प्रेमाश्रम/२५

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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२५

आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत पर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलो पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशकर ने सारी व्यवस्था ही पलट दी। कारिन्दो की बेपरवाही से इलाके में जमीन के बड़े-बड़े टुकडे परती पड़े थे। हजारो बीघे की सीर होती थी पर अनाज का कही पता न चलता था, सब को सब सिपाही, प्यादो की खुराक में उठ जाता था। पटवारी की साजिश और कारिन्दी की बेईमानी से कितनी ही उर्वरा भूमि ऊसर दिखायी जाती थी। सीर की सारी आमदनी राज्याधिकारियो के आदर-सत्कार के लिए भेंट हो जाती थी। नौकर भी जरूरत से ज्यादा पड़े हुए थे। ज्ञानशंकर ने कागज-पत्र देखा तो उन्हें बडा गोल-माल दिखायी दिया। बहुत दिनो से इजाफा लगान न हुआ था। खेतों की जमाबदी भी किसी निश्चित नियम के अधीन न थी। हजारो रुपये प्रति वर्ष बट्टा खाते चले जाते थे। बडे-बडे टुकचे मौरूसी हो गये थे। ज्ञानशकर ने इन सभी मामलो की छानबीन शुरू की। सारे इलाके मे हलचल मच गयी। गायत्री के पास शिकायते पहुँचने लगी और यद्यपि गायत्री असामियो [ १७० ]के साथ नर्मी को बर्ताव करना पंसद करती थी, पर जब ज्ञानशंकर ने उसे हिसाब का व्यौरा समझाया तो उसकी आँखे खुल गयी। हजार से ज्यादा ऐसे असामी थे, जिन पर तत्काल बेदखली न दायर की जाती तो वे सदा के लिए जमींदार के काबू से बाहर हो जाते और २० हजार सालाना की क्षति होती। इजाफा लगान से आमदनी सवायीं हुई जाती थी। जिस रियासत से दो लाख सालाना भी न निकला था, उससे बिना किसी अड़चन के तीन लाख की निकासी होती नजर आती थी। ऐसी दशा में गायत्री अपने सुयोग्य मैनेजर से क्यों न सहमत होती?

तीन वर्ष तक सारी रियासत में हाहाकार मचा रहा। ज्ञानशंकर को नाना प्रकार के प्रलोभन दिये गये, यहाँ तक कि मार डालने की धमकियाँ भी दी गयी, पर वह अपने कर्मपथ से न हटे। यदि वह चाहते तो इन परिस्थितियों को अपरिमित धन संचय का साधन बन सकते थे, पर सम्मान और अधिकार ने अब उन्हें क्षुद्रताओं से निवृत्त कर दिया था।

किन्तु को मन्सूबे बंध करे ज्ञानशंकर यहाँ आये थे वे अभी तक पूरे होते नजर न आते थे। गायत्री उनका लिहाज करती थी, प्रत्येक विषय में उन्हीं की सलाह पर चलती थी, लेकिन इसके साथ ही वह उनसे कुछ खिंची रहती थी। उन्हें प्राय नित्य ही उससे मिलने का अवसर प्राप्त होता था। वह इलाके के दूरवर्ती स्थानों से भी मोटर पर लौट आया करते थे, लेकिन यह मुलाकात कार्य-सम्बन्धी होती थी। यहाँ प्रेमत्व-दर्शन का मौका न मिलता, दो-चार लौडियों खड़ी ही रहती, निराश हो कर लौट आते थे। वह आग जो उन्होंने हाथ सेंकने के लिए जलायी थी, अब उनके हृदय को भी गर्म करने लगी थी। उनकी आँखे गायत्री के दर्शन की भूखी रहती थी, उसका मधुर भाषण सुनने के लिए विकल। यदि किसी दिन मजबूर हो कर उन्हें देहात में ठहरना पड़ता या किसी कारण गायत्री से भेंट न होती तो वह उस अफीमची की भाँति अस्थिर-चित्त हो जाते थे, जिसे समय पर अफीम न मिले।

