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प्रेमाश्रम/१७

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १२२ से – १३१ तक

 

१७

जेठ का महीना था। आकाश से आग बरसती थी। राज्याधिकारी वर्ग पहाड़ी पर ठंडी हवा खा रहे थे। भ्रमण करनेवाले कर्मचारियों के दौरे भी बन्द थे; पर प्रेमशंकर की तातील न थी। उन्हें बहुधा दोपहर का समय पेड़ो की छाँह में काटना पड़ता, कभी दिन का दिन निराहार बीत जाता, पर सेवा की धुन ने उन्हें शारीरिक सुखों से विरक्त कर दिया था। किसी गाँव में हैजा फैलने की खबर मिलती, कहीं कीड़े ऊख के पौधे का सर्वनाश किये डालते थे, कहीं आपस में लठ्यिाव होने का समाचार मिलता। प्रेमशंकर डाकियों की भाँति इन सभी स्थानों पर जा पहुँचते और यथासाध्य कष्ट-निवारण का प्रयास करते। कभी-कभी लखनपुर तक का धावा मारते। जब आषाढ़ में मेह बरसा तो प्रेमशंकर को अपने काम मैं बड़ी असुविधा होने लगी। वह एक विशेष प्रकार के धानों का प्रचार करना चाहते थे। तरकारियों के बोज भी वितरण करने के लिए भेंगा रखें थे। उन्हें बोने और उपजाने की विधि बतलानी भी जरूरी थी। इसीलिए उन्होंने शहर से चार पाँच मील पर वरणा किनारे हाजीगंज में रहने का निश्चय किया। गाँव से बाहर फूल का एक झोपड़ा पड़ गया। दो-तीन खाटे आ गयी। गाँववालों की उन पर असीम भक्ति थी। उनके निवास को लोगों ने अहोभाग्य समझा। उन्हें सब लोग अपना रक्षक, अपना इष्टदेव समझते थे और उनके इशारे पर जान देने को तैयार रहते थे।

यद्यपि प्रेमशंकर को यहाँ वही शान्ति मिलती थी, पर श्रद्धा की याद कभी-कभी विकल कर देती थी। वह सोचते, यदि वह भी मेरे साथ होती तो कितने आनन्द से जीवन व्यतीत होता। उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि ज्ञानशकर ने ही मेरे विरुद्ध उसके कान भरे है, अतएव उन्हें अब उस पर क्रोध के बदले दया आती थी। उन्हें एक बार उससे मिलने और उसके मनोगत भादौ के जानने की बड़ी आकांक्षा होती थी। कई बार इरादा किया कि उसे एक पत्र लिखें पर यह सोच कर कि जवाब दे या न दे, टाले जाते थे। इस चिन्ता के अतिरिक्त अब धनाभाव से भी कष्ट होता था। अमेरिका से जितने रुपये लाये थे, वह इन चार महीनो में खर्च हो गये थे और यहाँ नित्य ही रुपयों का काम लगा रहता था। किसानों से अपनी कठिनाइयाँ बयान करते हुए इन्हें संकोच होता था। वह अपने भोजनादि का बोझ भी उन पर डालना पसन्द न करते थे और न शहर के किसी रईस से ही सहायता माँगने का साहस होता था। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि ज्ञानशंकर से अपने हिस्से का मुनाफा माँगना चाहिए। उन्हें मेरे हिस्से की पूरी रकम उड़ा जाने का क्या अधिकार है। श्रद्धा के भरण-पोषण के लिए वह अधिक से अधिक मेरा आधा हिस्सा ले सकते है। तब भी मुझे एक हजार के लगभग मिल जायँगै। इस वक्त काम चलेगा, फिर देखा जायगा। निस्सन्देह इस आमदनी पर मेरा कोई हक नहीं हैं, मैंने उसका अर्जन नहीं किया, लेकिन मैं उसे अपने भोग-विलास के निमित्त तो नहीं चाहता, उसे लेकर परमार्थ मै खर्च करना आपत्तिजनक नहीं हो सकता। पहले प्रेमशंकर की निगाह इस तरफ कभी नही गयी थी, वह इन रुपयों को ग्रहण करना अनुचित समझते थे। पर अभाव बहुधा सिद्धान्तों और धारणाओं का वाचक है। सोचा था कि पत्र में सब कुछ साफ-साफ लिख दूंगा, पर लिखने बैठे तो केवल इतना लिखा कि मुझे रुपयों की बड़ी जरूरत है। आशा है, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों को लेखबद्ध करने में हम बहुत विचारशील हो जाते हैं।

