प्रेमसागर/७९ श्रीबलराम की तीर्थयात्रा

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प्रेमसागर  (1922) 
द्वारा लल्लूलाल जी
[ ३८१ ]
उन्नासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बलरामजी की आज्ञा पाय सौनकादि सब ऋषि मुनि अति प्रसन्न हो जो यज्ञ करने लगे, तो जालव नाम दैत्य लब का बेटा आय, महा मेघ कर बादल गरजाय, बड़ी भयंकर अति काली ऑधी चलाय, लगा आकाश से रुधिर औ मल मूत्र बरसाचने और अनेक अनेक उपद्रव मचाने।

महाराज, दैत्य की यह अनीति देखि बलदेवजी ने हुल मूसल का आवाहन किया, वे आय उपस्थित हुए। पुनि महा क्रोध कर प्रभु ने जालव को हल से खैच एक मूसल उसके सिर मे ऐसा मारा कि

फुट्यौ मस्तक छूटे प्रान। रुधिर प्रवाह भयौ तिहिं स्थान॥
कर भुज डारि परौ बिकरार। निकरे लोचन राते बार॥

जालव के मरतेही सब मुनियों ने अति संतुष्ट हो बलदेवजी की पूजा की औ बहुत सी स्तुति कर भेट दी। फिर बलराम सुखधाम वहाँ से बिदा दो तीरथ यात्रा को निकले तो महाराज, सच तीरथ कर पृथ्वी प्रदक्षना करते करते कहॉ पहुँचे कि जहॉ कुरुक्षेत्र में दुर्योधन औ भीमसेन महायुद्ध करते थे औ पॉडव समेत श्रीकृष्णचंद औ बड़े बड़े राजा खड़े देखते थे। बलरामजी के जातेही बीरो ने प्रनाम किया, एक ने गुरु जान, दूसरे ने बंधु मान। महाराज दोनों को लड़ता देख बलदेवजी बोले―

सुभट समान प्रबल दोउ बीर। अत्र संग्राम तजहु तुम धीर॥
कौर पंडु की राखहु बंस। बंधु मित्र सव भए विध्वंस॥


(ख) मे इल्लव का पुत्र बल्कल है पर शुद्ध नाम बल्वल है।

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दोउ सुनि बोले सिर नाय। अब रन ते उतन्यौ नहिं जाय॥

पुनि दुर्योधन बोला ,कि गुरुदेव, मैं आपके सनमुख झूठ नहीं भाषत, आप मेरी बात मन दे सुनिये। यह जो महाभारत युद्ध होता है औ लोग मारे गए औ मारे जाते है औ जायंगे, सो तुम्हारे भाई श्रीकृष्णचंदजी के मते से। पॉड व केवल श्रीकृष्णजी के बल से लड़ते है, नहीं इनकी क्या सामर्थ थी जो ये कौरवो से लड़ते। ये बापरे तो हरि के बस ऐसे हो रहे है, कि जैसे काठ की पुतली नटुए के बस होय, जिधर वह चलावे तिधर वह चले। उनको यह उचित न था, जो पॉडवो की सहायता कर हमसे इतना द्वेष करे। दुसासने की भीम से भुजा उखड़वाई औ मेरी जॉघ मे गदा लगवाई। तुमसे अधिक हम क्या कहेगे इस समय

जो हरि करे सोई अब होय। या ते जाने सब कोय॥

यह वचन दुर्योधन के मुख से निकलतेही इतना कह बलरामजी श्रीकृष्णचंद के निकट आए कि तुम भी उपाध करने में कुछ थट नही औ बोले कि भाई, तुमने यह क्या किया जो युद्ध करवाय दुसासन की भुजा उखड़वाई औ दुर्योधन की जॉच कटवाई। यह धर्मयुद्ध की रीति नही है कि कोई बलवान हो किसी की भुजा उखाड़े, कै कटि के नीचे शस्त्र चलावे। हॉ धर्ममुद्ध यह है कि एक एक को ललकार सनमुख शस्त्र करै। श्रीकृष्णचंद बोले कि भाई, तुम नहीं जानते ये कौरव बड़े अधर्मी अन्याई है। इनकी अनीति कुछ कही नहीं जाती। पहले इन्होने दुसासन शकुनी भगदंत के कहे जुआ खेल कपट कर राजा युधिष्ठिर का सर्वस जीत लिया। दुसासन द्रौपदी के हाथ पकड़ लाया [ ३८३ ]इससे उसके हाथ भीमसेन ने उखाड़े। दुर्योधन ने सभा के बीच द्रौपदी को जॉघ पर बैठने को कहा, इससे उसकी जॉघ काटी गई।

इतना कह पुनि श्रीकृष्णचंद बोले कि भाई, तुम नहीं जानते इसी भॉतिंं की जो जो अनीति कौरवो ने पॉडवो के साथ की है, सो हम कहॉ तक कहैगे। इससे यह भारत की आग किसी रीति से अब न बुझेगी, तुम इसका कुछ उपाय मत करो। महाराज, इतना बचन प्रभु के मुख से निकलते ही बलरामजी कुरक्षेत्र से चलि द्वारका पुरी में आये औ राजा उग्रसेन सूरसेन से भेट कर हाथ जोड़ कहने लगे कि महाराज, आपके पुन्य प्रताप से हम सब तीरथ यात्रा तो कर आए पर एक अपराध हमसे हुआ। राजा उग्रसेन बोले― सो क्या? बलरामजी ने कहा― महाराज, नीमषार में जाय हमने सूतको मारा तिसकी हत्या हमें लगी। अब आपकी आज्ञा होय तो पुनि नीमपार जाय, यज्ञ के दरसन कर तीरथ न्हाय, हत्या का पाप मिटाये आवे, पीछे ब्राह्मण-भोजन करवाय जात को जिमावे जिससे जग में जस पावे। राजा उग्रसेन बोले― अच्छा आप हो आइये। महाराज, राजा की आज्ञा पाय बलरामजी कितने एक जदुबंसियों को साथ ले, नीमषार जाय स्नान दान कर शुद्ध हो आए। पुनि प्रोहित को बुलाय होम कर्वाय ब्राह्मन जिमाय, जात को खिलाय लोक रीति कर पवित्र हुए। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले–महाराज,

जो यह चरित सुने मन लाय। ताकौ सबही पाप नसाय॥