्पतर के ले जाने के समाचार पाय महाराज, राजा इंदु अति कोप कर वज्र हाथ मे ले, सब देवताओ को बुलाय, ऐरावत हाथी पर चढ़, श्रीकृष्णचंदजी से युद्ध करने को उपस्थित हुआ।

फिर नारद मुनि जी ने जाय इंद्र से कहा-राजा, तू महा मूर्ख है जो स्त्री के कहे भगवान से लड़ने को उपस्थित हुआ है। ऐसी बात कहते तुझे लाज नहीं आती। जो तुझे लड़नाही था तो जब भौमासुर तेरा छत्र श्री अदिति के कुंडल छिनाय ले गया तब क्यो न लड़ा। अब प्रभु ने भौमासुर को मार कुंडल औ छत्र ला दिया, तो तू उन्हीं से लड़ने लगा। जो तू ऐसा ही बलवान था तो भौमासुर से क्यो न लड़ा। तू वह दिन भूल गया जो ब्रज में जाय प्रभु की अति दीनता कर अपना अपराध क्षमा कराय आया, फिर उन्ही से लड़ने चला है। महाराज, नारद के मुख से इतनी बात सुनतेही राजा इंद्र जों युद्ध करने को उपस्थित हुआ तो अछताय पछताय लज्जित हो मन मार रह गया ।

आगे श्रीकृष्णचंद द्वारका पधारे, तव हरषित भये देख हरि को यादव सारे। प्रभु ने सतिभामा के मदिर मैं कल्पवृक्ष ले जाय के रक्खा औ राजा उग्रसेन ने सोलह सहस्र एक सौ जो राजकन्या अनब्याही थीं, सो सब देव रीति से श्रीकृष्णचंद को ब्याही।

भयौ बेद विधि मंगलचार! ऐसे हरि बिहरत संसार॥
सोलह सहस एक सौ ग्रेहा। रहत कृष्ण कर परम सनेहा॥
पटरानी आठो जे गनी। प्रीति निरंतर तिनसों धनी॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, हरि ने ऐसे भौमासुर को बध किया औ अदिति का कुंडल और इंद्र का छत्र ला दिया। फिर सोलह सहस्र एक सौ आठ विवाह कर श्रीकृष्णाचद द्वारका पुरी में आनंद से सबको ले लीला करने लगे।

  1. * (ख) में केवल "भगदंत है।