प्रेमाश्रम/१४

विकिस्रोत से
प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १०१ ]

१४

राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया है। एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुंज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े है, कई मोटर गाड़ियाँ, बहुत-से नौकर। यहाँ वह राजाओं की भाँति शान से रहते हैं। कभी हिमराशियों की सैर, कमी शिकार, कभी झील में बजरी की बहार, कभी पोलो और गल्फ, कभी सरोद और सितार, कभी पिकनिक और पार्टियाँ, नित्य नये जल्से, नये प्रमोद होते रहते हैं। राय साहब बड़ी उमंग के साथ इन विनोद की बहार लूटते हैं। उनके बिना किसी महफिल, किसी जल्से को रंग नहीं जमता। वह सभी बरात के दूल्हे हैं। व्यवस्थापक सभा की बैठकें नियमित समय पर हुआ करती है, पर मेंम्बरों के राग-रग को देख कर यह अनुमान करना कठिन है कि वह आमोद को अधिक महत्व का विषय समझते हैं या व्यवस्थाओं के सम्पादन काे।

किंतु ज्ञानशंकर के हृदय की कली यहाँ भी न खिली। राय साहब ने उन्हें यहाँ के समाज से परिचित करा दिया। उन्हें नित्य दावतों और जल्स में अपने साथ ले जाते, अधिकारियों से उनके गुणों की प्रशसा करते, यहाँ तक कि उन्हें लेडियों से भी इद्रोइयूस कराया। इससे ज्यादा वह और क्या कर सकते थे? इस भित्ति पर दीवार उठाना उनको काम था, पर उनकी दशा उस पौधे की-सी थी जो प्रतिकूल परिस्थिति में जाकर माली के सुव्यवस्था करने पर भी दिनों-दिन सूखता जाता है। ऐसा जान पड़ता या कि वह किसी गहन घाटी में रास्ता भूल गये हैं। रत्न-जटित लेडियों के सामने वह शिष्टाचार के नियमों के ज्ञाता होने पर भी झेपने लगते थे। राय साहब उन्हें प्राय एकान्त में सभ्य व्यवहार के उपदेश किया करते। स्वयं नमूना बन उन्हें सिखाते, पुरुषों से क्योंकर बिना प्रयोजन ही मुस्कुरा कर बातें करनी चाहिए, महिलाओं के रूप लावण्य की क्योंकर सराहना करनी चाहिए, किन्तु अवसर पड़ने पर ज्ञानशंकर का मतिहरण हो जाता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि राय साहब इस वृद्धावस्था में भी लेडियों के साथ कैसे घुल-मिल जाते हैं, किस अन्दाज से बातें करते हैं कि बनावट का ध्यान भी नहीं हो सकता, मानों इसी जलवायु में उनका पालन-पोषण हुआ है।

एक दिन वह झील के किनारे एक बेंच पर बैठे हुए थे। कई लेडियों एक बजरे पर जल-क्रीड़ा कर रही थी। इन्हें पहचान कर उन्होंने इशारे से बुलाया और सैर [ १०२ ]करने की दावत दी। इस समय ज्ञानशंकर की मुखाकृति देखते ही बनती थी। उन्हें इन्कार करने के शब्द न मिले। भय हुआ कि कहीं असभ्यता न समझी जाय। झेंपते हुए बजरे में जा बैठे, पर सूरत बिगड़ी हुई, खेद और ग्लानि की सजीव मूर्ति। हृदय पर एक पहाड़ का बोझ रखा हुआ था। लेडियों ने उनकी यह दशा देखी, तो आड़े हाथों लिया और इतनी फेबतियाँ उड़ायीं, इतना बनाया कि इस समय कोई ज्ञानशंकर को देखता तो पहचान न सकता। मालूम होता था आकृति ही बिगड़ गयी है। मानो कोई बन्दर का बच्चा नटखट लड़कों के हाथों पड़ गया हो। आँखों में आँसू भरे एक कोने में दबके सिमटे बैठे हुए अपने दुर्भाग्य को रो रहे थे। बारे किसी तरह इस विपत्ति से मुक्ति हुई, जान में जान आई। कान पकड़े कि फिर लेडियों के निकट न जाऊँगा।

