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प्रेमसागर/६१ श्रीरुक्मिणीमानलीला

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २७१ से – २७५ तक

 

एकसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक समै मनिमय कंचन के मंदिर में कुन्दन का जड़ाऊ छपरखट बिछा था, तिसपर फेन से बिछोने फूलो से सँवारे, कपोलगेडुआ औ ओसीसे समेत सुगंध से महक रहे थे। करपूर, गुलाबनीर, चोआ, चंदन, अरगजा सेज के चारो ओर पात्रो मे भग था। अनेक अनेक प्रकार के चित्र विचित्र*[] चारो ओर भीतो पर खिचे हुए थे। आलो मे जहाँ तहाँ फूल, फल पकवान, पाक घरे थे और सब सुख का सामान जो चाहिये सो उपस्थित था।

झलाबोर का घाघरी धूमधूमाला तिसपर सच्चे मोती टँके हुए, चमचमाती अँगिया, झलझलाती सारी औ जगमगाती ओढ़नी पहने ओढ़े नख सिख से सिंगार किये, रोली की आड़ दिये, बड़े बड़े मोतियों की नथ, सीसफूल, करनफूल, माँग, टीका, ढेढी, बंदी, चंद्रहार, मोहनमाल, धुकधुकी, पंचलडी, सतलड़ी, मुक्तमाल, दुहरे तिहरे नौरतन औ भुजबंध, कंकन, पहुँची, नौगरी, चूड़ी, छाप, छल्ले, किंकिनी, अनवट, बिछुए, जेहर आदि सब आभूषन रतनजटित पहन चंदबदनी, चंपकबरनी, मृगनयनी, गजगमनी, कटिकेहरी श्रीरुक्मनीजी औ मेघबरन, चंदमुख, कंवलनैन, मोरमुकुट दिये, बनमाल हिये, पीतांबर पहरे, पीतपट ओढे, रूपसागर, त्रिभुवन उजागर श्रीकृष्णचंद आनदकंद तहाँ,


विराजते थे औ आपस में परसपर सुख लेते देते थे कि एकाएकी लेटे लेटे श्रीकृष्णजी ने रुक्मिनी से कहा कि सुन सुंदरी, एक बात मैं तुझसे पूछता हूँ, तू उसका उत्तर मुझे दे कि तू तो महा सुंदरी सब गुनसंयुक्त औ राजा भीष्मक की पुत्री, और महाबली बड़ा प्रतापी राजा सिसुपाल चंदेरी का राजा ऐसा, कि जिनके घर सात पीढ़ी से राज आता है औ हम उन के त्रास से भागे फिरते है औ मथुरापुरी तज समुद्र में जाय बसे हैं उन्हीं के भय से, ऐसे राजा को तुम्है तुम्हारे मात पिता भाई देते थे औ वह बरात ले ब्याहने को भी आ चुका था, तिसे न बर तुमने कुल की मर्याद छोड़ संसार की लाज श्री मात पिता बंधु की संका तज हमे ब्राह्मन के हाथ बुला भेजा।

तुम्हरे जोग न हम परबीन। भूपति नाहिं रूप गुन हीन॥
काहू जाचक कीरत करी। सो तुम सुनकै सन मैं धरी॥
कटक साज नृप ब्याहन पायौ। तब तुम हम को बोल पठायौ॥
आय उपाध बनी ही भारी। क्यौंहूँ के पति रही हमारी॥
तिनके देखत तुमको लाए। दल हलधर उनके बिचराए॥
तुम लिख भेजी ही यह बानी। सिसुपाल ते छुड़ावौ आनी॥
सो परतज्ञा रही तिहारी। कछू न इच्छा हुती हमारी॥
अजहूँ कछू न गयौ तिहारौ। सुंदरि मानहु बचन हमारौ॥

कि जो कोई भूपति कुलीन, गुनी, बली तुम्हारे जोग होय तुम तिसके पास जा रहौ। महाराज, इतनी बात के सुनतेही श्री रुक्मिनीजी भयचक हो भहराय पछाड़ खाय भूमि पर गिरौं औ जल बिन मीन की भाँति तड़फड़ाय अचेत हो लगीं उर्द्धसांस लेने। तिस काल,

इहि छबि मुख अलकावली, रही लपट इक संग।
मानहुँ ससि भूतल पर्यौ, पीवत अभी भुअंग॥

यह चरित्र देख इतना कह श्रीकृष्णचंद घबराकर उठे कि यह तो अभी प्रान तजती है, औ चतुर्भुज हो उसके निकट जाय, दो हाथों से पकड़ उठाय, गोद में बैठाय एक हाथ से पंखा करने लगे औ एक हाथ से अलक सँवारने। महाराज, उस काल नंदलाल प्रेम बस हो अनेक चेष्टा करने लगे। कभी पीताम्बर से प्यारी का चंदमुख पोछते थे, कभी कोमल कमल सा अपना हाथ उसके हृदै पर रखते थे। निदान कितनी एक बेर में श्री रुक्मिनी जी के जीमें जी आया तब हरि बोले-

