प्रेमसागर/६६ बलभद्र चरित्र

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छाछठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक समैं श्रीकृष्णचंद आनंदकंद औ यलराम सुखधाम मनिमय मंदिर में बैठे थे कि बलदेवजी ने प्रभु से कहा―भाई, जब हमें बृन्दाबन से कंस ने बुला भेजा था औ हम मथुरा को चले थे, तब गोपियो और नद जसोदा से हमने तुमने यह बचन किया था कि हम शीघ्रही आय मिलेगे सो वहॉ न जाय द्वारका में आय बसे। वे हमारी सुरत करते होगे, जो आप आज्ञा करे तो हम जाय जन्मभूमि देखि आवे औ उनका समाधान करि आवे। प्रभु बोले कि अच्छा। इतनी बात के सुनतेही बलरामजी सबसे बिदा हो हल मूसल ले रथ पर बढ़ सिधारे।

महाराज, बलरामजी जिस पुर नगर गॉव मे जाते थे तहॉ के राजा आगू बढ़ अति शिष्टाचार कर इन्हें ले जाते थे औ ये एक एक का समाधान करते जाते थे। कितने एक दिन मे चले चले बलरामजी अवंतिका पुरी पहुँचे।

बिद्या गुरु कौ कियौ प्रनाम। दिन दस तहाँ रहे बलराम॥

आगे गुरु से बिदा ही बलदेवजी चले चले गोकुल में पधारे तो देखते क्या है कि बन मे चारो ओर गायें मुँँह बाये बिन तृन खाये श्रीकृष्णचंद की सुरत किये बांसुरी की तान में मन दिये रॉमती हौकती फिरती है। तिनके पीछे पीछे ग्वाल बाल हरिजस गाते प्रेम रंग राते चले जाते हैं औ जिधर तिधर नगर निवासी लोग प्रभु के चरित्र औ लीला बखान रहे हैं।

महाराज, जन्म-भूमि में जाय व्रजबासियो औं गायों की यह [ ३२४ ] अवस्था देखि बलरामजी करुना कर नयन में नीर भर लाए। आगे रथ की ध्वजा पताका देख श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी का आना जान सब ग्वाल बाल दौड़ आए। प्रभु उनके आते ही रथ से उतर लगे एक एक के गले लग लग अति हित से क्षेम कुशल पूछने। इस बीच किसीने जा नंद जसोदा से कहा कि बलदेवजी आए। यह समाचार पाते ही नंद जसोदा औ बड़े बड़े गोप ग्वाल उठ धाए। उन्हे दूर से आते देख बलरामजी दौड़कर नंदराय के पाओ पर जाय गिरे, तब नंदजी ने अति आनंद कर नयनों में जल भर, बड़े प्यार से बलरामजी को उठाय कंठ से लगाया औ वियोग दुख गँवाया। पुनि प्रभु ने―

गहे चरन जसुमति के जाय। उन हित कर उरु लिये लगाय॥
भुज भरि भेट कंठ गहि रही। लोचन ते जल सरिता बही॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज, ऐसे मिल जुल नंदरायजी बलरामजी को घर मे ले जाय कुशल क्षेम पूछने लगे कि कहो उग्रसेन बसुदेव आदि सब यादव औ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद आनंद से हैं और कभी हमारी सुरत करते हैं। बलरामजी बोले कि आपकी कृपा से सब आनंद मंगल से है औ सदा सर्वदा आपका गुन गाते रहते है। इतना बचन सुन नंदराय चुप रहे। पुनि जसोदा रानी श्रीकृष्णजी की सुरत कर लोचन में नीर भर अति व्याकुल हो बोली कि बलदेव जी, हमारे प्यारे नैनो के तारे श्रीकृष्णजी अच्छे है। बलरामजी ने कहा―बहुत अच्छे हैं। पुनि नंदरानी कहने लगीं कि बलदेव. जब से हरि ह्यॉ से सिधारे तब से हमारी ऑख आगे अंधेरा ही रहा है, हम आठ पहर उन्हीं का ध्यान किये रहते है औ वे हमारी सुरत [ ३२५ ] भुलाय द्वारका में जाय छाय रहे औ देखो बहन देवकी रोहनी भी हमारी प्रीति छोड़ बैठी।

मथुरा ते गोकुल ढिग जान्यौ। बसी दूर तबही मन मान्यौ॥
भेटन मिलन आवते हरी। फिर न भिलै ऐसी उन करी॥

महाराज, इतना कह जब जसोदाजी अति व्याकुल हो रोने लगीं, तव बलरामजीने बहुत समझाय बुझाय असा भरोसा दे उनको ढाढ़स बँधाया। पुनि आप भोजन कर पान खाय घर से बाहर निकले तो क्या देखते हैं, कि सब ब्रज युवती तनछीन, मनमलीन, छुटे केस, मैले भेप, जी हारे, घर बार की सुरत बिसारे, प्रेम रंग रातीं, जोबन की मातीं, हरिगुन गातीं, बिरह मे व्याकुल जिधर तिधर मत्तवत चली जाती है। महाराज, बलरामजी को देखते ही अति प्रसन्न हो सब दौड़ आईं औ दडवत कर हाथ जोड़ चारों ओर खड़ी हो लगीं पूछने औ कहने कि कहो बलराम सुखधाम, अब कहॉ बिराजते है हमारे प्रान सुंदर श्याम? कभी हमारी सुरत करते हैं बिहारी, कै राज पाट पाय पिछली प्रीति सब बिसारी। जब से ह्यॉ से गये हैं तब से एक बार ऊधो के हाथ जोग का संदेसा कह पठाया था, फिर किसी की सुध न ली। अब जाय समुद्र माहीं बसे तो काहे को किसी की सोध लेगे। इतनी बात के सुनतेही एक गोपी बोल उठी कि सखी, हरि की प्रीति का कौन करै परेखा, उनका तो देखा सब से यही लेखा।