शनैः शनैः ज्ञानशंकर को इन खेल-तमाशों से अरुचि होने लगी। अंगूर खट्टे हो गये। ईर्ष्या, जो अपनी क्षुद्रताओं की स्वीकृति है, हृदय का काँटा बन गयी। रात-दिन इसकी टीस रहने लगी। उच्चाकांक्षाएँ उन्हें पर्वत के पादस्थल तक ले गयीं, लेकिन ऊपर न ले जा सकीं। वहीं हिम्मत हार कर बैठ गये और उस धुन के पूरे, साहसी पुरुष की निन्दा करने लगे, जो गिरते-पड़ते ऊपर चढ़ते चले जाते थे। यह क्या पागलपन है। लोग ख्वाहमख्वाह अँगरेजियत के पीछे लट्ठ लिए फिरते हैं। थोड़ी-सी ख्याति और सत्ता के लिए इतना झंझट और इतने रंग-रोगन पर भी असलियत का कहीं पता नहीं। सब के सब बहुरूपिये मालूम होते हैं। अँगरेज लोग इनके मुंह पर चाहें न हँसे, पर मित्र-मंडली में सब इन पर तालियां बजाते होंगे। और तो और लोग लेडियों के साथ नाचने पर भी मरते हैं। कैसी निर्लज्जता है, कैसी बेहयाई, जाति के नाम पर धब्बा लगाने वाली। राय साहब भी विचित्र जीव हैं। इस अवस्था में आपको भी नाचने की धुन है। ऐसा मालूम होता है मानो उच्छृंखलता संदेह होकर दूसरों का मुंह चिढ़ा रही है। डाक्टर चन्द्रशेखर कहने को तो दर्शन के ज्ञाता हैं, पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर लच्छेदार वक्तृताएँ देते हैं, लेकिन नाचने लगते हैं तो सारा पाण्डित्य चूल में मिल जाता है। वह जो राजा साहब हैं इन्द्रकुमार सिंह, मटके की भाँति तोंद निकली हुई है, लेकिन आप भी अपना नृत्य-कौशल दिखाने पर उधार खाये हुए हैं और तुर्रा यह कि सब के सब जाति के सेवक और देश के भक्त बनते हैं। जिसे देखिए, भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाता नजर आता है। यह लोग विलासमय होटलों में शराब और लेमोनेड पीते हुए देश की दरिद्रता और अघौगति का रोना रोते हैं। यह भी फैशन में दाखिल हो गया है।

इस भाँति ज्ञानशंकर की ईर्ष्या देशानुराग के रूप में प्रकट हुई। असफल लेखक समालोचक बन बैठा। अपनी असमर्थता ने साम्यवादी बना दिया। यह सभी रँगे हुए सियार हैं, लुटेरों का जत्था है। किसी को खबर नहीं कि गरीबों पर क्या बीत रही है? किसी के हृदय में दया नहीं। कोई राजा है, कोई ताल्लुकेदार, कोई महाजन, सभी गरीब का खून चूसते हैं, गरीबों के झोपड़ों में सेंध मारते हैं और यहाँ आ कर [ १०३ ]देश की अवनति का पचड़ा गाते है। भला यही है कि अधिकारी वर्ग इन महानुभाव को मुंह नहीं लगाते। कहीं वह इनकी बातों में आ जायें और देश का भाग्य इनके हाथों में दे दें तो जाति का कहीं नाम-निशान न रहे। यह सब दिन-दहाड़े लूट खायें। कोई इन भलेमानसो से पूछे, आप जो यहाँ लाखों रुपये सैर-सपाटो उडी रहे हैं, उससे जाति को क्या लाभ हो रहा है? यहीं धन यदि जाति पर अर्पण करते तो जाति तुम्हें धन्यवाद देती और तुम्हें पूजती, नहीं तो उसे खबर भी नहीं कि तुम कौन हो और क्या करते हो। उनके लिए तुम्हारा होना न होना दोनों बराबर हैं। प्रार्थी को इस बात से सन्तोष नहीं होता कि तुम दूसरों से सिफारिश करके उसे कुछ दिला दोगे, उसे संतोष होगा जब तुम स्वयं अपने पास से थोड़ा सा निकाल कर उसे दे दो।