तही सुंदरि प्रेम गँभीर। तैं मन कछू न राखी धीर॥
तैं मन जान्यौ साँचे छाड़ी। हमने हँसी प्रेम की माड़ी॥
अब तू सुंदरि देह सँभार। प्रान ठौरकै नैन उघार॥
जौलौ तू बोलत नहिं प्यारी। तौलौ हम दुख पावत भारी॥
चेती वचन सुनत पिय नारी। चितई वारिज नयन उघारी॥
देखी कृष्ण गोद में लिये। भई लाज अति सकुची हिये॥
अरबराय उठ ठाढ़ी भई। हाथ जोरि पायन परि रही॥
बोले कृष्ण पीठ कर देत। भली भली जू प्रेम अचेत॥

हमने हाँसी ठानी सो तुमने सच ही जानी। हँसी की बात मे क्रोध करना उचित नहीं। उठो अब क्रोध दूर करो औ मन का शोक हरो। महाराज, इतनी बात के सुनतेही श्रीरुक्मिनीजी उठ हाथ जोड़ सिर नाय कहने लगी कि महाराज, आपने जो कहा कि हम तुम्हारे जोग नहीं सो सच कहा, क्योंकि तुम लक्ष्मीपति, शिव बिरंच के ईस, तुम्हारी समता का त्रिलोकी में कौन है, हे जगदीश। तुम्हैं छोड़ जो जन और को धावैं, सो ऐसे है जैसे कोई हरिजस छोड़ गीधगुन गावै। महाराज, आपने जो कहा कि तुम किस महाबली राजा को देखो सो तुमसे अति बली औ बड़ा राजा त्रिभुवन में कौन है सो कहो?

ब्रह्मा रुद्र इंद्रादि सब देवता बरदाई तो तुम्हारे आज्ञाकारी हैं, तुम्हारी कृपा से वे जिसे चाहते है तिसे महाबली, प्रतापी, जपी, तेजस्वी बर दे बनाते है और जो लोग आपकी सैकड़ो बरस अति कठिन तपस्या करते है, सो राजपद पाते हैं। फिर तुम्हारा भजन, ध्यान, जप, तप भूल नीति छोड़ अनीति करते हैं, तब वे आप से आप ही अपना सरबस खोय भ्रष्ट होते हैं। कृपानाथ, तुम्हारी तो सदा यह रीति है कि अपने भक्तो के हेतु संसार में आये बार बार औतार लेते हो औ दुष्ट राक्षसों को मार पृथ्वी का भार उतार निज जनो को सुख दे कृतारथ करते हौ।

औ नाथ, जिसपर तुम्हारी बड़ी दया होती है और वह धन, राज, जोबन, रूप प्रभुता पाय जब अभिमान से अंधा हो धर्म कर्म, तप, सुत, दया, पूजा, भजन भूलता है तब तुम उसे दरिद्री बनाते हो, क्यौंकि दरिद्री सदाही तुम्हारा ध्यान सुमरन किया करता है, इसीसे तुम्हें दरिद्री भाता है। जिसपर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी सो सदा निर्धन रहेगा! महाराज इतना कह फिर रुक्मिनीजी बोली कि हे प्राननाथ, जैसा काशीपुर के राजा इंद्रदवन की बेटी अंबा ने किया, तैसा मै न करूंगी कि वह पति को छोड़ राजा भीषस के पास गई और जब उसने इसे न रक्खा तब फिर अपने पति के पास आई। पुनि पति ने उसे निकाल दिया, तद् उन्ने गंगा तीर में बैठ महादेव का बड़ा तप किया। वहाँ भोलानाथ ने आय उसे मुँह माँगा बर दिया। उस बर के बल से जाय उसने राजा भीषम से अपना पलटा लिया। सो मुझसे न होगा।

अरु तुम नाथ यही समझाई। काहू जाचक करी बड़ाई॥
बाकौ बचन मान तुम लियौ। हम पै विप्र पठै कै दियौ॥
जाचक शिव बिरंच सारदा। नारद गुन गावत सरबदा॥
विप्र पठायौ जान दयाल। आय कियौ दुष्टनि कौ काल॥
दीन जन दासी संग लई। तुम मोहि नाथ बड़ाई दई॥
यह सुनि कृष्ण कहत सुन प्यारी। ज्ञान ध्यान गति लही हमारी॥
सेवा भजन प्रेम तें जान्यौ। तोही सों मेरो मन मान्यौं।

महाराज प्रभ के मुख से इतनी बात सुनते ही संतुष्ट हो रुक्मिनी जी फिर हरि की सेवा करने लगीं।


  1. * (क) में "बित्र" है।