प्रेमाश्रम/२०
२०
ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किंतु हमेशा उनके सामने एक न एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना पड़ा। इधर प्रेमशंकर के आ जाने से एक नयी समस्या उपस्थित हो गयी। इतने दिनों के बाद अब उन्हें मनोनीत सुअवसर हाथ लगा। कागज-पत्र पहले से ही तैयार थे। नालिशों के दायर होने में विलम्ब न हुआ।
लखनपुर के लोग मुचलके के कारण बिगड़े हुए थे ही, यह नयी विपत्ति सिर पर पड़ी तो और भी झल्ला उठे। मुचलके की मियाद इसी महीने में समाप्त होनेवाली थी। वह स्वच्छन्दता से जवाबदेही कर सकते थे। सारे गाँव में एका हो गया। आग-सी लग गयी। बूढे कादिर खाँ भी, जो अपनी सहिष्णुता के लिए बदनाम थे, धीरता से काम न ले सके। भरी हुई पंचायत मे, जो जमींदार का विरोध करने के उद्देश्य से बैठी थी, बोले, इसी धरती में सब कुछ होता है और सब कुछ इसी में समा जाता है। हम भी इसी धरती से पैदा हुए है और एक दिन इसी में समा जायेंगे। फिर यह चोट क्यों सहे? धरती के ही लिए छत्रधारियों के सिर गिर जाते हैं, हम भी अपना सिर गिरा देगे। इस काम में सहायता करना गाँव के सब प्राणियों का धर्म है, जिससे जो कुछ हो सके दे। सब लोगों ने एक स्वर से कहा, हम सब तुम्हारे साथ हैं, जिस रास्ते कहोगे चलेगे और इस धरती पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देंगे।
निस्सन्देह गाँववालो को मालूम था कि जमींदार को इजाफा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह यह भी जानते थे कि यह अधिकार उसी दशा में होता है, जब जमींदार अपने प्रयत्न से भूमि की उत्पादक शक्ति बढ़ा है। इस निर्मूल इजाफे को सभी अनर्थ समझते थे।
ज्ञानशंकर ने गाँव मे यह एका देखा तो चौके, लेकिन कुछ तो अपने दबाव और कुछ हाकिम परगना मिस्टर ज्वालासिंह के सहवासी होने के कारण उन्हें अपनी सफलता में विशेष संशय न था। लेकिन जब दाबे की सुनवायी हो चुकने के बाद जवाबदेही शुरू हुई तो ज्ञानशंकर को विदित हुआ कि मैं अपनी सफलता को जितना सुलभ समझता था उससे कहीं अधिक कष्टसाध्य है। ज्वालासिंह कभी-कभी ऐसे प्रश्न कर बैठते और असामियों के प्रति ऐसा दया-भाव प्रकट करते कि उनकी अभिरुचि का साफ पता चल जाता था। दिनों-दिन अवस्था ज्ञानशंकर के विपरीत होती जाती थी। वह स्वयं तो कचहरी न जाते, लेकिन प्रतिदिन का विवरण बड़े ध्यान से सुनते थे। ज्वालासिंह पर दाँत पीस कर रह जाते। ये महापुरुष मेरे सहपाठियों में हैं। हम वह बरषो तक साथ-साथ खेले है। हँसी दिल्लगी, धौल-धप्पा सभी कुछ होता था। आज जो जरा अधिकार मिल गया तो ऐसे तोते की भाँति आँखें फेर ली, मानो कभी का परिचय ही नहीं है।
अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब यत्न न किया तो काम बिगड़ जायगा तब उन्होंने एक दिन ज्वालसिंह से मिलने का निश्चय किया। कौन जाने मुझ पर रोब जनाने के ही लिए यह जाल फैला रहे हो। यद्यपि यह जानते थे कि ज्वालसिंह किसी मुकदमे की जाँच की अवधि में वादियों से बहुत कम मिलते थे तथापि स्वार्थपरता की धुन में उन्हें इसका भी ध्यान न रहा। सन्ध्या समय उनके बँगले पर जा पहुँचे।
