सामग्री पर जाएँ

प्रेमाश्रम/१९

विकिस्रोत से
प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १३७ से – १४१ तक

 

१९

ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिली तो फूले न समाये । हृदय मे भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी । उनका मधुर स्वप्न इतनी जल्दी फलीभूत होगा इसकी उन्हें आशा न थी। विधाता ने एक बडी रियासत के स्वामी बनने का अवसर प्रदान कर दिया था। यदि अब भी वह इससे लाभ न उठा सके तो उनका दुर्भाग्य ।

किन्तु गोरखपुर जाने के पहले लखनपुर की ओर से निश्चिन्त हो जाना चाहते. थे। जब से प्रेमशकर ने उनसे अपने हिस्से का नफा माँगा था उनके मन में नाना प्रकार की शकाएँ उठ रही थी। लाला प्रभाशंकर का वहाँ आना-जाना और भी खटकता था। उन्हें सदेह होता था कि वह बुड्ढा घाघ अवश्य कोई न कोई दाँव खेल रहा है। यह पितृवत् प्रेम अकारण नही । प्रेमशकर चतुर हो, लेकिन इस चाणक्य के सामने अभी लौंडे है। इनकी कुटिल कामना यही होगी कि उन्हें फोड कर लखनपुर के आठ आने अपने लडको के नाम हिब्बा करा ले या किसी दूसरे महाजन के यहाँ बय कराके बीच मे दस-पाँच हजार की रकम उडा लें। जरूर यही बात है, नही तो जब अपनी ही रोटियो के लाले पड़े हैं तो यह पकवान बन-बन कर न जाते। अब तो श्रद्धा ही मेरी हारी हुई बाजी का फर्जी है। अब उसे यह पढाऊँ कि तुम अपने गुजारे के लिए आधा लखनपुर अपने नाम करा लो । उनकी कौन चलाये; अकेले हैं ही, न जाने कब कहाँ चल दें तो तुम कही की न रही। यह चाल सीधी पड जाय तो अब भी लखनपुर अपना हो सकता है। श्रद्वा को तीर्थयात्रा करने के लिए भेज दूँगा । एक ने एक दिन भर हो जायेगी । जीती भी रही तो हरद्वार में बैठी गगा स्नान करती रहेगी। लखनपुर की ओर से मुझे कोई चिन्ता न रहेगी ।

बौ निश्चय करके ज्ञानशंकर अन्दर गये; दैवयोग से श्रद्धा उनकी इच्छानुसार अपने कमरे में अकेली बैठी हुई मिल गयी। माया को कई दिन से ज्वर आ रहा था, विद्या अपने कमरे में बैठी हुई उसे पंखा झल रही थी।

ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठ कर श्रद्धा से बोले, देखी चचा साहब की घूतँत ! वह तो मैं पहले ही ताड़ गया था कि यह महाशय कोई न कोई स्वाँग रच रहे हैं। सुना लखनपुर के वय करने की बात-चीत हो रही है।

श्रद्धा--(विस्मित हो कर) तुमसे किसने कहा ? चचा साहब को मैं इतना नीच नही समझती। मुझे पूरा विश्वास है कि वह केवल प्रेमवश वहाँ आते-जाते हैं।

ज्ञान--यह तुम्हारा भ्रम है। यह लोग ऐसे निस्वार्थ प्रेम करनेवाले जीव नहीं है। जिसने जीवन-पर्यन्त दूसरों को ही मूँडा हो वह अब अपना गँवा कर भला क्या प्रेम करेगा ? मतलब कुछ और ही हैं। भैया का माल है, चाहे बेचें या रखें, चाहे चचा साहब को दे दें या लुटा दें, इसका उन्हें पूरा अधिकार हैं, मैं बीच में कूदनेवाला कौन होना हूँ ? हाँ इतना अवश्य है कि तुम फिर कही की न रहोगी।

श्रद्धा--अगर तुम्हारा ही कहना ठीक हो तो मेरा इसमे क्या बस है?

