प्रेमाश्रम/१५

विकिस्रोत से
प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १०९ ]

१५

प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने के आध घंटे की देर थी। एक अँगरेजी पत्र ले कर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरजक थे। दस मिनट में उन्होंने सभी विज्ञापन पढ़ डाले। चित्त चंचल हो रहा था। बेकार बैठना मुश्किल था। इसके लिए बड़ी एकाग्रता की आवश्यकता होती है। आखिर खोचे की चाट खाने में उनके चित्त को शान्ति मिली। बेकारी में मन बहलाने का यही सबसे सुगम उपाय है।

जब वह फिर प्लेटफार्म पर आये तो सिगनल डाउन हो चुका था। ज्ञानशंकर का हृदय धड़कने लगा। गाड़ी आते ही पहले और दूसरे दरजे की गाड़ियों मे झांकने लगे, किन्तु प्रेमशंकर इन कमरों में न थे। तीसरे दर्जे की सिर्फ दो गाड़ियां थी। वह इन्हीं गाड़ियों के कमरे में बैठे हुए थे। ज्ञानशंकर को देखते ही दौड़ कर उनके गले लिपट गये। ज्ञानशंकर को इस समय अपने हृदय में आत्मबल और प्रेमभाव प्रवाहित होता जान पड़ता था। सच्चे भ्रातृ-स्नेह ने मनोमालिन्य को मिटा दिया। गला भर आया और अश्रूजल बहने लगा। दोनो भाई दो-तीन मिनट तक इसी भाँति रोते रहे। ज्ञानशंकर ने समझा था कि भाई साहब के साथ बहुत-सा आडम्बर होगा, ठाट-बाट के साथ आते होगे, पर उनके वस्त्र और सफर का सामान बहुत मामूली था। हाँ, उनका शरीर पहले से कही हृष्ट-पुष्ट था और यद्यपि वह ज्ञानशंकर से पाँच साल बड़े थे, पर देखने मे उनसे छोटे मालूम होते थे, और चेहरे पर स्वास्थ्य की कान्ति झलक रही थी।

ज्ञानशंकर अभी तक कुलियों को पुकार ही रहे थे कि प्रेमशंकर ने अपना सब सामान उठा लिया और बाहर चले। ज्ञानशंकर संकोच के मारे पीछे हट गये कि किसी [ ११० ]जान-पहचान के आदमी से भेंट न हो जाय।

दोनों आदमी ताँगे पर बैठे; तो प्रेमशंकर बोले, छह साल के बाद आता हूँ, पर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ से गये थोड़े ही दिन हुए है। घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञान- जी हाँ, सब कुशल है। आपने तो इतने दिन हो गये, एक पत्र भी न भेजा, बिल्कुल भुला दिया। आप के ही वियोग में बाबू जी के प्राण गये।

प्रेम-वह शोक समाचार तो मुझे यहाँ के समाचार पत्र से मालूम हो गया था, पर कुछ ऐसे ही कारण थे कि आ न सका। "हिन्दुस्तान रिव्यू में तुमने नैनीताल के जीवन पर जो लेख लिखा था, उसे पढ़ कर मैंने आने का निश्चय किया। तुम्हारे उन्नत विचारों ने ही मुझे खीचा, नहीं तो सम्भव है, मैं अभी कुछ दिन और न आता। तुम पालिटिक्स (राजनीति) में भाग लेते हो न?

ज्ञान--(सकोच भाव से) अभी तक तो मुझे इसका अवसर नहीं मिला। हाँ, उसकी स्टडी (अध्ययन) करता रहता हूँ।

प्रेम-कौन-सा प्रोफेशन (पेशा) अख्तियार किया?

ज्ञान अभी तो घर के ही झंझटों से छुट्टी नहीं मिली। जमींदारी के प्रबंध के लिए मेरा घर रहना जरूरी था। आप जानते है यह जंजाल है। एक न एक झगड़ा लगा ही रहता है। चाहे उससे लाभ कुछ न हो पर मन की प्रवृत्ति आलस्य की ओर हो जाती है। जीवन के कर्म-क्षेत्र में उतरने का साहस नही होता। यदि यह अवलम्बन न होता तो अब तक मैं अवश्य वकील होता।

प्रेम तो तुम भी मिल्कियत के जाल में फंस गये और अपनी बुद्धि-शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हो? अभी जायदाद के अन्त होने में कितनी कसर है?