ये द्रोहात्मक विचार ज्ञानशंकर के चित्त को मथने लगे। बाणी उन्हें प्रकट करने के लिए व्याकुल होने लगी। एक दिन वह डाक्टर चन्द्रशेखर से उलझ पड़े। इसी प्रकार एक दिन राजा इन्द्रकुमार से विवाद कर बैठे और मिस्टर हरिदास वैरिस्टर से तो एक दिन हाथापाई की नौबत आ गयी। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने ज्ञानशंकर का बहिष्कार करना शुरू किया; यहाँ तक कि राय साहब के बंगले पर आना भी छोड़ दिया। किंतु जब ज्ञानशंकर ने अपने विचारों को एक प्रसिद्ध अँगरेजी पत्रिका में प्रकाशित कराया तो सारे नैनीताल में हलचल मच गयी। जिसके मस्तिष्क से ऐसे उत्कृष्ट भाव प्रकट हो सकते थे, उसे झक्की या वक्की समझना असम्भव था। शैली ऐसी संजीव, चुटकियाँ ऐसी तीव्र, व्यग्य ऐसे मीठे और उक्तियों ऐसी मार्मिक थीं कि लोगों को उसकी चोटों में भी आनन्द आता था। नैनीताल का एक वृहत् चित्र था। चित्रकार में प्रत्येक चित्र के मुख पर चसका व्यक्तित्व ऐसी कुशलता से अंकित कर दिया था कि लोग मन ही मन कट कर रह जाते थे। लेख में ऐसे कटाक्ष थे कि उसके कितने ही वाक्य लोगों की जबान पर चढ़ गये।

ज्ञानशंकर को शंका थी कि कहीं यह लेख छपते ही समस्त नैनीताल उनके सिर हो जायगा, किन्तु यह शंका निस्सार सिद्ध हुई। जहाँ लोग उनका निरादर और अपमान करते थे, वहीं अब उनका आदर और मान करने लगे। एक-एक करके लोगों ने उनके पास आ कर अपने अविनय की क्षमा माँगी। सब के सब एक दूसरे पर की गयी चोट का आनन्द उठाते थे। डाक्टर चन्द्रशेखर और राजा इन्द्रकुमार में बड़ी घनिष्ठता थी, किन्तु राजा साहब पर दो-मुहें साँप की फबती डाक्टर महोदय को लोट-पोट कर देती थी। राजा साहब भी डाक्टर महाशय की प्रौढ़ा से उपमा पर मुग्ध हो जाते थे। उनकी घनिष्ठता इस द्वेषमय आनन्द मे बाधक न होती थी। यह चोटे और चुटकिय सर्वथा निष्फल न हुई। सैर-तमाशों में लोगों का उत्साह कुछ कम हो गया। अगर अन्त करण से नहीं तो केवल ज्ञानशंकर को खुश करने के लिए लोग उनसे सार्वजनिक प्रस्तावों में सम्मति लेने लगे। ज्ञानशंकर का साहस और भी बढ़ा। यह खुल्लम खुल्ला लोगों को फटकारें सुनाने लगे। निन्दक से उपदेशक बन बैठे। उनमें आत्मगौरव को [ १०४ ]भाव उदय हो गया। अनुभव हुआ कि इन बड़े-बड़े उपाधिधारियों और अधिकारियों पर कितनी सुगमता से प्रभुत्व जमाया जा सकता है। केवल एक लेख ने उनकी धाक बिठा दी। सेवा और दया के जो पवित्र भाव उन्होंने चित्रित किये थे, उनका स्वंय उनकी आत्मा पर भी असर हुआ। पर शौक! इस अवस्था का शीघ्र ही अन्त हो गया। क्वार का आरंम्भ होते ही नैनीताल से डेरे कूच होने लगे और आधे क्वार तक सब बस्ती उजाड़ हो गयी। ज्ञानशंकर फिर उसी कुटिल स्वार्थ की उपासना करने लगे। उनका हृदय दिनों-दिन कृपण होने लगा। नैनीताल में भी वह मन ही मन राय साहब की फजूलखर्चयों पर कुड़बुड़ाया करते थे। लखनऊ आ कर उनकी संकीर्णता शब्दों में व्यक्त होने लगी। जुलाहे का क्रोध दाढी पर उतरता। कभी मुख्तार से, कभी मुहरिर से, कभी नौकरों से उलझ पड़ते। तुम लोग रियासत लूटने पर तुले हुए हो, जैसे मालिक वैसे नौकर, सभी की आँखों में सरसों फूली हुई हैं। मुफ्त का माल उड़ाते क्या लगता है? जब पसीना गार कर कमाते तो खर्च करते अखर होती। राय साहब रामलीलासभा के प्रधान थे। इस अवसर पर हजारो रुपये खर्च करते, नौकरों को नयी-नयी वरदियाँ मिलती, रईसों की दावत की जाती, राजगद्दी के दिन भौज किया जाता। ज्ञानशंकर यह धन का अपव्यय देख कर जलते रहते थे। दीपमालिका के उत्सव की तैयारियाँ देख कर वह ऐसे हताश हुए कि एक सप्ताह के लिए इलाके की सैर करने चले गये।

