प्रेमसागर/६४ ऊषाचरित्र

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[ ३०५ ]
चौसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब अनरुद्धजी को बँधे बँधे चार महीने हुए तव नारदजी द्वारका पुरी मे गये तो वहाँ क्या देखते हैं कि सब यादव महा उदास मनमलीन तनछीन हो रहे है औ श्रीकृष्णजी औ बलरामजी उनके बीच में बैठे अति चिन्ता कर कह रहे हैं कि बालक को उठाय यहाँ से कौन ले गया। इस भॉति की बातें हो रही थीं औ रनवास मे रोना पीटना हो रहा था, ऐसा कि कोई किसीकी बात न सुनता था। नारदजी के जातेही सब लोग क्या स्त्री या पुरुष सब उठ धाये औ अति व्याकुल तनछीन, मनमलीन, रोते बिलबिलाते सनमुख आन खड़े हुए। आगे अति विनती कर हाथ जोड़ सिर नाय हाहा खाय खाय नारदजी से सब पूछने लगे।

साँची बात कहौ ऋषिराय। जासो जिय राखे बहिराय॥
कैसे सुधि अनरुद्ध की लहैं। कहौ साधि ताके बल रहैं॥

इतनी बात के सुनतेही श्रीनारदजी बोले कि तुम किसी बात की चिन्ता मत करो औ अपने मन का शोक हरो। अनरुद्धजी जीते जागते सोनितपुर में हैं। वहाँ विन्होने जाय राजा बानासुर की कन्या से भोग किया, इसीलिये उसने उन्हें नागपास से पकड़ बॉधा है। बिन युद्ध किये वह किसी भँति अनरुद्धजी को न छोड़ेगा। यह भेद मैंने तुम्हें कह सुनाया आगे जो उपाय तुम से हो सके सो करो। महाराज, यह समाचार सुनाय नारद मुनिजी तो चले गये। पीछे सब जदुबंसियों ने जाय राजा उग्रसेन से [ ३०६ ] कहा कि महाराज, हमने ठीक समाचार पाये कि अनरुद्धजी सोनितपुर में बानासुर के ह्यॉ है। इन्होने उसकी कन्या रमी इससे उनने इन्हे नागपास से बॉध रक्खा है, अब हमें क्या आज्ञा होती है। इतनी बात के सुनतेही राजा उग्रसेन ने कहा कि तुम हमारी सब सेना ले जाओ और जैसे बने तैसे अनरुद्ध को छुड़ा लाओ। ऐसा बचन उग्रसेन के मुख से निकलतेही महाराज, सब यादव तो राजा उग्रसेन का कटक ले बलरामजी के साथ हुए और श्रीकृष्णचंद औ प्रद्युम्नजी गरुड़ पर चढ़ सबसे आगे सोनितपुर को गए।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेतजी बोले कि महाराज, जिस काले बलरामजी राजा उग्रसेन का सब दल ले द्वारकापुरी से धौंसा दे सोनितपुर को चले, उस समय की कुछ शोभा वरनी नहो जाती कि सब के आगे तो बड़े बड़े दंतीले मतवाले हाथियो की पांति, तिनपर धौसा बाजता जाता था औ ध्वजा पताका फहराती थी। तिनके पीछे एक और गजो की अवली अंबारियो समेत, जिनपर बड़े बड़े रावत, जोधा, सूर, वीर यादव झिलम टोप पहने सब शस्त्र अन्न लगाये बैठे जाते थे। उनके पीछे रथो के तातो के तांते दृष्ट आते थे।

विनकी पीठ पर घुड़चढ़ो के यूथ के यूथ बरन बरन के घोड़े गंडे पट्टेवाले, गजगह पाखर डाले, जमाते, ढहराते, नचाते, कुदाते, फँदाते चले जाते थे और उनके बीच बीच चारन जस गाते थे औ कड़खैत कड़खा। तिस पीछे फरीं, खांंड़े, छुरीं, कटारी, जमधर, धोपे, बरछीं, बरछे, भाले, बल्लम, बाने, पटे, धनुष बान, गदा चक्र, फरसे, गँड़ासे, लुहॉगी, गुप्ती, बाँक, बिछुए [ ३०७ ] समेत अनेक अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र लिये पैदलो का दल टीड़ी दूल सा चला जाता था। उनके मध्य मध्य धौसे, ढोल, डफ, बाँसुरी, भेर, नरसिगो का जो शब्द होता था सो अतिही सुहावन लगता था।

