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प्रेमाश्रम/१८

विकिस्रोत से
प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १३१ से – १३७ तक

 

१८

गायत्री उन महिलाओं ने थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्र के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंधी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़को के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यानों पर मोहित थी तो देहातियों के बेसुरे अलाप का आनन्द भी उठा सकती थी। सरस साहित्य पर मुग्ध होती थी तो खसरा और खतौनी से भी जी न चुराती थी। लखनऊ से आये हुए उसे दो साल हो गये। लेकिन एक दिन भी अपने विशाल भवन में आराम से न बैठी। कभी इस गाँव जाती, कभी उस छावनी में ठहरती, कभी तहसील आना पड़ता, कभी सदर जाना पड़ता, बार-बार अधिकारियों से मिलने की जरूरत पड़ती। उसे अनुभव हो रहा था कि दूसरों पर शासन करने के लिए स्वयं झुकना पड़ता है। उसके इलाके मे सर्वत्र लूट मची हुई थी, कारिन्दे आसामियों को नोचे खाते थे। सोचती, क्या इन सब मुख्तारों और कारिन्दो को जवाब दे दें? मगर काम कौन करेगा? और यही क्या मालूम है कि इनकी जगह जो नये लोग आयेंगे, वे इनसे ज्यादा नेकनीयत होगें? मुश्किल तो यह है कि प्रजा को इस अत्याचार से उतना कष्ट भी नहीं होता, जितना मुझे होता है। कोई शिकायत नहीं करता, कोई फरियाद नहीं करता, उन्हे अन्याय सहने का ऐसा अभ्यास हो गया है कि वह इसे भी जीवन की एक साधारण दशा समझते हैं। उससे मुक्त होने का कोई यत्न भी हो सकता है इसका उन्हें ध्यान भी नहीं होता।

इतना ही नहीं था। प्रजा गायत्री की सच्चेष्टाओं को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। उनको विश्वास ही न होता था कि उनकी भलाई के लिए कोई जमींदार अपने नौकरों को दंड दे सकता है। वर्तमान अन्याय उनको ज्ञात विषय था, इसका उन्हें भय न था। सुधार के मन्तव्यों से भयभीत होते थे, यह उनके लिए अज्ञात विषय था। उन्हें शंका होती थी कि कदाचित् यह लोगों को निचोड़ने की कोई नयी विधि है। अनुभव मी इस शंका को पुष्ट करता था। गायत्री का हुक्म था कि किसानों को नाम-मात्र सूद पर रुपये उधार दिये जायें, लेकिन कारिन्दे महाजनों से भी ज्यादा सूद लेते थे। उसने ताकीद कर दी थी कि बखारो से असामियों को अष्टाश पर अनाज दिया जाय। लेकिन वहाँ अष्टाश न दे कर लोग दूसरों से सवाई-डेवढ़े पर अनाज लाते थे। वह अपने इलाके भर में सफाई का प्रबंध भी करना चाहती थी। गोबर बटोरने के लिए गाँव से बाहर खत्ते बनवा दिये थे। मोरियो को साफ करने के लिए भगी लगा दिये थे। लेकिन प्रजा इसे 'मुदाखलत बेजा' समझती थी और डरती थी कि कहीं रानी साहिबा हमारे घरों और खत्तो पर तो हाथ नहीं बढा रहीं हैं।

