प्रेमसागर/६३ ऊषास्वप्न

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तिरसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अब जो श्रीद्वारकानाथ का बल पाऊँ, तो ऊषाहरण की कथा सब गाऊँ। जैसे उसने रात्र समै सपने में अनरुद्धजी को देखा औ आशक्त हो खेद किया पुनि चित्ररेखा ने ज्यो अनरुद्ध को लाय ऊषा से मिलाया, तैसे मै सब प्रसंग कहता हूँ तुम मन दे सुनौ। ब्रह्मा के बंस में पहले कस्यप हुआ। तिसका पुत्र हिरनकस्यप अतिबली महाप्रतापी औ अमर भया। उसका सुत हरिजन प्रभुभक्त पहलाद नाम हुआ, विसका बेटा राजा विरोचन, विरोचन का राजा बलि, जिसका जस धर्म धरनी में अब तक छाय रहा है, कि प्रभु ने बावन अवतार ले राजा बलि को छल पाताल पठाया। उस बलि का ज्येष्ठ पुत्र महापराक्रमी बड़ा तेजस्वी बानासुर हुआ। वह श्रोनितपुर मे बसे, नित प्रति कैलास में जाय शिव की पूजा करै, ब्रह्मचर्य पालै, सत्य बोले, जितेन्द्रिय रहै। महाराज, एक दिन बानासुर कैलास में जाय हर की पूजा कर प्रेम में आय लगा मगन हो मृदंग बजाय बजाय नाचने गाने। उसका गाना बजाना सुन श्रीमहादेव भोलानाथ मगन हो लगे पार्वतीजी को साथ ले नाचने औ डमरू बजाने। निदान नाचते नाचते शंकर ने अति सुख पाय प्रसन्न हो, बानासुर को निकट बुलाय के कहा-पुत्र, मै तुझपर सन्तुष्ट हुआ, बर माँग, जो तू बर मांगेगा सो मै दूँगा।

ते कर बाजे भले बजाए। सुनत श्रवन मेरे मन भाए॥

इतनी बात के सुनतेही महाराजा, धानासुर हाथ जोड़ सिर [ २८५ ] नाय अति दीनता कर बोला कि कृपानाथ, जो आपने मेरे पर कृपा की तो पहले अमर कर सब पृथ्वी का राज दीजे, पीछे मुझे ऐसा बली कीजे कि कोई सुझसे न जीते। महादेवजी बोले कि मैने तुझे यही बर दिया औ सब भय से निर्भय किया। त्रिभुवन मे तेरे बल को कोई न पायगा औ विधाता का भी कुछ तुझ पर बस न चलेगा।

बाजौ भले बजाय कै, दियौ परम सुख मोहि।
मै अति हिय आनंद कर, दिये सहस भुज तोहि॥
अब तू घर जाय निचिताई से बैठ अविचल राज करे।

महाराज, इतना बचन भोलानाथ के मुख से सुन, सहस्र भुज पाय, बानासुर अति प्रसन्न हो परिक्रमा दे, सिर नाय, विदा होय आज्ञा ले श्रोनितपुर में आया। आगे त्रिलोकी को जीत, सब देवताओ को बस कर, नगर के चारो ओर जल की चुआन चौड़ी खाई औ अग्नि पवन का कोट बनाय निर्भय हो सुख से राज करने लगा। कितने एक दिन पीछे-

लरवे बिन भइ भुज सबल, फरकहिं अति सहिराँय।
कहत बान कासो लरें, कापर अब चढ़ि जाँय॥
भाई खाज लरवे बिन भारी। को पुजवै हिय हबस हमारी॥

इतना कह बानासुर घर से बाहर जाय, लगा पहाड़ उठाय उठाय, तोड़ तोड़ चूर करने औ देस देस फिरने। जब सब पर्वत फोड़ चुका भी उसके हाथों की सुरसुराहट खुजलाहट न गई, तब-

कहत बान अब कासो लरौं। इतनी भुजा कहा लै करौ॥
सबल भार मैं कैसे सहौ। बहुरि जाय के हर सो कहौं॥

