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प्रेमसागर/७० नारद माया दर्शन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३४३ से – ३४५ तक

 

गान कथा पुरान की चरचा चल रही है, जहाँ सहॉ जदुबंसी इंद्र की सी सभा किये बैठे हैं औ सारे नगर में सुख छाये रहा है।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, नारदजी पुरी मे जाते ही मगन हो कहने लगे कि प्रथम किस मंदिर में जाऊँ जो श्रीकृष्णचंद को पाऊँ। महाराज, मनही भन इतना कह नारदजी पहले श्रीरुक्मिनीजी के मंदिर में गये, वहाँ श्रीकृष्णचंद विराजते थे सो इन्हे देख उठ खड़े भये। रुक्मिनीजी जल की झारी भर लाई। प्रभु ने पाँव धोय आसन पर बैठाय, धूप दीप नैवेद्य धर पूजा कर हाथ जोड़ नारदजी से कहा―

जा घर चरन साध के परैं। ते नर सुख संपत अनुसरैं॥
हमसे कुटमी तारन हेतु। घरहि आय तुम दरसन देते॥

महाराज, प्रभु के मुख से इतना वचन निकलते ही यह असीस दे नारदजी जामवंती के मंदिर में गये, कि जगदीस, तुम चिर थिर रहो श्रीरुक्मिनीजी के सीस, तो देखा कि हरि सारपासे खेल रहे हैं। नारदजी को देखतेही जों प्रभु उठे तों नारदजी आशीर्वाद दे उलटे फिरे। पुनि सतिभामा के यहॉ गये तो देखा कि श्रीकृष्णचंद बैठे तेल उबटन लगवाय रहे हैं। वहॉ से चुपचाप नारदजी फिर आये, इसलिये कि शास्त्र में लिखा है कि तेल लगाने के समैं न राजा प्रनाम करै न ब्राह्मन असीस। आगे नारद जी कालिंदी के घर गए, वहॉ देखा कि हरि सो रहे है, महाराज, कालिन्दी ने नारदजी को देखते ही हरि को पॉव दाब जगाया। प्रभु जागते ही ऋषि के निकट जाय दंडवत कर हाथ जोड़ बोले कि साधु के चरन तीरथ के जल समान हैं, जहाँ पड़े तहाँ पवित्र करते हैं। यह सुन वहॉ से भी असीस दे नारदजी चल खड़े हुए औ मित्र― बिन्दा के धाम गये। वहॉ देखे कि ब्रह्मभोज हो रहा है औ श्रीकृष्णजी परोसते हैं। नारदजी को प्रभु ने कहा कि महाराज, जो कृपा कर आये हो तो आप भी प्रसाद ले हमे उछिष्ट दीजै औ घर पवित्र कीजै। नारदजी ने कहा―महाराज, मैं थोड़ा फिर आऊँ, फिर आऊँगा, ब्राह्मनो को जिमा लीजै पुनि ब्रह्मशेष आय मै पाऊँगा। यो सुनाय नारदजी बिदा हो सत्या के ग्रेह पधारे, वहॉ क्या देखते है कि श्रीबिहारी भक्तहितकारी आनंद से बैठे बिहार कर रहे हैं। यह चरित्र देख नारदजी उलटे पॉवो फिरे। पुनि भद्रा के स्थान पर गये तो देखा कि हरि भोजन कर रहे हैं। वहाँ से फिरे तो लक्ष्मना के घर पधारे, तो तहॉ देखा कि प्रमु स्नान कर रहे है। इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने कहा कि महाराज, इसी भॉति नारद मुनिजी सोलह सहस्र एक सौ आठ घर फिरे, पर बिन श्रीकृष्ण कोई घर ने देखा। जहॉ देखा तहॉ हरि को गृहस्थाश्रम का काज ही करते देखा, यह चरित्र लख―

नारद के मन अचरज एह। कृष्ण बिना नहिं कोऊ गेह॥
जा घर जाउँ तहॉ हरि प्यारी। ऐसी प्रभु लीला बिस्तारी॥
सोलह सहस अठोतर सौ घर। तहॉ तहॉ सुंदरि संग गिरधर॥
मगन होय ऋषि कहत विचारी। योगमाया यदुनाथ तिहारी॥
काहू सो नहि जानी परै। कौन तिहारी माया तरै॥

महाराज, जब नारदजी ने अचंभा कर कहे ये बैन, तब ओले प्रभु श्रीकृष्णचंद सुखदेन कि नारद, तू अपने मन में कुछ संदेह मत करै, मेरी माया अति प्रबल है औ सारे संसार में फैल रही है, यह मुझे ही मोहती है तो दूसरे की क्या सामर्थ जो इसके इथि से बचे औ जगत के बीच आये इसमें न रचे।

नारद सुन विनवै सिर नाय। मॉपर कृपा करौ यदुराय॥

जो आपकी भक्ति सदा मेरे चित्त में रहे औ मेरा मन माया के बस होय विषय की वासना न चहै। राजा, इतना कह नारद जी प्रभु से बिदा हो दंडवत कर बीन बजाते गुन गाते अपने स्थान को गये औ श्रीकृष्णचंदजी द्वारका में लीला करते रहे।