दिसम्बर का महीना था और क्रिसमस के दिन। राय साहब अंगरेज अधिकारियों को डालियाँ देने की तैयारियों में तल्लीन हो रहे थे। ज्ञानशंकर उन्हें डालियाँ सजाते देख कर इस तरह मुँह बनाते, मानो वह कोई महा घृणित काम कर रहे हैं। कभी-कभी दबी जवान से उनकी चुटकी भी ले लेते। उन्हें छेड़ कर तर्क वितर्क करना चाहते। राय साहब पर इन भावों का जरा भी असर न होता। वह ज्ञानशंकर की मनोवृत्तियों से परिचित जान पड़ते थे। शायद उन्हें जलाने के लिए ही वह इस समय इतने उत्साहशील हो गये थे। यह चिन्ता ज्ञानशंकर की नींद हराम करने के लिए काफी थी। उस पर जब उन्हें विश्वस्त सूत्र से मालूम हुआ कि राय साहब पर कई लाख का कर्ज है तो वह नैराश्य से विह्वल हो गये। एक उद्विग्न दशा में विद्या के पास आ कर बोले, मालूम होता है यह मरते दम तक कौड़ी कफन को न छोड़ेंगे। मैं आज ही इस विषय में इनसे साफ-साफ बातें करूंगा और कह दूंगा कि यदि आप अपना हाथ न रोकेंगे तो मुझसे भी जो कुछ नन पड़ेगा कर डालूंगा।

विद्या-उनकी जायदाद है, तुम्हें रोक-टोक करने का क्या अधिकार है। कितना ही उड़ायेंगे तब भी हमारे खाने भर को बचा ही रहेगा। भाग्य में जितना बदा है, उससे अधिक थोड़ें ही मिलेगा।

ज्ञान---भाग्य के भरोसे बैठ कर अपनी तबाही तो नहीं देखी जाती।

विद्या--भैया जीते होते तब?

ज्ञान--तब दूसरी बात थी। मेरा इस जायदाद से कोई सम्बन्ध न रहता। मुझको उसके बनने-बिगड़ने की चिंता न रहती। किसी चीज पर अपनेपन की छाप लगते [ १०५ ]
ही हमारा उनमें आत्मिक सम्बन्ध हो जाता है।

किन्तु हा दुर्दैव। ज्ञानशकर को विपद-चिन्ताओ का यहीं तक अन्त न था। अभी तक उनकी स्थिति एक आक्रमणकारी सेना की-सी थी। अपने घर का कोई खटका न था। अब दुर्भाग्य ने उनके घर पर छापा मारा। उनकी स्थिति रक्षाकारिणी सेना की सी हो गयी। उनके बड़े भाई प्रेमशकर कई वर्ष से लापता थे। ज्ञानशकर को निश्चय हो गया था कि वह अब ससार में नहीं हैं। फाल्गुन का महीना था। अनायास प्रेमशकर का एक पत्र अमेरिका से आ पहुँचा कि मैं पहली अप्रैल को बनारस पहुँच जाऊँगा। यह पत्र पा कर पहले तो ज्ञानशकर प्रेमोल्लास में मग्न हो गये। इतने दिनों के वियोग के बाद भाई में मिलने की आशा ने चित्त को गद्गद् कर दिया। पत्र लिए हुए विद्या के पास आ कर यह शुभ समाचार सुनाया। विद्या बोली, धन्य भाग। भाभी जी की मनोकामना ईश्वर ने पूरी कर दी। इतने दिनों कहाँ थे?