महाराज, ऐसे मन ही मन सोच विचार कर बानासुर महा[ २८६ ] देवजी के सनमुख जा, हाथ जोड़, सिर नाय, बोला कि हे त्रिशूलपानि त्रिलोकीनाथ, तुमने कृपा कर जो सहस्र भुजा दी, सो मेरे शरीर पर भारी भई। उनका बल अब मुझसे सँभाला नही जाता। इसका कुछ उपाय कीजे, कोई महाबली युद्ध करने को मुझे बताये दीजे। मै त्रिभुवन में ऐसा पराक्रमी किसूको नही देखता जो मेरे सनमुख हो युद्ध करे। हाँ दयाकर जैसे आपने मुझे महाबली किया, तैसेही अब कृपा कर मुझ से लड़ मेरे मन का अभिलाष पूरा कीजे तो कीजे, नहीं तो और किसी अति बली को बता दीजे, जिससे मैं जाकर युद्ध करूँ और अपने मन का शोक हरूँ।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बानासुर से इस भाँति की बाते सुन श्रीमहादेवजी ने बलखाथ मन ही मन इतना कहा कि मैंने तो इसे साध जानके बर दिया, अब यह मुझसे लड़ने फो उपस्थित हुआ। इस मूरख को बल का गर्व भया, यह जीती न बचेगा। जिसने अहंकार किया स जगत में आय बहुत न जिया। ऐसे मन ही मन महादेवजी कह बोले कि बानासुर, तू मत घबराय, तुझसे युद्ध करनेवाला थोड़े दिन के बीच, यदुकुल में श्रीकृष्णावतार होगा, उस दिन त्रिभुवन में तेरा सम्हिना करनेवाला कोई नहीं। यह बचन सुन बानासुर अति प्रसन्न हो बोला-नाथ, वह पुरुष कब अवतार लेगा और मैं कैसे जानूँगा कि अब वह उपज। राजा, शिवजी ने एक ध्वजा बानासुर को देके कहा कि इस बैरख को ले जाय, अपने मंदिर के ऊपर खड़ी कर दे, जब यह ध्वजा आप से आप टूटकर गिरे तब तू जानियो कि मेरा रिपु जन्मा। [ २८७ ]महाराज, जद शंकर ने उसे ऐसे कहा समझाय, तद बानासुर ध्वजा ले निज घर को चला सिर नाय। आगे घर जाय ध्वजा मन्दिर पर चढ़ाय, दिन दिन यही मनाता था कि कव वह पुरुष प्रगटे औ मै उससे युद्ध करूँ। इसमे कितने एक बरप बीते उसकी बड़ी रानी जिसका नाम बानावती, तिसे गर्म रहा औ पूरो दिनो एक लड़की हुई। उस काल बानासुर ने जोतिषियों को बुलाय बैठायके कहा कि इस लड़की का नाम श्री गुन गान कर कहो। इतनी बात के कहते ही जोतिषियो ने झट बरप, मास, पक्ष, तिथ बार, घड़ी, महूरत, नक्षत्र टहराय, लग्न विचार उस लड़की का नाम ऊषा धरके कहा कि महाराज, यह कन्या रूप, गुन, शील की खान महाजान होगी, इसके प्रह, औ लक्षन ऐसे ही आन पड़े है।

इतना सुन बानासुर ने अति प्रसन्न हो पहले बहुत कुछ जोतिषियो को दे बिदा किया, पोछे मंगलामुखियो को बुलाय मंगलाचार करवाया। पुनि जो जो वह कन्या बढ़ने लगी, तो तो बानासुर उसे अति प्यार करने लगा। जब ऊपा सात बरष की भई तब उसके पिता ने श्रोनितपुर के निकटही कैलास था तहाँ के एक सखी सहेलियो के साथ उसे शिव पार्वती के पास पढ़ने को भेज दिया। ऊषा गनेश सरस्वती को मनाय, शिव पार्वती के सनमुख जाय, हाय जोड़ा सिर नाय, बिनती कर बोली कि हे कृपासिन्धु शिव गवरी, दया कर मुझ दासी को विद्यादान दीजे औ जगत मे जस लीजे। महाराज, ऊषा के अति दीन बचन सुन शिव पार्वतीजी ने उसे प्रसन्न हो विद्या का प्रारम्भ करवाया। वह नित प्रति जाय जाय पढ़ पढ़ आवे। इसमे कितने एक दिन [ २८८ ] के बीच सब शास्त्र पढ़ गुन बिद्यातती*[१] हुई औ सब यन्त्र बजाने लगी। एक दिन ऊषा पार्वतीजी के साथ मिलकर बीन बजाय संगीत की रीति से गाय रही थी कि उस काल शिवजी ने आय पार्वती से कहा-हे प्रिये, मैने जो कामदेव को जलाया था, तिसे अब श्रीकृष्णचन्दजी ने उपजाया। इतना कह श्रीमहादेवजी गिरजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय न्हिलाय सुख की इच्छा कर अति लाड़ प्यार से लगे पार्वतीजी को वस्त्र आभूषन पहराने औ हित करने। निदान अति आनंद में मगन हो डमरू बजाय बजाय, तांडव नाच नाच नाच, संगीत शास्त्र की रीति से गाय नाय शिवा को लगे रिझाने और बड़े प्यार से कंठ लगाने । उस समय ऊषा शिव गवरी का सुख प्यार देख देख, पति के मिलने की अभिलाषा कर मन ही मन कहने लगी कि मेरा भी कंत होय तो मैं भी शिव पार्वती की भाँति उसके साथ विहार करूँ। पति बिन कामिनी ऐसे शोभाहीन है, जैसे चन्द्र बिन जामिनी।

महाराज, जो ऊषा ने मनही मन इतनी बात कही तो अंतरजामिनी†[२] श्रीपार्वतीजी ने ऊषा की अंतरगति जान, उसे अति हित से निकट बुलाय प्यार कर समझायके कहा कि बेटी, तू किसी बात की चिन्ता मन मे मत कर तेरा पति तुझे सपने में आय मिलेगा, तू विसे ढुँढ़वाय लीजो औ उसीके साथ सुख भोग कीजो। ऐसे वर दे शिवरानी ने ऊषा को बिदा किया। वह सब विद्या पढ़, बर पाय, दंडवत कर अपने पिता के पास आई।


[ २८९ ]