ज्वालासिंह को इन दिनों सितार का शौक हुआ था। उन्हें अपनी शिक्षा में यह विशेष त्रुटि जान पड़ती थी। एक गत बजाने की बार-बार चेष्टा करते, पर तारों का स्वर न मिलता था। कभी यह कील घुमाते, कभी कील ढीली करते कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। ज्वालासिंह ने सितार रख दिया और उनसे गले मिल कर बोले, आइए भाई जान, आइए। कई दिनों से आपकी याद आ रही थी। आजकल तो आपका लिटरेरी उमगे बढ़ा हुआ है। मैंने गायत्री देवी पर आपका लेख देखा। बस, यही जी चाहता था, आपकी कलम चूम लूँ। यह सारी कचहरी मे उसी की चर्चा है। ऐसा ओज, ऐसा प्रसादगुण, इतनी प्रतिभा, इतना प्रवाह बहुत कम किसी लेख में दिखायी देता है। कल मैं साहब बहादुर से मिलने गया था। उन की मेज पर वही पत्रिका पड़ी हुई थी। जाते ही जाते उसी लेख की चर्चा छेड़ दी। ये लोग बड़े गुणग्राही होते है। यह कहाँ से ऐसे चुने हुए शब्द और मुहावरे लो कर रख देते है, मानो किसी ने सुंदर फूलों का गुलदस्ता सजा दिया हो।
ज्वालासिंह की प्रशसा उस रईस की प्रशंसा थी जो अपने कलावन्त के मधुर गान पर मुग्ध हो गया हो। ज्ञानशंकर ने सकुचाते हुए पूछा, साहब क्या कहते थे?
ज्वाला—पहले तो पूछने लगे, यह है कौन आदमी? जब मैंने कहा, यह मेरे सहपाठी और साथ के खिलाड़ी हैं तब उसे और भी दिलचस्पी हुई। पूछे, क्या करते है, कहाँ रहते है? मेरी समझ में देहाती बैंको के सम्बन्ध मे आपने जो रिमार्क किये हैं उनका उन पर बड़ा असर हुआ।
ज्ञान--(मुस्करा कर) भाई जान, आपसे क्या छिपाये। वह कहा मैंने एक अँगरेजी पत्रिका से कुछ काट-छाँट कर नकल कर लिया था (सावधान हो कर) कम से कम यह विचार मैरे न थे।
ज्वाला—आपको हवाला देना चाहिए था।
शान—विचारों पर किसी को अधिकार नहीं होता। शब्द तो अधिकांश मेरे ही थे।
ज्वाला—गायत्री देवी तो बहुत प्रसन्न हुई होंगी। कुछ वरदान देंगी या नहीं?
ज्ञान-उनका एक पत्र आया है। अपने इलाके का प्रबन्ध मेरे हाथों में देना चाहती हैं।
ज्वाला—वाह, क्या कहने। वेतन भी ५०० रु० से कम न होगा।
ज्ञान---वेतन का तो जिक्र न था। शायद इतना न दे सके।
ज्वाला—भैया, अगर वहाँ ३०० १० भी मिले तो आप हम लोगों से अच्छे रहेगे। खूब सैर-सपाटे कीजिए, मोटर दौड़ाते फिरिए, और काम ही क्या है? हम लोगों की भाँति कागज का एक पुलिन्दा तो सिर पर लाद कर घर न लाना पड़ेगा। वहीं कब तक जाने का विचार है?
ज्ञान---जाने को मैं तैयार हैं, लेकिन जब आप गला छोड़े।
ज्वालासिंह ने बात काट कर कहा, फैमिली को भी साथ ले जाइएगा न? अवश्य ले जाइए। मैंने भी एक सप्ताह हुए स्त्री को बुला लिया है। इस ऊजड़ मे भूत की तरह अकेला पड़ा रहता था।
ज्ञान–अच्छा तो भाभी आ गयी? बड़ा आनन्द रहेगा। कालेज से तो आप परदे के बड़े विरोधी थे?