ज्ञान--बस क्यों नही है? आखिर तुम्हारे गुजारे का भार तो उन्ही पर है। तुम आठ आने लखनपुर अपने नाम लिखा सकती हो। भैया को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तुम्हें संकोच हो तो मैं स्वयं जा कर उनसे मामला तें कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि भैया इन्कार न करेंगे और करे तो भी मैं उन्हें कायल कर सकता है। जब तुम्हारे नाम हो जायगा तब उन्हे वय करने का अधिकार ने रहेगा और चचा साहब की दाल भी न गलेगी।

श्रद्धा विचार में डूब गयी। जब उसने कई मिनट तक सिर ने उठाया तब ज्ञानशकर ने पूछा, क्या मोचती हो? इनमें कोई हर्ज है? जायदाद नष्ट हो जाय, वह अच्छा है या घर में बनी है, वह अच्छा है?

अब श्रद्धा ने सिर उठाया और गौरव-पूर्ण भाव से बोली--मैं ऐसा नही कर सकती। उनकी जो इच्छा हो वह करे, चाहे अपना हिस्सा बेच दें या रखें। वह स्वय बुद्धिमान हैं, जो उचित समझेंगे वह करेंगे। मैं उनके पाँव मे वेडी क्यो डालूँ !

ज्ञानशंकर ने रुष्ट हो कर उत्तर दिया, लेकिन यह सोचा है कि जायदाद निकल गयी तो तुम्हारा निर्वाह क्यो कर होगा? वह कल ही फिर अमेरिका की राह लें तो?

श्रद्धा--मेरी कुछ चिन्ता न करो! वह मेरे स्वामी हैं, जो कुछ करेंगे उसी में मेरी भलाई हैं। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि वह मुझे निरवलम्ब छोड़ जायेंगे।

ज्ञान--तुम्हारी जैसी इच्छा। मैंने ऊँच-नीच मुझा दिया; अगर पीछे से कोई बात बने-बिगडे़ तो मेरे सिर दोष न रखना। ज्ञानशंकर बाहर आये, उनका चित्त उद्विग्न हो रहा था। श्रद्धा के सन्तोष और पतिभक्ति ने उन्हें एक नयी उलझन में डाल दिया। यह तो उन्हें मालूम था कि श्रद्धा मेरे प्रस्ताव को सुगमता से स्वीकार न करेगी, लेकिन उसमें इतना दृढ़ त्याग-भाव है। इसका उन्हें पता न था। अपने मानव-प्रकृति ज्ञान पर उन्हें घमंड था, श्रद्धा के त्याग भाव ने उसे चूर कर दिया। ओह। स्त्रियाँ कितनी अविवेकिनी होती हैं। मैंने महीनों इसे तोते की भाँति पढ़ाया, उसका यह फल! वह अपने कमरे में देर तक बैठे सोचते रहे कि क्योंकर यह गुत्थी सुलझे? वह आज ही इस दुविधा का अन्त करना चाहते थे। यदि वह श्रद्धा को भार मुझ पर छोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें लखनपुर उसके नाम लिखना पड़ेगा। मैं उन्हें मजबूर करूंगा। खूब खुली-खुली बातें होगी। इसी असमंजस में वह घर से निकले और हाजीपुर की ओर चले। रास्ते भर वह इसी चिन्ता में पड़े रहे। यह संकोच भी होता था कि इतने दिनों के बाद मिलने भी चला तो स्वार्थ-वश हो कर। जब से प्रेमशकर हाजीपुर रहने लग गये थे, ज्ञानबाबू ने एक बार भी वहाँ जाने का कष्ट न उठाया था। 'कभी-कभी अपने घर पर ही उनसे मुलाकात हो जाती थी। मगर इधर तीन-चार महीनों से दोनों भाइयों से भेट ही न हुई थी।

ज्ञानशंकर हाजीपुर पहुंचे, तो शाम हो गयी थी। पूस का महीना था। खेतों मे चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। सरसों, मटर, कुसुम, अल्सी के नीले-पीले फूल अपनी छटा दिखा रहे थे। कही चंचल तोतों के झुंड थे, कहीं उचक्के कौवे के गोल। जगह-जगह पर सारस के जोड़े अहिंसापूर्ण विचार में मग्न खड़े थे। युवतियाँ सिरों पर घड़े रखें नदी से पानी ला रही थी, कोई खेत में बथुआ का साग तोड़ रही थी, कोई बैलों को खिलाने के लिए हरियाली का गट्ठा सिर पर रखे चली आती थी। सरल शान्तिमय जीवन का पवित्र दृश्य था। शहर की चिल्ल-पो, दौड़ धूप के सामने यह शान्ति अतीव सुखद प्रतीत होती थी।