ज्ञानशंकर को यह पत्र मिला तो जामे से बाहर हो गये। श्रद्धा को सुना करे बोले, यह तो नहीं होता कि कोई उद्यम करे, बैठे-बैठे सुकीर्ति का आनन्द उठाना चाहते हैं। जानते होंगे कि यहाँ रुपये बरस रहे हैं। बस बिना हरे-फिटकरी के मुनाफा हाथ आ जाता है। और यहाँ अदालत के खर्च के मारे कचूमर निकला जाता है। एक हजार रुपये कर्ज ले कर खर्च कर चुका और अभी पूरा साल पड़ा है। एक बार हिसाब-किताब देख लें तो आँखें खुल जायें; मालूम हो जाय कि जमींदारी परोसा हुआ थाल नहीं है। सैकड़ो रुपये साल कर्मचारियों की नजर-नियाज में उड़ जाते हैं।

यह कहते हुए उसी गुस्से में पत्र का उत्तर लिखने नीचे गये। उन्हें अपनी अवस्था और दुर्भाग्य पर क्रोध आ रहा था। राय कमलानन्द की चेतावनी बार-बार याद आती थी। वहीं हुआ, जो उन्होंने कहा था।

संध्या हो गयी थी। आकाश पर काली घटा छायी हुई थीं। प्रेमशंकर सोच रहे। ये, बड़ी देर हुई, अभी तक आदमी जवाब ले कर नहीं लौटा। कहीं पानी न बरसने लगे, नही तो इस वक्त पर आ भी न सकेगा। देखें क्या जवाब देते हैं। सूखा जवाब तो क्या देंगे, हाँ, मन में अवश्य झुंझलाययेंगे। अब मुझे भी निस्संकोच हो कर लोगों से सहायता माँगनी चाहिए, अपने बल पर यह बोझ मैं नही सँभाल सकता। थोड़ी सी जमीन मिल जाती, मैं स्वयं कुछ पैदा करने लगता तो यह दशा न रहती। जमीन तो यह बहुत कम है। हाँ, पचास बीधे का यह ऊसर अलवत्ता है, लेकिन जमींदार साहब से सौदा पटना कठिन हैं। वह ऊसर के लिए २०० रुपये बीधे नजराना माँगेंगे। फिर इसकी रेह निकालने और पानी के निकास के लिए नालियाँ बनाने में हुजारो को खर्च है। क्या बताऊ, ज्ञानू ने मेरे सारे मसूबे चौपट कर दिये, नहीं लखनपुर यहाँ से कौन बहुत दूर था? मैं पन्द्रह-बीस बीघे की सीर भी कर लेता तो मुझे किसी की मदद की दरकार न होती।

यह इन्हीं विचारों में डूबें थे कि सामने से एक एक्का आता हुआ दिखायी दिया। पहले तो कई आदमियों ने एक्केवान को ललकारा। क्यों खेत में एक्का लाता है? आँखें फूटी हुई हैं? देखता नहीं, खेत बोया हुआ है। पर जब एक्का प्रेमशंकर के झोपड़े की ओर मुडा तो लोग चुप हो गये। इस पर लाला प्रभाशंकर और उनके दोनों लड़के पद्मशंकर और तेजशंकर बैठे हुए थे। प्रेमशंकर ने दौड़ कर उनका स्वागत किया। प्रभाशंकर ने उन्हें छाती से लगा लिया और पूछा, अभी तुम्हारा आदमी ज्ञानू का जवाब ले कर तो नहीं आया?

