प्रेमसागर/६९ शांब विवाह

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उन्हत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, अब मैं दुर्योधन की बेटी लक्ष्मना के विवाह की कथा कहता हूँ, कि जैसे संबू' हस्तिनापुर जाय उसे ब्याह लाए। महाराज, राजा दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मना जब व्याहन जोग हुई, तब उसके पिता ने सब देस देस के नरेसी को पत्र लिख लिख बुलाया औ स्वयंबर किया। स्वयंबर के समाचार पाय श्रीकृष्णचंद का पुत्र जो जाम्मवंती से था, संदू नाम वह भी वहॉ पहुँचा। वहॉ जाय संबू क्या देखता है कि देस देस के नरेस बलवान, गुनवान, रूपनिधान, महाजन सुथरे वस्त्र आभूपन रत्नजडित पहने, अस्त्र शस्त्र बांधे, मौन साधे स्वयंबर के बीच पांति पांति खड़े हैं औ उनके पीछे उसी भॉति सब कौरव भी। जहॉ तहॉ बाहर बाजन बाज रहे हैं, भीतर मंगली लोग मंगलाचार कर रहे हैं। सबके बीच राजकुमारी, मात पिता की प्यारी मन ही मन यो कहती हार लिए आँखों की सी पुतली फिरती हैं, कि मैं किसे बरूँँ।

महाराज, जब वह सुंदरि शीलवान, रूपनिधान माला लिए लाज किये फिरती फिरती संबू के सनमुख आई तब इन्होंने सोच संकोच तज निर्भय उसे हाथ पकड़ रथ में बैठाये अपनी बाट ली। सब राजा खड़े मुँँह देखते रह गए और कर्न, द्रोन, सल्य, भूरिश्रवा, दुर्योधन आदि सारे कौरव भी उस समय कुछ न बोले। पुनि अति क्रोध कर आपस मे कहने लगे कि देखो इसने क्या


१-(ख) में 'शव' (शुद्ध नाम) है। [ ३३८ ] काम किया, जो रस में आय अनरस किया। कर्न बोला कि जदुबंसियो की सदा से यह टेव है कि जहॉ कहीं शुभ काज में जाते है तहॉ उपाधही करते हैं। सल्य ने कहा―

जातहीन अबही ये बढ़े। राज पाय माथे पर चढ़े।।

इतनी बात के सुनतेही सब कौरव महा कोप कर अपने अपने अस्त्र शस्त्र ले यो कह चढ़ दौड़े कि देखे वह कैसा बली है। जो हमारे आगे से कन्या ले निकल जायगा औ बीच बाट के संबू को जा घेरा। आगे दोनों ओर से शस्त्र चलने लगे। निदान कितनी एक बेर के लड़ने में जब संबू का सारथी मारा गया औ वह नीचे उतरा, तब ये उसे घेर पकड़कर बॉध लाए। सभा के बीचो बीच खड़ाकर इन्होने उससे पूछा कि अब तेरा पराक्रम कहॉ गया? यह बात सुन वह लजाय रहा। इसमें नारदजी ने आय राजा दुर्योधन समेत सब कौरवो से कहा कि यह संबू नाम श्रीकृष्णचंद का पुत्र है। तुम इसे कुछ मत कहो, जो होना था सो हुआ! अभी इसके समाचार पाय दल साज आवेगे श्रीकृष्ण औ बलराम, जो कुछ कहना सुनन्दा हो सो उनसे कह सुन लीजो, लड़के से बात कहनी तुम्हे किसी भॉति उचित नही, इसने लड़कबुद्धि की तो की। महाराज, इतना बचन कह नारदजी वहॉ से बिदा हो, चले चले द्वारका पुरी गये और उग्रसेन राजा की सभा में जा खड़े रहे।

देखत सबै उठे सिर नाय। आसन दियौ ततक्षन लाय।।

बैठतेही नारदजी बोले कि महाराज, कौरवो ने संबू को बॉध महा दुख दिया औ देते है, जो इस समै जाय उसकी सुध लो तो लो नहीं फिर संबू का बचना कठिन है। [ ३३९ ]

गर्व भयौ कौरव कौ भारी। लाज सकुच नहिं करी तिहारी॥
बालक कौ बाँध्यौ उन ऐसे। शत्रु को बॉधे कोउ जैसे॥

इस बात के सुनतेही राजा उग्रसेन ने अति कोप कर जदुबंसियों को बुलायके कहा—तुम अभी सब हमारा कटक ले हस्तिनापुर पर चढ़ जाओ औ कौरवो को भार संबू को छुड़ाय ले आओ। राजा की आज्ञा पातेही जो सब दल चलने को उपस्थित हुआ तों बलरामजी ने जाय राजा उग्रसेन से समझायकर कहा कि महाराज, आप उनपर सेना न पठाइये, मुझे आज्ञा कीजै जो मैं जाय उन्हे उलहना दे संबू को छुड़ाय लाऊँ। देखू विन्होने किस लिये संबू को पकड़ बॉधा। इस बात का भेद विन मेरे गये ने खुलेगा।