ज्ञान-चाचा साहब का बस चलता तो कभी का अन्त हो चुका होता, पर शायद अब जल्द अन्त न हो। मैं चाचा साहब से अलग हो गया हूँ।

प्रेम-खेद के साथ? यह तुमने क्या किया। तब तो उनको गुजर बड़ी मुश्किल से होता होगा?

ज्ञान-कोई तकलीफ नहीं है। दयाशंकर पुलिस में है और जायदाद से दो हजार मिल जाते है।

प्रेम-उन्हें अलग होने का दुःख तो बहुत हुआ होगा। वस्तुत मेरे भागने का मुख्य कारण उन्हीं का प्रेम था। तुम तो उस वक्त शायद स्कूल में पढ़ते थे, मैं कालेज से ही स्वराज्य आन्दोलन में अग्रसर हो गया। उन दिनों नेतागण स्वराज्य के नाम से काँपते थे। इस आन्दोलन में प्राय नवयुवक ही सम्मिलित थे। मैंने साल भर बड़े उत्साह से काम किया। पुलिस ने मुझे फंसाने का प्रयास करना शुरू किया। मुझे ज्यों ही मालूम हुआ कि मुझ पर अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही है, त्यों ही मैंने जान ले कर भागने में ही कुशल समझीं। मुझे फंसे देख कर बाबू जी तो चाहे धैर्यं से काम लेते, पर चचा साहब निस्सन्देह आत्म-हत्या कर लेते। इसी भय से मैंने पत्रव्यवहार भी बन्द कर दिया कि ऐसा न हो, पुलिस यहाँ लोगों को तंग करे। बिना [ १११ ]देशाटन किये अपनी पराधीनता का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता। जिन विचारों के लिए मैं यहाँ राजद्रोही समझा जाता था, उससे कही स्पष्ट बातें अमेरिका वाले अपने शासकों को नित्य सुनाया करते है, बल्कि वहाँ शासन की समालोचना जितनी ही निर्भीक हो उतनी ही आदरणीय समझी जाती है। इस बीच में यहाँ भी विचार-स्वातंत्र्य की कुछ वृद्धि हुई है। तुम्हारा लेख इसका उत्तम प्रमाण है। इन्हीं सुव्यवस्थाओं ने मुझे आने पर प्रोत्साहित किया और सत्य तो यह है कि अमेरिका से दिनों दिन अभक्ति होती जाती थी। वहाँ धन और प्रभुत्व की इतनी क्रूर लीलाएँ देखी कि अन्त में उनसे घृणा हो गयी। यहाँ के देहातों और छोटे शहरों का जीवन उससे कही सुख कर है। मेरा विचार भी सरल जीवन व्यतीत करने का है। हाँ, यथासाध्य कृषि की उन्नति करना चाहता हूँ।

ज्ञान—यह रहस्य आज खुला। अभी तक मैं और घर के सभी लोग यही समझते थे कि आप केवल विद्योपार्जन के लिए गये है। मगर आज कल तो स्वराज्यान्दोलन बहुत शिथिल पड़ गया है। स्वराज्यवादियों की जान ही बन्द कर दी गयी है।

प्रेम-यह तो कोई बुरी बात नहीं, अब लोग बाते करने की जगह काम करेंगे। हमें बात करते एक युग बीत गया। मुझे भी शब्दों पर विश्वास नहीं रहा। हमें अब संगठन की, परस्पर प्रेम-व्यवहार की और सामाजिक अन्याय को मिटाने की जरूरत है। हमारी आर्थिक दशा भी खराब हो रही है। मेरा विचार कृषि विधान में संशोधन करने का है। इसलिए मैंने अमेरिका में कृषिशास्त्र का अध्ययन किया है।