ज्वाला—अब भी हैं, पर विपत्ति यह है कि अन्य पुरुष के सामने आते हुए उनके प्राण निकल से जाते है। अरदली और नौकर से निस्सकोच बातें करती है, लेकिन मेरे मित्रों की परछाई से भी भागती हैं। खीच-खाँच के लाऊँ भी तो सिर झुका कर अपराधियों की भाँति खड़ी रहेगी।
ज्ञान-अरे, तो क्या मेरी गिनती उन्हीं मित्रों में है?
ज्वाला--अभी तो आपसे भी झिझकेगी। हाँ, आपसे दो-चार बार मुलाकात हो, आपके घर की स्त्रियाँ भी आने लगे तो सम्भव है संकोच न रहे। क्यों न मिसेज ज्ञानशंकर को कल यहाँ भेज दीजिए? गाड़ी भेज दूंगा। आपकी वाइफ को तो कोई आपत्ति न होगी?
ज्ञान-जी नहीं, वह बड़े शौक से आयेंगी।
ज्ञानशंकर को अपने मुकदमे के सम्बन्ध में और कुछ कहने का अवसर न मिला, लेकिन वहीं से चले तो बहुत खुश थे। स्त्रियों के मेल-जोल से इन महाशय की नकेल मेरे हाथों मे आ जायगी। जिस कल को चाहूँ घुमा सकता हूँ। उन्हें अब अपनी सफलता में कोई संशय न रहा। लेकिन जब घर पर आ कर उन्होंने विद्या से यह चर्चा की तो वह बोली, मुझे तो वहाँ जाते झेंप होती है, न कभी की जान-पहचान, न रीति न व्यवहार। मैं वहाँ जा कर क्या बातें करूंगी? गूंगी बनी बैठी रहूँगी। तुमने मुझसे ने पूछा-ताछा, वादा कर आये?
ज्ञान-मिसेज ज्वालासिंह बड़ी मिलनसार हैं। उनसे मिल कर तुम्हें वहा आनन्द आयेगा।
विद्या--अच्छा, और मुन्नी को (छोटी लड़की का नाम था) क्या करूंगी? यह वहाँ रोये-चिल्लाय और उन्हें बुरा लगे तो?
ज्ञान--महरी को साथ लेते ना। वह लड़की को बाहर बगीचे में बहलाती रहेगी।
विद्या बहुत कहने-सुनने से अन्त में जाने पर राजी हो गयी। प्रात काल ज्वालासिंह की गाड़ी आ गयी। विद्या बढ़े ठाट से उनके घर गयीं। दस बजते-बजते लौटी। ज्ञानशंकर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, कैसे मिली?
विद्या बहुत अच्छी तरह। स्त्री क्या है देवी है। ऐसी हँसमुख, स्नेहमयी स्त्री तो मैंने देखी ही नहीं। छोड़ती ही न थी। बहुत जिद की तो आने दिया। मुझे विदा करने लगी तो उनकी आँखो से आँसू निकलने लगे। मैं भी रो पड़ी। उर्दू, अँगरेजी सब पढ़ी हुई हैं। बड़ा सरल स्वभाव है। महरियों तक को तू नहीं कहती। शीलमणि नाम है।
ज्ञान---कुछ मेरी चर्चा भी हुई?
विद्या--हाँ, हुई क्यों नहीं? कहती थी मेरे बाबूजी के पुराने दोस्त है। तुम्हें उस दिन चिक की आड़ से देखा था। तुम्हारी अचकन उन्हें पसन्द नहीं। हँसकर बोली, अचकन क्या पहनते है, मुसलमानों को पहनाया है। कोट क्यों नहीं पहनते?
