प्रेमसागर/६५ राजा नृग मोक्ष

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पैसठवाँ अध्याय

श्री शुकदेषजी बोले कि महाराज, इक्ष्वाकुबंसी राजा नृग बड़ा ज्ञानी, दानी, धर्मात्मा, साहसी था। उसने अनगिनत गौ दान किया। जो गंगा की बालू के कुन, भादौ के मेह की बूँँदे औ आकास के तारे गिने जायँ तो राजा नृग के दान की गाये भी गिनी जायँ। ऐसा जो ज्ञानी महादानी राजा सो थोड़े अधर्म से गिरगिट हो अंधे कुएँ में रहा, तिसे श्रीकृष्णचंदजी ने मोक्ष दिया।

इतनी कथा सुन श्रीशुकदेवजी से राजा परीक्षित ने पूछा―महाराज, ऐसा धर्मात्मा दानी राजी किस पाप से गिरगिट हो अंधे कुएँ में रहा औ श्रीकृष्णचंदजी ने कैसे उसे तारा, यह कथा तुम मुझे समझाकर कहो जो मेरे मन का संदेह जाय। श्रीशुकदेवजी बोले—महाराज, आप चित दे मन लगाय सुनिये, मै जो की तो सब कथा कह सुनाता हूँ, कि राजा नृग तो नित प्रति गौ दान किया करते ही थे पर एक दिन प्रात ही न्हाय संध्या पूजा करकै सहस्त्र धौली, धूमरी, काली, पीली भूरी, कबरी गौ मंगाय, रूपे के खुर, सोने के सींग, तॉबे की पीठ समेत पाटंबर उढ़ाय संकल्पी और उनके ऊपर बहुत सा अन धन ब्राह्मनो को दिया, चे ले अपने घर गये। दूसरे दिन फिर राजा उसी भॉति गौ दान करने लगा तो एक गाय पहले दिन की संकल्पी अनजाने आन मिली, सो भी राजा ने उन गायों के साथ दान कर दी। ब्राह्मन ले अपने घर को चला। आगे दूसरे ब्राह्मन ने अपनी गौ पहचान वाट में रोकी औ कहा कि यह गाय मेरी है मुझे कल्ह राजा के [ ३१८ ] ह्माँ से मिली है, भाई तू क्यो इसे लिये जाता है। यह ब्राह्मन बोला―इसे तो मै अभी राजा के ह्यॉ से लिये चला आता हूँ तेरी कहॉ से हुई। महाराज, वे दोनो ब्राह्मण इसी भाँति मेरी मेरी कर झगड़ने लगे। निदान झगड़ते झगड़ते वे दोनो राजा के पास गये। राजा ने दोनों की बात सुन हाथ जोड़ अति बिनती कर कहा कि―

कोऊ लाख रूपैया लेउ। गैया एक काहू कौं देउ॥

इतनी बात के सुनतेही दोनो झगड़ालू ब्राह्मन अति क्रोध कर बोले कि महाराज, जो गाय हमने स्वस्ति बोल के ली सो कड़ोड़ रुपये पाने से भी हम न देंगे, वह तो हमारे प्रान के साथ है। महाराज, पुनि राजा ने उन ब्राह्मनो को पाओ पड़ पड़ अनेक अनेक भॉति फुसलाया, समझाया, पर उन तामसी ब्राह्मनों ने राजा का कहना न माना। निदान महा क्रोध कर इतना कह दोनो ब्राह्मन गाय छोड़ चले गये कि महाराज, जो गाय आपने संकल्प कर हमें दी औ हमने स्वस्ति बोल हाथ पसार ली, वह गाय रुपये ले नहीं दी जाती, अच्छी यो तुम्हारे यहाँ रही तो कुछ चिंता नहीं।