एक दिन गायत्री ने पप्रातः काल ज्ञानशंकर को अन्दर बुलाया। आजकल मकान की सफाई और सुफेदी हो रही थी। दीपमालिका को उत्सव निकट था। गायत्री बगीचे में बैठी हुई चिड़ियों को दाना चुगा रही थी। कोई कौड़ी न थी। ज्ञानशंकर का हृदय चिड़ियों की भाँति फुदकने लगा। आज पहली बार उन्हें ऐसा अवसर मिला। गायत्री ने उन्हें देख कर कहा, आज आपको बहुत जरूरी काम तो नहीं है? मैं आपसे एक खास मामले में कुछ राय लेना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर--कुछ हिसाब-किताब देखना था, लेकिन कोई ऐसा जरूरी काम नहीं है।

गायत्री--मेरे स्वामी ने अन्तिम समय मुझे वसीयत की थी कि अपने बाद यह इलाका धर्मार्पण कर देना और इसकी निगरानी और प्रबन्ध के लिए एक ट्रस्ट बना देना। मेरी अब इच्छा होती है कि उनकी वसीयत पूरी कर दें। जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, न जाने कब सन्देश आ पहुँचे। कही बिना लिखा-पढ़ी किये मर गयी [ १७१ ]तो रियासत का वाँट वखरा हो जायगा और वसीयत पानी की रेखा की भाँति मिट जायगी। मैं चाहती हूँ कि आप इस समस्या को हल कर दें, इससे अच्छा अवसर फिर न मिलेगा।

ज्ञानशकर की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उनकी अभिलाषाओं के त्रिभुज का आधार ही लुप्त हुआ जाता था। बोले, वसीयत लेख-बद्ध हो गयी है?

गायत्री--उनकी इच्छा मेरे लिए हजारो लेखो से अधिक मान्य है। यदि उन्हें मेरी फिक्र न होती तो अपने जीवनकाल में ही रियासत को धर्मार्पण कर जाते। केवल मान रखने के लिए उन्होंने इस विचार को स्थगित कर दिया। जब उन्हें मेरा इतना लिहाज था तो मैं भी उनकी इच्छा को देववाणी समझती हूँ।

ज्ञानशकर समझ गये कि इस समय कूटनीति से काम लेने की आवश्यकता है। अनुमोदन से विरोध का काम लेना चाहिए। बोले, अवश्य, लेकिन पहले यह निश्चय कर लेना चाहिए कि इस परमार्थ का स्वरूप क्या होगा?

गायत्री--आप इस सम्बन्ध में लखनऊ जा कर पिता जी से मिलिए। अपने बड़े भाई साहब से राय लीजिए।

प्रेमशकर की चर्चा सुनते ही ज्ञानशकर के तेवरो पर बल पड़ गये। उनकी ओर से इनके हृदय में गाँठ-सी पड गयी थी। बोले, राय साहब से सम्मति लेनी तो आवश्यक है, वह बुद्धिमान् है, लेकिन भाई साहब को मैं कदापि इस योग्य नही समझता। जो मनुष्य इतना विचारहीन हो कि अपनी स्त्री को त्याग दे, मिथ्या सिद्धान्त-प्रेम के घमण्ड में विरादरी का अपमान करे और अपनी असाघुता को प्रजा-भक्ति का रंग दे कर भाई की गरदन पर छुरी चलाने में संकोच न करे, उससे इस धार्मिक विषय में कुछ पूछना व्यर्थ है। उनकी बदौलत मेरी एक हजार सालाना की हानि हो गयी और तीन साल गुजर जाने पर भी गाँव मे शान्ति नही होने पायी, बल्कि उपद्रव बढता ही चली जाता है। श्रद्धा इन्ही अविचारों के कारण उनसे घृणा करती है।

गायत्र--मेरी समझ में तो यह श्रद्धा का अन्याय है। जिस पुरुष के साथ विवाह हो गया, उसके साथ निर्वाह करना प्रत्येक कर्मनिष्ठ नारी का धर्म है।

ज्ञान--चाहे पुरुष नास्तिक और विधर्मी हो जाय?