जाड़ो के दिन थे। गायत्री राप्ती नदी के किनारों के गाँवो में दौरा कर रही थी। अब की बाढ़ में कई गाँव डूब गये थे। कृषको ने छूट की प्रार्थना की थी। सरकारी कर्मचारियों ने इधर-उधर देख कर लिख दिया था, छूट की जरूरत नहीं है। गायत्री अपनी आँखो से इन ग्रामों की दशा देख कर यह निर्णय करना चाहती थी कि कितनी छूट होनी चाहिए। संध्या हो गयी थी। वह दिन भर की थकी-मादी थी, बिन्दापुर की छावनी में उदास पड़ी हुई थी। सारा मकान खंडहर हो गया था। इस छावनी की मरम्मत के लिए उसने कारिन्दो को सैकड़ो रुपये दिये थे, लेकिन उसकी दशा देखने से ज्ञात होता था कि बरसो से खपरैल भी नहीं बदला गया। दीवारे गिर गयी थी, कड़ियों के टूट जाने से जगह-जगह छत बैठ गयी थी। आँगन मै कूड़े के ढेर लगे हुए थे। यहाँ के कारिन्दो को वह बहुत ईमानदार समझती थी। उसके कुटिल व्यवहार पर चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। सामने चौकी पर पूजा के लिए आसन बिछा हुआ।, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था कि इतने में एक चपरासी नै आ कर कहा, सरकार, कानूनगो साहब आये हैं।

गायत्री उठ कर आसन पर जा बैठी और इस भय से कि कही कानूनगो साहब चले न जाये, शीघ्रता से सध्या समाप्त की और परदा कराके कानूनगो साहब को बुलाया।

गायत्री---कहिए खाँ साहब। मिजाज तो अच्छा हैं? क्या आजकल पड़ताल हो रही हूँ?

कानूनगो-जी हाँ, आजकल हुजुर के ही इलाके का दौरा कर रही हैं।

गायत्री-आपके विचार में बाढ़ से खेती को कितना नुकसान हुआ?

कानूनगो-अगर सरकार के तौर पर पूछती है तो रुपये में एक आना, निज के तौर पर पूछती है तो रुपये में बारह आने।

गायत्री- आप लोग यह दोरगी चाल क्यों चलते है? आप जानते नहीं कि इसमे प्रजा का कितना नुकसान होता है?

कानूनगो-हुजूर यह न पूछे। दोरगी चाल न चले और असली बात लिख दे तो एक दिन में नालायक बना कर निकाल दिये जायें। हम लोगों से सच्चा हाल जानने के लिए तहकीकत नही करायी जाती, बल्कि उसको छिपाने के लिए। पेट की बदौलत सब कुछ करना पड़ता है।

गायत्री-पेट को गरीबो की हाय से भरना तो अच्छा नहीं। अगर अपनी तरफ से प्रज्ञा की कुछ भलाई न कर सके तो कम से कम अपने हाथ उनका अहित तो न करना चाहिए। इलाके को क्या हाल है?

कानूनगो—आपको सुन कर रंज होगा। सारन में हुजूर की कई बीघे सौर असामियों ने जीत ली है, जगराँव के ठाकुरों ने हुजूर के नये बाग को जोत कर खेत बनी लिया है, मेडे खोद डाली है। जब तक फिर से पैमाइश न हो कुछ पता नहीं चल सकता कि अपकी कितनी जमीन उन्होंने खायी है।

गायत्री---क्या वहाँ का कारिन्दा सो रहा है? मेरा तो इन झगड़ो से नाकोदम है।

कानूनगो- हुजूर की जानिब से पैमाइश की एक दरख्वास्त पेश हो जाय, बस बाकी कीम मैं कर लूंगा। हाँ, सदर कानूनगो साहब की कुछ खातिर करनी पड़ेगी। मैं हुजूर को गुलाम हूँ, ऐसी सलाह हगिज न दूंगा जिससे हुजूर को नुकसान हो। इतनी अर्ज और करूंगा कि हुजूर एक मैनेजर रख लें। गुस्ताखी माफ, इतने बड़े इलाके का इन्तजाम करना हुजूर का काम नहीं हैं।

गायत्री मैनेजर रखने की तो मुझे भी फिक्र है, लेकिन लाऊँ कहाँ से? कहीं वह महाशय भी कारिन्दो से मिल गये तो रही-सही बात भी बिगड़ जायेगी। उनका यह अन्तिम आदेशा था कि मेरी प्रजा को कोई कष्ट न होने पाये। उसी आशा को पालने करने के लिए मैं यों अपनी जान खपी रही हैं। आपकी दृष्टि में कोई ऐसा ईमानदार और चतुर आदमी हो, जो मेरे सिर से यह भार उतार ले तो बतलाइए।

कानूनगो—बहुत अच्छा, मैं ख्याल रखूँगा। मेरे एक दोस्त है। ग्रेजुएट, बड़े लायक और तजरबेकार। खानदानी आदमी हैं। मैं उनसे जिक्र करूंगा। तो मुझे क्या हुक्म होता है? सदर कानूनगो साहब से बात-चीत करूँ?