महाराज, ब्राह्मनो को जाते ही राजा नृग पहले तो अति उदास हो मन ही मन कहने लगी कि यह अधर्म अनजाने मुझसे हुआ सो कैसे छुटेगा औ पीछे अति दान पुन्य करने लगी। कितने एक दिन बीते राजा नृग कालबस हो मर गया, उसे यम के रान धर्मराज के पास ले गये। धर्मराज राजा को देखते ही सिंहासन से उठ खड़ा हुआ, पुनि आवभगत कर आसन पर बैठाय अति हित कर बोला–महाराज, तुन्हारा पुन्य है बहुत औ पाप है। थोड़ा; कहो पहले क्या भुगतोगे। [ ३१९ ]

सुन तृग कहत जोर के हाथ। मेरौ धर्म दरौ जिन नाथ॥
पहले हौं भुगतोगौ पाप। तन धरकै सहिहौं संताप॥

इतनी बात के सुनते ही धर्मराज ने राजा नृग से कहा कि महाराज, तुमने अनजाने जो दान की हुई गाय फिर दान की, उसी पाप से आपको गिरगिट हो बन बीच गोमती तीर अंधे कुएँ में रहना हुआ। जब द्वापर के अंत में श्रीकृष्णचंद अवतार लेगे सब तुम्हे वे मोक्ष देगे। महाराज, इतना कह धर्मराज चुप रहा औ राजा नृग उसी समै गिरगिट हो अंधे कुएँ में जा गिरी औ व भक्षन कर कर वहॉ रहने लगा।

आगे कई जुग बीते द्वापर के अंत में श्रीकृष्णाचंदजी ने अवतार लिया औ ब्रजलीला कर जब द्वारका को गए ओ उनके बेटे पोते भए. तब एक दिन कितने एक श्रीकृष्णजी के बेटे पोते मिल अहेर को गए औ बन मे अहेर करते करते प्यासे भए! दैवी, दे बन में जल ढूँढ़ते ढूँढ़ते उसी अंधे कुएँ पर गए, जहॉ राजा नृग गिरगिट का जन्म ले रहा था। कुएँ में झाँकते ही एक ने पुकार सब से कहा कि अरे भाई, देखो इस कूप में कितना बड़ा एक गिरगिट हैं।

इतनी बात के सुनते हीं सब दौड़ आए औ कुएँ के मनघटे पर खड़े हो लगे पगड़ी फेटे मिलाय मिलाय लटकाय लटकाय उसे काढ़ने औ आपस में यो कहने कि भाई इसे बिन कुएँ से निकाले हम यहॉ से न जायँगे। महाराज, जब वह पगड़ी फेटो की रस्सी से न निकला तब उन्होने गाँव से सन, सूत, मूंज, चाम की मोटी मोटी भारी वरते मँगवाई और कुएँँ में फॉस गिरगिट को बॉध चलकर खैंचने लगे, पर वह वहाँ से टसका भी [ ३२० ] नही। तब किसी ने द्वारका में जाय श्रीकृष्णजी से कहा कि महाराज, बन मे अंधे कुएँ के भीतर एक बड़ा मोटा भारी गिरगिट है, उसे सब कुँँवर काढ हारे पर वह नहीं निकलता।

इतनी बात के सुनते ही हरि उठ धाए और चले चले वहाँ आए जहॉ सब लड़के गिरगिट को निकाल रहे थे। प्रभु को देखते ही सब लड़के बोले कि पिता देखो यह कितना बड़ा गिरगिट है, हम बड़ी बेर से इसे निकाल रहे हैं यह निकलती नहीं। महाराज, इस बचन को सुन जो श्रीकृष्णचंदजी ने कुएँ में उतर उसके शरीर से चरन लगाया, तो वह देह को छोड़ अति सुंदर पुरुष हुआ।

