प्रेमाश्रम/२४

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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२४

अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनगुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक न एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रग जम गया तो दो-तीन वरसो में ऐसे कई लखनपुर हाथ में जायेगे। विद्या भी स्थिति का विचार करके सहमत हो गयी। उसने सोचा, अगर दोनों भाइयों में यों ही मनमुटाव रहा तो अवश्य ही बँटवारा हो जायगा और तब एक हजार सालाना आमदनी मे निर्वाह हो न सकेगा। इनसे और काम तो हो सकेगा नहीं। वला से जो काम मिलता है वही सही। अतएव जन्माष्टमी के उत्सव के बाद गोरखपुर जा पहुँचे। प्रेमशंकर से मुलाकात न की।

प्रभात का समय था। गायत्री पुजा पर थी कि दरवान ने ज्ञानशकर के आने की सूचना दी। गायत्री ने तत्क्षण तो उन्हें अन्दर न बुलाया, हाँ, जो पूजा नौ बजे समाप्त होती थी, वह सात ही बजे समाप्त कर दी। तब अपने कमरे में आ कर उसने एक सुन्दर साड़ी पहनी, विखरे हुए केश सँवारे और गौरव के साथ मसनद पर जा बैठी। लौडी को इशारा किया कि ज्ञानशकर को बुला लाय। वह अब रानी थी। यह उपाधि उसे हाल में ही प्राप्त हुई थीशश। वह ज्ञानशकर से यथोचित आरोह से मिलना चाहती थी। [ १६५ ]

ज्ञानशकर बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें यहाँ का ठाट-बाट देख कर विस्मय हो रहा था। द्वार पर दो दरबान वरदी पहने टहल रहे थे। सामने की अँगनाई में एक घण्टा लटका हुआ था। एक ओर अस्तवल मे कई बडी रास के घोडे बँधे हुए थे। दूसरी ओर एक टीन के झोपडे मे दो हवागाडियाँ थी। दालान मे पिंजडे लटकते थे, किसी में मैना थी, किसी मे पहाड़ी श्यामा, किसी में सफेद तोता। विलायती खरहे अलग कटघरे में पले हुए थे। भवन के सम्मुख ही एक बॅगला था, जो फर्श और मैज-कुर्सियो से सजा हुआ था। यही दफ्तर था। यद्यपि अभी बहुत सवेरा था, पर कर्मचारी लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। वह दीवानखाना था। उसकी सजावट बडे सलीके के साथ की गयी थी। ऐसी बहुमूल्य कालीनें और ऐसे बडे-बडे आइने उनकी निगाह से न गुजरे थे।

कई दलानो और आँगनों से गुजरने के बाद जब वह गायत्री की बैठक में पहुंँचे तब उन्हें अपने सम्मुख विलासमय सौन्दर्य की एक अनुपम मूर्ति नजर आयी जिसके एक-एक अग से गर्व और गौरव आभासित हो रहा था। यह वह पहले की-सी प्रसन्नमुख सरल प्रकृति विनय पूर्ण गायत्री न थी।

ज्ञानशकर ने सिर झुकाये सलाम किया और कुर्सी पर बैठ गये। लज्जा मे सिर उठाने दिया। गायत्री ने कहा, आइए महाशय, आइए! क्या विद्या छोड़ती ही न थी? और तो सब कुशल है।

ज्ञान--जी हाँ, सब लोग अच्छी तरह हैं। माया तो चलते समय बहुत जिद कर रहा था कि मैं भी मौसी के घर चलूँगा, लेकिन अभी बुखार से उठे हुए थोड़े ही दिन हुए हैं, इसी कारण साथ न लाया। आपको नित्य याद करता है।