ज्ञानशंकर एक आदमीके साथ प्रेमशंकर के झोपड़े में आये तो वहाँ की सुरम्य शोभा देख कर चकित हो गये। नदी के किनारे एक ऊँचे और विस्तृत टीले पर लता और वेलो से सजा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानों किसी उच्चात्मा का सन्तोषपूर्ण हृदय है। झोपड़े के सामने जहाँ तक निगाह जाती थी, प्रकृति की पुष्पित और पल्लवित छटा दिखायी देती थी। प्रेमशंकर झोपड़े के सामने खड़े बैलों को चारा डाल रहे। ज्ञानशंकर को थे। देखते ही बड़े प्रेम से गले मिले और घर का कुशल-समाचार पूछने के बाद बोले, तुम तो जैसे मुझे भूल ही गये। इधर आने की कसम खा ली।

ज्ञानशंकर ने लज्जित हो कर कहा, यहाँ आने का विचार ता कई दिन से था, पर अवकाश ही नहीं मिलता था। इसे अपने दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहूं? आप मुझसे इतने समीप हैं, फिर भी हमारे बीच में सौ कोस का अन्तर है। यह मैरी नैति दुर्बलता और विरादरी का लिहाज है। मुझे बिरादरी के हाथों जितने कष्ट झेलने पड़े, वह मैं ही जानता हूँ। यह स्थान तो बड़ा रमणीक है। यह खेत किसके है?

प्रेमशंकर--इसी गाँव के असामियों के है। तुम्हें तो मालूम होगा, सावन में यहाँ बाढ़ आ गयी थी। सारा गाँव डूब गया था, कितने ही बैल बह गये, यहाँ तक कि झोंपड़ों का भी पता न चला। तब से लोगों को सहकारिता की जरूरत मालूम होने लगी है। सब असामियों ने मिल कर यह बाँध बना लिया है और यह साठ-बीधे का चक निकल आया। इसके चारों ओर ऊँची मेड़े खीच दी है। जिसके जितने बीधे खेत हैं, उसी परते से बाँट दी जायेगी। मुझे लोगो ने प्रबन्धक बना रखा है। इस ढ़ंग से काम करने से बड़ी किफायत होती है। जो काम दस मजूर करते थे वही काम छह सात मजदूरों से पूरा हो जाता है। जुताई और सिंचाई भी उत्तम रीति से हो सकती है। तुमने गायत्री देवी का वृत्तान्त खूब लिखा है, मैं पढ़ कर मुग्ध हो गया।

ज्ञानशंकर उन्होंने मुझे अपनी रियासत का प्रबन्ध करने को बुलाया है। मेरे लिए यह बड़ा अच्छा अवसर हैं। लेकिन जाऊँ कैसे? माया और उनकी माँ को तो साथ ले जा सकता हैं। किन्तु भाभी किसी तरह जाने पर राजी नहीं हो सकती। शिकायत नहीं करता, लेकिन चाची से आजकल उनको बड़ा मेल जोल है। चाची और उनकी बहू दोनों ही उनके कान भरती हैं। उनका सरल स्वभाव है। दूसरों की बातो में आ जाती हैं। आजकल दोनों महिलाएँ उन्हें दम दे रही है कि लखनपुर का आधा हिस्सा अपने नाम कर लो। कौन जाने, तुम्हारे पति फिर विदेश की राह ले तो तुम कही की, न रहो। बचा साहब भी उसी गोष्ठी में हैं। आज ही कल मे वह लोग यह प्रस्ताव आपके सामने लायेंगे। इसलिए आप से मेरी विनीत प्रार्थना है कि इस विषय मे आप जो करना चाहते हो उससे मुझे सूचित कर दे। आपके ही फैसले पर मेरे जीवन की सारी आशाएँ निर्भर है। यदि आपने अपने हिस्से को वय करने का निश्चय कर लिया हो, तो मैं अपने लिए कोई और राह निकालें।