पिता ने एक मन्दिर अति सुंदर निराला उसे रहने को दिया औ यह कितनी एक सखी सहेलियो को ले यहाँ रहने लगी औ दिन दिन बढ़ने। महाराज, जिस काल वह बाल बारह बरष की हुई तो उसके मुखचंद की जोति को देखि, पूर्नवासी का चद्रमा छबिछीन हुआ। बालो की स्यामता के आगे मावस की अँधेरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी की सटकाई लख नागनि अपनी कैंचली छोड़ सटक गई। भौह की बंकाई निरख धनुष धकधकाने लगा। आँखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे। नाक की सुन्दरताई को देख्न तिल फूल मुरझाय गया। उसके अधर की लाली लख बिंबाफल बिलबिलाने लगा। दाँत की पाँति निरख दाडिम का हिया दड़क गया। कपोलो की कोमलताई पेख गुलाब फलने से रहा। गले की गुलाई देख कपोत कलमलाने लगे। कुचो की कोर निरख कँवलकली सरोवर मे जाय गिरी। जिसकी कट की कृसता देख केहरी ने बनवास लिया। जाँघो की चिकनाई पेख केले ने कपूर खाया। देह की गुराई निरख सोने को सकुच भई औ चंपा चप गया। कर पद के आगे पदम की पदवी कुछ न रही। ऐसी बह गजगवनी पिकबयनी नवबाला जोबन की सरसाई से शोभायनान भई कि जिसने इन सबकी शोभा छीन ली।

आगे एक दिन वह नवजौबना सुगंध उबटन लगाय, निर्मल नीर से मल मल न्हाय, कंघी चोटी कर, पाटी सँवार, माँग मोतियो से भर, अजन मंजन कर, मिहदी महावर रचाय, पान खाय, अच्छे जड़ाऊ सोने के गहने मँगाय, सीसफूल, बैवा, बैदी, [ २९० ] बंदी, ढेड़ी, करनफूल, चौदानियाँ, छड़े, गजमोतियो की नथ भलके जटकन समेत, जुगनी मोतियो के दुलड़े में गुही, चंद्रहार, मोहनमाल पॅचलड़ी, सतलड़ी धुकधुकी, भुजबंद, नौरतन, चूड़ी, नौगरी, कंकन, कड़े मुंदरी, छाप, छल्ले, किकनी, जेहर, तेहर, गूँजरी, अनवट, बिछुए पहन। सुथरा झमझमाता सञ्च मोतियो की कोर का बड़े घेर का घाघरा औ चमचमाती ऑचल पल्लू की सारी पहर, जगमगाती कंचुकी कस, ऊपर से भलमलाती ओढ़नी ओढ़, तिसपर सुगंध लगाय इस सज धज से हँसती हँसती सखियों के साथ सात पिता को प्रनाम करने गई कि जैसे लक्ष्मी। जो सनमुख जय दंडवत कर ऊषा खड़ी भई तो बानासुर ने इसके जोबन की छटा देख, निज मन मे इतना कह, इसे बिदा किया कि अब यह ब्यान जोग हुई और पीछे से कै एक राक्षस उसके मंदिर की रखवाली को भेजे औ कितनी एक राक्षसी विसकी चौकसी को पठाई। वे वहॉ जाय आठ पहर सावधानी से रहने लगे और राक्षसनियॉ सेवा करने लगी।

महाराज, वह राजकन्या पति के लिए नित प्रति तप, दान, ब्रत कर श्रीपार्वतीजी की पूजा किया करै। एक दिन नित्य कर्म से निचित हो रात्र समै सेज पर अकेली बैठी मन मन यो सोच रही थी कि देखिये पिता मेरा विवाह कब करे औ किस भॉति मेरा बर मुझे मिले। इतना कह पतिही के ध्यान में सो गई तो सपने मे देखती क्या है कि एक पुरुष किशोर बैस, श्यामबरन, चंदमुख, कॅवलनैन, अति सुंदर, कामस्वरूप, पीतांबर पहरे, मोर मुकुट सिर धरे, त्रिभंगी छबि करे, रतनजटित आभूषन, मकराकृत कुंडल, बनमाल, गुंजहार पहने औ पीत बसन ओढ़े, महाचंचल सनमुख [ २९१ ] आय खड़ा हुआ। यह उसे देखते ही मोहित होय लजाय सिर झुकाय रही। तब उसने कुछ प्रेमसनी बाते कह, स्नेह बढ़ाय, निकट आय, हाथ पकड़, कठ लगाय इसके मन का भ्रम औ सोच सकोच सब बिसराय दिया। फिर तो परस्पर सोच संकोच तज, सेज पर बैठ, हाव भाव कटाक्ष औ आलिगन चुंबन कर सुख देने लेने लगे औं आनंद मे मगन हो प्रीति की बाते करने की इसमे कितनी एक बेर पीछे उषा ने ज्यो प्यार करना चाहा कि पति को अँकवार भर कंठ लगाऊँ, तो नयनों से नीद गई औ जिस भाँति हाथ बढ़ाय मिलने को भई थी तिसी भाँति मुरझाय पछताय रह गई।

जाग परी सोचति खरी, भयो परम दुख ताहि।
कहाँ गयो वह प्रानपति, देखत्त चहुँ दिसि चाहि॥
सोवत ऊषा मिलिहौ काहि। फिर कैसे मै देखौ ताहि॥
सोबत जो रहती हौ आज। प्रीतम कबहुँ न जातौ भाज॥
क्यौ सुख मे गहिबे कौ भई। जो यह नींद नयन तें गई॥
जागतही जामिनि जम भई। जैहै क्योकर अब यह दई॥
बिन प्रीतम जिय निपट अचैन। देखे बिन तरसत हैं नैन॥
श्रवन सुन्यौ चाहत है बैन। कहाँ गये प्रीतम सुखदैन॥
जो सपने पिय पुनि लखि लेऊँ। प्रान साधकर उनके देऊँ॥