प्रेम-- जी नहीं, अभी तो नहीं आया, देर बहुत हुई।

प्रभा--मेरे ही हाथ बाजी रही। मैं उसके एक घंटा पीछे चला हूँ। यह लो, बडी बहू ने यह लिफाफा और यह सन्दूकची तुम्हारे पास भेजी है। मगर यह तो बताओ, यह वनवास क्यों कर रहे हो? तुम्हारे एक छोड़ दो-दो घर है। उनमें न रहना चाहो तो तुम्हारे कई मकान किराये पर उठे हुए हैं, उनमें से जिसे कहो खाली करा दें। आराम से शहर में रहो। तुम्हें इस दशा में देख कर मेरा हृदय फटा जाता है। यह फूस-का झोपड़ा, बीहड़ स्थान, न कोई आदमी ने आदमजाद मुझसे तो यहाँ एक क्षण भी न रहा जाये। हफ्तो घर की सुधि नहीं लेते। मैं तुम्हे यहाँ न रहने दूंगा। हम तो महल में रहे और तुम यो वनवास करो। (सजल नेत्र हो कर) यह सब मेरा दुर्भाग्य है। मेरे कलेजे के टुकड़े हुए जाते हैं। भाई साहब जब तक जीवित रहे, मैं अपने ऊपर गर्व करता था। समझता था कि मेरी बदौलत एका बना हुआ है। लेकिन उनके उठते ही घर की भी उठ गयी। मैं दो-चार साल भी उस मैल को न निभा सका। वह भाग्यशाली थे, मैं अभागा हूँ और क्या कहूँ।

प्रेमशंकर ने बड़ी उत्सुकता से लिफाफा खोला और पढ़ने लगे। लाला जी की तरफ उनका ध्यान न था।

'प्रिय प्राणपति, दासी का प्रणाम स्वीकार कीजिए। आप जब तक विदेश में थे, वियोग के दुख को धैर्य के साथ सहती रही, पर आपका यह एकान्त निवास नहीं सहा जाता। मैं यहाँ आपसे बोलती न थी, आपसे मिलती न थी, पर आपकी आँखो से देखती तो थी, आपकी सेवा तो कर सकती थी। आपने यह सुअवसर भी मुझसे छीन लिया। मुझे तो संसार की हँसी का डर था, आपको भी संसार की हँसी का डर है? मुझे आपसे मिलते हुए अनिष्ट की आशंका होती है। धर्म को तोड़ कर कौन प्राणी सुखी रह सकता है? आपके विचार तो ऐसे नहीं, फिर आप क्यों मेरी सुधि नहीं लेते?

यहाँ लोग आपके प्रायश्चित्त करने की चर्चा कर रहे हैं। मैं जानती हैं, आपको बिरादरी का भय नहीं है, पर यह भी जानती हूँ कि आप मुझपर दया और प्रेम रखते हैं। क्या मेरी खातिर इतना न कीजिएगा? मेरे धर्म को न निभाइएगा?

इस सन्दूकची में मेरे कुछ गहने और रुपये हैं। गहने अब किसके लिए पहनें। कौन देखेगा? यह तुच्छ भेंट है, इसे स्वीकार कीजिए। यदि आप न लेंगे, तो समझूगी कि आपने मुझसे नाता तोड़ दिया।

-आपकी अभागिनी, श्रद्धा।'

प्रेमशंकर के मन में पहले विचार हुआ कि सन्दूकची को वापस कर दें और लिख दें कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। क्या मैं ऐसा निर्लज्ज हो गया कि जो स्त्री मेरे पास इतनी निष्ठुरता से पेश आये उसी के सामने मदद के लिए हाथ फैला? लेकिन एक ही क्षण में यह विचार पलट गया। उसके स्थान पर यह शंक हुई कि कहीं इसके मन ने कुछ और तो नहीं ठान ली है। यह पत्र किसी विषम संकल्प का सूचक तो नहीं है। वह अस्थिर चित्त हो कर इधर-उधर टहलने लगे। सहसा लाला प्रभाशंकर से बोले, आपको तो मालूम होगा ज्ञानशंकर का बर्ताव उसके साथ कैसा है?

प्रभा-बेटा, यह बात मुझसे मत पूछो। हाँ, इतना कहूंगा कि तुम्हारे यहाँ रहने से बहुत दुखी है। तुम्हें मालूम हैं कि उसको तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए उसने। बड़ी तपस्या की है। उसके ऊपर तुम्हारी अकृपा नितान्त अनुचित है।