उड़ी रेनु आकाश लो छाई। छिप्यौ भानु भयौ निस के भाई॥
चकवी चकवा भयौ वियोग। सुन्दरि करें कंत सो भोग॥
फूले कुमुद कमल कुम्हलाने। निसघर फिरहिं निसा जियजाने॥

इतनी कया कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जिस समैं बलरामजी बारह अक्षौहिनी सेना ले अति धूम धाम से उसके गढ़ गढ़ी कोट तोड़ते औ देस उजाड़ते जा सोनितपुर मे पहुँचे और श्रीकृष्णचंद औ प्रद्युम्नजी भी आन मिले, तिसी समैं किसी ने अति भय खाय खबराय, जाये हाथ जोड़ सिरनाय बानासुर से कहा कि महाराज, कृष्ण बलराम अपनी सब सेना ले चढ़ आए औ उन्होने हमारे देस के गढ़, गढ़ी, कोट ढाय गिराए औ नगर को चारो ओर से आय घेरा, अब क्या आज्ञा होती है।

इतनी बात के सुनते ही बानासुर महा क्रोध कर अपने बड़े बड़े राक्षसों को बुलाय बोला―तुम सब दल अपना ले जाय, नगर के बाहर जाय कृष्ण बलराम के सनमुख खड़े हो पीछे से मै भी आता हूँ। महाराज, आज्ञा पाते ही वे असुर बात की बात में बारह अक्षौहनी सेना ले श्रीकृष्ण बलरामजी के सोही लड़ने को शस्त्र अस्त्र लिये आ खड़े रहे। उनके पीछे ही श्रीमहादेवजी का भजन सुमिरन ध्यान कर बानासुर भी आ उपस्थित हुआ।

शुकदेव मुनि बोले कि महाराज, ध्यान के करतेही शिवजी का आसन डोला औ ध्यान छूटा, तो उन्होने ध्यान धर जाना [ ३०८ ] कि मेरे भक्त पर भीड़ पड़ी है, इस समय चलकर उसकी चिन्ता मेटा चाहिये।

यह मनही मन बिचार जब पार्वतीजी को अर्द्धगधर, जटा जूट बॉध, भस्म चढ़ाय, बहुत सी भाँग और आक धतूरा खाय, स्वेत नागो का जनेऊ पहन, गजचर्म ओढ़, मुंडमाल, सर्पहार पहन, त्रिशूल, पिनाक, डमरू, खप्पर ले,. नांदिये पर चड़, भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, भूतनी प्रेतनी, पिशाचिनी आदि सेना ले भोलानाथ चले, उस समै की कुछ शोभा बरनी नहीं जाती कि कान मे गजमनि की मुद्रा, लिलाट पै चंद्रमा, सीस पर गंग धरै, लाल लाल लोचन करै, अति भयंकर भेष, महाकाल की मूरत बनाये इस रीति से बजाते गाते सेना को नचाते जाते थे कि वह रूप देखेही बनि आवे, कहने मे न आवे। निदान कितनी एक बेर मे शिवजी अपनी सेना लिए वहॉ पहुँँचे कि जहाँ सब असुरदल लिये बानासुर खड़ा था। हर को देखतेही बानासुर हरष के बोला कि कृपासिधु, आप बिन कौन इस समय मेरी सुध ले।