महाराज, इतना कह ऊषा इति उदास हो पिय का ध्यान कर सेज पर जाय मुख लतेट पड़ रही। जब रात जाय भोर हुआ औ डेढ़ पहर दिन चढ़ा, तब सखी सहेली मिल आपस मे कहने लगी कि आज क्या है जो ऊषा इतना दिन चढ़ा औ अब तक सोती नहीं उठी। यह बात सुन चित्ररेखा बानासुर के प्रधान कूपभाँड [ २९२ ] की बेटी चित्रशाला में जाय क्या देखती है कि ऊषा छपरखट के बीच मन मारे जी हारे निढा पड़ी रो रो लंबी साँसें ले रही है। उसकी यह दशा देख-

चित्ररेष बोली अकुलाय। कह सखि तू मोसो सममाय॥
आज कहा सोचति है खरी। परम बियोग समुद्र मे परी॥
रो रो अधिक उसासें लेत। तन मन ब्याकुल है किहि हेत॥
तेरे मन को दुख परिहरौ। मन चीत्यौ कारज सब करौ॥
मोसी सखी और ना धनी। है परतीति मोहि आपनी॥
सकल लोक में हौ फिर आऊँ। जहाँ जाउँ कारज कर ल्याऊँ॥
मोकौ बर ब्रह्मा ने दीनौ। बस मेरे सबही कौं कीनौ॥
मेरे संग सारदा रहै। वाके बल करिही जो कहै॥
ऐसी महामोहिनी जानौ। ब्रह्मा रुद्र इन्द्र छलि आनौ॥
मेरौ कोऊ भेद न जाने। अपनी गुन को आप बखाने॥
ऐसे और न कहिहै कोऊ। भलौ बुरौ कोऊ किन होऊ॥
अब तू कह सब अपनी बात। कैसे कटी आज की रात॥
मोसों कपट करै जिन प्यारी। पुजवोगी सब आस तिहारी॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही ऊषा अति सकुचाय सिर नाय चित्ररेखा के निकट आय मधुर बचन से बोली कि सखी, मै तुझे अपना हितू जान रात की बात सब कह सुनाती हूँ, तू निज मन में रख और कुछ उपाय कर सके तो कर। आज रात को सपने में एक पुरुष मेघबरन, चंद्रबदन, कँवलनयन, पीतांबर पहने पीतपट ओढ़े मेरे पास आय बैठा औ उसने अति हित कर मेरा मन हाथ में ले लिया। मै भी सोच संकोच तज उससे बाते करने लगी। निदान बतराते बतराते जो मुझे प्यार आया तो [ २९३ ]मैने उसे पकड़ने को हाथ बढ़ाया। इस बीच मेरी नीद गई औ उसकी मोहिनी मूरत मेरे ध्यान में रही।

देख्यो सुन्यो और नहिं ऐसो। मै कह कहाँ बताऊँ जैसा॥
वाकी छबि बरनी नहि जाय। मेरो चित लै गयो चुराय॥

जय मै कैलास में श्रीमहादेवजी के पास विद्या पढ़ती थी। तब श्रीपार्वतीजी ने मुझे कहा था कि तेरा पति तुझे स्वप्न में आय मिलैगा, तू उसे ढूँँढवा लीजो। सो बर आज रात मुझे सपने में मिला, मै उसे कहॉ पाऊँ औ अपने बिरह की पीर किसे सुनाऊँ, कहॉ जाऊँ, उसे किस भॉति ढुँढ़वाऊँ, न विसका नाम जानूँँ न गॉम? महाराज, इतना कह जब ऊषा लंबी सॉस ले मुरझाय रह गई तद चित्ररेखा बोली कि सखी, अब तू किसी बात की चिन्ता मत करै, मैं तेरे कंत को तुझे जहॉ होगा तहॉ से ढूँँढ़ ला मिलाऊँगी। मुझे तीनो लोक में जाने की सामर्थ है, जहॉ होगा तहॉ जाय जैसे बनेगा तैसेही ले आऊँगी, तू मुझे उसका नाम बता औ जाने की आज्ञा दे।

ऊषा बोली―बीर, तेरी वही कहावत है कि मरी क्यौ? कि सांस न आई। जो मै उसको नॉव गॉव ही जानती सो दुख काहे का था, कुछ न कुछ उपाय करती। यह बात सुन चित्ररेखा बोली―सखी, तू इस बात का भी सोच न कर, मैं तुझे त्रिलोकी के पुरुष लिख दिखाती हूँ, विनमे से अपने चितचोर को देख बता दीजो, फिर ला मिलाना मेरा काम है। तब तो हँसकर ऊषा बोली―बहुत अच्छा। महाराज, यह बचन ऊषा के मुख से निकलते ही चित्ररेखा लिखने का सब सामान मँगाय आसन मार बैठी औ गनेश सारदा को मनाय गुरु का ध्यान कर लिखने [ २९४ ] लगी। पहले तो उसने तीन लोक चौदह भुवन, सात द्वीप, नौखंड पृथ्वी, आकाश, सातो समुद्र, आठो लोक बैकुण्ठ सहित लिख दिखाए। पीछे सब देव, दानव, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, ऋषि, मुनि, लोकपाल, दिगपाल औ सब देसो के भूपाल लिख लिख एक एक कर चित्ररेखा ने दिखाया, पर ऊपा ने अपना चाहीता उनमें न पाया। फिर चित्ररेखा जदुबंसियो की मूरत एक एक लिख लिख दिखाने लगी। इसमें अनरुद्ध का चित्र देखतेही ऊषा बोली―