गायत्री—जी हाँ, कह तो रही हूँ। वही लाला साहब हैं न? लेकिन वह तो बेतरह मुंह फैलाते हैं।

कानूनगो--हुजूर खातिर जमा रखे, मैं उन्हे सीधा कर लूंगा। औरों के साथ वह चाहे कितना मुँह फैलाये, यहाँ उनकी दाल न गलने पायेगी। बस हुजूर के पाँच सौ रुपये खर्च होंगे। इतने में ही दोनों गाँवों की पैमाइश करा दूंगा।

गायत्री-(मुस्कुरा कर) इसमे कम से कम आघा तो आपके हाथ जरूर लगेगा।

कानूनगो मुआजल्लाह, जनाब यह क्या फरमाती हैं? मैं मरते दम तक हुजूर को मुगालता न दूंगा। हाँ, काम पूरा हो जाने पर हुजूर जो कुछ अपनी खुशी से अदा करेगी वह सिर आंखो पर रखूँगा।

गायत्री तो यह कहिए, पाँच सौ के ऊपर कुछ और भी आपको भेंट करना पड़ेगा। मैं इतना मंहगा सौदा नहीं करती।

यही बातें हो रही थी कि पंडित लेखराज जी का शुभागमन हुआ। रेशमी अचकन, रेशमी पगड़ी, रेशमी चादर, रेशमी धोती, पाँव मे दिल्ली का सलेमशाही कामदार जूता, माथे पर चन्द्रबिन्दु, अधरों पर पान की लाली, आँखो पर सुनहरी ऐनक; केवड़ो में बसे हुए आ कर कुर्सी पर बैठ गये।

गायत्री-पंडित जी महाराज को पालागन करती हैं।

लेखराज--आशीर्वाद! आज तो सरकार को बहुत कष्ट हुआ।

गायत्री-क्या करूं मेरे पुरखो ने भी बिना खेती की खेती, बिना जमीन की जमींदारी, बिना घन के महाजनी प्रथा निकाली होती, तो मैं भी आपकी ही तरह चैन करती।

लेखराज-(हँस कर) कानूनगो साहब आप सुनते है सरकार की बातें। ऐसी चुन कर कह देती है कि उसका जवाब ही न बन पड़े। सरकार को परमात्मा ने रानी बनाया है, हम तो सरकार के द्वार के भिक्षुक है। सरकार ने धर्मशाला के शिलारोपण का शुभ मुहुर्त पूछा था वह मैने विचार लिया है। इसी पक्ष की एकादशी को प्रात काल सरकार के हाथ से नींव पड़ जानी चाहिए।

गायत्री—यह सुकीत मेरे भाग मे नही लिखी है। आपने किसी रईस को अपने हाथों सार्वजनिक इमारतों का आधार रखते देखा है? लोग अपने रहने के मकानों की नींव अधिकारियों से रखवाते है। मैं इस प्रथा को क्योंकर तोड़ सकती हैं? जिलाघीश को शिलारोपण के लिए निमत्रित करूंगी। उन्हीं के नाम पर धर्मशाला का नामकरण होगा। किसी ठीकेदार से भी अपने बातचीत की।

लेखराज- जी हाँ, मैंने एक ठीकेदार ठीक कर लिया है। सज्जन पुरुष हैं। इस शुभ कार्य को बिन लाभ के करना चाहता है। केवल लागत-मात्र लेगा।

गायत्री--आपने उसे नकशा दिखा दिया है न? कितने पर इस काम का ठीका लेना चाहता है?