प्रेम---मुझे वहाँ रहने में कोई उच्च नहीं है। हाँ, ज्ञानशंकर के कुटिल व्यवहार से दुःख होता है और फिर वहाँ बैठकर यह काम न होगा। किसानों के साथ रह कर मैं उनकी जितनी सेवा कर सकता हूँ, अलग रह कर नहीं कर सकता। आपसे केवल यह प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे बुला कर उसकी तस्कीन कर दीजिएगा। मेरे विचार से उसका व्यवहार कितना ही अनुचित क्यों न हो, पर मैं उसे निरपराध समझता हूँ। यह दूसरों के बहकाने का फल है। मुझे शंक होती है कि वह जान पर न खेल जाय।

प्रभा–मगर तुम्हें बचन देना होगा कि सप्ताह में कम से कम एक बार वहाँ अवश्य जाया करोगे।

प्रेम-इसका पक्का वादा करता हूँ।

प्रभाशंकर ने लौटना चाहा, पर प्रेमशंकर ने उन्हें साग्रह रोक लिया। हाजीगंज मैं एक सज्जन ठाकुर भवानीसिंह रहते थे। उनके यहाँ भोजन का प्रबन्ध किया गया। पूरियाँ मोटी थी और भाजी भी अच्छी न बनी थी, किन्तु दूध बहुत स्वादिष्ट था। प्रभाशंकर ने मुस्करा कर कहा, यह पूरियाँ हैं या लिट्टी? मुझे तो दो-चार दिन भी खानी पड़े तो काम तमाम हो जाय। हाँ, दूध की मलाई अच्छी है।

प्रेम-मैं तो यहाँ रोटियाँ बना लेता हूँ। दोपहर को दूध पी लिया करता हूँ।

प्रभा-तो यह कहो तुम योगाभ्यास कर रहे हो। अपनी रुचि का भोजन न मिले तो फिर जीवन का सुख ही क्या रहा? प्रेम-क्या जागे, मैं तो रोटियों से ही संतुष्ट हो जाता हूँ। कभी-कभी तो मैं शाक या दाल भी नहीं बनाता। सूखी रोटियां बहुत मीठी लगती है। स्वास्थ्य के विचार से भी रूखी-सूखा भोजन उत्तम है।

प्रभा- यह सब नये जमाने के ढकोसले हैं। लोगों की पाचन शक्ति निर्बल हो गयी है। इसी विचार से अपने को तस्कीन दिया करते है। मैंने तो आजीवन चटपटा भोजन किया है, पर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।

भोजन करने के बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगी। लाला जी थके थे, सो गये, किन्तु दोनो लड़को को नींद नहीं आती थी। प्रेमशंकर बोले, क्यों तेजशंकर, क्या नींद नहीं आती? मैट्रिक में हो न? इसके बाद क्या करने का विचार है?

तेजशंकर-मुझे क्या मालुम? दादा जी की जो राय होगी, वही करूंगा?

प्रेम-और तुम क्या करोगे पद्मशंकर?

पद्म---मेरा तो पढ़ने में जी नहीं लगता। जी चाहता है, साधु हो जाऊँ।

प्रेम--(मुस्करा कर) अभी से?

पद्य जी हाँ, खूब पहाड़ो पर विचरूंगा। दूर-दूर के देशो की सैर करूंगा। भैया भी तो साधु होने को कहते है।

प्रेम--तो तुम दोनों साधु हो जाओगे और गृहस्थी का सारा बोझ चाचा साहब के सिर पर छोड़ दोगे?

तेज—मैंने कब साधु होने को कहा पद्म? झूठ बोलते हो।

पद्म–रोज तो कहते हो, इस वक्त लजा रहे हो।

तेज़-बड़े झूठे हो।

पद्म-अभी तो कल ही कह रहे थे कि पहाड़ों पर जा कर योगियों से मन्त्र जगाना सीखेंगे। ,

प्रेम--मन्त्र जगाने से क्या होगा?

पद्म-वाह! मन्त्र में इतनी शक्ति है कि चाहे तो अभी गायब हो जाये, जमीन मे गड़ा हुआ धन देख लें। एक मन्त्र तो ऐसा है कि चाहे तो मुरदों को जिला दें। बस, सिद्धि चाहिए। खूब चैन रहेगा। यहां तो बरसो पढ़ेगे, तब जा कर कहीं नौकरी मिलेगी। और वहाँ तो एक मन्त्र भी सिद्ध हो गया तो फिर चाँदी ही चांदी है।

प्रेम-क्यों जी तेजू, तुम भी इन मिथ्या बातों पर विश्वास करते हो?