गायत्री--मुझे भी उसकी प्यारी-प्यारी भोली सूरत याद आती है। कई बार इच्छा हुई कि चलूँ, सबसे मिल आऊँ, पर रियासत के झमेले से फुरसत ही नहीं मिलती। यह बोझ आप सँभालें तो मुझे जरा साँस लेने का अवकाश मिले। आपके लेख का तो बडा आदर हुआ। (मुस्करा कर) खुशामद करना कोई आप से सीख ले।

ज्ञान--जो कुछ था वह मेरी श्रद्धा का अल्पाश था।

गायत्री ने गुणज्ञता के भाव से मुस्करा कर कहा--जब थोड़ा-सा पाप वदनाम करने को पर्याप्त हो तो अधिक क्यों किया जाय? कार्तिक मे हिज एक्सेलेन्सी यहाँ आने वाले है। उस अवसर पर मेरे उपाधि-प्रदान का जल्सा करना निश्चय किया है। अभी तक केवल गजट में सूचना छपी है। अब दरवार में मैं यथोचित समारोह और सम्मान के साथ उपाबि से विभूषित की जाऊँगी।

ज्ञान--तब तो अभी से दरवार की तैयारी होनी चाहिए।

गायत्री--आप बहुत अच्छे अवसर पर आये। मडप में अभी से हाथ लगा देना चाहिए। मेहमानों का ऐसा सत्कार किया जाय कि चारो ओर घूम मच जाय। रुपये की जरा भी चिन्ता मत कीजिए। आप ही इस अभिनय के सूत्रधार है, आपके ही हाथो इसका सूत्रपात होना चाहिए। एक दिन मैंने जिलाधीश से आप का जिक्र किया था। [ १६६ ]पूछने लगे, उनके राजनीतिक विचार कैसे हैं। मैने कहा, बहुत ही विचारशील, शान्त प्रकृति के मनुप्य हैं। वह सुन कर बहुत खुश हुए और कहा, वह आ जायें तो एक बार जल्से के सम्बन्ध में मुझसे मिल ले।

इसके बाद गायत्री ने इलाके की सुव्यवस्था और अपने संकल्पो की चर्चा शुरू की। ज्ञानशकर को उसके अनुभव और योग्यता पर आश्चर्य हो रहा था। उन्हें भय होता कि कदाचित् मैं इन कार्यों को उत्तम रीति से सम्पादन न कर सकूँ। उन्हें देहाती बैक का विलकुल ज्ञान न था। निर्माण कार्य से परिचित न थे, कृषि के नये आविष्कारो से कोरे थे, किन्तु इस समय अपनी योग्यता प्रकट करना नितान्त अनुचित था। वह गायत्री की बातो पर ऐसी मर्मज्ञता से सिर हिलाते थे और बीच-बीच मे टिप्पणियाँ करते थे, मानो इन विषयों में पारंगत हो। उन्हें अपनी बुद्धिमत्ता और चातुर्य पर भरोसा था। इसके बल पर वह कोई काम हाथ में लेते हुए न हिचकते थे।

ज्ञानशंकर को दो-चार दिन भी शान्ति से बैठ कर काम को समझने का अवसर न मिला। दूसरे ही दिन से दरवार की तैयारियों में दत्तचित्त होना पड़ा । प्रात.काल से सन्ध्या तक सिर उठाने की फुरसत न मिलती। बार-बार अधिकारियों से राय लेनी पड़ती, सजावट की वस्तुओं को एकत्र करने के लिए बार-बार रईसो की सेवा में दौड़ना पड़ता। ऐसा जान पड़ता था कि यह कोई सरकारी दरबार है। लेकिन कर्तव्यशील उत्साही पुरूष थे। काम से घबराते न थे। प्रत्येक काम को पूरी जिम्मेदारी से करते थे। वह संकोच और अविश्वास जो पहले किसी मामले में अग्रसर न होने देता था अब दूर होता जाता था। उनकी अध्यबसाय शीलता पर लोग चकित हो जाते थे। दो महीनो के अविश्रान्त उद्योग के बाद दरवार का इन्तजाम पूरा हो गया। जिलाधीश ने स्वयं आ कर देखा और ज्ञानशंकर की तत्परता और कार्यदक्षता की खूब प्रशंसा की। गायत्री से मिले तो ऐसे सुयोग्य मैनेजर की नियुक्ति पर उसे बधाई दी। अभिनन्दन पत्र की २चना का भार भी ज्ञानशंकर पर ही था। साहब बहादुर ने उसे पढ़ा तो लोट पोट हो गये और नगर के मान्य जनो से कहा, मैंने किसी हिन्दुस्तानी की कलम में यह चमत्कार नही देखा।