अब मनचोर सखी मै पायौ। रात यही मेरे ढिग आयौ॥
कर अब सखी तू कछु उपाय। थाको ढृँढ़ कहूँ ते ल्याय॥
सुनकै चित्ररेख यो कहै। अब यह मोते किम बच रहे॥

यौ सुनाय चित्ररेखा पुन बोली कि सखी, तू इसे नहीं जानती मैं पहचानू हूँ, यह यदुबंसी श्रीकृष्णचंदजी का पोता, प्रद्युम्नजी का बेटा और अनरुद्ध इसका नाम है। समुद्र के तीर नीर में द्वारका नाक एक पुरी है तहॉ यह रहता है। हरि आज्ञा से उस पुरी की चौकी आठ पहर सुदरसन चक्र देता है इसलिए की कोई दैत्य, दानव, दुष्ट आय जदुबंसियों को न सतावै और जो कोई पुरी में आवे सो बिन राजा उग्रसेन सूरसेन का आज्ञा न आने पावे। महाराज, इस बात के सुनतेही ऊषा अति उदास हो. बोली कि सखी जो वहाँ ऐसी बिकट ठाँव है तो तू किस भॉति तहाँ जाय मेरे कंत को लावेगी। चित्ररेखा ने कहा ― आली तू इस बात से निचित रह मैं हरि प्रताप से तेरे प्रानपति को ला मिलाती हूँ।

इतना कह चित्ररेखा रामनामी कपड़े पहन, गोपीचंदन का ऊर्द्धपुड तिलक काढ़, छापे उर भुजमूल औ कंठ में लगाय, बहुतसी [ २९५ ] तुलसी की माला गले मे डाल, हाथ मे बड़े बड़े तुलसी के हीरों की सुमिरन ले, ऊपर से हीरावल ओढ़, कॉख में आसन लपेटी भगवतगीता की पोथी दुबाय, परम भक्त बैष्णव का भेष बनाय, ऊपा को यो सुनाय, सिर नाय विदा हो द्वारका को चली।

पैड़े अब आकाश के, अँँतरिक्ष है जाउँ।
ल्याऊँ तेरे कंत कौ, चित्ररेख तो नाऊँ॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, चित्ररेखा अपनी माया कर, पवन के तुरंग पर चढ़ अँधेरी रात में श्याम घटा के साथ बात की बात में द्वारका पुरी में जा बिजली सी चमकी औ श्रीकृष्णचंद के मंदिर में घड़ गई, ऐसे कि इसका जाना किसी ने न जाना। आगे वह ढूँढ़ती ढूँढ़ती वहॉ गई, जहॉ पलंग पर सोए अनरूद्धजी अकेले स्वप्न में ऊषा के साथ बिहार कर रहे थे, इसने देखतेही झट उस सोते का पलंग उठाय चट अपनी बाट ली।

सोवत ही परजंक समेत। लिये जात ऊषा के हेत॥
अनरुद्ध कौ लै आई तहाँ। ऊषा चिंतित बैठी जहाँ॥

महाराज, पलंग समेत अनरुद्ध को देखतेही अषा पहले तो हकवकाय चित्ररेखा के पॉवों पर जाय गिरी, पीछे यो कहने लगी-धन्य है धन्य है सखी, तेरे साहस औ पराक्रम को जो ऐसी कठिन ठौर जाये बात की बात में पलंग समेत उठा लाई औ अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। मेरे लिये तैने इतना कष्ट किया, इसका पलटा मैं तुझे नहीं दे सकती, तेरे गुन की ऋनियॉ रही।

चित्ररेखा बोली―सखी, संसार में बड़ा सुख यही है जो पर को सुख दीजे औ कारज भी भला यही है कि उपकार कीजै।

२२ [ २९६ ]

यह शरीर किसी काम का नहीं इससे किसीका काम हो सके तो यही बड़ा काम है, इसमें स्वास्थ परमारथ दोनों होते है। महाराज, इतना बचन सुनाय चित्ररेखा पुनि यो कह बिदा हो अपने घर गई, कि सखी भगवान के प्रताप से तेरा कंत मैने तुझे ला मिलाया, अब तू इसे जगाय अपना मनोरथ पूरा कर। चित्ररेखा के जाते ही ऊषा अति प्रसन्न लाज किये, प्रथम मिलन का भय लिये, मनही मन कहने लगी―

कहा बात कहि पियहि जगाऊँँ। कैसे भुजभर कंठ लगाऊँ॥

निदान बीन मिलाय मधुर मधुर सुरो से बजाने लगी। बीन की धुनि सुनते ही अनरुद्धजी जाग पड़े और चारो ओर देख देख मन मन यो कहने लगे—यह कौन ठौर, किसका मंदिर, मैं यहॉ कैसे आया और कौन मुझे सोते को पलंग समेत उठा लाया? महाराज, उस काल अनरुद्धजी तो अनेक अनेक प्रकार की बाते कह कह अचरज करते थे औ ऊषा सोच संकोच लिये प्रथम मिलन का भय किये, एक ओर खड़ी पिय का चंदमुख निरख निरख अपने लोचन चकोरो को सुख देती थी, इस बीच―

