प्रेमसागर/८ शकटभंजन, तृणावर्तवध

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प्रेमसागर  (1922) 
द्वारा लल्लूलाल जी
[ ३१ ]
आठवाँ अध्याय


श्री शुकदेव मुनि बोले―

जिहि नक्षत्र मोहन भये सो नक्षत्र पन्यो आइ।
चारु बधाए रीति सब करत जसोदा माइ।।

जब सत्ताइस दिन के हरि हुए तब नंदजी ने सव ब्राह्मन औ ब्रजबासियो को नोता भेज दिया। वे आए, तिन्ही आदर मान कर बैठाया। आगे ब्राह्मनो को तो बहुत सा दान दे बिदा किया और भाइयो को बारे पहराय षटरस भोजन कराने लगे। तिस समै जसोदा रानी परोसती थीं, रोहनी टहल करती थीं, ब्रजबासी हँस हँस खा रहे थे, गोपियॉ गीत गा रही थीं, सब आनंद में ऐसे मगन थे कि कृष्ण की सुरत किसू को भी न थी। और कृष्ण एक भारी छकड़े के नीचे पालने में अचेत सोते थे कि इसमें भूखे। हो जगे, पॉव के अँँगुठे मुँँह में दे रोवन लगे औ हिलक हिलक चारो ओर देखने। विसी औसर उड़ता हुआ एक राक्षस आ निकला। कृष्ण को अकेला देख अपने मन मे कहने लगा कि यह तो कोई बड़ा बली उपजा है, पर आज मै इससे पूतना का बैर लूँगा। यो ठान सकट मे आन बैठा। तिसीसे उसका नाम सकटासुर हुआ। जब गाड़ा चड़चड़ायकर हिला, तब श्रीकृष्ण ने बिलकते बिलकते एक ऐसी लात मारी कि वह मर गया, और छकड़ा टूक टूक हो गिरा तो जितने बासन दूध दही के थे सब फूट चूर हुए औ गोरस की नदी सी बह निकली। गाड़े के टूटने और भॉड़ो के फूटने का शब्द सुन सब गोपी ग्वाल दौड़ आए, आते ही जसोदा ने कृष्ण को उठाय मुँँह चूँव छाती से लगा लिया। यह [ ३२ ]अचरज देख सब आपस में कहने लगे―आज विधना ने बड़ी कुशल की जो बालक बच रहा औ सकट ही टूट गया।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले–हे राजा, जब हरि पाँच महीने के हुए तब केस ने तृनावर्स को पठाया, वह बगूला हो गोकुल में आया। नंदरानी कृष्ण को गोद में लिये आँगन के बीच बैठी थी कि एकाएकी कान्ह ऐसे भारी हुए जो जसोदा ने मारे बोझ के गोद से नीचे उतारे। इतने में एक ऐसी आँधी आई कि दिन की रात हो गई औ लगे पेड़ उखड़ उखड़ गिरने, छप्पर उड़ने। तब व्याकुल हो जसोदाजी श्रीकृष्ण को उठाने लगीं पर वे न उठे। जोहीं विनके शरीर से इनका हाथ अलग हुआ तोंहीं तृनावर्त आकाश को ले उड़ा और मन में कहने लगा कि आज इसे बिन मारे न रहूँगा।

वह तो कृष्ण को लिये वहाँ यह विचार करता था, यहाँ जसोदाजी ने जब आगे ने पाया तब रो रो कृष्ण कृष्ण कर पुकारने लगीं। विनका शब्द सुन सब गोपी ग्वाल आए, साथ ही ढूँढ़ने को धाये। अँधेरे में अटकल से टटोल टोल चलते थे तिसपर भी ठोकरे खाय गिर गिर पड़ते थे

ब्रज बन गोपी ढूँढ़त डोलैं। इस रोहनी जसोदा बोलें॥
नंद मेघ धुनि करे पुकार। टेरें गोपी गोप अपार॥

जद श्रीकृष्ण ने नंद जसोदा समेत सब ब्रजबासी अति दुखित देखे तद तृनावर्त को फिराय आँगन में ला सिली पर पटका कि विसका जी देह से निकल सका। आँधी थँम गई, उजाला हुआ, सब भूले भटके घर आये, देखे तो राक्षस आँगन में मरा पड़ा है। श्रीकृष्ण छाती पर खेल रहे हैं। आते ही जसोदा ने उठीय कंठ से लगा लिया और बहुत सा दान ब्राह्मनों को दिया

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