तेज---जी नहीं, यह पद्म यों ही वाही-तबाही बकता फिरता है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आदमी मन्त्र जगा कर बड़े-बड़े काम कर सकता है। हाँ, डर न जाय, नहीं तो जान जाने का डर रहता है।

प्रेम-यह सब गपोड़ा है। खेद है, तुम विज्ञान पढ़ कर इन गपोड़ों पर विश्वास करते हो। संसार में सफलता का सबसे जागता हुआ मन्त्र अपना उद्योग, अध्यवसाय और दृढ़ता है, इसके सिवा और सब मन्त्र झूठे हैं।

दोनों लड़कों ने इसका कुछ उत्तर न दिया। उनके मन में मन्त्र की बात बैठ गयी थी और तर्क द्वारा उन्हें कायल करना कठिन था।

इनके सो जाने के बाद प्रेमशंकर ने सन्दूकची खोल कर देखा। गहने सभी सोने के थे। रुपये गिने तो पूरे एक हजार थे। इस समय प्रेमशंकर के सम्मुख श्रद्धा एक देवी के रूप मे खड़ी मालूम होती थी। उसकी मुखश्री एक विलक्षण ज्योति से प्रदीप्त थी। त्याग और अनुराग की विशाल मूति थी, जिसके कोमल नेत्रों में भक्ति और प्रेम की किरणें प्रस्फुटित हो रही थी। प्रेमशंकर का हृदय विह्वल हो गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। श्रद्धा की भक्ति के सामने अपनी कटुता और अनुदारता अत्यन्त निन्दा प्रतीत होने लगी। उन्होंने सन्दूकची बन्द करके खाट के नीचे रख दी और लैटे तो सोचने लगे, इन गहनो को क्या करूं? कुल सम्पत्ति पाँच हजार से कम की नहीं हैं। इसे मैं ले लें तो श्रद्धा निरवलम्ब हो जायेगी। लेकिन मेरी दशा सदैव ऐसी ही थोड़े रहेगी। अभी ऋण समझ कर ले लें, फिर कभी सूद समेत चुका दूंगा। पचीस बीघे ऊसर हैं तो दो ढाई हजार में तय हो जाय। एक हजार खाद डालने और रेह निकालने में लग जायेंगे। एक हजार में बैलों की गोइयाँ और दूसरी सामग्रियाँ आ जायेंगी। दस बीधे में एक सुन्दर बाग लगा दें, पन्द्रह बीघे में खेती करूँ। दो साल तो चाहे उपज कम हो, लेकिन आगे चल कर दो-ढाई हजार वार्षिक की आय होने लगेंगी। अपने लिए मुझे २०० रु० साल भी बहुत है, शेष रुपये अपने जीवनोंद्देश्य के पूरे करने में लगेंगे। सम्भव है, तब तक कोई सहायक भी मिल जाय। लेकिन उस दशा में कोई सहायता भी न करे तो मेरा काम चलता रहेगा। हाँ, एक बात का ध्यान ही न रहा। मैं यह ऊसरे ले ले तो फिर इस गाँव में गोचर भूमि कहाँ रहेगी। यही ऊसर तो- यहाँ के पशुओं का मुख्य आधार हैं। नहीं, इसके लेने का विचार छोड़ देना चाहिए। अब तो हाथ में रुपये हो गये हैं, कही न कही जमीन मिल ही जायेगी। हैं, अच्छी जमीन होगी तो इतने रुपयों में दस बीधे से ज्यादा न मिल सकेगी। बस बीधे में मेरा काम कैसे चलेगा?

प्रेमशंकर इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे। मूसलाधार मेह बरस रहा था। सहसा उनके कानों में बादल के गर्जने की सी आवाज आने लगी, मानो किसी बड़े पुल पर से रेलगाड़ी चली जा रही हो। लेकिन जब देर तक इस ध्वनि को सार न टूटा, और थोड़ी देर में गाँव की ओर से आदमियों के चिल्लाने और रोने की आवाजें आने लगी, तो वह घबड़ा कर उठे और गाँव की तरफ नजर दौड़ायी। गाँव मे हलचल मची हुई थी। लोग हाथों में, सन और अरहर के डठलो की मशालें लिए इधर-उधर दौड़ते। फिरते थे। कुछ लोग मशाले लिये नदी की तरफ दौड़ते जाते थे। एक क्षण में मशाल का प्रतिबिम्ब सा दीखने लगा, जैसे गाँव में पानी लहरे मार रहा हो। प्रेमशंकर समक्ष गये कि बाढ़ आ गयी।