अनरुद्ध देखि कहै अकुलाय। कह सुंदरि तू अपने भाय॥
है तू को मोपै क्यो आई। कै तू मोहि आप लै आई॥
सॉच झूठ एकौ नहि जानौ। सपनौ सौ देखतु हौं मानौ॥

महाराज, अनरुद्धजी ने इतनी बाते कहीं औ ऊषा ने कुछ उन्तर न दिया बरन और भी लाज कर कोने में सट रही। सब तो उन्होने झट उसका हाथ पकड़ पलंग पर ला बिठाया औ प्रीतिसनी प्यार की बाते कह उसके मनको सोच, संकोच और [ २९७ ] भय सब मिटाया। आगे वे दोनो परस्पर सेज पर वैठे हाव भाव कटाक्ष कर सुख लेने देने लगे औ प्रेमकथा कहने। इस बीच बातो ही बातो अनरुद्ध जी ने ऊषा से पूछा कि हे सुंदरि, तूने प्रथम मुझे कैसे देखा और पीछे किस भॉति ह्याँ मँगाया इसका भेद समझा कर कह जो मेरे मन का भ्रम जाय। इतनी बात के सुनते ही ऊषा पति को मुख निरख हरख के बोली―

मोहि मिले तुम सपने आय। मेरौ चित लै गये चुराय।।
जागी मन भारी दुख लह्यौ। तब मैं चित्ररेष सौ कह्यौ।।
सोइ प्रभु तुमको ह्यॉ लाई। ताकी गति जानी नहि जाई।।

इतना कह पुनि ऊषा नें कहा―महाराज, मैं तो जिस भाँति तुम्हे देखा औ पाया तैसे सब कह सुनाया। अब आप कहिये अपनी बात समझाय, जैसे तुमने मुझे देखा यादव राय। यह बचन सुन अनरुद्ध अति आनंद कर मुसकरायके बोले कि सुंदरि, मै भी आज रात्र को सपने मे तुझे देख रहा था कि नींदही में कोई मुझे उठवाय यहॉ ले आया, इसका भेद अबतक मैंने नही पाया कि मुझे कौन लाया, जागा तो मैने तुझे ही देखा।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, ऐसे वे दोनो पिय प्यारी आपस मे बतराय, पुनि प्रीति बढ़ाय अनेक अनेक प्रकार से काम कलोल करने लगे औ बिरह की पीर हरने। आगे पान की सिठाई, मोती माल की सीतलताई औ दीप जोति की मंदताई निरख जो ऊषा बाहर जाय देखे तो ऊषाकाल हुआ। चंद की जोति घटी, तारे दुतिहीन भये, आकाश में अरुनाई छाई, चारो ओर चिड़ियॉ चुहचुहाई, सरोवर मे कुमुदनी कुमलाई औ कँवल फूले। चकवा चकई को संयोग हुआ। [ २९८ ]महाराज, ऐसा समय देख एक बार तो सब बार मूँद ऊषा बहुत घबराय, घर में आय, अति प्यार कर, पिय को कंठ लगाय टी। पीछे पिय को दुराय, सखी सहेलियो से छिपाय, छिप छिप केंत की सेवा करने लगी। निदान अनरुद्ध का आना सखी सहेलियों ने जाना फिर तो यह दिन रात पति के संग सुख भोग किया करे। एक दिन ऊषा की मॉ बेटी की सुध लेने आई तो उसने छिपकर देखा कि वह एक महा सुंदर तरुन पुरुष के साथ कोठे में बैठी आनंद से चौपड़ खेल रही है। यह देखते ही बिन बोले चाले दबे पाओ फिर मनही मन प्रसन्न हो असीस देती सूंट गरे वह अपने घर चली गई।

आगे कितने एक दिन पीछे अषा पति को सोता देख, जी में यह बिचार कर सकुचती सकुचती घर से बाहर निकली, कि कहो एसा न हो जो कोई मुझे देख अपने मन मे जाने कि ऊषा पति के लिये घर से नहीं निकलती। महाराज, ऊषा कंत को अकेला छोड़ जाते तो गई पर उससे रहा न गया, फिर घर मे जाय केवाड़ लगाय बिहार करने लगी। यह चरित्र देख पौरियो ने प्रापस में कहा कि भाई, आज क्या है जो राजकन्या अनेक दिन पिछे घर से निकली औ फिर उलटे पॉओ चली गई। इतनी बात के सुनतेही उनमें से एक बोला कि भाई, मै कई दिन से देखता हूँ ऊषा के मन्दिर का द्वार दिनरात लगा रहता है और घर भीतर कोई पुरुष कभी हँस हँस बाते करता है और कभी चौपड़ खेलता है। दूसरे ने कहा—जो यह बात सच है तो चलो बानासुर से जाय रहैं, समझ बूझ यहाँ क्यों बैठ रहैं।

एक कहै यह कही न जाय। तुम सब बैठ रहौ अरगाय॥

[ २९९ ]

भली बुरी होवे सो होय। होनहार मेटै नहिं कोय॥
कछू न बात कुँवरि की कहियै। चुप है देख बैठ ही रहियै॥

