प्रेमसागर/८४ बसुदेवजी का यज्ञ
श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अब मैं सब ऋषियो के आने की औ बासुदेवजी के यज्ञ करने की कथा कहता हूँ तुम चित दे सुनौ। महाराज, एक दिन राजा उग्रसेन, सूरसेन, बसुदेव, श्रीकृष्ण, बलराम सब जदुबंसियों समेत सभा किये बैठे थे औ सब देस देस के नरेस वहॉ उपस्थित थे, कि इस बीच श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के दरसन की अभिलाषा कर व्यास, वशिष्ठ, विस्वामित्र वामदेव, परासर, भृगु, पुलस्ति, भरद्वाज, मारकंडेय आदि अट्ठासी सहस्र ऋषि वहॉ आए औ तिनके साथ नारदजी भी। उन्हें देखते ही सभा की सभा उठ खड़ी हुई। पुनि सव दंडवत कर पाटंबर के पॉवड़े डाल, सभा मे ले गये। आगे श्रीकृष्णचंद ने सबको आसन पर बैठाय, पॉव धोय चरनामृत ले पिया औ सारी सभा पर छिड़का। फिर चंदन अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य कर, भगवन ने सबकी पूजा कर परिक्रमा की। पुनि हाथ जोड़ सनमुख खड़े हो हरि बोले कि धन्य भाग हमारे जो आपने आय घर बैठे दरसन दिया। साध का दरसन गंगा के स्नान समान है। जिसने साध का दरसन पाया, उसने जन्म जन्मका पाप गँवाया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज―
श्रीभगवान बचन जब कहे। तब सब ऋषी बिचारत रहे॥
कि जो प्रभु: है जोतीसरूप औ सकल सृष्टि का करता,सो जब यह बात कहे तब और की किसने चलाई। मन ही मन सब मुनियो ने जद इतना कहा तद नारदजी बोले―,
सुनौ सभा तुम सब मन लाये। हरि माया जानी नहीं जाय॥
ये आपही ब्रह्मा हो उपजावते है विष्णु हो पालते हैं, शिव हो संहारते हैं। इनकी गति अपरंपार है, इसमे किसी की बुद्धि कुछ काम नहीं करती, पर इतना इनकी कृपा से हम जानते हैं कि साधो को सुख देने को औ दुष्टो के मारने को औ सनातन धर्म चलाने को, बार बार औतार ले प्रभु आते हैं। महाराज, जो इतनी बात कह नारदजी सभा से उठने को हुए, तो बसुदेवजी सनमुख आय हाथ जोड़ विनती कर बोले कि हे ऋषिराय, मनुष संसार में आय कर्म से कैसे छूटे, सो कृपा कर कहिये। महाराज यह बात बसुदेवजी के मुख से निकलतेही सब मुनि ऋर्षि नारदजी का मुख देख रहे। सब नारदजी ने मुनियों के मन का अभिप्राय समझकर कहा कि हे देवताओं, तुम इस बात का अचरज मत करो, श्रीकृष्ण की माया प्रबल है, इसने संसार को जीत रखा है, इसीसे बसुदेवजी ने यह बात कही औ दूसरे ऐसे भी कहा है कि जो जन जिसके समीप रहता है वह उसका गुन प्रभाव औ प्रताप माया के बस हो नहीं जानता, जैसे―
गंगाबासी अनतहि जाई। तज के गंग कूप जल न्हाइ॥
योही यादव भए अयाने। नाहो कछू कृष्णगति जाने॥
इतनी बात कह नारदजी ने मुनियो के मन का संदेह मिटाय, बासुदेवजी से कहा कि महाराज, शास्त्र में कहा है, जो नर तीरथ, दान, तप, ब्रत, यज्ञ करता है सो संसार के बंधन से छूट परम गति पाता है। इस बात के सुनते ही प्रसन्न हो बसुदेवजी ने बात की बात में सब यज्ञ की सामा मँगाय उपस्थित की और ऋषियो औ मुनियो से कहा कि कृपा कर यज्ञ का आरंभ कीजे। महाराज, बसुदेव जी के मुख से इतना बचन निकलते ही, सब ब्राह्मनो ने यज्ञ का स्थान बनाय सँवारा। इस बीच स्त्रियों समेत बसुदेवजी वेदी में जा बैठे। सब राजा औ यादव यज्ञ की टहल में आ उपस्थित हुए।
इतनी कथा सुनायश्रीशुकदेव जी ने राजा से कहा कि महाराज जिस समय बसुदेवजी वेदी मे जाय बैठे, उस काल वेद की बिधि से मुनियो ने यज्ञ का आरभ किया औ लगे वेद मंत्र पढ़ पढ़ आहुत देने औ देवता सदेह भाग आय आय लेने। महाराज, जिस काल यज्ञ होने लगा उस काल उधर किन्नर गंधर्व भेर दुंदुभी बजाय गुन गाते थे, चारन बंदी जन जस बखानते थे, उरबसी आदि अपसरा नाचती थी औ देवता अपने अपने विमानो मे बैठे फूल बरसाते थे औ इधर सब मंगली लोग गाय बजाय मंगलाचार करते थे औ जाचक जैजैकार। इसमें यज्ञ पूरन हुआ औ बसुदेवजी ने पुर्नाहुति दे ब्राह्मनों को पाटंबर पहराय अलंकृत कर, रत्न धन बहुत सा दिया औ उन्होने बेद मंत्र पढ़ पढ़ आशीर्वाद किया। आगे सब देस देस के नरेसो को भी बसुदेवजी ने पहराया औ जिमाया। पुनि उन्होंने यज्ञ की भेट कर बिदा हो अपनी अपनी बाट ली। महाराज, सब राजाओ के जाते ही नारदजी समेत सारे ऋषि मुनि भी बिदा हुए। पुनि नंदराय जी गोपी गोप ग्वाल बाल समेत जब बसुदेवजी से बिदा होने लगे, उस समय की बात कुछ कही नहीं जाती कि इधर तौ यदुवंसो करुना कर अनेक प्रकार की बाते करते थे औ उधर सब ब्रजवासी। उसका बखान कुछ कहा नही जाय, वह सुख देखे ही अनि आय। निदान बसुदेवजी औ श्रीकृष्ण बलरामजी ने सब समेत नंदरायजी को समझाय बुझाय पहराय, औ बहुत सा धन दे बिदा किया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इस भॉति श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी पर्व न्हाय यज्ञ कर सब समेत जब द्वारकापुरी में आए, तो घर घर आनंद मंगल भए बधाए।