प्रेमशंकर--चचा साहब के विषय में तुम्हें जो सदेह है, वह सर्वथा निर्मूल है। उन्होंने आज तक कभी मुझसे तुम्हारी शिकायत नहीं की। उनके हृदय में संतोष है। और चाहे उनकी अवस्था अच्छी न हो, पर वह उससे असन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। रहा लखनपुर के सम्बन्ध में मेरा इरादा। मैं यह सुनना ही नहीं चाहता कि मैं उस गाँव का जमींदार हैं। तुम मेरी ओर से निश्चित हो। यही समझ लो कि मैं हैं ही नही। में अपने श्रम की रोटी खाना चाहता हूँ। बीच को दलाल नहीं बनना चाहता। अगर सरकारी पत्रों में मेरा नाम दर्ज हो गया हो तो मैं इस्तीफा देने को तैयार हैं। तुम्हारी भाभी के जीवन-निर्वाह का भार तुम्हारे ऊपर रहेगा। मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सहायता करता रहूंगा।

ज्ञानशंकर भाई की बातें सुन कर विस्मित हो गये। यद्यपि इन विचारों मौलिकता न थी। उन्होंने साम्यवाद के ग्रंथों में इसका विवरण देखा था, लेकिन उनकी समझ में यह केवल मानव-समाज को आदर्श-मात्र था। इस आदर्श को व्यावहारिक रूप में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह अगर इस विषय पर तर्क करना चाहते तो अपनी सबल युक्तियों से प्रेमशंकर को निरुत्तर कर देते। लेकिन यह समय इन विचारों के समर्थन करने का था, न कि अपनी वाक्पटुता दिखाने का। बोले, भाई साहब! यह समाज-संगठन को महान् आदर्श है, और मुझे गर्व है कि आप केवल विचार से नहीं, व्यवहार से भी उसके भक्त है। अमेरिका की स्वतंत्र भूमि में इन भावों का जाग्नत होना स्वाभाविक है। यहाँ तो घर से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आयी। आत्मबल और बुद्धि-सामर्थ्य से भी वंचित हूँ। मेरे संकल्प इतने पवित्र और उत्कृष्ट क्योंकर हो सकते हैं। मैरी संकीर्ण दृष्टि में तो यही जमींदारी, जिसे आप (मुस्करा कर) बीच की दलाली समझते है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप हैं। हाँ, सम्भव है आगे चल कर आपके सत्संग से मुझमे भी सद्विचार उत्पन्न हो जायें।

प्रेम-तुम अपने ही मन में विचार करो। यह कहां का न्याय है कि मिहनत तो कोई करे, उसकी रक्षा का भार किसी दूसरे पर हो, और रुपये उगाहे हम?

ज्ञान--बात तो यथार्थ है, लेकिन परम्परा से यह परिपाटी ऐसी चली आती हैं। इसमें किसी प्रकार का संशोधन करने का ध्यान ही नहीं होता।

प्रेम-तो तुम्हारा गोरखपुर जाने का कब तक इरादा है।

ज्ञान-पहले आप मुझे इसका पूरा विश्वास दिला दें कि लखनपुर के सम्बन्ध में आपने जो कहा हैं वह निश्चयात्मक है।

प्रेम--उसे तुम अटल समझो। मैंने तुमसे एक बार अपने हिस्से का मुनाफा माँगा था। उस समय मेरे विचार इतने पक्के न थे। मेरा हाथ भी तंग था। उस पर मैं बहुत लज्जित हूँ। ईश्वर ने चाहा तो अब तुम मुझे इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ पाओगें।

ज्ञान-तो मैं होली तक गोरखपुर चला जाऊँगा। कोई हर्ज न हो तो आप भी घर चले। माया आपको बहुत पूछा करता है।

प्रेम---आज तो अवकाश नहीं, फिर कभी आऊँगा।

ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनका चित्त बहुत प्रसन्न था। बहुत दिनों के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। अब में पूरे लखनपुर का स्वामी हैं। यह अब कोई मेरा हाथ पकड़नेवाला नहीं। जो चाहूँ निर्विघ्न कर सकता हूँ। भैया वचन के पक्के है, वह अब कदापि दुलख नहीं समाते। वह इस्तीफा लिख दे तो बात और पक्की हो जाती, लेकिन इस पर जोर देने से मेरी क्षुद्रता प्रकट होगी। अभी इतना ही बहुत है, आगे चल कर देखा जायगा।