अब विलम्ब करने का समय न था। वह तुरन्त गाँव की तरफ चले। थोड़ी ही दूर चल कर वह घुटनों तक पानी में पहुंचे। बहाव में इतना वेग था कि उनके पाँव मुश्किल से सँभल सकते थे। कई बार वह गड्ढो में गिरते-गिरते बचे। जल्दी में जल थाहने के लिए कोई लकड़ी भी न ले सके थे। जी चाहता था कि गाँव मे उड़ कर जा पहुंचे और लोगों की यथासाध्य मदद करूँ, लेकिन यहाँ एक-एक पग रखना दुस्तर था। चारों तरफ घना अँधेरा, ऊपर मूसलाधार वर्षां, नीचे वेगवती लहरों का सामना, राह-बाट का कही पता नहीं। केवल मशालो को देखते चले जाते थे। कई बार घरों के गिरने की धमाका सुनायी दिया। गाँव के निकट पहुँचे तो हाहाकार मचा हुआ था। गांव के समस्त प्राणी, युवा, वृद्ध, बाल मन्दिर के चबूतरे पर रवई यह विध्वंसकारी मेघलीला देख रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही लोग चारों और से आ कर खड़े हो गये। स्त्रियाँ रोने लगी।

प्रेमशंकर- बाढ़ क्या अब की ही आयी है या और भी कभी आयी थी?

भवानीसिंह---हर दूसरे-तीसरे साल आ जाती है। कभी-कभी तो साल में दो-दो बेर आ जाती है।

प्रेमशंकर-इसके रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?

भवानीसिंह-—इसका एक ही उपाय है। नदी के किनारे बाँध बना दिया जाय। लेकिन कम से कम तीन हजार का खर्च है, वह हमारे किये नहीं हो सकता। इतनी सामर्थ्य ही नहीं। कभी बाढ़ आती हैं, कभी सूखा पड़ता है। धन कहाँ से आयें?

प्रेमशंकर-जमींदार से इस विषय में तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?

भवानी- उनके कभी दर्शन ही नहीं होते; किससे कहें? सेठ जी ने यह गाँव उन्हें पिंडदान में दे दिया था। बस, आप तो गया जी में बैठे रहते हैं। साल में दो बार उनका मुन्शी आ कर लगान वसूल कर ले जाता है। उससे कहो तो कहता है, हम कुछ नहीं जानते पड़ा जी जानें। हमारे सिर पर चाहे जो पड़े, उन्हें अपने नफे से काम है।

प्रेमशंकर अच्छा इस वक्त क्या उपाय करना चाहिए? कुछ बची या सब डूब गया?

भवानी-अँधेरे में सब कुछ सूझ तो नहीं पड़ता, लेकिन अटकल से जान पड़ता है कि घर एक भी नहीं बचा। कपड़े-लत्ते, बर्तन-भाई, खाट-खटोले सब बह गये। इतनी मुहलत ही नहीं मिली कि अपने साथ कुछ लाते। जैसे बैठे थे वैसे ही उठ कर भागे। ऐसी बाढ़ कभी नहीं आयी थी, जैसे आँधी आ जाय, बल्कि आँधीं का हाल भी कुछ पहले मालूम हो जाता है, यहाँ तो कुछ पता ही न चला।

प्रेमशंकर मवेशी भी बह गये होंगे?

भवानी--राम जाने, कुछ तुड़ा कर भागे होगे, कुछ बह गये होगे, कुछ बदन तक पानी में खड़े होंगे। पानी दस-पाँच अगुल और चढा तो उनका भी पता न लगेगा।

प्रेमशंकर-कम से कम उनकी रक्षा तो करनी चाहिए।

भवानी--हमे तो असाध्य जान पड़ता है।

प्रेमशंकर-नहीं, हिम्मत न हारो। भला कुल कितने मर्द यहाँ होंगे?