तेज तुम्हारौ इनकौ दुहै। यादवकुल अब कैसे रहै॥

यो सुनाय फिर कहने लगा कि महाराज, इस समैं धर्म युद्ध करो औ एक एक के सनमुख हो एक एक लड़ो। महाराज, इतनी बात जो बानासुर के मुख से निकली तो इधर असुरदल लड़ने को तुल कर खड़ा हुआ औ उधर जदुबंसी आ उपस्थित हुए। दोनों ओर जुझाऊ बाजने लगे, शूर बीर रावत जोधा धीर शस्त्र अस्त्र साजने और अधीर नपुंंसक कायर खेत छोड़ छोड़ जी ले ले भागने लगे। [ ३०९ ]उस काल महाकाल सरूप शिवजी श्रीकृष्णचंद के सनमुख हुए। बानासुर बलरामजी के सोंही हुआ, स्कंध प्रद्युम्नजी से आये भिड़ा और इसी भॉति एक एक से जुट गया औ दोनो ओर से शस्त्र चलने लगा। उधर धनुष पिनाक महादेवजी के हाथ, इधर सारंग धनुष लिये यदुनाथ। शिवजी ने ब्रह्मबान चलाया, श्रीकृष्णजी ने ब्रह्म शस्त्र से काट गिराया। फिर रुद्र ने चलाई महाबयार, सो हरि ने तेज से दीनी टार। पुनि महादेव ने अग्नि उपजाई, वह मुरारि ने मेह बरसा बुझाई और एक महा ज्वाला उपजाई, सो सदाशिवजी के दल में धाई। उसने दाढ़ी मूछ औ जलायके केस, कीने सब असुर भयानक भेस।

जब असुरदल जलने लगा औ बड़ा त्राहकार हुआ, तब भोलानाथ ने जले अधजले राक्षसो औ भूत प्रेत को तो जल बरसाय ठंढा किया और आप अति क्रोध कर नारायनी बान चलाने को लिया। पुनि मनही मन कुछ सोच समझ न चलाय रख दिया। फिर तो श्रीकृष्णजी आलस्य वान चलाय सबको अचेत कर लगे असुरदल काटने, ऐसे कि जैसे किसान खेती काटे। यह चरित्र देख जो महादेवजी ने अपने मन में सोचकर कहा कि अब प्रलय युद्ध किये बिन नही बनता, तोही स्कंध मोर पर चढ़ धाया और अंतरीक्ष हो उसने श्रीकृष्णजी की सेना पर बान चलाया।

तब हरि सो प्रद्युम्न उच्चरै। मोर चढ्यौ ऊपर ते लरै॥
आज्ञा देहु युद्ध अति करै। मारौ अबहि भूमि गिर परे॥

इतनी बात के कहते ही प्रभु ने आज्ञा दी औ प्रद्युम्नजी ने एक बान मारा सो मोर को लगा, स्कंध नीचे गिरा। स्कंध के [ ३१० ] गिरते ही बानासुर अति कोय कर पॉच * धनुष चढ़ाय, एक एक धनुष पर दो दो बान धर लगा मेह सा बरसाने औ श्रीकृष्णचंद बीच ही लगे काटने। महाराज, उस काल इधर उधर के मारू ढोल डफ से बाजते थे, कड़खैत धमाल सी गाते थे, घावो से लोहू की धार पिचकारियाँ सी चल रही थीं, जिधर तिधर जहॉ तहॉ लाल लाल लोहू गुलाल सा दृष्ट आता था। बीच बीच भूत प्रेत पिशाच जो भाँति भाँति के भेष भयावने बनाए फिरते थे, सो भगत सी खेल रहे थे औ रक्त की नदी रंग की सी नदी बह निकली थी, लड़ाई क्या दोनो ओर से होली सी हो रही थी। इसमें लड़ते लड़ते कितनी एक बेर पीछे श्रीकृष्णाजी ने एक बान ऐसा मारा कि उसके रथका सारथ उड़ गया औ घोड़े भड़के। निदान रथवान के मरतेही बानासुर भी रनभूमि छोड़ भागा। श्रीकृष्णजी ने उसका पीछा किया।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बानासुर के भागने का समाचार पाय उसकी मॉ जिसका नाम कटरा, † सो उसी समै भयानक भेष, छुटकेस, नंग मुनंगी आ श्रीकृष्णचंद के सनसुख खड़ी हुई औ लगी पुकार करने।