भूपति रूप रह्यौ गहि पाय। हाथ जोड़ बिनबै सिर नाय॥

कृपासिन्धु, आपने बड़ी कृपा की जो इस महा बिपत में आय मेरी सुध ली। शुकदेवजी बोले राजा, जब वह मनुष रूप हो हरि से इस ढब की बाते करने लगा, तब यादवो के बालक औ हरि के बेटे पोते अचरज कर श्रीकृष्णचंद से पूछने लगे कि महाराज, यह कौन है और किस पाप से गिरगिट हो यहॉ रहा था, सो कृपाकर कहो तो हमारे मन का संदेह जाय। उस काल प्रभु ने आप कुछ न कह उस राजा से कहा―

अपनौ भेद कहौ समझाय। जैसे सबै सुनै मन लाय॥
को हौ आप कहाँ ते आए? कौन पाप यह काया पाए?
सुनकै नृग कह जोरे हाथ। तुम सब जानत हौ युदुनाथ॥

तिसपर आप पूछते हो तो मैं कहता हूँ, मेरा नाम है राजा नृग। मैंने अनगिनत गौ ब्राह्मनों को तुम्हारे निमित्त दीं। एक दिन की बात है कि मैंने कितनी एक गाय संकल्प कर ब्राह्मनो को [ ३२१ ] दीं, दूसरे दिन उन गायों में से एक गाय फिर आई सो मैंने और गायों के साथ अनजाने दूसरे द्विज को दान कर दी। जों वह लेकर निकला तों पहले ब्राह्मन ने अपनी गौ पहचान इससे कहा―यह गाय मेरी है मुझे कल राजा के ह्मॉ से मिली है तू इसे क्यो। लिये जाता है। वह बोला मै अभी राजा के ह्मॉ से लिये चला आती हूँ तेरी कैसे हुई। महाराज, वे दोनो विप्र इसी बात पर झगड़ते झगड़ते मेरे पास आए। मैंने उन्हें समझाया और कहा कि एक गाय के पलटे मुझ से लाख रुपैया लो औ तुममें से कोई यह गाय छोड़ दो।

महाराज, मेरा कहा हठ कर उन दोनों ने ने माना। निदान गौ छोड़ क्रोध कर वे दोनों चले गए। मैं अछताय पछताय मनमार बैठ रहा। अन्त समै जम के दूत मुझे धर्मराज के पास ले गये धर्मराज ने मुझ से पूछा कि राजा तेरा धर्म है बहुत औ पाप थोड़ा, कह पहले क्या भुगतेगा। मैने कहा―पाप। इस बात के सुनते ही महाराज, धर्मराज बोले कि राजा, तैने ब्राह्मन को दी हुई गाय फिर दान की, इस अधर्म से तू गिरगिट हो पृथ्वी पर जाय गोमती तीर बन के बीच अंघकूप मे रह। जब द्वापर युग के अन्त मे श्रीकृष्णचंद अवतार ले तेरे पास जायँगे तब तेरा उद्धार हो।

महाराज, तभी से मै सरट स्वरूप इस अंधकूप में पड़ा आपके चरन कमल को ध्यान करता था, अब आय आपने मुझे महाकष्ट से उबारा औ भवसागर से पार उतारा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इतना कह राजा नृग तो विदा हो बिमान में बैठ [ ३२२ ] बैकुंठ को गया औ श्रीकृष्णचंदजी सब बाल गुपालों को समझाय के कहने लगे―

बिप्र दोष जिन कोऊ करौ। मत कोउ अंंस बिप्र को हरौ॥
मन संकल्प कियो जिन राखौ। सत्य वचन बिप्रन सों भाखौ॥
बिप्रहि दियौ फेर जो लेइ। ताकौ दंड इतौ जम देइ॥
बिप्रन के सेवक भए रहियौ। सब अपराध बिप्र कौ सहियौ॥
बिप्रहि माने सो मोहि माने। बिप्रन अरु मोहि भिन्न न जाने॥

जो मुझ में औ ब्राह्मन में भेद जानेगा सो नर्क में पड़ेगा औ विप्र को मानेगी वह मुझे पावेगा औ निसंदेह परमधाम मे जावेगा।

महाराज, यह बात कह श्रीकृष्णजी सब को वहॉ से ले द्वारका पुरी पधारे।