ज्ञान -- वही अमेरिका में कृषिशास्त्र का अभ्यास करते रहे। दो साल तक एक कृषिशाला में काम भी किया है।

विद्या -- तो आज अभी १५ तारीख है। हम लोग कल परसो तक यहाँ से चल दे। ज्ञानशकर ने केवल इतना कहा, 'हाँ, और क्या' और बाहर चले गये। उनकी प्रफुल्लता एक ही क्षण में लुप्त हो गयी थी और नयी चिन्ताएँ आँखों के सामने फिरने लगी थी, जैसे कोई जीर्ण रोगी किसी उत्तेजक औषधि के अमर से एक क्षण के लिए चैतन्य हो कर फिर उमी जीर्णावस्था में विलीन हो जाता है। उन्होंने अब तक जो मनसूबे बाँधे थे, जीवन का जो मार्ग स्थिर किया था, उसमें अपने सिवा किसी अन्य व्यक्ति के लिए जगह न रखी थी। वह सब कुछ अपने लिए चाहते थे। अब इन व्यवस्थाओं मे दो परिवारों का निर्वाह होना कठिन था। लखनपुर के दो हिस्से करने पड़ेंगे! ज्यो-ज्यो वह इस विषय पर विचार करते थे, समस्या और भी जटिल होती जाती थी, चिन्ताएँ और भी विषम होती जाती थी। यहाँ तक कि शाम होते-होते उन्हें अपनी अवस्था असह्य प्रतीत होने लगी। वे अपने कमरे में उदास बैठे हुए थे कि राय साहब आ कर बोले, तुमने तो अभी कपड़े भी न पहने, क्या सैर करने न चलोगे?

ज्ञान -- जी नही, आज जी नहीं चाहता।

राय -- कैसरबाग में आज बैड होगा। हवा कितनी प्यारी है!

ज्ञान -- मुझे आज क्षमा कीजिए।

राय -- अच्छी बात है, मैं भी न जाऊँगा। आजकल कोई लेख लिख रहे हो या नहीं?

ज्ञान -- जी नहीं, इधर तो कुछ नहीं लिखा।

राय -- तो अब कुछ लिखो। विषय और सामग्री मैं देता हूँ। सिपाही की तलवार मे मोरचा न लगना चाहिए। पहला लेख तो इस साल के वजट पर लिख दो और दूसरा गायत्री पर।

ज्ञान -- मैंने तो आजकल कोई वजट सम्बन्धी लेख आद्योपान्त पढ़ा नही, उस पर कलम क्योकर उठाऊँ। [ १०६ ] राय–अजी, तो उसमें करना ही क्या है? बजट को कौन पढ़ता है और कौन समझता है? आप केवल शिक्षा के लिए और धन की आवश्यकता दिखाइए और शिक्षा के महत्व को थोड़ा-सा उल्लेख कीजिए, स्वास्थ्य-रक्षा के लिए और धन मँगिए और उसके मोटे-मोटे नियमों पर दो-चार टिप्पणियाँ कर दीजिए। पुलिस के व्यय में वृद्धि अवश्य ही हुई होगी, मानी हुई बात है। आप उसमे कमी पर जोर दीजिए और नयी नहरे निकालने की आवश्यकता दिखा कर लेख समाप्त कर दीजिए। बस, अच्छी खासी बजट की समालोचना हो गयी। लेकिन यह बातें ऐसे विनम्र शब्दों में लिखिए। और अर्थसचिव की योग्यता की और कार्यपटुता की ऐसी प्रशंसा कीजिए की वह बुलबुल हो जायँ और समझे कि मैंने उसके मन्तव्य पर खूब विचार किया है। शैली तो आपकी सजीव हैं ही, इतना यत्न और कीजिएगा कि एक-एक शब्द से मेरी बहुज्ञता और पाडित्य टपके। इतना बहुत है। हमारा कोई प्रस्ताव माना तो जायेगा नहीं, फिर बजट के लेखों को पढ़ना और उस पर विचार करना व्यर्थ है।

ज्ञान---और गायत्री देवी के विषय में क्या लिखना होगा?