लेखराज-—वह कहता है, दूसरा ठीकेदार जितना माँगे उससे मुझे सौ रुपये कम दिये जायें।

गायत्री तो अब एक दूसरा ठीकेदार लगाना पड़ा। वह कितना तखमीना करता है?

लेखराज-उसके हिसाब से ६० हजार पड़ेगे। माल-मसाला अब अव्वल दर्जे का लगायेगा। ६ महीने में काम पूरा कर देगा।

गायत्री ने इस मकान का नकशी लखनऊ में बनवाया था। वहाँ इसका तखमीना ४० हजार किया गया था। व्यग-भाव से बोली, तब तो वास्तव में आपका ठीकेदार बड़ा सज्जन पुरुष है। इसमें कुछ न कुछ तो आपके ठाकुर जी पर जरूर ही चढ़ाये जायेंगे।

लेखराज---सरकार तो दिल्लगी करती है। मुझे सरकार से दो ही क्या कम मिलता है कि ठीकेदार से कमीशन ठहराता? कुछ इच्छा होगी तो माँग लूंगा, नीयत क्याें बिगाड़े।

गायत्री मैं इसका जवाब एक सप्ताह में देंगी।

कानूनगो----और मुझे क्या हुक्म होता है? पंडित जी, आपने भी तो देखा होगा, सारन और जगराँव में हुजूर की कितनी जमीन दब गयी है।

पंडित—जी हाँ, क्यों नहीं, सौ बीघे से कम न दबी होगी।

गायत्री में जमीन देख कर आपको इत्तला दूँगी।अगर आपस के समझौते से काम चल जाय तो रार बढ़ाने की जरूरत नहीं।

दोनों महानुभाव निराश हो कर विदा हुए। दोनों मन ही मन गायत्री को कोस रहे थे। कानूनगो ने कहा, चालाक औरत हैं, बड़ी मुश्किल से हत्थे पर चढ़ती है। लेखराज बोले, एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। न जाने बटोर कर क्या करेगी? कोई आगे-पीछे भी तो नहीं है।

अँधेरा हो चला था। गायत्री सोच रही थी, इन लुटेरो से क्योंकर बचें? इनका बस चले तो दिन-दहाड़े लूट लें। इतने नौकर हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसे इलाके की उन्नति का ध्यान हो। ऐसा सुयोग्य आदमी कहीं मिलेगा? मैं अकेली ही कहाँ कहाँ दौड़ सकती हैं। ठीके पर दे दें तो इससे अधिक लाभ हो सकता है। सब झंझटो से मुक्त हो जाऊँगी, लेकिन असामी मर मिटेंगे। ठीकेदार इन्हें पीस डालेगा। कृष्णार्पण कर दें, तो भी वही हाल होगा। कही ज्ञानशंकर राजी हो जायँ तो इलाके के भाग जग उठें। कितने अनुभवशील पुरुष हैं, कितने मर्मज्ञ, कितने सूक्ष्मदर्शी। वह आ जाये तो इन लुटेरो से मेरा गला छूट जाय। सारा इलाके चमन हो जाय। लेकिन मुसीबत तो यह है कि उनकी बातें सुन कर मेरी भक्ति और धार्मिक विश्वास डावांडोल हो जाते हैं। अगर उनके साथ मुझे दो-चार महीने और लखनऊ रहने का अवसर मिलता तो मैं अब तक फैशनेबुल लेडी बन गयी होती। उनकी वाणी में। विचित्र प्रभाव है। मैं तो उनके सामने बावली सी हो जाती हैं। वह मेरा इतना अदब करते तो भी परछाईं की तरह उनके पीछे-पीछे लगी रहती थी, छेड़ छाड़ किया करती थी। न जाने उनके मन में मेरी ओर से क्या-क्या भावनाएँ उठी हो। पुरुष में यह बड़ा अवगुण है कि हास्य और विनोद को कुवृत्तियों से अलग नहीं रख सकते। इसका पवित्र आनन्द उठाना उन्हें आता ही नहीं। स्त्री जरा हँस कर बोली और उन्होंने समझ लिया कि वह मुझ पर लट्टू हो गयी। उन्हें जरा-सी उँगली पकड़ने को मिल जाय, फिर तो पहुँचा पकड़ते देर नहीं लगती। अगर ज्ञानशंकर यहाँ आने पर तैयार हो गये तो उन्हें यही रखूंगी। यही से वह इलाके का प्रबंध करेंगे। जब कोई विशेष काम होगा तो शहर जायेंगे। वहाँ भी मैं उनसे दूर-दूर रहूँगी। भूल कर भी घर में न बुलाऊँगी। नहीं, अब उन्हें उतनी धृष्टता करने का साहस ही न होगा। बेचारा कितना लज्जित था, मेरे सामने ताक न सकता था। स्टेशन पर मुझे बिदा करने आया था, मगर दूर बैठा रहा, जबान तक न खोली।