यो बातें करते हुए दोनों भाई मकान पर पहुँचे। प्रेमशंकर को अपना घर बहुत छोटा दिखाई दिया। उनकी आँखें अमेरिका की गगनस्पर्शी अट्टालिकाओं के देखने को आदी हो रही थी। उन्हें कभी अनुमान ही न हुआ था कि मेरा घर इतना पस्त है। कमरे में आये तो उसकी दशा देख कर और भी हताश हो गये। जमीन पर फर्श तक न था। दो-तीन कुसियाँ जरूर थी, लेकिन बाबा आदम के जमाने की, जिन पर गर्द जमी हुई थी। दीवारों पर तस्वीरे नयी थी, लेकिन बिलकुल भद्दी और अस्वाभाविक। यद्यपि वह सिद्धान्त रूप से विलास-वस्तुओं की अवहेलना करते थे, पर अभी तक रुचि उनकी ओर से न हटी थी।

लाला प्रेमाशंकर उनकी राह देख रहे थे। आ कर उनके गले से लिपट गये और फूट-फूट कर रोने लगे। महल्ले के और सज्जन भी मिलने आ गये। दो-ढाई घंटों तक प्रेमशंकर उन्हें अमेरिका के वृत्तान्त सुनाते रहे। कोई वहाँ से हटने का नाम न लेता था। किसी को यह ध्यान न होता था कि ये बेचारे सफर करके आ रहे है, इनके नहाने खाने का समय आ गया है, यह बाते फिर सुन लेंगे। आखिर ज्ञानशंकर को साफ-साफ कहना पड़ा कि आप लोग कृपा करके भाई साहब को भोजन करने का समय दीजिए, बहुत देर हो रही है।

प्रेमशंकर ने स्नान किया, सन्ध्या की और ऊपर भोजन करने गये। इन्हें आशा थी कि श्रद्धा भोजन परसेगी, वही उससे भेंट होगी, खूब बाते करूंगा। लेकिन यह [ ११२ ]आशा पूरी न हुई। एक चौकी पर कालीन बिछा हुआ था, थाल परसा रखा था, पर श्रद्धा वहाँ उनका स्वागत करने के लिए न थी। प्रेमशंकर को उसकी इस प्रेम शून्यता पर बड़ा दुख हुआ। उनके लौटने का एक मुख्य कारण श्रद्धा से प्रेम था। उसकी याद इन्हें हमेशा तड़पाया करती थी, उसकी प्रेम-मूर्ति सदैव उनके हृदय नेत्रों के सामने रहती थी। उन्हें प्रेम के बाह्याडम्बर से घृणा थी। वह अब भी स्त्रियों की श्रद्धा, पतिभक्ति, लज्जाशीलता और प्रेमानुराग पर मोहित थे। उन्हें श्रद्धा को नीचे दीवानखाने मे देख कर खेद होता, पर उसे यहाँ न देख कर उनका हृदय ब्याकुल हो गया। यह लज्जा नहीं, हया नहीं, प्रेम शैथिल्य है। इतने मर्माहत हुए कि जी चाहा इसी क्षण यहाँ से चला जाऊँ और फिर आने का नाम न लें पर धैर्य से काम लिया। भोजन पर बैठे। ज्ञानशंकर से बोले, आयो भाई बैठो। माया कहाँ है, उसे भी बुलाओ, एक मुद्दत के बाद आज सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

ज्ञानशंकर ने सिर नीचा करके कहा-आप भोजन कीजिए, मैं फिर खा लूँगा।

प्रेम-ग्यारह तो बज रहे हैं, अब कितनी देर करोगे? आओ, बैठ जाओ। इतनी चीजें मैं अकेले कहाँ तक खाऊँगा? मुझे अन्न धैर्य नहीं है। बहुत दिनों के बाद चपातियों के दर्शन हुए हैं। हलुआ, समोसे, सौर आदि का तो स्वाद ही मुझे भूल गया। अकेले खाने में आनन्द नहीं आता। यह कैसा अतिथि सत्कार है कि मैं तो यहाँ भोजन करू और तुम कहीं और। अमेरिका में तो मेहमान इसे अपना घोर अपमान समझता।

ज्ञान- मुझे तो इस समय क्षमा ही कीजिए। मेरी पाचन-शक्ति दुर्बल है, बहुत पथ्य से रहता हूँ।