ज्ञानशंकर की आशा और उद्दीप्त हुई, लेकिन जब मुकदमा फिर तारीख पर पेश हुआ तो ज्वालासिंह के व्यवहार में जरा भी अन्तर ने था। बार-बार मुद्दई के गवाहों से अविश्वास सूचक प्रश्न करते, मुद्दई के वकील के प्रश्नों पर शंकाएँ करते। ज्ञानशंकर ने शाम को यह समाचार सुना तो चकित हो गये। यह तो विचित्र आदमी है। इधर भी चलती हैं, उधर भी। मुझे नचाना चाहता है। यह पद पा कर दोरंगी चाल चलना सीख गया है। जी में आया, चल कर साफ-साफ कह दूँ, मित्रों से यह यह कपट अच्छा नहीं। या तो दुश्मन बन जाओ या दोस्त बने रहो। यह क्या कि मन में कुछ और मुख में कुछ और। इसी असमंजस में एक सप्ताह गुजर गया। दूसरी तारीख निकट आती जाती थी। ज्ञानशंकर का चित्त बहुत उद्विग्न था। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया था कि अगर इन्होंने फिर दोरंगी चाल चली तो अपना मुकदमा किसी दूसरे इजलास में उठा ले जाऊँगा। दबूँ क्यों?
लेकिन जब दूसरी तारीख को ज्वालासिंह ने लखनपुर जा कर मौके की जाँच करने के लिए फिर तारीख बढ़ा दी तो ज्ञानशंकर झुंझला उठे। क्रोध में भरे हुए विद्या से बोले, देखी तुमने इनकी शरारत? अब मौके की जाँच करने जा रहे हैं! अब नहीं रहा जाता। जाता हूँ, जरा दो दो बातें कर आऊँ।
विद्या-तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो? क्या जाने वह दूसरों को दिखाने के लिए यह स्वाँग भर रहे हों। अपनी बदनामी को सभी डरते हैं।
ज्ञान-तो आखिर कब तक मैं फैसले का इन्तजार करता रहूँ? यहाँ बैठे-बैठे मेरी कई सौ रुपये महीने की हानि हो रही है।
ज्ञानशंकर ने अभी तक विद्या से गायत्री के अनुरोध की जरा भी चर्चा न की थी। इस समय सहसा मुंह से बात निकल गयीं। विद्या ने चौंक कर पूछा, हानि कैसी हो रही है?
ज्ञानशंकर ने देखा, अब बातें बनाने से काम न चलेगा और फिर कब तक छिपाऊँगा। बोले, मुझे याद आती हैं, मैंने तुमसे गायत्री देवी के पुत्र का जिक्र किया था। उन्होंने मुझे अपनी रियासत का मैनेजर बनाने का प्रस्ताव किया है और जल्द बुलाया है।
विद्या—तुमने स्वीकार भी कर लिया?
ज्ञान—क्यों न करता, क्या कोई हानि थी?
विद्या--जब तुम्हें स्वयं इतनी मोटी-सी बात भी नहीं सूझती तो मैं और क्या कहूँ। भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी। लोग यही समझेंगे कि अबला विधवा है, नातेदार जमा हो कर लूट खाते हैं। तुम चाहे कितने ही निःस्पृह भाव से काम करो, लेकिन बदनामी से न बच सकोगे, अभी वह तुम्हारी बड़ी साली हैं, तुमसे कितना प्रेम करती हैं, कितनी ही बार तुम्हारी चारपाई तक बिछा दी है। इस उच्चासन से गिर कर अब तुम उनके नौकर हो जाओगे और मुझे भी बहिन के पद से गिरा कर नौकरानी बना दोगे। मान लिया कि वह भी तुम्हारी खातिर करेंगी, लेकिन वह मृदुभाव कहाँ? लोग उनसे तुम्हारी जा-बेजा शिकायतें करेंगे। मुलाहिजे के मारे वह तुमसे कुछ न कह सकेंगी, मन ही मन कुढ़ेगी। मैं तुम्हें नौकरी के विचार से जाने की कभी सलाह न ददूँगी।
विद्या—कहने-सुनने की बात नहीं हैं, मुझे तुम्हारा वहाँ जाना सर्वथा अनुचित जान पड़ता है।
ज्ञान—अच्छा तो अब मेरी बात सुनो। मुझे वर्तमान और भविष्य को अवस्था का विचार करके यह उचित जान पड़ता है कि इन अवसर को हाथ से न जाने दें। जब मैं जी तोड़ कर काम करूंगा, दो की जगह एक खर्च करूंगा, एक की जगह दो जमा करके दिखाऊँगा; तो गायत्र बावली नहीं हैं कि अनायास मुझपर सन्देह करने लगे। और फिर मैं केवल नौकरी के इरादे नहीं जाता, मेरे विचार कुछ और ही हैं।
विद्या—ने सशंक दृष्टि है ज्ञानशंकर को देख कर पूछा, और क्या विचार है?