भवानी--(आँखो से गिन कर) यही कोई चालीस-पचास।

प्रेम---तो पाँच-पाँच आदमियों की एक-एक टुकड़ी बना लो और सारे गाँव का एक चक्कर लगाओ। जितने जानवर मिलें उन्हें बटोर लो और मेरे झोपड़े के सामने ले चलो। वहीं जमीन बहुत ऊँची है, पानी नहीं जा सकता। मैं भी तुम लोगों के साथ चलता हूँ। जो लोग इस काम के लिए तैयार हो, सामने निकल आये।

प्रेमशंकर के उत्साह ने लोगों को उत्साहित किया। तुरन्त पचास-साठ आदमी निकल आये सबके हाथों में लाठियाँ थी। प्रेमशंकर को लोगों ने रोकना चाहा, लेकिन वह किसी तरह माने। एक लाठी हाथ में ले ली और आगे-आगे चले। पग-पग पर बहते हुए झोपड़ो, गिरे हुए वृक्ष तथा बहती हुई चारपाइयों से टकराना पड़ता था। गाँव का नाम-निशान भी न था। गाँववालों को अपने-अपने घरों को भी पता न चलता था। हाँ, जहाँ-तहाँ भैसौ और बैलो के डकारने की आवाज सुन पड़ती थी। कही-कही पशु बहते हुए भी मिलते थे। यह रक्षक-दल सारी रात पशुवों के उद्धार का प्रयत्न करता रहा। उनका साहस अदम्य और उद्योग अविश्रान्त था। प्रेमशंकर अपनी टुकड़ी के साथ बारी-बारी से अन्य दलों की सहायता करते रहते थे। उनका धैर्य और परिश्रम देख कर निर्बल हृदय वाले भी प्रोत्साहित हो जाते थे। जब दिन निकला और प्रेमशंकर अपने झोपड़े पर पहुँचे तब दो सौ से अधिक पशुओं को आनन्द से बैठे जुगाली करते हुए देखा। लेकिन इतनी कड़ी मेहनत कभी न की थी। ऐसे थक गये थे कि खड़ा होना मुश्किल था। अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी। आठ बजते-बजते उन्हें ज्वर हो आया। लाला प्रभाशंकर ने यह वृत्तान्त सुना तो असन्तुष्ट होकर बोले, बेटा, परमार्थ करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन इस तरह प्राण दे कर नहीं। चाहे तुम्हें अपने प्राण का मूल्य इन जानवरों से कम जान पड़ता हो, लेकिन हम ऐसे-ऐसे लाखों पशुओं का तुम्हारे ऊपर बलिदान कर सकते है। श्रद्धा सुनेगी तो न जाने उसका क्या हाल होगा? यह कहते-कहते उनकी आँखे भर आयी।

तीन दिन तक प्रेमशंकर ने सिर ने उठाया और न लाला प्रभाशंकर उनके पास से उठे। उनके सिरहाने बैठे हुए कभी विनयपत्रिका के पदों का पाठ करते, कमी हुनुमान चालीसा पढ़ते। हाजीपुर में दो ब्राह्मण भी थे। वह दोनों झोपड़े में बैठे दुर्गा-पाठ किया करते। अन्य लोग तरह-तरह की जड़ी-बूटियां लाते। आस पास के देहातों मे भी जो उनकी बीमारी की खबर पाता, दौड़ा हुआ देखने आता। चौथे दिन ज्वर उतर गया, आकाश भी निर्मल हो गया और बाढ़ उतर गयी।