प्रेमशंकर भूल ही गये थे कि समुद्र में जाते ही हिन्दू-धर्मं धुल जाता है। अमेरिका से चलते समय उन्हें ध्यान भी न था कि बिरादरी मेरा बहिष्कार करेगी, यहाँ तक कि मेरा सहोदर भाई भी मुझे अछूत समझेगा। पर इस समय जब उनके बराबर आग्रह करने पर भी ज्ञानशंकर उनके साथ भोजन करने नहीं बैठे और एक न एक बहाना करके टालते रहे तो उन्हें वह भूली हुई बात याद आ गयी। सामने के बर्तनों ने इस विचार को पुष्ट कर दिया, फूल या पीतल का कोई बर्तन न था। सब बर्तन चीनी के थे और गिलास शीशे का। शकित भाव से बोले, आखिर यह बात क्या है कि तुम्हें मेरे साथ बैठने में इतनी आपत्ति है? कुछ छूत-छात का विचार तो नहीं है?

ज्ञानशंकर ने झेपते हुए कहा, अब मैं आपसे क्या कहूँ? हिन्दुओं को तो आप जानते ही हैं, कितने मिथ्यावाद होते है। आपके लौटने का समाचार जब से मिला है, सारी बिरादरी में एक तूफान सा उठा हुआ है। मुझे स्वयं विदेश यात्रा में कोई आपत्ति नहीं है। मैं देश और जाति की उन्नति के लिए इसे जरूरी समझता है और स्वीकार करता हूँ कि इस नाकेबंदी से हमको बड़ी हानि हुई है, पर मुझे इतना साहस नहीं है कि विरादरी से विरोध कर सकें।

प्रेम—अच्छा यह बात है। आश्चर्य है कि अब तक क्यों मेरी आँखों पर परदा [ ११३ ]पडा रहा ? अब मैं ज्यादा आग्रह न करूँगा । भोजन करता हूँ, पर खेद यह है कि तुम इतने विचारशील हो कर बिरादरी के गुलाम बने हुए हो, विशेषकर जब तुम मानते हो। कि इस विषय में बिरादरी का बन्धन सर्वया असगत है। शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो, न यह कि उसके दवाव से अपने सिद्धातो को बलिदान कर दो। यदि तुम स्वाधीन भाव से समुद्र यात्रा को दूषित समझते तो मुझे कोई आपत्ति न होती । तुम्हारे विचार और व्यवहार अनुकूल होते। लेकिन अन्त करण से किसी बात से कायल हो कर केवल निन्दा या उपहास के भय से उसका व्यवहार न करना तुम जैसे उदार पुरुष को शोभा नहीं देता। अगर तुम्हारे धर्म में किसी मुसाफिर की बातों पर विश्वास करना मना न हो तो मैं तुम्हे यकीन दिलाता हूँ कि अमेरिका में मैंने कोई ऐसा कर्म नही किया जिसे हिन्दू-धर्म निषिद्ध ठहराता हो । मैंने दर्शन शास्त्रों पर कितने ही व्याख्यान दिये, अपने रस्म-रिवाज और वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने मे सदैव तत्पर रहा, यहाँ तक कि पर्दे की रस्म की भी सराहना करता रहा, और मेरा मन इसे कभी नहीं मान सकता कि यहाँ किसी को मुझे विधर्मी समझने का अधिकार है। मैं अपने धर्म और मत का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा पहले-- था बल्कि उससे ज्यादा। इससे अधिक मैं अपनी सफाई नहीं दे सकता।