राय-बस, एक सक्षिप्त-सा जीवन वृत्तात हो। कुछ मेरे कुल का, कुछ उसके कुल का हाल लिखिए, उसकी शिक्षा का जिक्र कीजिए। फिर उसके पति की मृत्यु का वर्णन करने के बाद उसके सुप्रबन्ध और प्रजा-रजन का जरा बढ़ा कर विस्तार के साथ उल्लेख कीजिए। गत तीन वर्षों में विविध कामों में उसने जितने चन्दे दिए है और अपने असामियों की सुदशा के लिए जो व्यवस्थाएँ की है, उनके नोट मेरे पास मौजूद है। उससे आपको बहुत मदद मिलेगी। उस ढाँचे को सजीव और सुन्दर बनाना आपका काम है। अन्त में लिखिएगा कि ऐसी सुयोग्य और विदुषी महिला को अब तक किसी पद से सम्मानित न होना, शासन-कर्ताओं की गुणग्राहकता का परिचय नहीं देता है। सरकार का कर्तव्य है कि उन्हें किसी उचित उपाधि से विभूषित करके सत्कार्यों में प्रोत्साहित करें, लेकिन जो कुछ लिखिए जल्द लिखिए, विलम्ब से काम बिगड़ जायगा।

ज्ञान–बजट की समालोचना तो मैं कल तक लिख दूंगा लेकिन दूसरे लेख में अधिक समय लगेगा। मेरे बड़े भाई, जो बहुत दिनों से गायब थे, पहली तारीख को घर आ रहे हैं। उनके आने से पहले हमें वहाँ पहुँच जाना चाहिए।

राय—वह तो अमेरिका चले गये थे।

ज्ञान-जी हाँ, वही से पत्र लिखा है।

राय कैसे आदमी हैं?

ज्ञान--इस विषय में क्या कह सकता हूँ? आने पर मालूम होगा कि उनके स्वभाव में क्या परिवर्तन हुआ है। यों तो बहुत शान्त प्रकृति और विचारशील थे।

राय लेकिन आप जानते है कि अमेरिका की जलवायु बन्धु-प्रेम के भाव की पोषक नहीं है। व्यक्तिगत स्वार्थ वहाँ के जीवन का मूल तत्व हैं और आपके भाई साहब पर उसका असर जरूर ही पड़ा होगा। [ १०७ ] ज्ञान-देखना चाहिए, मैं अपनी तरफ से तो उन्हें शिकायत का मौका न दूंगा।

राय-आप दें या न दें, वह स्वयं ढूंढ निकलेंगे। संम्भव है, मेरी शंका निर्मूल हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि निर्मूल हो पर मेरा अनुभव हैं कि विदेश में बहुत दिनों तक रहने से प्रेम का बन्धन शिथिल हो जाता है।

ज्ञानशंकर अब अपने मनोभावों को छिपा न सके। खुल कर बोले–मुझे भी यहीं भय है। जब छ साल में उन्होंने घर पर एक पत्र तक नहीं लिखा तो विदित ही है। कि उनमें आत्मीयता का आधिक्य नहीं हैं। आप मेरे पिता तुल्य है, आपसे पर्दा क्या है। इनके आने से मेरे सारे मंसूबे मिट्टी में मिल गये। मैं समझा था चाचा साहब से अलग हो कर दो-चार वर्षों में मेरी दशा कुछ सुधर जायगी। मैंने ही चाची साहब को अलग होने पर मजबूर किया, जायदाद की बाँट भी अपनी इच्छा के अनुसार की, जिसके लिए चाचा साहब की सन्तान मुझे सदैव कोसती रहेगी। किन्तु सब किया कराया बेकार गया।

राय साहब--कहीं उन्होंने गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर दिया तो आप बड़ी मुश्किल में फँस जायेंगे। इस विपय में वकीलों की सम्मति लिए बिना आप कुछ न कीजिएगा।

