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प्रेमसागर/८५ देवकी का मृतकपुत्रयाचन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४०३ से – ४०५ तक

 
पचासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, द्वारका पुरी के बीच एक दिन श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी जों वसुदेवजी के पास गए तों इन दोनों भाइयो को देख यह बात मन में विचार उठ खड़े हुए, कि कुरक्षेत्र में नारदजी ने कहा था कि श्रीकृष्णचंद जगत के करता हैं औ हाथ जोड़ बोले कि हे प्रभु, अलख अगोचर अविनासी, सदा सेवती है तुम्हैं कमला भई दासीं। तुम हो सब देवो के देव, कोई नहीं जानती तुम्हारा भेव। तुम्हारी ही जोती है चॉद सूरज पृथ्वी आकाश मे, तुम्हीं करते हो सब ठौर प्रकाश। तुम्हारी माया है प्रबल, उसने सारे संसार को भुला रक्खा है। त्रिलोकी में सुर नर मुनि ऐसा कोई नहीं जो उसके हाथ से बचा हो। महाराज, इतना कह पुनि बसुदेवजी बोले कि नाथ,

कोउ न भेद तुम्हारौ जाने। वेदन मॉझ अगाध बखाने॥
शत्रु मित्र कोऊ न तिहारौ। पुत्र पिता न सहोदर प्यारौ॥
पृथ्वी भार हरन अवतारौ। जन के हेत भेष बहु धारौ॥

महाराज, ऐसे कह बसुदेवजी बोले कि हे करुनासिन्धु दीनबंधु, जैसे आपने अनेक अनेक पतितो को तारा, वैसे कृपा कर मेरी भी निस्तार कीजे, जो भवसागर के पार हो आपके गुन गाऊँ। श्रीकृष्णचंद बोले कि हे पिता, तुम ज्ञानी होय पुत्रो की बड़ाई क्यौं करते हो, टुक आप हो मन मे विचारो कि भगवत की लीला अपरंपार है। उसका पार किसी ने आज तक नहीं पाया, देखो वह― 

घट घट माहिं जोति ह्वै रहै। ताही सो जग निर्गुन कहै॥
आपहि सिरजै आपहि हरै। रहै मिल्यौ बॉध्यौ नहीं परै॥
भू आकाश वायु जल जोति। पंच तत्व ते देह जो होति॥
प्रभु की शक्ति सबनि में रहै। वेद माहि विधि ऐसे कहै॥

महाराज, इतनी बात श्रीकृष्णचंदजी के मुख से सुनते ही, बसुदेवजी मोह बस होय चुप कर हरि की मुख देख रहे। तब प्रभु वहॉ से चल माता के निकट गए तो पुत्र का मुख देखते ही देवकीजी बोलीं―हे कृष्णचंद आनंदकंद, एक दुख मुझे जब न तब साले है। प्रभु बोले―सो क्या। देवकीजी ने कहा कि पुत्र तुम्हारे छह बड़े भाई जो कंस ने मार डाले हैं उनको दुख मेरे मुन से नहीं जाता।

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बात के कहते श्रीकृष्णचंदजी इतना कह पातालपुरी को गए कि माता तुम अब मत कुढ़ो मै अपने भाइयो को अभी जाय ले आता हूँ। प्रभु के जाते ही समाचार पाय राजा बलि आय, अति धूमधाम से पाटंबर के पॉवड़े डाल निज मंदिर में लिवाय ले गया। आगे सिंहासन पर बिठाय राजा बलि ने चंदन, अक्षत, पुष्प चढ़ाय, धूप, दीप, नैवेद्य धर श्रीकृष्णचंद की पूजा की। पुनि सनमुख खड़ा हो हाथ जोड़ अति स्तुति कर बोला कि महाराज, आप का आना ह्यॉ कैसे हुआ। हरि बोले कि राजा, सतयुग मे मरीचि ऋषि नामक एक ऋषि बड़े ब्रह्मचारी, ज्ञानी, सत्यवादी औ हरिभक्त थे। उसकी स्त्री का नाम उरना, विसके छह बेटे। एक दिन वे छहो भाई तरुन अवस्था में प्रजापति के सनमुख जा हँसे। उनको हँसता देख प्रजापति ने महीकोप कर यह श्राप दिया कि तुम जाय अव तार ले असुर हो। महाराज, इस बात के सुनतेही ऋषिपुत्र अति भय खाय प्रजापति के चरनो पर जाय गिरे औ बहुत गिड़गिड़ाय अति बिनती कर बोले कि कृपासिधु, आपने श्राप तो दिया पर अब कृपा कर कहिए कि इस श्राप से हम कब मोक्ष पावेगे। उनके दीन बचन सुन प्रजापति ने दयाल हो कहा कि तुम श्रीकृष्णचंद के दरसन पाय मुक्त होगे। महाराज―

इतनौ कहत प्रान तज गए। ते हरिनाकुस पुत्र जु भए॥
पुनि बसुदेव के जन्मे जाय। तिनकौ हत्यो कंस ने आय॥
मारत तिन्ह माया ले आई। इह ठॉ राखि गई सुखदाई॥

उनका दुख माता देवकी करती हैं, इसलिये हम ह्याँ आए है कि अपने भाइयों को ले जाय माता को दीजे औ उनके चित्त की चिता दूर कीजे। श्रीशुकदेवजी बोले कि गजा, इतना बचन हरि के मुख से निकलते ही राजा बलि ने छहो बालक ला दिये औ बहुत सी भेटे आगे धरीं। तब प्रभु वहॉ से भाइयों को साथ ले माता के पास आए। माता पुत्रो को देख अति प्रसन्न हुई। इस बात को सुन सारी पुरी में आनंद हुआ औ उनका श्राप छूटा।