देखत ही प्रभु मूँँदे नैन। पीठ दुई ताके सुन बैन॥
तौलौ बानासुर भज गयो। फिर अपनौ दल जोरत भयो॥

महाराज, जब तक बानासुर एक अक्षौहिनी दल साज वहाँ आया, तब तक कटरा श्रीकृष्णजी के आगे से न हटी। पुत्र की


* (क) (ख) दोनो में पॉच है पर पॉच सौ चाहिए क्योंकि उसे एक सहस्र हाथ थे।

† (ख) में कोटवी लिखा है। शुद्ध नाम कोटरा था। [ ३११ ] सेना देख अपने घर गई। आगे बानासुर ने आय बड़ा युद्ध किया पर प्रभु के सनमुख ने ठहरा, फिर भारी महादेवजी के पास गया। बानासुर को भयातुर देख शिवजी ने अति क्रोध कर, महा विषमज्वर को बुलाय श्रीकृष्णजी की सेना पर चलाया। विस महावली ने, बड़ा तेजस्वी जिसका तेज सूरज के समान, तीन मूँँड़, नौ पग, छह केरवाला, त्रिलोचन, भयानक भेष श्रीकृष्णचंद के दल को आय साला। उसके तेज से जदुबंसी लगे जलने औ थर थर कॉपने। निदान अति दुख पाये घबराय यदुबंसियों ने आय श्रीकृष्णजी से कहा कि महाराज, शिवजी के ज्वर ने ऑय सारे कटक को जलाय मारा, इसके हाथ से बचाइये नही तो एक भी जदुबंसी जीता न बचेगा। महाराज, इतनी बात सुन औ सबको कातर देख हरि ने सीतज्वर चलाया, वह महादेव के ज्वर पर धाया। इसे देखतेही वह डरकर पलाया औ चला चला सदाशिवजी के पास आया।

तब ज्वर महादेव सो कहै। राखहु सरन कृष्णज्वर दहै॥

यह बचन सुन महादेवजी बोले किं श्रीकृष्णचंदजी के ज्वर को बिन श्रीकृष्णचंद ऐसा त्रिभुवन में कोई नहीं जो हरे। इससे उत्तम यही है कि तू भक्तहितकारी श्रीमुरारी के पास जा। शिव वाक्य सुन सोच विचार विषमज्वर श्रीकृष्णचंद आनंदकंदजी के सनमुख जी हाथ जोड़ अति बिनती कर गिड़गिड़ाय हा हा खाय बोला―हे कृपासिंधु-दीनबंधु-पतितपावन-दीनदयाल मेरा अपराध क्षमा कीजै औ अपने ज्वर से बचाय लीजै।

प्रभु तुम हौ ब्रह्मादिक ईस। तुम्हरी शक्ति अगम जगदीस॥
तुमही रचकर सृष्टि सँवारी। सबै माया जग कृष्ण तुम्हारी॥

[ ३१२ ]

कृपा तुम्हारी यह मै बुझ्यौ। ज्ञान भये जगकरता सुझ्यौ।

इतनी बात के सुनतेही हरि दयाल बोले कि तू मेरी सरन आया इससे बचा, नहीं तो जीता न बचता। मैने तेरा अब का अपराध क्षमा किया फिर मेरे भक्त औ दासों को मत ब्यापियो, तुझे मेरी ही आन है। ज्वर बोला―कृपासिधु, जो इस कथा को सुनेगा उसे सीतज्वर, एकतरा, औ तिजारी कभी न व्यापैगी। पुनि श्रीकृष्णचंद बोले कि तू अब महादेव के निकट जा, यहॉ मत रह, नही तो तेरा ज्वर तुझे दुख देगा। आज्ञा पाते ही बिदा हो दंडवत कर विषमज्वर महादेवजी के पास गया औ ज्वर का बहधा सब मिट गया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज

यह संबाद सुने जो कोय। ज्वर की उर ताकौ नहिं होय॥

आगे बानासुर अति कोप कर सब हाथो में धनुष बान ले प्रभु के सनमुख आ ललकार कर बोला―

तुमते युद्ध कियो मै भारी। तौहू साद न पुजी हमारी॥

जब यह कह लगा सब हाथो से बान चलाने, तब श्रीकृष्णचंदजी ने सुदरसन चक्र को छोड़, उसके चार हाथ रख सब हाथ काट डाले, ऐसे कि जैसे कोई बात के कहते वृक्ष के गुहे छॉट डाले। हाथ के कटतेही बानासुर सिथिल हो गिरा, घावो से लहू की नदी बह निकली, तिसमें भुजाएँ मगरमच्छ सी जनाती थीं। कटे हुए हाथियो के मस्तक घड़ियाल से डूबते तिरते*जाते थे। बीच बीच रथ बेड़े नवाड़े से बहे जाते थे और जिधर तिधर रनभूमि में स्वान स्यार गिद्ध आदि पशुपक्षी लोथें खैच खैंच आपस में लड़


* ( ख ) में यह शब्द नहीं है। [ ३१३ ] लड़ झगड़ फाड़ फाड़ खाते थे। पुनि कौवे सिरे से ऑखे निकाल निकाल ले ले उड़ उड़ जाते थे।

श्रीशुकदेवजी बोले―महाराज, रनभूमि की यह गति देख बानासुर अति उदास हो पछताने लगा। निदान निर्बल हो सदाशिवजी के निकट गया तब―

कहत रुद्र मन भाहि बिचार। अस हरि की कीजै मनुहार॥

इतना कह श्रीमहादेवजी बानासुर को साथ ले वेद पाठ करते वहॉ आए कि जहॉ रनभूमि में श्रीकृष्णचंद खड़े थे। बानासुर को पाओ पर डाल शिवजी हाथ जोड़ बोले कि हे सरनागतवत्सल; अब यह बानासुर आपकी सरन आया इसपर कृपा दृष्टि कीजे औ इसका अपराध मन मे न लीजे। तुम तो बार बार औतार लेते हो भूमि का भार उतारने को और दुष्ट हतन औ संसार के तारने को। तुम ही प्रभु अलख अभेद अनंत, भक्तो के हेत संसार में आय प्रकटते हो भगवंत। नहीं तो सदा रहते हो बिराट स्वरूप, तिसका है ग्रह रूप। स्वर्ग सिर, नाभि आकाश, पृथ्वी पॉव, समुद्र पेट, इन्द्र भुजा, पर्वत, नख, बादल केस, रोम वृक्ष, लोचन ससि * औ भानु, ब्रह्मा मन, रुद्र अहंकार, पवन स्वासा, पलक लगना रात दिन, गरजच शब्द।

ऐसे रूप सदा अनुसरौ। काहू पै नहि जाने परौ॥

और यह संसार दुख का समुद्र है इसमें चिन्ता औ मोहरूपी जल भरा है। प्रभु, बिन तुम्हारे नाम की नाव के सहारे कोई इस महा कठिन समुद्र के पार नही जा सकता और यों तो बहुतेरे डूबते उछलते हैं जो नरदेह पाकर तुम्हारा भजन सुमरन औ न


* (क) मे सूर औ भानु हैं। [ ३१४ ] करेगा जाप, सो नर भूलेगा धर्म औ बढ़ावेगा पाप। जिसने संसार में आय तुम्हारा नाम न लिया तिसने अमृत छोड़ विष पिया। जिसके हृदै मे तुम बसे जाय उसीको भक्तिमुक्ति मिली गुन गाय।

इतना कह पुनि श्रीमहादेवजी बोले कि हे कृपासिंधु, दीनबंधु, तुम्हारी महिमा अपरंपार है किसे इतनी समर्थ है जो उसे बखाने औ तुम्हारे चरित्रो को जाने। अब मुझपर कृपा कर इस बानासुर का अपराध क्षमा कीजे औ इसे अपनी भक्ति दीजे। यह भी तुम्हारी भक्ति का अधिकारी है क्यौंकि भक्त पहलाद का बंस है। श्रीकृष्णचंद बोले कि शिवजी, हम तुम में कुछ भेद नहीं औं जो भेद समझेगा सो महा नर्क में पड़ेगा औ मुझे कभी न पावेगा। जिसने तुम्हे ध्याया, जिसने अंत समैं मुझे पाया। इसने निसकपट तुम्हारा नाम लिया, तिसी से मैंने इसे चतुभुर्ज किया। जिसे तुमने बर दिया औ दोगे, तिसका निबाह मैंने किया और करूँँगा।