ज्ञान--इस सफाई की तो कोई जरूरत ही नहीं, क्योकि यहाँ लोगो को विदेश-यात्रा पर जो अश्रद्धा है, वह किसी तर्क या सिद्धान्त के अधीन नहीं है। लेकिन इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि हिन्दू-धर्म कुछ रीतियों और प्रथाओं पर अवलम्बित है और विदेश में आप उनका पालन समुचित रीति से नहीं कर सकते। आप वेदो से इन्कार कर सकते है, ईसा या मूसा के अनुयायी बन सकते है, किन्तु इन रीतियो को नही त्याग सकते । इसमे सन्देह नहीं कि दिनों-दिन यह वन्धन ढीले होते जाते हैं और इसी देश में ऐसे कितने ही सज्जन हैं जो प्रत्येक व्यवहार का भी उल्लघन करके भी हिन्दू बने हुए है, किन्तु बहुमत उनकी उपेक्षा करता है और उनको निन्द्य समझता है। इसे आप मेरी आत्मभीरुता या अकर्मण्यता समझे, किन्तु मैं बहुमत के साथ चलना अपना कर्तव्य समझता हूँ । मैं बलप्रयुक्त सुधार का कायल नहीं हूँ। मेरा विचार है कि हम बिरादरी में रह कर उससे कहीं अधिक सुधार कर सकते हैं। जितना स्वाधीन हो कर ।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ जवाब न दिया । भोजन करके लेटे तो अपनी परिस्थिति पर विचार करने लगे। मैंने समझा था यहाँ शान्तिपूर्वक अपना काम करूँगा, कम से कम अपने घर में कोई मुझसे विरोध न करेगा, किन्तु देखता हूँ, यहाँ कुछ दिन घोर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा । ज्ञानशकर के उदारतापूर्ण लेख ने मुझे भ्रम में डाल दिया । खैर कोई चिंता नहीं । विरादरी मेरा कर ही क्या सकती हैं उसमे रह कर मुझमें कौन से सुर्खाब के पर लग जायेंगें । अगर कोई मेरे साथ नहीं खाता तो न खाय, मैं उसके साथ न खाऊँगा । कोई मुझसे बात नहीं करता, न करे, मैं [ ११४ ]रहूँगा। वाह! परदेश क्या गया, मानो कोई पाप किया; पर पापियों को तो कोई बिरादरी से च्युत नहीं करता। धर्म बेचनेवाले, ईमान बेचनेवाले, सन्तान बेचनेवाले बगले बजाते हैं, कोई उनकी और कड़ी आँख से देख नहीं सकता। ऐसे पतितो, ऐसे भ्रष्टाचारियों में रहने के लिए मैं अपनी आत्मा का सर्वनाश क्यों करूंँ?

अकस्मात् उन्हें ध्यान आया, कहीं श्रद्धा भी मेरा बहिष्कार न कर रही हो! इन अनुदार भावों को उस पर भी असर न पड़ा हो। फिर तो मेरा जीवन नष्ट हो जायगा। इस शंका ने उन्हें घोर चिन्ता में डाल दिया और तीसरे पहर तक उनकी व्यग्नता इतनी बढ़ी कि वह स्थिर न रह सके। माया से श्रद्धा का कमरा पूछ कर ऊपर चढ गयें।