ज्ञान—में इस समृद्धिपूर्ण रियासत को दूसरे के हाथ मैं नहीं देखना चाहता। गायत्री के बाद जब इस पर दूसरों का ही अधिकार होगा तो मेरी क्यों न हो?
विद्या—ने कुतूहल से देख कर कहा, तुम्हारा क्या हक हैं?
ज्ञान—मैं अपना हक जमाया चाहता हूँ। अब चलता हूँ जरा ज्वालासिंह से निबटता आऊँ।
विद्या—उनसे क्या निबटोगे? उन्होंने कोई रिश्वत ली है?
ज्ञान—तो फिर इतना मित्रभाव क्यों दिखाते हैं।
विद्या—यह उनको सज्जनता है। यह आवश्यक नहीं कि वह अपके लिए दूसरों पर अन्याय करे।
ज्ञान–यही बात मैं उनके मुँह है सुनना चाहता हूँ। इसका मुंहतोड़ जवाब मेरे पास है।
विद्या—अच्छा तो जाओ, जो जी में आये करो। फिर क्यों सलाह लेते हो?
ज्ञान—तुमसे सलाह नहीं लेता, इतनी ही बुद्धि होती तो फिर रोना काहे का था? स्त्रियों बड़े-बड़े काम कर दिखाती हैं। तुमसे इतना भी न हो सका कि शीलमणि ने इस मुकदमे के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करती, तुम्हारी तो जरा-जरा सी बाद में मान हानि होने लगती है।
विद्या–हाँ, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ही ऐसा नहीं है।
ज्ञान—क्यों, इसमें क्या हर्ज था, अगर तुम एक बार हँसी-हँसी में कह देता कि तुम्हारे बाबूजी झारी हजारों रुपये माल को क्षति कराये देते हैं, जरा उनको समझा क्यों नहीं देती है?
विद्या—मुझे यह बातें बनानी नहीं आती, क्या करूँ? मैं इस विषय में शीलमणि से कुछ कह नहीं सकती।
ज्ञान—चाहे दावा खारिज हो जाय?