गायत्री--हाँ, मैं तो ऐसा ही समझती हूँ। विवाह स्त्री-पुरुष के अस्तित्व को संयुक्त कर देता है। उनकी आत्माएँ एक दूसरे में समाविष्ट हो जाती हैं।

ज्ञान--पुराने जमाने में लोगो के विचार ऐसे रहे हो, पर नया युग इसे नही मानता। वह स्त्री को सम्पूर्णतः स्वाधीन ठहराता है। वइ मनसा, वाचा, कर्मणा किसी के अधीन नही है। परमात्मा से आत्मा का जो घनिष्ठ सम्बन्ध हैं उसके सामने मानवकृत सम्बन्ध की कोई हस्ती नहीं हो सकती। पश्चिम के देशों में आये दिन धार्मिक मतभेद के कारण तलाक होते रहते है।

गायत्री--उन देशों की बात न चलाइए, वहाँ के लोग तो विवाह को केवल सामाजिक सम्बन्ध समझते है। आपने ही एक बार कहा था कि वहाँ कुछ ऐसे लोग [ १७२ ]भी हैं जो विवाह-संस्कार को मिथ्या समझते हैं। उनके विचार में स्त्री-पुरुषों की अनुमति ही विवाह है, लेकिन भारतवर्ष में कभी इन विचारों का आदर नहीं हुआ।

ज्ञान-स्मृतियों में तो इसकी व्यवस्था स्पष्ट रूप से की गयी है।

गायत्री-की गयी है, मुझे मालूम है; लेकिन कभी उसका प्रचार नहीं हुआ और क्यों होता जब कि हमारे यहाँ स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ रह कर अपने मतानुसार परमात्मा की उपासना कर सकते हैं? पुरुष वैष्णव हैं, स्त्री शैव है, पुरुष आर्य समाज में हैं। स्त्री अपने पुरातन सनातनधर्म को मानत है, वह ईश्वर को भी नहीं मानता, स्त्री ईंट और पत्थरों तक की पूजा अर्चना करती है। लेकिन इन भेदों के पीछे पतिपत्नी में अलगाव नहीं हो जाता। ईश्चर वह कुदिन यहाँ न लाये जब लोगों में विचारस्वातन्त्र्य का इतना प्रकोप हो जाय।

ज्ञान--इसका कारण यही हैं कि हम भीरु प्रकृति हैं, यथार्थ का सामना न करके मिथ्या आदर्श-प्रेम की आड़ में अपनी कमजोरी छिपाते हैं।

गायत्री--मैंने आपका आशय नहीं समझा।

ज्ञान---मेरा आशय केवल यही है कि लोक-निन्दा के भय से अपने प्रेम या अरुचि को छिपाना अपनी धार्मिक स्वाधीनता को खाक में मिलाना है। मैं उस स्त्री को सराहनीय नहीं समझता जो एक दुराचारी पुरुष से केवल इसलिए भक्ति करती है कि वह उसका पति है। वह अपने उस जीवन को, जो सार्थक हो सकता है, नष्ट कर देती। है। यही बात पुरुषों पर भी घटित हो सकती है। हम संसार में रोने और झींकने के ही लिए नहीं आये हैं और न आत्म-दमन हमारे जीवन का ध्येय है।'