महाराज, द्वारपाल आपस में ये बाते करतेही थे कि कई एक जोधा साथ लिये फिरता फिरता बानासुर वहॉ आ निकला और मंदिर के ऊपर दृष्ट कर शिवजी की दी हुई ध्वजा न देख बोला―यहॉ से ध्वजा क्या हुई? द्वारपालो ने उत्तर दिया कि महाराज, वह तो बहुत दिन हुए कि टूटकर गिर पड़ी। इस बात के सुनतेही शिवजी का बचन स्मरन कर भावित हो बानासुर बोला―

कब की ध्वजा पताका गिरी। बैरी कहूँ औतच्यो हरी॥

इतना बचन बानासुर के मुख से निकलते ही एक द्वारपाल सनमुख जा खड़ा हो हाथ जोड़ सिर नाय बोला कि महाराज, एक बात है, पर वह मैं कह नहीं सकता, जो आपकी आज्ञा पाऊँ तो जों की तो कह सुनाऊँ। बानासुर ने आज्ञों की―अच्छा कह। तब पौरिया बोला कि महाराज, अपराध क्षमा। कई दिन से हम देखते है कि राजकन्या के मंदिर में कोई पुरुष आया है, वह दिन रात बाते किया करता है. इसका भेद हम नहीं जानते कि वह कौन पुरुष है औ कब कहाँ से आया है और क्या करता है? इतनी बात के सुनते प्रमान बानासुर अति क्रोध कर शस्त्र उठाय, दुबे पाओ अकेला ऊषा के मंदिर में जाय छिपकर क्या देखता है। कि एक पुरुष स्यामवरन, अतिं सुंदर, पीतपट ओढे निद्रा में अचेत ऊषा के साथ सोया पड़ा है।

सोचत बानासुर यो हिये। होय पाप सोवत वध किये॥

महाराज, यो मनही मन विचार आनासुर ने तो कई एक रखवाले वहॉ रख, उनसे यह कहा कि तुम इसके जागतेही हमें [ ३०० ] जाय कहियो, अपने घर जाय सभा कर सब राक्षसों को बुलाय कहने लगा कि मेरा बैरी आन पहुँचा है तुम सब दल ले ऊषा का मंदिर जाय घेरो, पीछे से मै भी आता हूँ। आगे इधर तो बानासुर की आज्ञा पाय सब राक्षसो ने आय ऊषा का घर घेरा औ उधर अनरुद्धजी औ राजकन्या निद्रा से चौंक पुनि सारपासे खेलने लगे। इसमें चौपड़ खेलते खेलते ऊषा क्या देखती है। कि चहुँ ओर से घनघोर घटा घिर आई, बिजली चमकने लगी, दादुर मोर, पपीहे बोलने लगे। महाराज, पपीहे की बोली सुनते ही राजकन्या इतना कह पिय के कंठ लगी–

तुम पपिहा पिय पिय मत करौ। यह वियोग भाषा परिहरौ॥

इतने मे किसीने जाय बानासुर से कहा कि महाराज, तुम्हारा बैरी जागा। बैरी का नाम सुनतेही बानासुर अति कोप करके उठा औ अस्त्र शस्त्र ले ऊषा की पौली मे आये खड़ा हुआ और लगा छिपकर देखने। निदान देखते देखते―

बानासुर यो कहै हँकार। को है रे तू गेह मझार॥
धन तन बरन मदन मन हारी। कँवलनैन पीतांबरधारी॥
अरे चोर बाहर किन आवै। जान कहां अब मोसो पावै॥

महाराज, जब बानासुर ने टेरके यो कहे बैन, तब ऊषा औ अनरुद्ध सुन और देख भये निपट अचैन। पुनि राजकन्या ने अति चिंता कर भयमान हो लंबी सॉस ले कंत से कहा कि महाराज, मेरा पिता असुरदल ले चढ़ि आया, अब तुम इसके हाथ से कैसे बचोगे।

तबहि कोप अनरुद्ध कहै. मत डरपै तू नारि।
स्यार झुंड राक्षस असुर, पल में डारों भारि॥

[ ३०१ ]ऐसे कह अनरुद्धजी ने वेद मंत्र पढ़, एक सौ आठ हाथ की सिला बुलाय, हाथ में ले, बाहर निकल, दुल में जाय बानासुर को ललकारा। इनके निकलतेही बानासुर धनुष चढ़ाय सब कटक ले अनरुद्धजी पर यो टूटा कि जैसे मधुमाखियों का झुंड किसीपै टूटे। जद असुर अनेक अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने लगे पद क्रोध कर अनरुद्धजी ने सिला के हाथ कै एक ऐसे मारे कि सब असुरदल काई सो फट गया। कुछ मरे कुछ घायल हुए, बचे सो भाग गये। पुनि बानासुर जाय सबको घेर लाया औ युद्ध करने लगा। महाराज, जितने अस्त्र शस्त्र असुर चल्लाते थे तितने इघर उधर ही जाते थे औ अनरुद्धजी के अंग में एक भी ने लगता था।

जे अनरुद्ध पर परे हथ्यार। अधबर कटें सिला की धार॥
सिला प्रहार सह्यौ नहि परै। बज्र चोट मनौ सुरपति करै॥
लागत सीस बीच तें फटे। टूटहिं जांघ भुजा धर कटै॥