वे काहू के नाहिन ईठ। मात पिता कौ जिन दई पीठ॥
राधा बिन रहते ही घरी। सोऊ है बरसाने परी॥

पुनि हम तुमने घर बार छोड़, कुल कान लोक लाज तज, सुत पनि त्याग, हरि से नेह लगाये क्या फल पाया। निदान नेह [ ३२६ ] की नाव पर चढ़ाय बिरह समुद्र माँझ छोड़ गए। अब सुनती हैं कि द्वारका में जाय प्रभु ने बहुत ब्याह किये और सोलह सहस्र एक सौ राजकन्या जो भौमासुर ने घेर रक्खी थीं, तिन्हें भी श्रीकृष्ण ने लाय ब्याहा। अब उनसे बेटे पोते नाती भये, उन्हें छोड़ ह्य क्यौं आवेगे। यह बात सुन एक और गोपी बोली की साखी! तुम हरि की बातो का कुछ पछतावा ही मत करो, क्यौंकि उनके तो गुन सब ऊधोजी ने आय ही सुनाए थे। इतना कह पुनि वह बोली कि आली, मेरी बात मानौ तो अब

हलधरजु के परसौ पाय। रहिहैं इन्हींके गुन गाय॥
ये हैं गौर स्याम नहि गात। करिहैं नाहि कपट की बात॥
सुनि संकर्षन उत्तर दियौ। तिहरे हेतु गवन हम कियौ॥
आवन हम तुमसो कहि गये। ताते कृष्ण पठै ब्रज दये॥
रहि द्वै मास करेंगे रास। पुजवेंगे सब तुम्हरी आस॥

महाराज, बलरामजी ने इतना कह सब ब्रज युवतियो को आज्ञा दी कि आज मधुमास की रात है तुम सिंगार कर बन में आओ, हम तुम्हारे साथ रास करेगे। यह कह बलरामजी साँझ समै बन को सिधारे, तिनके पीछे सब ब्रजयुवती भी सुथरे वस्त्र आभूषन पहन, नख सिख से सिगार कर बलदेवजी के पास पहुँची।

ठाड़ी भई सबै सिर नाय। हलधर छबि बरनी नहिं जाय॥
कनक बरन नीलाँबर धरें। ससिमुख कँवलनयन मन हरें॥
कुंडल एक श्रवन छबि छाजै। मनौ भनि ससि संग विराजै॥
एक श्रवन हरिजन रस पान। दूजौ कुंडल धरत न कान॥
अंग अंग प्रति भूषद घने। तिनकी शोभा कहत न बने॥

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यो कहि पॉय परी सुंदरी। लीला रास करहु रस भरी॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही बलरामजी ने हूँ किया। हूँ के करते ही रास की सब बस्तु आय उपस्थित हुई। तब तो सब गोपियॉ सोच संकोच तज, अनुराग कर बीन, मृदंग, करताल, उपंग, मुरली आदि सब यंत्र ले ले लगीं बजाने गाने औ थेइ थेई कर नाच नाच भाव बताय बतात प्रभु को रिझाने। उनका बजाना गाना नाचना सुन देख मगन हो बारुनी पान कर बलदेवजी भी सब के साथ मिल गाने नाचने औ अनेक अनेक भॉति के कुतूहल कर कर सुख देने लेने लगे। उस काल देवता, गंधर्व, किन्नर, यक्ष अपनी अपनी स्त्रियो समेत आय आय, विमान पर बैठे प्रभु गुन गाय गाय अधर से फूल बरसाते थे। चंद्रमा तारामंडल समेत रासमंडली का सुख देख देख किरनो से अमृत बरसाता था औ पवन पानी भी थँभ रहा था।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इसी भांति बलरामजी ने व्रज में रह चैत्र बैसाख दो महीने रात्र को तो ब्रज युवतियो के साथ रास विलास किया औ दिन को हरिकथा सुनाय नंद जसोदा को सुख दिया। विसीमे एक दिन रात समै रास करते करते बलरामजी ने जा―

नदी तीर करके विश्राम। बोले तहाँ कोप के राम।।
यमुना तू इतही नहि आव। सहस्र धार कर मोहि न्हवाव॥
जो ने मानिहै कह्यो हमारौ। खंड खंड जल होय तिहारौ॥

महाराज, जब बलरामजी की बात अभिमान कर यमुना ने सुनी अनसुनी की, तब तो इन्होने क्रोध कर उसे हल से खेच ली औ स्नान किया। उसी दिन से वहॉ यमुना अब तक टेढ़ी है।

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आगे न्हाय श्रम मिटाय बलरामजी सब गोपियो को सुख दे साथ ले बन से चल नगर में आए, तहाँ―

गोपी कहैं सुनौ ब्रजनाथ। हमकौ हूँ ले चलियौ साथ॥

यह बात सुन बलरामजी गोपियों को आसा भरोसा दे, ढाढ़स बँधाय बिदाकर बिदा होने नंद जसोदा के निकट गये। पुनि विन्हे भी समझाये बुझाय धीरज बँधाय, कई दिन रह विदा हो द्वारका को चले और कितने एक दिनों में जाय पहुँचे।