गायत्री तो आपके कथन को निष्कर्ष यह है कि हम अपनी मनोवृत्तियों को अनुसरण करें, जिस ओर इच्छाएँ ले जायँ उसी ओर आँखें बन्द किये चले जायें। उसके दमन की चेष्टा न करें। आपने पहले भी एक बार यहीं विचार प्रकट किया था। तब से मैंने इस पर अच्छी तरह गौर किया है, लेकिन हृदय इसे किसी प्रकार स्वीकार नहीं करता। इच्छाओं को जीवन का आधार बनाना बालू की दीवार बनाना है। धर्म-ग्रन्थों में आत्म-दमन और संयम की अखंड महिमा कही गयी है, बल्कि इसी को मुक्ति का साधन बताया गया है। इच्छाओं और वासनाओं को ही मानव-पतन का मुख्य कारण सिद्ध किया गया है और मेरे विचार में यह निर्विवाद है। ऐसी दशा में पश्चिमवालों का अनुसरण करना नादानी है। प्रथाओं की गुलामी इच्छाओं की गुलामी से श्रेष्ठ है।

ज्ञानशंकर को इस कथन में बड़ा आनन्द आ रहा था। इससे उन्हें गायत्री के हृदय के भेद्य और अभेद्य स्थलों का पता मिल रहा था, जो आगे चलकर उनकी अभीष्टसिद्धि में सहायक हो सकता था। वह कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि एक लौंडी ने तार का लिफाफा ला कर उसके सामने रख दिया। ज्ञानशंकर ने चौंक कर लिफाफा खोला। लिखा था, 'जल्द आइए, लखनपुरवालों से फौजदारी होने का भय है।

ज्ञानशंकर ने अन्यमनस्क भाव से लिफाफे को जमीन पर फेंक दिया। गायत्री ने [ १७३ ]पूछा, घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञानशकर--लखनपुर से आया है, वहाँ फौजदारी हो गयी है। इस गाँव ने मेरी नाक में दम कर दिया। सब ऐसे दुष्ट है कि किसी तरह काबू में नहीं आते। यह सब भाई साहब की करतूत है।

गायत्री--तव तो आपको जाना पडेगा। कहीं मामला तूल न पकड़ गया हो।

ज्ञान--अबकी हमेशा के लिए निवटारा कर दूँगा। या तो गाँव से इस्तीफा दे दूँगा या सारे गाँव को ही जला दूँगा। वे लोग भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पडी था।

गायत्री--लौटते हुए माया को जरूर लाइएगा, उसे देखने को बहुत जी चाहता है। विद्या को भी घसीट लायें तो क्या कहना! मैं तो लिखते-लिखते हैरान हो गयी।

ज्ञान--यह वही प्रथा की गुलामी है, जिसका आप बखान करती हैं। वहिन के घर जाने का साधारणत. रिवाज नही है, वह इसे क्योकर तोड़ सकती है! कदाचित् इसी कारण आप भी बहाँ नहीं जा सकती।

गायत्री--(लजा कर) मैं इन बातो की परवाह नहीं करती, लेकिन यहाँ तो आप देखते है सिर उठाने की फुरसत नही।

ज्ञान--यही बहाना वह भी कर सकती है।

गायत्री--खैर, वह न आये न सही, लेकिन माया को जरूर लाइएगा और वहाँ का समाचार लिखते रहिएगा । अवकाश मिलते ही चले आइएगा।

गायत्री को अन्तिम वाक्य ऐसा आकाक्षा-सूचक था कि ज्ञानशकर के हृदय में गुदगुदी सी पैदा हो गयीं। उन्हें यहाँ रहते तीन साल से ऊपर हो गये थे, कितनी ही बार बनारस आये, लेकिन गायत्री ने कभी लौटने के लिए ऐसा भावपूर्ण आग्रह न किया था। दिल ने कहा, शायद मेरा जादू कुछ असर करने लगा। बोले, तब भी तो दो सप्ताह से कम क्या लगेगे ?

गायत्री चिन्तित स्वर से बोली--दो सप्ताह?

ज्ञानशकर को अपने विचार की पुष्टि हो गयी। ६ बजे वह डाकगाडी से रवाना हुए और ५ बजते-बजते बनारस पहुँच गये।