इस भाँति ज्ञानशंकर की शंकाओं को उत्तेजित करने मे रायसाहब का आशय क्या थी, इसको समझना कठिन है। शायद यह उनके हृद्गत भावों की थाह लेना चाहते थे अथवा उनकी क्षुद्रता और स्वार्थपरता का तमाशा देखने का विचार था। वह तो यह चिनगारी दिखा कर हवा खाने चल दिये। बेचारे ज्ञानशंकर अग्नि-दाह मे जलने लगे। उन्हें इस समय नाना प्रकार की शंकाएँ हो रही थी। उनका वह तत्क्षण समाधान करना चाहते थे। क्या भाई साहब गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर सकते हैं। यदि वह ऐसा करें, तो मेरे लिए भी निकास का कोई उपाय है या नहीं? क्या राय साहब को अधिकार है कि वह रियायत पर ऋणों का बोझ लादते जायें? उनकी फजूलखर्ची को रोकने की कोई कानूनी तदवीर हो सकती हैं या नहीं? इन प्रश्नों से ज्ञानशंकर के चित्त मे घोर अशान्ति हो रही थी, उनकी मानसिक वृत्तियाँ जल रही थी। वह उठ कर राय साहब के पुस्तकालय में गये और एक कानून की किताब निकाल कर देखने लगे। इस किताब से शंका निवृत्त न हुई। दूसरी किताब निकाली, यहाँ तक कि थोड़ी देर में मेज पर किताबों का ढेर लग गयी। कभी इस पोथी के पन्ने उलटते थे, कभी उस पोथी के, किन्तु किसी प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर न मिला। हताश हो कर वे इधर-उघर ताकने लगे। घड़ी पर निगाह पड़ी। दस बजना चाहते थे। किताब समेट कर रख दी। भोजन किया, लेटे, किन्तु नीद कहाँ? चित्त की चंचलता निद्रा की बाधक है। अब तक वह स्वयं अपने जीवन-सागर के रक्षा-तट थे। उनकी सारी आकांक्षाएँ इसी तट पर विश्राम किया करती थी। प्रेमशंकर ने आकर इस रक्षा-तट को विध्वंस कर दिया था और उन नौकाओं को डावाँ डोल। भैया क्योंकर काबू में आयेंगे? खुशामद से? कठिन है, वह एक ही घाघ है। नम्रता और विनय से? असम्भव। नम्रता का [ १०८ ]जवाब सद्व्यवहार हो सकता है, स्वार्थ त्याग नहीं। फिर क्या कलह और अपवाद से? कदापि नहीं, इससे मेरा पक्ष और भी निर्बल हो जायेगा। इस प्रकार भटकते-भटकते उछल पड़े। वाह! मैं भी कितना मन्द-बुद्धि हैं। विरादरी इन महाशय को घर में पैर तो रखने देगी नहीं, यह बेचारे मुझसे क्या छेड़ छाड़ करेंगे। आश्चर्य है अब तक यह छोटी-सी बात भी मेरे ध्यान में न आयी। राय साहब को भी न सूझी। बनारस आते ही लाला पर चारों ओर से बौछारें पड़ने लगेगी, उनके बहाँ पैर भी न जमने पायेंगे। प्रकट में मैं उनसे भ्रातृवत् व्यवहार करता रहूंगा, बिरादरी की सकीर्णता और अन्याय पर आंसू बहाऊँगा, लेकिन परोक्ष में उसकी कील घुमाता रहूँगा। महीने दो महीने में आप ही भाग खड़े होगे। शायद श्रद्धा भी उनसे खिंच जाय। उसे कुछ उत्तेजित करना पड़ेगा। धार्मिक प्रवृति की स्त्री हैं। लोकमत का असर उस पर अवश्य पड़ेगा। बस, मेरा मैदान साफ है। इन महाशय से डरने की कोई जरूरत नहीं। अब मैं निर्भय हो कर भ्रातृ-स्नेह आचरण कर सकता हूँ।