निदान लड़ते लड़ते जब बानासुर अकेला रह गया औ सब कटक कट गया, तब उसने मनही मन अचरज कर इतना कह नागपास से अनरुद्धजी को पकड़ बॉधा, कि इस अजीत को मैं कैसे जीतूँँगा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, जिस समय अनरुद्धजी को बानासुंंर नागपास से बॉध अपनी सभा में ले गया, उस काल अनरुद्धजी तो मन ही मन यों विचारते थे कि मुझे कष्ट होय तो होय पर ब्रह्मा का बचन झूठा करना उचित नहीं, क्यौकि जो मैं नागपास से बल कर निकलूँँगा तो उसकी अमर्याद होगी, इससे बँधे रहना ही भला है। [ ३०२ ] और बानासुर यह कह रहा था कि अरे लड़के, मैं तुझे अब मारता हूँ जो कोई तेरा सहायक हो तो तू बुला। बीच ऊषा ने पिय की यह दसा सुन चित्ररेखा से कहा कि सखी, धिक्कार है मेरा जीतब को जो पति मेरा दुख मैं रहै औ मैं सुख से खाऊँ पीऊँ और सोऊँ। चित्ररेखा बोली― सखी, तू कुछ चिता मत करै, तेरे पति का कोई कुछ कर न सकेगा, निचिन्त रह। अभी श्रीकृणचंद औ बलरामजी सब जदुबंसियों को साथ ले चढ़ि आवेगे और असुरदल को संहार तुझे समेत अनरुद्ध को छुड़ाय ले जायँगे। उनकी यही रीति है कि जिस राजा के सुदर कन्या सुनते हैं, तहॉ से बल छल कर जैसे बने तैसे ले जाते है। उन्हींका यह पोता है जो कुंडलपुर से राजा भीष्मक की बेटी रुक्मिनी को, महाबली बड़े प्रतापी राजा सिसुपाल औ जरासन्ध से सग्राम कर ले गये थे तैसेही अब तुझे ले जॉयगे तू किसी बात की भावना मत करे। ऊषा बोली―सखी, यह दुख मुझसे सहा नहीं जाता।

नागपास बांधे षिय हरी। दहै गात ज्वाला विष भरी॥
हौ कैसे पौढौ सुख सेना। पिय दुख क्यौकर देखो नैना॥
प्रीतम बिपत परे क्यो जीऔ। भोजन करौ न पानी पीऔ॥
बर बध अब बानासुर कीजो। मोकौ सरन कंत की दीजो॥
होनहार होनी है होय। तासो कहा कहैगो कोय॥
लोक वेद की लांज न मानौ। पिय संग दुख सुख ही में जानौ॥

महाराज, चित्ररेखा से ऐसे कह जब ऊषा कंत के निकट जाय निडर निसंक हो बैठी तब किसीने बानासुर को जा सुनाया कि महाराज, राजकन्या घर से निकल उस पुरुष के पास गई। [ ३०३ ] इतनी बात के सुनतेही बानासुर ने अपने पुत्र स्कध को बुलाय के कहा कि बेटा तुम अपनी बहन को सभा से उठाय, घर में ले जाय, पकड़ रक्खो औ निकलने न दो।

पिता की आज्ञा पातेही स्कध बहन के पास जा अति क्रोध कर बोला कि तैने यह क्या किया पापनी, जो छोड़ी लोक लाज औ कान अपनी। हे नीच, मै तुझे क्या बध करूँ, होगा पाप और अपजस से भी हूँ डरूँँ। ऊषा बोली कि भाई, जो तुम्हें भावै सो कहो औ करो। मुझे पार्वतीजी ने जो बर दिया था सो बर मैने पाया। अब इसे छोड़ और को धाऊँ, तो अपने को गांंली चढ़ाऊँ, तजती है पति को अकुलीना नारि, यही रीति परंपरा से चली आती है बीच संसार। जिससे बिधना ने सम्वन्ध किया उसीके संग जगत मे अपजस लिया तो लिया। महाराज, इतनी बात के सुनतेही स्कंध क्रोध कर हाथ पकड़ ऊषा को वहॉ से मंदिर मे उठा लाया औ फिर न जाने दिया।

पुनि अनरूद्धजी को भी वहॉ से उठाय कहीं अनत ले जाये बंध किया। उस काल इधर तो अनरुद्धजी तिय के वियोग मे महासोग करते थे औ उधर राजकन्या कंत के बिरह में अन्न पानी तज कठिन जोग करने लगी। इस बीच कितने एक दिन पीछे एक दिन नारद मुनिजी ने पहले तो अनरुद्धजी को जाय समझाया कि तुम किसी बात की चिन्ता मत करो अभी श्रीकृष्णचंद आनंदकंद औ बलराम सुखधाम राक्षसो से कर संग्राम तुम्हे छोड़ाय ले जायँगे।

पुनि बानासुर को जा सुनाया कि राजा जिसे तुमने नागपास से पकड़ बॉधा है, वह श्रीकृष्ण का पोता औ प्रद्युम्नजी का बेटा [ ३०४ ] है औ अनरुद्ध उसका नाम है। तुम जदुबंसियो को भली भाँति जानते हो, जो जानो सो करो, मै इस बात से तुम्हें सावधान करने आया था सो कर चला। यह बात सुन, इतना कह बानासुर ने नारदजी को बिदा किया, कि नारदजी मैं सब जानता हूँ।

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  1. * (क) मे 'विद्यावान' है।
  2. † (क) 'अंतरजामी' है।