गायत्री इन्हीं विचारों मे मग्न थी कि एक चपरासी ने आज की डाक उसके सामने रख दी। डाक घर यहाँ से तीन कोस पर था। प्रति दिन एक बेगार डाक लेने जाया करता था।

गायत्री ने पूछा—वह आदमी कहाँ है? क्यों रे, अपनी मजूरी पा गया?

बेगारी- हाँ सरकार, पा गया।

गायत्री-कम तो नहीं है?

बेगार-नहीं सरकार, खुब खाने भर को मिल गया।

गायत्री---कल तुम जाओगे कि कोई दूसरा आदमी ठीक किया जाय?

बेगार-सरकार, मैं तो हाजिर ही हूँ, दूसरा क्यों जायगा?

गायत्री चिट्ठियाँ खोलने लगी। अधिकांश चिट्ठियाँ सुगन्धित तेल और अन्य औष धियों के विज्ञापनों की थी। गायत्री ने उन्हें उठा कर रद्दी की टोकरी मे डाल दिया। एक पत्र राय कमलानन्द का था। इसे उसने उत्सुकता से खोला और पढ़ते ही उसकी आँखें आनन्दपूर्ण गर्व से चमक उठी, मुखमंडल नव पुष्प के समान खिल गया। उसने तुरन्त वह पैकेट खोला जिसे वह अब तक किसी औषधालयं का सूचीपत्र समझ रही थी। पूर्वं पृष्ठ खोलते ही उसे अपनी चित्र दिखाई दिया। पहले लेख का शीर्षक था गायत्री देवी। लेखक का नाम था ज्ञानशंकर बी० ए०। गायत्री अंगरेजी कम जानती थी, लेकिन स्वाभाविक बुद्धिमत्ता से वह साधारण पुस्तकों का आशय समझ लेती थी। उसने बड़ी उत्सुकता से लेख को पढ़ना शुरू किया और यद्यपि बीस पृष्ठाें से कम न थे, पर उसने आध घंटे में ही सारा लेख समाप्त कर दिया और कुछ गौरवोन्मत्त नैत्रों से इधर उधर देख कर एक लम्बी सांस ली। ऐसा आनन्दाेन्माद उसे अपने जीवन में शायद ही प्राप्त हुआ हो। उसका मान-प्रेम कभी इतना उल्लसित न हुआ था। ज्ञानशंकर ने गायत्री के चरित्र, उसके सद्गुणों और सत्कार्यों की इतनी कुशलता से उल्लेख किया था कि भक्ति की जगह लेख में ऐतिहासिक गंम्भीरता का रंग आ गया था। इसमे सन्देह नहीं कि एक-एक शब्द से श्रद्धा टपकती थी, किन्तु वाचक को यह विवेक-हीन प्रशंसा नहीं, ऐतिहासिक उदारता प्रतीत होती थी। इस शैली पर वाक्य नैपुण्य सोने में सुगन्ध हो गया था। गायत्री बार-बार आईने में अपना स्वरूप देखती थी, उसके हृदय में एक असीम उत्साह प्रवाहित हो रहा था, मानों वह विमान पर बैठी हुई स्वर्ग की जा रही हो। उसकी धमनियों में रक्त की जगह उच्च भावी का संचार होता हुआ जान पड़ता था। इस समय उसके द्वार पर भिक्षुओं की एक सेना भी होती तो निहाल हो जाती। कानूनगो साहब अगर आ जाते तो पाँच सौ के बदले पाँच हजार से भागते और पंडित लेखराज का तखमीना दूना भी होता हो तो स्वीकार कर लिया जाता। उसने कई दिन से यहाँ के कारिन्दे से बात न की थी, उससे रूठी हुई थी। इस समय उसे अपराधियों की भाँति खड़े देखा तो प्रसन्न मुख हो कर बोली, अहिए, मुन्शी जी आजकल तो कच्चे बड़े की खूब छनती होगी।