इतनी बात के कहतेही राजा उग्रसेन ने बलरामजी को हस्तिनापुर जाने की आज्ञा दी औ बलदेवजी कितने एक बड़े बड़े पंडित ब्राह्मन औ नारद मुनि को साथ ले द्वारका से चले चले हस्तिनापुर पहुँचे। उस समय प्रभु ने नगर के बाहर एक बाड़ी में डेरा कर नारदजी से कहा कि महाराज, हम ह्याँ उतरे है आप जाय कौरवों से हमारे आने के समाचार कहिये। प्रभु की आज्ञा पाय नारदजी ने नगर मे जाय बलरालजी के आने के समाचार सुनाए।

सुनकै सावधान सब भए। आगे होय लेन तहँ गए॥
भीषम कर्न द्रोन मिल चले। लीने चसन पटंबर भले॥
दुर्योधन यो कहिकै धायौ। मेरौ गुरु संकर्षन आयौ॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजासे कहा कि महाराज, सब कौरवो ने उस बाड़ी में जाय बलरामजी से भेट कर भेट दी औ पाओ पड़ हाथ जोड़ बहुत सी स्तुति की। आगे चोआ चंदन [ ३४० ] लगाय, फूल माल पहराय, पाटंबर के पॉवड़े बिछाय, बाजे गाजे से नगर मे लिवा लाए। पुनि षटरस भोजन करवाय, पास बैठ सबकी कुशल क्षेम पूछ पूछा कि महाराज, अपिका आना ह्यॉ कैसे हुआ? कौरवो के मुख से यह बात निकलतेही बलरामजी बोले कि हम राजा उग्रसेन के पठाए संदेसा कहन तुम्हारे पास आए है। कौरव बोले―कहो। बलदेवजी ने कहा कि राजाजी ने कहा है कि तुम्हैं हमसे विरोध करना उचित न था।

तुग हो बहुत सो बालक एक। कियौ युद्ध तज ज्ञान बिवेक॥
महा अधर्म जानकै कियौ। लोक लाज तज सुत गह लियौ॥
ऐसे गर्व तुम्हैं अब भयौ। समझ बूझ ताकौ दुख दयौ॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही कौरव महा कोप कर बोले कि बलरामजी, बस करो बस करो, अधिक बड़ाई उग्रसेन की मत करो, हमसे यह बात सुनी नही जाती। चार दिन की बात है कि उग्रसेन को कोई जानता मानता न था। जब से हमारे ह्यॉ सगाई की तभी से प्रभुता पाई। अब हमीसे अभिमान की बात कह पठाई। उसे लाज नही आती जो द्वारका में बैठा राज पाय, पिछली बात सब गॅवाय जो मन मानता है सो कहता है। वह दिन भूल गया कि मथुरा में ग्वाल गूजरो के साथ रहता खाता था। जैसा हमने सार्थ खिलाय सम्बन्ध कर राज दिलवाया, तिसका फल हाथो हाथ पाया। जो किसी पूरे पर गुन करते तो वह जन्म भर हमारा गुन मानता। किसी ने सच कहा है कि ओछे की प्रीत बालू की भीत समान है।

इतनी कथा कह, श्रीशुकदेवजी बोले ― महाराज, ऐसे अनेक अनेक प्रकार की बाते कह कह कर्न, द्रोन, भीषम, दुर्योधन, सल्य [ ३४१ ] आदि सब कौरव गर्व कर उठ उठ अपने घर गए औ बलरामजी उनकी बाते सुन सुन, हँसि हँसि वहॉ बैठे मनही मन यों कहते रहे कि इनको राज औ बल का गर्ब भया है जो ऐसी ऐसी बातें करते है। नहीं तो ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र को ईस, जिसे नवावै सीस, तिस उग्रसेन की ये निन्दा करै। तौ मेरा नाम बलदेव जो सत्र कौरवों को नगर समेत गंगा में डबोऊँ नही तो नही।

महाराज, इतना कह बलदेवजी अति क्रोध कर सब कौरवो को नगर समेत हल से खैच गंगा तीर पर ले गए औ चाहैं कि डबोवै, तोही अति घबराय भय खाय सब कौरव आय, हाथ जोड़ सिर नाय गिड़गिड़ाय बिनती कर बोले कि महाराज, हमारा अपराध क्षमा कीजे, हम आपकी सरन आए, अब वचाय लीजे। जो कहोगे सो करेगे, सदा राजा उग्रसेन की आज्ञा में रहेंगे। राजा, इतनी बात के कहते ही बलरामजी का क्रोध शांत हुआ औ जो हुल से खैच नगर गंगा तीर पर लाए थे सो वही रक्खा। तिसी दिन से हस्तिनापुर गंगा तीर पर है, पहले वहॉ न था। आगे उन्होने संबू को छोड़ दिया औ राजा दुर्योधन ने चचा भतीजो को मनाय, घर में ले जाय मंगलाचार करवाय, वेद की विध से संबू को कन्यादान दिया औ उसके यौतुक में बहुत कुछ संकल्प किया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने कहा कि महाराज, ऐसे बलरामजी हस्तिनापुर जाय, कौरवो का गर्व गँवाय, भतीजे को छुड़ाय ब्याह लाए। उस काल सारी द्वारका पुरी में आनंद हो गया औ बलदेवजी ने हस्तिनापुर का सब समाचार ब्यौरे समेत समझाय राजा उग्रसेन के पास जाय कहा।

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