प्रेमसागर/७८ सूतवध

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अठहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, अब मै सिसुपाल के भाई वक्रदंत और बिदुरथ की कथा कहता हूँ कि जैसे वे मारे गए। जबसे सिसुपाल मारा गया तबसे वे दोनो श्रीकृष्णचंदजी से अपने भाई का पलटा लेने का विचार किया करते थे। निदान सालव औ दुविद के मरतेही अपना सब कटक ले द्वारका पुरी पर चढ़ि आए औ चारो ओर से घेर लगे अनेक अनेक प्रकार के जन्त्र औ शस्त्र चलाने।

पज्यौ नगर में खरभर भारी। सुनि पुकार रथ चड़े मुरारी॥

आगे श्रीकृष्णचंद नगर के बाहर जाय वहाँ खड़े हुए, कि जहाँ अति कोप किये शस्त्र लिये वे दोनों असुर लड़ने को उपस्थित थे। प्रभु को देखतेही वक्रदंत महा अभिमान कर बोला कि रे कृष्ण, तू पहले अपना शस्त्र चलाय ले पीछे मैं तुझे मारूँँगा। इतनी बात मैंने इसलिये तुझे कही कि मरते समय तेरे मन में यह अभिलाषा न रहै कि मैने वक्रदंत पर शस्त्र न किया। तूने तो बड़े बड़े बली मारे हैं पर अब मेरे हाथ से जीता न बचेगा। महाराज, ऐसे कितने एक दुष्ट वचन कह वक्रदंत ने प्रभु पर गदा चलाई, सो हरि ने सहज ही काट गिराई। पुनि दूसरी गदा ले हरि से महा युद्ध करने लगा, तब तो भगवान ने उसे मार गिराया औ विसका जी निकल प्रभु के मुख में समाया ।

आगे वक्रदंत को मरना देख बिदूरथ जों युद्ध करने को चढ़ आया, तो ही श्रीकृष्णजी ने सुदरसन चक्र चलाया। उसने विदू[ ३७९ ] रथ का सिर मुकुट कुण्डल समेत काट गिराया। पुनि सब असुरदल को मार भगाया। उस काल―

फूले देव पहुप बरषावै। किन्नर चारन हरि जस गावैं॥
सिद्ध साध विद्याधर सारे। जय जय चढ़े विमान पुकारे॥

पुनि सब बोले कि महाराज, आपकी लीला अपरंपार है कोई इसका भेद नहीं जानता। प्रथम हिरनकस्यप और हिरनाकुस भए, पीछे रावन औ कुम्भकरन, अब ये दंतवक्र औ सिसुपाल हो आए। तुम ने तीनो बेर इन्हें मारा औ परम मुक्ति दी, इससे तुम्हारी गति कुछ किसीसे जानी नहीं जाती। महाराज इतना कह देवता तो प्रभु को प्रनाम कर चले गए औ हरि बलरामजी से कहने लगे कि भाई, कौरव औ पांडवो से हुई लड़ाई, अब क्या करै। बलदेवजी बोले― कृपा निधान, कृपा कर आप हस्तिनापुर को पधारिये, तीरथ यात्रा कर पीछे से मैं भी आता हूँ। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, यह बचन सुन श्री कृष्णचंदजी तो वहॉ को पधारे जहॉ कुरुक्षेत्र मे कौरव औ पांडव महाभारत युद्ध करते थे औ बलरामजी तीरथ यात्रा को निकले। आगे सब तीरथ करते करते बलदेवजी नीमषार में पहुंचे तो वहॉ क्या देखते है कि एक ओर ऋषि मुनि यज्ञ रच रहे है औ एक ओर ऋषि मुनि की सभा में सिंहासन पर बैठे सूतजी कथा बॉच रहे हैं। इनको देखतेही सौनकादि सब मुनि ऋषियों ने उठकर प्रनाम किया औ सूत सिहासन पर गद्दी लगाए बैठा देखता रहा।

महाराज, सूत के न उठतेही बलरामजी ने सौनकादि सब ऋषि मुनियो से कहा कि इस मूरख को किसने बक्ता किया और व्यास आसन दिया। बक्ता चाहिये भक्तिवंत, विवेकी औ ज्ञानी, [ ३८० ]यह है गुनहीन, कृपन औ अति अभिमानी। पुनि चाहिये निर्लोभी औ परमारथी, यह है महालोभी औ आप स्वारथी। ज्ञानहीन अविवेकी को यह ब्यासगादी फबती नहीं, इसे मारें तो क्या, पर यहॉ से निकाल दिया चाहिये। इस बात के सुनतेही सौनकादि बड़े बड़े मुनि ऋषि अति विनती कर बोले कि महाराज, तुम हो र्बीर धीर सकल धर्म नीति के जान, यह है कायर अधीर अविवेकी अभिमानी अज्ञान। इसका अपराध क्षमा कीजे क्यौकि यह व्यासगादी पर बैठा है औ ब्रह्मा ने यज्ञ कर्म के लिये इसे यहॉ स्थापित किया है।

आसन गर्व मूढ़ मन धन्यौ। उठि प्रनाम तुमकौ नहि कयौ॥
यही नाथ याकौ अपराध। परी चूक है तौ यह साध॥
सूतहि मारे पातक होय। जग मे भलौ कहै नहि कोय॥
निर्फल बचन न जाय तिहारौ। यह तुम निज मन माहि बिचारौ॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही बलरामजी ने एक कुश उठाय, सहज सुभाय सूत के मारा, उसके लगते ही वह मर गया। यह चरित्र देख सौनकादि ऋषि मुनि हाहाकार कर अति उदास ही बोले कि महाराज, जो बात होनी थी सो तो हुई पर अब कृपा कर हमारी चिन्ता मेटिये। प्रभु बोले― तुम्हे किस बात की इच्छा है सो कहो हम पूरी करैं। मुनियों ने कहा― महाराज, हमारे यज्ञ करने मे किसी बात का विध्न न होय यही हमारी वासना है सो पूरी कीजै औ जगत मे जस लीजे। इतना बचन मुनियो के मुख से निकलतेही अंतरजामी बलरामजी ने सून के पुत्र को बुलाय, व्यासगादी पर बैठाय के कहा― यह अपने बाप से अधिक वक्ता होगा औ मैने इसे अमरपद दे चिरंजीव किया, अब तुम निर्चिताई से यज्ञ करो।