मुन्शी जी धीरे धीरे सामने आ कर बोले, हुजूर, जनेऊ की सौगन्ध है, जब से सरकार ने मना कर दिया मैंने उसकी सूरत तक न देखी।

यह कहते हुए उन्होंने अपने साहित्य-प्रेम का परिचय देने के लिए पत्रिका उठा ली और पन्ने उलटने लगे। अकस्मात् गायत्री का चित्र देख कर उछल पड़े। बोले, सरकार, यह तो आपकी तस्वीर है। कैसा बनाया है कि अब बोली, अब बोली। क्या कुछ सरकार का हाल भी लिखा है?

गायत्री ने बैपरवाही से कहा, हाँ, तस्वीर है तो हाल क्यों न होगा? कारिन्दी दौड़ा हुआ बाहर गया और यह खबर सुनायी। कई कारिन्दे और चपरासी भोजन बना रहे थे, ओई भंग पीस रहा था, कोई गा रही थी। सब के सब आकर तस्वीर पर टूट पढ़े। छीना-झपटी होने लगी, पत्रिका के कई पन्ने फूट गये। यो गायत्री किसी को अपनी किताबें छूने नहीं देती थी, पर इस समय जर भी न बोली।

एक मुँहलगे चपरासी ने कहा, सरकार, कुछ हम लोगों को भी सुना दें।

गायत्री--यह मुझसे न होगा। सारा पोथा भरा हुआ है, कहाँ तक सुनाऊँगी ? दो-चार दिन में इसका अनुवाद हिन्दी पत्र में छप जायगा, तब पढ लेना।

लेकिन जब आदमियो ने एक स्वर होकर आग्रह करना शुरू किया तो गायत्री विवश हो गयी। इधर-उधर से कुछ अनुवाद करके सुनाया । यदि उसे अँगरेजी की अच्छी योग्यता होती तो कदाचित् वह अक्षरशः सुनाती ।

एक कारिन्दे ने कहा, पत्रवालो को न जाने यह सब हाल कैसे मिल जाते हैं ।!

दूसरे कारिन्दे ने कहा, उनके गोइन्दे सब जगह बिचरते रहते हैं । कही कोई बात हो, चट उनके पास पहुँच जाती है।

गायत्री को इन वार्ताओ मे असीम आनन्द आ रहा था। प्रातःकाल उसने ज्ञानशकर को एक विनयपूर्ण पत्र लिखा । इस लेख की चर्चा न करके केवल अपनी विडम्वनाओ का वृत्तान्त लिखा और साग्रह निवेदन किया कि आप आ कर मेरे इलाके का प्रबन्ध अपने हाथ में ले, इस डूबती हुई नौका को पार लगाये । उसका मनोमालिन्य मिट गया था । खुशामद अभिमान का सिर नीचा कर देती है। गायत्री अभिमान की पुतली थी। ज्ञानशकर ने अपने श्रद्धाभाव से उसे वशीभूत कर लिया।