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प्रेमसागर/६८ द्विविद कपि वध

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३३४ से – ३३६ तक

 

अड़सठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जैसे बलराम सुखधाम रूप निधान ने दुबिद कपि को मारा, तैसे ही मै कथा कहता हूँ, तुर चित दै सुनौ। एक दिन दुबिद, जो सुग्रीव का मंत्री औ मयंद्री कपि को भाई औ भौमासुर का सखा था, कहने लगा कि एक सूल मेरे मन में है सो जब न तब खटकता है। यह बात सुन किसीने उससे पूछा कि महाराज, सो क्या? बोला―जिसने मेरे मित्र भौमासुर को मारा तिसे मारूँँ तो मेरे मन का दुख जाय।

महाराज, इतना कह वह विसी समै अति क्रोध कर द्वारका पुरी को चला, श्रीकृष्णचंद के देस उजाड़ता, औ लोगो को दुख देता। किसीको पानी बरसाय बहाया, किसी को आग बरसाय जलाया। किसीको पहाड़ से पटका। किसी पर पहाड़ दे पदका। किसीको समुद्र मे डुबाया किसीको पकड़ बॉध गुफा में छिपाया। किसीका पेट फाड़ डाला, किसीपर वृक्ष उखाड़ मारा। इसी रीति से लोगो को सताता जाता था और जहॉ मुनि, ऋषि, देवताओं को बैठे पाता था, तहॉ गू, मूत, रुधिर बरसाता था। निदान इसी भॉति लोगो को दुख देता औ उपाध करता जी द्वारका पुरी पहुँचा औ अल्प तन धर श्रीकृष्णचंद के मंदिर पर जा बैठा। उसको देख सब सुंदरि मंदिर के भीतर किवाड़ दे दे भागकर जाय छिपीं। तब तो वह मनही मन यह बिचार बलरामजी के समाचार पाय रैवतगिर पर गया कि―


*(ख) मे 'मैद' लिखा है।

पहलै हलधर कौं बध करौ। पाछै प्रान कृष्ण के हरौ॥

जहॉ बलदेवजी स्त्रियो के साथ विहार करते थे, महाराज, छिपकर यह वहॉ क्या देखता है कि बलरामजी मद पी सब स्त्रियों को साथ ले एक सरोवर बीच अनेक अनेक भॉति की लीला कर कर, गाय गाय, न्हाय न्हलाय रहे है। यह चरित्र देख दुविद एक पेड़ पर जा चढ़ा औ किलकारियाँ मार मार, घुरक घुरक लगा डाल डाल कूद कूद, फिर फिर चरित्र करने औ जहॉ मदिरा का भरा कुलस औ सबके चीर धरे थे, तिनपर हगने मूतने लगा। बंदर को सब सुंदरि देखतेही डरकर पुकारी कि महाराज, यह कपि कहॉ से आया जो हमे डराय, हमारे वस्त्रो पर हग मूत रहा है। इतनी बात के सुनतेही बलदेवजी ने सरोवर से निकल जो हँसके ढेल चलाया, तो वह इनको मतवाला जान महा क्रोध कर किलकारी मार नीचे आया। आतेही उसने मद का भरा घड़ी जो तीर पर धरा था सो लुढ़ाय दिया औ सारे चीर फाड़ लीर लीर कर डाले। तब तो क्रोध कर बलरामजी ने हल मूसल सँभाले औ वह भी पर्वत सम हो प्रभु के सोही युद्ध करने को आये उपस्थित हुआ। इधर से ये हल मूसले चलाते थे औ उधर से वह पेड़ पर्वत।

महायुद्ध दोऊ मिल करै। नेक न कहूँ ठौर ते टरें॥

महाराज, ये तो दोनो बली अनेक अनेक प्रकार की घाते बाते कर निधड़क लड़ते थे, पर देखनेवालो को मारे भय के प्रानही निकलता था। निदान प्रभु ने सबको दुखित जान दुबिद को मार गिराया। उसके मरतेही सुर नर मुनि सबके जी को आनंद हुआ औ दुख दंद गया।

फूले देव पहुप बरसावैं। जै जै कर हलधरहि सुनावै॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने कहा कि महाराज, त्रेतायुग से वह बंदरही था तिले बलदेवजी ने मार उद्धार किया। आगे बलराम सुखधाम सबको सुख दे वहॉ से साथ ले श्रीद्वारका पुरी मे आए औ दुबिद के मारने के समाचार सारे जदुबंसियों को सुनाए।