प्रभात का समय था। लाला प्रभाशंकर ब्राह्मणों को दक्षिणा दे कर घर चले गये थे। प्रेमशंकर अपनी चारपाई पर तकिये के सहारे बैठे हुए हाजीपुर की तरफ चितामय नेत्र से देख रहे थे। चार दिन पहले जहां एक हरा-भरा लहलहाता हुआ गाँव था, जहाँ मीलों तक खेतों मे सुखद हरियाली छायी हुई थी, जहाँ प्रात काल गाय भैसो के रेवड के रेवड चरते दिखायी देते थे, जहाँ झोपड़ो से चक्कियों की मधुर ध्वनि उठती थी और बालवृन्द मैदानों में खेलते कूदते दिखायी देते थे, वहाँ एक निर्जन मरुभूमि थी। गाँव के अधिकाश प्राणी दूसरे गाँव में भाग गये थे, और कुछ लोग प्रेमशंकर के झोपड़े के सामने सिरकियाँ डाले पड़े थे। न किसी के पास भोजन था, न वस्त्र। बड़ा शोकमय दृष्य था। प्रेमाकर बोलने लगे, कितनी विषम समस्या है। इन दोनों का कोई सहायक नहीं। आये दिन इन पर यही विपत्ति पडा करती है और ये बेचारे इनका निवारण नहीं कर सकते। साल-दौ-साल में जो कुछ तन-पेट काट कर संचय करते हैं वह जलदैव को भेंट कर देते हैं। कितना धन, कितने जीव इस भंवर में समा जाते हैं, किंतने घर मिट जाते हैं, कितनी गृहन्थियों का सर्वनाश हो जाता है और यह केवल इसलिए कि इनको गांव के किनारे एक सुदृढ़ बाँध बनाने की साहस नही है। न इतना धन है, न वह सहमति और सुसगठन है जो धन का अभाव होने पर भी बडे-बड़े कार्य सिद्ध कर देता है। ऐसा बाँध यदि बन जाय तो उसने इसी गांव की नहीं, आस-पास के कई गावों की रक्षा हो सकती है। मेरे पास इस समय चार पाँच हजार रुपये है। क्यों न इम बाँध में हाथ लगा दूँ? गाँव के लोग धन न दे सकें, मेहनत तो वर सकते हैं। केवल उन्हें संगठित करना होगा। दूसरे गाँव के लोग भी निस्सन्देह इस काम में सहायता देंगे। ओह, कही यह बाँध तैयार हो जाय तो इन गरीबों का कितना कल्याण हो।

यद्यपि प्रेमाकर बहुत अशक्त हो रहे थे, पर इन विचारों ने उन्हें इतना उत्साहित किया कि तुरन्त उठ खड़े हुए और लोगों के बहुत रोकने पर भी हाथ में डंडा ले कर नदी की और बाँध-स्थल का निरीक्षण करने चल खड़े हुए। जेब में पेंसिल और कागज भी रख लिया। कई आदमी साथ हो लिये। नदी के किनारे खड़े-खड़े वह बहुत देर तक रस्सी से नाप-नाप कर कागज पर बांध का नक्शा खींचते और उसकी लम्बाई, चौडाई, गर्भ आदि का अनुमान करते रहे। उन्हें उत्साह के वेग में यह काम सहज जान पडता था, केवल काम छेड देने की जरूरत थीं। उन्होंने वही खड़े-खडे निश्चय किया कि वर्षा समाप्त होते ही श्री गणेश कर दूंगा। ईश्वर ने चाहा तो जाड़े में बाँध तैयार हो जायगा। बाँध के साथ-साथ गाँव को भी पुनर्जीवित कर दूंगा| वाढ का भय तो न रहेगा, दीवारें मजबूत बनाऊँगा और उस पर फूस की जगह खपरैला को छाज रखूँगा!

भवानीसिंह ने कहा—बाबू जी, यह काम हमारे मान का नहीं हैं।

प्रेमाकर—है क्यो नही; तुम्हीं लोगों से यह काम पूरा कराऊँगा। तुमने इसे असाध्य सम्झ लिया है, इसी कारण इतनी मुसीबतें झेलते हो।

भवानी—गांव में आदमी कितने हैं?

प्रेम—दूसरे गांववाले तम्हारी मदद करेंगे, काम शुरू तो होने दो।

भवानी—जैसा बाँध आप सोच रहे हैं, पाँच-छह हजार से कम में न बनेगा।

प्रेम—रुपयो की कौई चिन्ता नही। कार्तिक आ रहा है, बस काम शुरू कर दो। दो तीन महीने में बाँध तैयार हो जायगा । रुपयों का प्रवन्ध जो कुछ मुझसे हों सकेगा मैं कर दूंगा।

भवानी—आपका ही भरोसा हैं।

प्रेम—ईश्वर पर भरोसा रखो।

भवानी—मजदूरों की मदद मिल जाय तो अगहन में ही बाँध तैयार हो सकता है: प्रेम---इसका मैं बचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीधे का अच्छा चक निकल आयेगा ।

भवानी-तब हम आपका झोपड़ा भी यही बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।

प्रेम- तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँवो मे भी खबर भेज दो।