विद्या—चाहे जो कुछ हो।
ज्ञानशंकर बाहर आये तो सामने एक नयी समस्या आ खड़ी हुई। विद्या को कैसे राजी करूँ? मानता हूँ कि सम्बन्धियों के यहाँ नौकरी से कुछ हेठी अवश्य होती है। लेकिन इतनी नहीं कि कोई उसके लिए चिरकाल के मन्सूवो को मिटा दे। विद्या की यह बुरी आदत है कि जिस बात पर अड़ जाती है उसे किसी तरह से नहीं छोड़तीं। मैं उबर चली जाऊँ और इधर यह रायसाहब में मेरी शिकायत कर तो बना-बनाया काम बिगड़ जाय। अब यह पहले की-सी सरला नहीं हैं। इसम दिनों-दिन आत्मसम्मान की मात्रा बढ़ती जाती है। इसे नाराज करने का यह अवसर नहीं।
वह इस चिन्ता में बैठे हुए थे कि गीलमणि की सवारी आ पहुँची। ज्ञानशकर ने निश्चय किया, स्वयं चल कर उससे अपना समाचार कहूँ। अभी तीनो महिलाएँ कुशल समाचार ही पूछ रही थी कि वह कुछ झिझकते हुए ऊपर आये और कमरे के द्वार पर चिलमन के सामने खड़े हो कर शीलमणि से बोले, भाभी जी को प्रणाम करता हूँ।
विद्या उनका आशय समझ गयी। लज्जा से उसका मुखमडल अरुण वर्ण हो गया। वह वहाँ से उठ कर ज्ञानशकर को अवहेलनापूर्ण नेत्रो से देखते हुए दूसरे कमरे में चली गयी। श्रद्धा मध्यस्थ का काम देने के लिए रह गयी।
ज्ञानशकर बोले, भाई साहब तो पर्दे के भक्त नहीं हैं, और जब हम लोगों में इतनी घनिष्ठता हो गयी है तो यह हिसाब उठ जाना चाहिए। मुझे अपने कितनी ही बाते कहनी है। परमात्मा ने आपको शील और विनय के गुणों से विभूषित किया है, इसके लिए मुझे आपसे निज के मामलों में जवान खोलने का साहस हुआ हैं। मुझे विश्वास है कि आप उसकी अवज्ञा न करेगी। मेरा एक इजाफा लगान का मुकदमा भाई साहब के इजलास में दो महीनों से पेश है। मैं उनका इतना अदब करता हैं कि इस विषय में उनसे कुछ कहते हुए संकोच होता है। यद्यपि मुझे वह भाई समझते हैं, लेकिन किसी कारण से उन्हें भ्रम होता हुआ जान पडता है कि मेरा दावा झूठा है, और मुझे भय है कि कही वह खारिज न कर दें। इसमें सन्देह नहीं कि दावे को खारिज करने का उन्हें बहुत दुःख होगा, लेकिन शायद उन्हें अब तक मेरी वास्तविक दशा का ज्ञान नहीं है। वह यह नहीं जानते कि इसमे मेरा कितना अपमान और कितना अनिष्ट होगा। आजकल की जमीदारी एक बला है। जीवन की सामग्रियाँ दिनो-दिन महँगी होती जाती हैं और मेरी आमदनी आज भी वही है जो तीस वर्ष पहले थी। एसी अवस्था मे मेरे उद्धार को इसके सिवा और क्या उपाय हैं कि असामियो पर इजाफा लगान करूँ । अन्न मोतियो के मोल बिक रहा है। कृषको की आमदनी दुगनी, बल्कि तिगुनी हो गयी है। यदि मैं उनकी बढी हुई आमदनी में से एक हिस्सा मांगता हूँ तो क्या अन्याय करता हैं ? अगर मेरी जीत हुई तो सहज में ही मेरी आमदनी एक हजार बढ जायेगी। हार हुई तो असामियो की निगाह में गिर जाऊँगा। वह शेर हो जायेंगे और बात-बात पर मुझसे उलझेगे। तब मेरे लिए इसके सिवा और मार्ग न रहेगा कि जमीदारी से इस्तीफा दे दूँ और मित्रों के सिर जा पडे़। (मुस्करा कर) आप ही के द्वार पर अड्डा जमाऊँगा और यदि आप मार-मार कर हटायें, तो भी हटने का नाम न लूँगा।
शीलमणि ने यह विवरण ध्यानपूर्वक सुना और श्रद्धा से बोली, आप तय है। कह दे, मुझे यह सुन कर बड़ा खेद हुआ। आपने पहले इसका जिक्र क्यों नहीं क्यिा? विद्या ने भी कभी इसकी चर्चा नहीं की, नहीं तो अब तक आपकी डिग्री हो गयी होती। किन्तु आप निश्चित रहे। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि अपनी ओर से आपकी सिफ़ारिश करने में कोई बात उठा न रखूंगी।
ज्ञान—मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी। दो-चार दिन मे भाई साहब मौका देखने जायेगे। इसलिए उनसे जल्द ही इसकी चर्चा कर दे।
शील—मैं आज जाते ही जाते कहूँगी। आप इतमीनान रखे।