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प्रेमसागर/७१ राजायुधिष्ठिरसंदेश

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३४६ से – ३४८ तक

 
इकहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीकृष्णचंद रात्र समै श्रीरुक्मिनीजी के साथ बिहार करते थे औ श्रीरुक्मिनीजी आनंद मे मगन बैठीं प्रीतम का चंदमुख निरख अपने नयन चकोरों को सुख देती थीं, कि इस बीच रात बितीत भई। चिड़ियॉ चुहचुहाई, अंबर में अरुनाई छाई, चकोर को बियोग हुआ औ चकवा चकवियो को संयोग। कँवल बिकसे, कमोदनी कुम्हलाई, चंद्रमा छबिछीन भया औ सुरज का तेज बढ़ा। सब लोग जागे औ अपना गृहकाज करन लागे।

उस काल रुक्मिनीजी तो हरि के समीप से उठ सोच संकोच लिए, घर की टहल टकोर करने लगीं औ श्रीकृष्णचंदजी देह शुद्ध कर हाथ मुँँह धोय, स्नान कर जप ध्यान पूजा तर्पन से निचिंत होय, ब्राह्मनो को नाना प्रकार के दान दे, नित्य कर्म से सुचित हो, बालभोग पाय, पान, लौग, इलायची, जायपत्री; जायफल के साथ खाय, सुथरे वस्त्र आभूषन मॅगाय पहन, शस्त्र लगाय राजा उग्रसेन के पास गये। पुनि जुहार कर जदुबंसियो की सभा के बीच आय रत्नसिंहासन पर विराजे।

महाराज, उसी समैं एक ब्राह्मन ने जाय द्वारपालो से कहा कि तुम श्रीकृष्णचंदजी से जाकर कहो कि एक ब्राह्मन आपके दरसन की अभिलाषा किये पौर पर खड़ा है, जो प्रभु की आज्ञा पावे तो भीतर आवे। ब्राह्मन की बात सुन द्वारपाल ने भगवान से जो कहा कि महाराज, एक ब्राह्मन आपके दुरसन की अभिलाषा किये पौर पर खड़ा है, जो आज्ञा पावे तो आवे। हरि बोले―अभी लाव। प्रभु के मुख से बात निकलते ही द्वारपाल हाथोहाथ ब्राह्मन को सनमुख ले गये। बिप्र को देखते ही श्रीकृष्णचंद सिंहासन से उतर दंडवत कर आगृ बढ़ हाथ पकड़ उसे मंदिर में ले गए औ रत्न सिंहासन पर अपने पास बिठाये पूछने लगे कि कहो देवता, आपको अना कहॉ से हुआ औ किस कार्य के हेतु पधारे? ब्राह्मन बोला―कृपासिधु, दीनबंधु, मैं मगध देस से आया हूँ औ बीस सहस्र राजाओं का संदेसा लाया हूँ। प्रभु बोले―सो क्या? ब्राह्मन ने कहा महाराज, जिन बीस सहस्र राजाओ को जरासंध ने बल कर पकड़ हथकड़ी बेड़ी दे रक्खा है , तिन्होने मेरे हाथ आपको अति बिनती कर यह संदेसा कहला भेजा है। दीनानाथ, तुम्हारी सदा सर्वदा यह रीति है कि जब जब असुर तुम्हारे भक्तो को सताते हैं, तब तब तुम अवतार ले अपने भक्तों की रक्षा करते हो। नाथ, जैसे हिरनकस्यप से प्रह्लाद को छुड़ाया औ गज को ग्रह से, तैसे ही दया कर अब हमे इस महादुष्ट के हाथ से छुड़ाइये, हम महाकष्ट में हैं। तुम बिन और किसी को समर्थ नहीं जो इस महा विपत से निकाले और हमारा उद्धार करे।

महाराज, इतनी बात के सुनते ही प्रभु दयाल हो बोले कि हे देवता, तुम अब चिंता मत करो विनकी चिंता मुझे है। इतनी बात के सुनते ही ब्राह्मन संतोष कर श्रीकृष्णचंद को आसीस देने लगा। इस बीच नारदजी आ उपस्थित हुए। प्रनाम कर श्रीकृष्णाचंद ने इनसे पूछा कि नारदजी, तुम सब ठौर जाते आते हो, कहो हमारे युधिष्ठिर आदि पॉचो पॉडवे इन दिनों कैसे हैं। औ क्या करते हैं। बहुत दिन से हमने उनके कुछ समाचार नहीं पाए, इससे हमारा चित उन्हीं में लगा है। नारदजी बोले कि महाराज, मै विन्हीं के पास से आया हूँ, हैं तो कुशल क्षेम से पर इन दिनो राजसूय यज्ञ करने के लिए निपट भावित हो रहे है औ घड़ी घड़ी यह कहते हैं कि बिना श्रीकृष्णचंद की सहायता के हमारा यज्ञ पूरा न होगा, इससे महाराज, मेरा कहा मानिये तो

पहिले उनकौ यज्ञ सँवारौ। पाछे अनत कहूँ पग धारी॥

महाराज, इतनी बात नारदजी के मुख से सुनते ही प्रभु ने ऊधोजी को बुलाय के कहा―

अधो तुम हौ सखा हमारे। मन ऑखन ते कबहुँ न न्यारे॥
दुहूँ ओर की भारी भीर। पहले कहॉ चलैं कहौ बीर॥
उत राजा संकट में भारी। दुख पावत किये आस हमारी॥
इत पंडुनि मिछ यह रचायौ। ऐसे कहि प्रभु बचन सुनायौ॥