महाराज, इतना बचन प्रभु के मुख से निकलते ही, सदाशिवजी दंडवत कर बिदा हो अपनी सेना ले कैलास को गये औ श्रीकृष्णचंद वहीं ही खड़े रहे। तब बानासुर हाथ जोड़ सिर नाय बिनती कर बोला, कि दीनानाथ, जैसे आपने कृपा कर मुझे तारा तैसे अब चलके दास का घर पवित्र कीजे औ अनरुद्धजी औ ऊषा को अपने साथ लीजे। इस बात के सुनतेही श्रीबिहारी भक्त हितकारी प्रद्युम्नजी को साथ ले बानासुर के धाम पधारे। महाराज, उसे काल बानासुर अति प्रसन्न हो प्रभु को बड़ी आवभगत से पाटंबर, के पांवड़े डालता लिवाय ले गया। आगे―

चरन धोय चरनोदक लियौ। आचमन कर माथे पर दियौ॥

[ ३१५ ]पुनि कहने लगा कि जो चरनोदक सबको दुर्लभ है सो मैंने हरि की कृपा से पाया औ जन्म जन्म का पाप गँवाया। यही चरनोदक त्रिभुवन को पवित्र करता है, इसका नाम गंगा है। इसे ब्रह्मा ने कमंडल में भरा, शिवजी ने शीश पर धरा। पुनि सुर मुनि ऋषि ने माना औ भागीरथ ने तीनो देवताओं को तपस्या कर संसार में आना तबसे इसका नाम भागीरथी हुआ। यह पाप मलहरनी, पवित्रकरनी, साध संत को सुखदेनी, बैकुंठ की निसेनी है। औ जो इसमें न्हाया, उसने जन्म जन्म का पाप गँवाया। जिसने गंगा जल पिया, जिसने निःसंदेह परम पद लिया। जिनने भागीरथी का दर्शन किया, तिनने सारे संसार को जीत लिया। महाराज इतना कह बानासुर अनिरुद्धजी औ ऊषा को ले आय, प्रभु के सनमुख हाथ जोड़ बोला―

क्षमिये दोष भावइ भई। यह मैं ऊषा दासी दई॥

यों कह वेद की विधि मे बानासुर ने कन्यादान किया औ तिसके यौतुक मे बहुत कुछ दिया, कि जिसका वारापार नहीं।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, ब्याह के होते ही श्रीकृष्णचंद बानासुर को आसा भरोसा दे, राजगद्दी पर बैठाय, पोते बहू को साथ ले, बिदा हो धौंसा बजाय, सब जदुबसियो समेत वहॉ से द्वारका पुरी को पधारे। इनके आने के समाचार पाय सब द्वारकाबासी नगर के बाहर जाय प्रभु को बाजे गाजे से लिवाये लाये। उस काल पुरबासीहाट, बाट, चौहट्टो चौबारों, कोठों से मंगली गीत गाय गाय मंगलाचार करते थे औ राजमन्दिर में श्रीरुक्मिनी आदि सब सुंदरि बधाए गाय गाय रीति भॉति करती थीं औ देवता अपने अपने बिमानों पर बैठे अधर से [ ३१६ ] फूल बरसाय जैजैकार करते थे और घर बाहर सारे नगर मे आनंद हो रहा था, कि उसी समैं बलराम सुखधाम औ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद सब यदुबंसियों को बिदा दे, अनरुद्ध अषा को साथ ले राजमंदिर में जा विराजे।

आनी ऊषा गेह मझारी। हरषहि देखि कृष्ण की नारी॥
देहि असीस सासु उर लावे। निरखि हरषि भूषन पहिरावे॥