इस विचार से ज्ञानशंकर इतने उत्फुल्ल हुए कि जी चाहा चल कर विद्या को जगाऊँ, पर जब्त से काम लिया। इस चिन्ता-सागर से निकल कर अब उन्हें शंका होने लगी कि गायत्री की अप्रसन्नता भी मेरा भ्रम है। मैं स्त्रियों के मनोभावों से सर्वथा अपरिचित हैं। सम्भव है, मैंने उतावलापन किया हो, पर यह कोई ऐसा अपराध न था कि गायत्री उसे क्षमा न करती। मेरे दुस्साहस पर अप्रसन्न होना उसके लिए स्वाभाविक बात थी। कोई गौरवशाली रमणी इतनी सहज रीति से वशीभूत नहीं हो सकती। अपने सतीत्व-रक्षा का विचार स्वभावत उसकी प्रेम वासना को दबा देता है। ऐसा न हो, तो भी वह अपनी उदासीनता और अनिच्छा प्रकट करने के लिए कठोरता का स्वांग भरना आवश्यक समझती है। शायद इससे उसका अभिप्राय प्रेम-परीक्षा होता है। वह एक अमूल्य वस्तु है! और अपनी दर गिराना नहीं चाहती। मैं अपनी असफलता से ऐसा दबा कि फिर सिर उठाने की हिम्मत ही न पड़ी। वह यह कई दिन रही। मुझे जा कर उससे क्षमा माँगनी चाहिए थी। वह कुछ होती तो शायद मुझे झिड़क देती। वह स्वयं निर्दोष बनना चाहती थी और सारा दोष मेरे सिर रखती। मुझे यह वानप्रहार सहना चाहिए था और थोड़े दिनों में मैं उसके हृदय का स्वामी होता। यह तो मुझसे हुआ नहीं, उलटे आप ही रूठ बैठा, स्वयं उससे आँखें चुराने लगा। उसने अपने मन में मुझे बोदा, साहसहीन, निरा बुद्द समझा होगा। खैर, अब कसर पूरी हुई जाती है। यह मानों अन्त प्रेरणा है। इस जीवन-चरित्र के निकलते ही मकी अवज्ञा और अभिमान का अन्त हो जायेगा। मान-प्रतिष्ठा पर जान देती है। राय साहब स्वयं स्त्री के भेष में अवतरित हुए हैं। उसकी यह आकांक्षा पूरी हुई तो फूली न समायेगी और जो कही रानी की पदवी मिल गयी तो वह मेरा पानी भरेगी। भैया के झमेले से छुट्टी पाऊँ तो यह खेल शुरू करूं। मालूम नहीं अपने पत्रों में कुछ मेरा कुशल-समाचार भी पूछती है या नहीं। चलू, विद्या से पूछे। अबकी वह इस प्रबल इच्छा को न रोक सके। विद्या बगल के कमरे मे सोती थीं। जा कर उसे जगाया। [ १०९ ]चौक कर उठ बैठी और बोली, क्या है? अभी तक सोये नहीं?

ज्ञान---आज नींद ही नहीं आती! बातें करने को जी चाहता है। राय साहब शायद अभी तक नहीं आये।

विद्या-वह बारह बजे के पहले कभी आते हैं कि आज ही आ जायेंगे। कभी कभी एक-दो बज जाते है।

ज्ञान–मुझे जरा सी झपकी आ गयी थी। क्या देखता हूँ कि गायत्री सामने खड़ी है, फूट-फूट कर रो रहीं है, औखें खुल गयी। तब से करवटै बदल रहा हूँ। उनकी चिट्ठियाँ तो तुम्हारे पास आती है न?

विद्या–हाँ, सप्ताह में एक चिट्ठी जरूर आती है, बल्कि मैं जवाब देने में पिछड़ जाती हूँ।

ज्ञान---कभी कुछ मेरा हालचाल भी पूछती है?

विद्या--वाह, ऐसा कोई पत्र नहीं होता जिसमें तुम्हारी क्षेम-कुशल न पूछती हो।

ज्ञान---बुलाती तो एक बार उनसे जा कर मिल आता।

विद्या--तुम जाओ तो वह तुम्हारी पूजा करे। तुमसे उन्हें बड़ा प्रेम है। ज्ञानशंकर को अब भी नीद नहीं आयीं, किन्तु सुख-स्वप्न देख रहे थे!