अक्टूबर मास की १५ तारीख दरवार के लिए नियत थी। लोग सारी रात जागते रहे है। प्रात.काल से सलामी की तोपें दगने लगीं, अगर उस दिन की कार्यवाही का संक्षिप्त वर्णन किया जाय तो एक गंथ बन जाय। ऐसे अवसरों पर उपन्यासकार अपनी कल्पना को समाचार पत्रों के सम्बाददाताओं के सुपुर्द कर देता है। लेडियो के भूषणालकारो की वहार, रईसो की सजधज की छटा देखनी हो, दावत की चटपटी, स्वाद युक्त सामग्रियों का मजा चखना हो और शिकार के तड़प-झड़प का आनन्द उठाना हो तो अखबारों को पन्ना उलटिए। वहाँ आपको सारा विवरण अत्यन्त सजीव, चित्रमय शब्दों में मिलेगा। प्रेसिडेन्ट रूजवेल्ट शिकार खेलने अफ्रिका गये थे तो सम्वाददाताओं की एक मण्डली उनके साथ गयी थी। सन्नाट जार्ज पंचम जब भारतवर्ष आये थे तब सम्वाददाताओं की पूरी सेना उनके जुलूस में थी। यह दरबार इतना महत्त्वपूर्ण न था, [ १६७ ]तिस पर भी पत्रों में महीनों तक इसकी चर्चा होती रही। हम इतना ही कह देना काफी समझते है कि दरबार विधिपूर्वक समाप्त हुआ, कोई त्रुटि न रही, प्रत्येक कार्य निदष्ट समय पर हुआ, किसी प्रकार की अव्यवस्था न होने पायी। इस विलक्षण सफलता का सेहरा ज्ञानशंकर के सिर था। ऐसा मालूम होता था कि सभी कठपुतलियाँ उन्हीं के इशारे पर नाच रही हैं। गवर्नर महोदय ने विदाई के समय उन्हें धन्यवाद दिया। चारो तरफ वाह-वाह हो गयी।