श्रद्धा इस समय अपने द्वार पर इस भाँति खड़ी थी, जैसे पथिक रास्ता भूल गया हो। उसका हृदय आनन्द से नहीं, एक अव्यक्त भय से कांप रहा था। यह शुभ दिन देखने के लिए उसने तपस्या की थी। यह आकांक्षा उसके अन्धकारमय जीवन को। दीपक, उसकी डूबती हुई नौका की लंगर थी। महीने के तीस दिन और दिन के चौबीस घंटे यही मनोहर स्वप्न देखने में करते थे। विडम्बना यह थी कि वे आकांक्षाएं और कामनाएं पूरी होने के लिए नहीं, केवल तड़पाने के लिए थी। वह दाह और संतोष शान्ति का इच्छुक न था। श्रद्धा के लिए प्रेमशंकर केवल एक कल्पना थे। इसी कल्पना पर बह प्राणार्पण करती थी। उसकी भक्ति केवल उनकी स्मृति पर थी, जो अत्यन्त मनोरम, भावमय और अनुरागपूर्ण थी। उनकी उपस्थिति ने इस सुखद कल्पना और मधुर स्मृति का अन्त कर दिया। वह जो उनकी याद पर ज्ञान देती थी, अत्र उनकी सत्ता से भयभीत थी, क्योंकि वह कल्पना धर्म और सतीत्व की पोषक थी, और यह सत्ता उनकी घातक। श्रद्धा को सामाजिक अवस्था और समयोचित आवश्यकताओं को ज्ञान था। परम्परागत बन्धनों को तोड़ने के लिए जिस विचार स्वातंत्र्य और दिव्य ज्ञान की जरूरत थी उससे वह रहित थी। वह एक साधारण हिंदू अबली थी। वह अपने प्राणों से, अपने प्राणप्रिय स्वामी के हाथ धो सकती थी, किंतु अपने धर्म की अवज्ञा करना अथवा लोक-निंदा को सहन करना उसके लिए असंभव था। जब से उसने सुना था कि प्रेमशंकर घर आ रहे है, उसकी दशा इस अपराधी की सी हो रही थी, जिसके सिर पर नगी तलवार लटक रही हो। आज जब से वह्। नीचे आ कर बैठे थे उसके आँसू एक क्षण के लिए भी न थमते थे। उसका हृदय काँप रहा था कि कहीं वह ऊपर न आते हो, कहीं वह आ कर मेरे सम्मुख खड़े न हो जायँ, मेरे अंग को स्पर्श न कर लें! मर जानी इससे कहीं आसान था। मैं उनके सामने कैसे खड़ी हूँगी, मेरी आँखें क्योंकर उनसे मिलेगी, उनकी बातों का क्योंकर जवाब देंगी? वह इन्हीं जटिल चिंताओं में मग्न खड़ी थी कि इतने में प्रेमशंकर उसके सामने आ कर खड़े ही हो गये। श्रद्धा पर अगर बिजली गिर पड़ती, भूमि उसके पैरों के नीचे से सरक जाती अथवा कोई सिंह आ कर खड़ा हो जाता तो भी वह इतनी असावधान हो कर अपने कमरे में भाग न जाती। वह तो भीतर जा कर एक कोने में खड़ी हो गयी। भय से उसका एक-एक रोम काँप रहा था। प्रेमशंकर सन्नाटे में आ [ ११५ ]गये। कदाचित् आकाश, सामने से लुप्त हो जाता तो भी उन्हें इतना विस्मय न होता। वह क्षण भर मूर्तिवत खड़े रहे और एक ठंडी साँस ले कर नीचे की ओर चले। श्रद्धा के कमरे में जाने, उससे कुछ पूछने या कहने का उन्हें साहस न हुआ। इस दुरनुराग ने उनका उत्साह भग कर दिया, उन काव्यमय स्वप्नों का नाश कर दिया जो बरसों से उनकी चैतन्यावस्था के सहयोगी बने हुए थे। श्रद्धा ने किवाड़ की आड़ से उन्हें जीने की ओर जाते देखा। हा! इस समय उसके हृदय पर क्या बीत रही थी, कौन जान सकता है? उसका प्रिय पति जिसके वियोग में उसने सात वर्ष रो-रो कर काटे थे सामने से भग्न हृदय, हताश चला जा रहा था और वह इस भाँति संशक खड़ी थी मानों आगे कोई बृहद जलागार है। धर्म पैरों को बढ़ने न देता था। प्रेम उन्मत्त तर की भाँति बार-बार उमड़ता था, पर धर्म की शिला से टकरा कर लौट आता था। एक बार वह अधीर हो कर चली कि प्रेमशंकर का हाथ पकड़ कर फेर लाऊँ, द्वार तक आयी, पर आगे न बढ़ सकी। धर्म ने ललकार कर कहा, प्रेम नश्वर हैं, निस्सार है, कौन किसका पति और कौन किसकी पत्नी? यह सब माया-जाल है। मैं अविनाशी हैं, मेरी रक्षा करो। श्रद्धा स्तम्भित हो गयी। मन में स्थिर किया जो स्वामी सात समुन्दर पार गया; वहाँ न जाने क्या खाया, क्या पीया, न जाने किसके साथ रहा, अब उससे क्या नाता? किन्तु प्रेमशंकर जीने से नीचे उतर गये तब श्रद्धा मूर्छित हो कर गिर गयी। उठती हुई लहरे टीले को न तोड़ सकी, पर तटो को जल मग्न कर गयी।