सन्ध्या समय था। दरबार समाप्त हो चुका था। ज्ञानशंकर नगर के मान्य जनों के साथ गवर्नर को स्टेशन तक बिंदा करके लौटे थे और एक कोच पर आराम से लेटे सिगार पी रहे थे। आज उन्हें सारा दिन दौड़ते गुजरा था, जरा भी दम लेने का अवकाश न मिला था। वह कुछ अलसाये हुए थे, पर इसके साथ ही हृदय पर वह उल्लास छाया हुआ था जो किसी आशातीत सफलता के बाद प्राप्त होता है। वह इस समय जब अपने कृत्यों का सिंहावलोकन करते थे तो उन्हें अपनी योग्यता पर स्थय आश्चर्य होता था। अभी दो-ढाई मास पहले मैं क्या था? एक मामूली आदमी, केवल दो हजार सालाना का जमींदार! शहर में कोई मेरी बात भी न पूछता था, छोटे-छोटे अधिकारियों से भी दबती था और उनकी खुशामद करता था। अब यहाँ के अधिकारी वर्ग मुझसे मिलने की अभिलाषा रखते है। शहर के मान्य गण अपना नेता समझते हैं। बनारस में तो सारी उम्र बीत जाती तब भी यह सम्मान-पद में लाभ होता। आज गायत्री का मिजाज भी आसमान पर होगा। मुझे जरा भी आशा न थी कि वह इस तरह बेधड़क मच पर चली आयेगी। वह मंच पर आयी तो सारा दरबार जगमगाने लगा था। उसके कुन्दन वर्ष पर अगरई साड़ी कैसी छटा दिखा रही थी! उसके सौन्दर्य की आभा ने रत्नों की चमक-दमक को भी मात कर दिया था। विद्या इससे कहीं रूपवती हैं, लेकिन उसमें यह आकर्षण कहाँ, यह उत्तेजक शक्ति कहाँ, यह सगवता कहाँ, यह रसिकता कहाँ? इसके सम्मुख आ कर आँखों पर, चित्त पर, जबान पर काबू रखना कठिन हो जाता है। मैंने चाहा था कि इसे अपनी ओर खीचूँ, इससे मान करूँ किन्तु कोई शक्ति मुझे बलात् उसकी ओर खींचे लिए जाती है। अब मैं रुक नहीं सकता। कदाचित् वह मुझे अपने समीप आते देख कर पीछे हटती है, मुझसे स्वामिनी और सेवक के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती। वह मेरी योग्यता का आदर करती है और मुझे अपनी सम्मान तृष्णा का साधन-मात्र बनाना चाहती है। उसके हृदय मे अब अगर कोई अभिलाषा है तो वह सम्मान-प्रेम है। यही अब उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। मैं इसी का आवाहन करके थहाँ पहुँचा हैं और इसी की बदौलत एक दिन मैं उसके हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित कर सकूँगा।

ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे कि गायत्री ने अन्दर बुलाया और मुस्करा कर कहा, आज के सारे आयोजन का श्रेय आपको है। मैं हृदय से आपकी अनुग्रहीत हैं। सब बहादुर ने चलते समय आपकी बड़ी प्रशंसा की। आपने मजदूरों की मजदूरी तो दिला दी है। मैं इस आयोजन में बेगार के कर किसी को दुखी नहीं करना चाहती। [ १६८ ] ज्ञान-जी हाँ, मैंने मुख्तार से कह दिया था।

गायत्री--मेरी ओर से प्रत्येक मजदूर को एक-एक रुपया इनाम दिला दीजिए।

ज्ञान–पाँच सौ मजदूरों से कम न होंगे।

गायत्री--कोई हर्ज नहीं, ऐसे अवसर रोज नहीं आया करते। जिस ओवरसियर ने पण्डाल बनवाया है, उसे १०० ९० इनाम दे दीजिए।

ज्ञान-बह शायद स्वीकार न करे।

गायत्री--यह रिश्वत नहीं, इनाम है। स्वीकार क्यों न करेगा? फराशो-आतश-बाजो को भी कुछ मिलना चाहिए।

ज्ञान--तो फिर हलवाई और बावची, खानसामें और खिदमतगार क्यों छोड़े जायँ?

गायत्री-नहीं, कदापि नहीं, उन्हें २०)२०) से कम न मिलें।

ज्ञान--(हँस कर) मेरी सारी मितव्ययिता निष्फल हो गयी।

गायत्री-वाह, उसी की बदौलते तो मुझे हौसला हुआ है। मजूर को मजूरी कितनी ही दीजिए खुश नहीं होगा, लेकिन इनाम पा कर खुशी से फूल उठता है। अपने नौकरो को भी यथायोग्य कुछ न कुछ दिलवा दीजिए।

ज्ञान- जी, हाँ, जब बाहरवाले कूट मचायें तो घरवाले यों गीत गाये।

गायत्री- नहीं घरवालों को पहला हक है जो आठो पहर के गुलाम है। सब आदमियों को यही बुलाइए, मैं अपने हाथ से उन्हें इनाम देंगी। इसमें उन्हें विशेष आनन्द मिलेगा।

ज्ञान-घंटो की झंझट है। बारह बज जायेंगे।

गायत्री---यह झंझट नहीं है। यह मेरी हार्दिक लालसा है। अब मुझे कई बड़े-बड़े अनुष्ठान करने हैं। यह मेरे जड़ाऊ कंगन हैं। यह विद्या के भेंट है, कल इसको पारसल भेज दीजिए और ५०० रु० नकद।

ज्ञान--(सिर झुका कर) इसकी क्या जरूरत है? कौन सा मौका है?

गायत्री---और कौन सा मौका होगा? मेरे लड़के-लड़कियाँ भी तो नहीं है कि उनके विवाह में दिल के अरमान निकालेगी। यह कंगन उसे पसन्द भी था। पिछले साल इटाली से मँगवाया था। अब आपसे भी मैरी एक प्रार्थना है। आप मुझसे लौटे हैं। आप भी अपना हक वसूल कीजिए और निर्दयता के साथ।

ज्ञानशंकर ने शर्मातें हुए कहा--मेरे लिए आपकी कृपा-दृष्टि ही काफी है। इस अवसर पर मुझे जो कीर्ति प्राप्त हुई है वही मेरा इनाम है।

गायत्री-जी नहीं, मैं न मानूंगी। इस समय संकोच छोड़िए और सूद खानेवाल की भांति कठोर बन जाइए। यह आपकी कलम है, जिसने मुझे इस पद पर पहुँचाया है, नहीं तो जिले में मेरी जैसी कितनी ही स्त्रियाँ है, कोई उनकी बात भी नहीं पूछता। इस कलम की यथायोग्य पूजा किये बिना मुझे तस्कीन न होगी।

ज्ञान--इसकी जरूरत तो तब होती जब मुझे उससे कम आनन्द प्राप्त होता, जितना आप को हो रहा है। [ १६९ ]

गायत्री--मैं यह तर्क-वितर्क एक भी न सुनूँगी। आप स्वयं कुछ नहीं कहते इसलिए आपकी ओर से मैं ही कहे देती हूँ। आप अपने लिए बनारस में अपने घर से मिला हुआ एक सुन्दर बँगला बनवा लीजिए। चार कमरे हो और चारो तरफ बरामदे । बरामद पर विलायती खपरैल हो और कमरो पर लदाव की छत। छत पर बरसात के लिए एक हवादार कमरा बना लीजिए। खुश हुए?

ज्ञानशकर ने कृतज्ञतापूर्ण भाव से देख कर कहा, खुश तो नही हैं अपने ऊपर ईर्षा होती है।

गायत्री—-बस, दीपमालिका से आरम्भ कर दीजिए। अब बतलाइए, माया को क्या दूँ?

ज्ञान--माया को अभी कुछ न चाहिए। उसका इनाम अपने पास अमानत रहने दीजिए।

गायत्री--आप नौ नकद न तेरह उघारवाली मसल भूल जाते हैं।

ज्ञान--अमानत पर तो कुछ न कुछ ब्याज मिलता है।

गायत्री--अच्छी बात है; पर इस समय उसके लिए कलकत्ते के किसी कारखाने से एक छोटा-सा टडम मॅगा दीजिए और मेरा टाघँन जो ताँगे मे चलता है, बनारस भेज दीजिए। छोटी लडकी के लिए हार बनवा दीजिए जो ५०० रू से कम का न हो।

ज्ञानशकर यहाँ से चले तो पैर धरती पर न पडते थे। बँगले की अभिलाषा उन्हें चिरकाल से थी। वह समझते थे, यह मेरे जीवन का मधुर स्वप्न ही रहेगी, लेकिन सौभाग्य की एक ही दृष्टि ने वह चिरसचित अभिलाषा पूर्ण कर दी।

आरम्भ उत्साह वर्द्धक हुआ, देखें अन्त क्या होता है?