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प्रेमाश्रम/२८

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १९८ से – २०६ तक

 

२८

प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी कि प्रायः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और पूर्ण विश्वास ने उन्हें उसका स्वामी बना दिया था। अब अपनी इच्छानुसार नयी-नयी फसले पैदा करते; नाना प्रकार की परीक्षाएँ करते, पर कोई जरा भी न बोलता। और बोलता ही क्यों, जब उनकी कोई परीक्षा असफल न होती थी। जिन खेतों मे मुश्किल से पाँच-सात मन उपज होती थी, वह अब पन्द्रह-बीस मन का औसत पड़ता था। उस पर बाग की आमदनी अलग थी। इन्हीं चार सालों मे कलमी आम, बेर, नारगी आदि के पेड़ो में फूल लगने शुरू हो गये थे। शाक-भाजी की पैदावार घाते में थी। प्रेमशंकर में व्यवसायिक संकीर्णता छु तक गयी थी। जो सज्जन यहाँ आ जाते उन्हें फूल-फलों की डाली अवश्य भेंट की जाती थी। प्रेमशंकर की देखा-देखी हाजीपुरवालों ने भी अपने जीवन का कुछ ऐसा डौल कर लिया था कि उनकी सारी आवश्यकताएँ उस बगीचे से पूरी हो जाती थी। भूमि का आठवाँ भाग कपास के लिए अलग कर दिया गया था। अन्य प्रान्तों से उत्तम बीज मँगा कर बोये गये थे। गाँव के लोग स्वयं सूत कात लेते थे और गाँव का ही कोरी उसके कपड़े बुन देता था। नाम उसका मस्ता था। पहले वह जुआ खेला करता था और कई बार चोरी में पकड़ा गया था। लेकिन अब अपने श्रम से गाँव में भले आदमियों में गिना जाता था। प्रेमशंकर के उद्योग मैं आसपास के गाँव मैं भी कपास की खेती होने लगी थी और कितने ही कोरियौ और जुलाहो के उजड़े हुए घर आबाद हो गये थे। देहात के मुकदमेबाज जमींदार और किसान बहुधा इसी जगह ठहरा करते थे। यहां उन्हें ईंधन, शाक-भाजी, नमक-तेल के लिए पैसे न खर्च करने पड़ते थे। प्रेमशंकर उनसे खूब बातें करते और उन्हें अपने बगीचे की सैर कराते। साधू-सन्तों का तो मानों अखाड़ा ही था। दो-चार मूर्तियाँ नित्य ही पड़ी रहती थी। न जाने उस भूमि मे क्या बरकत थी कि इतनी आतिथ्य सेवा करने पर भी किसी पदार्थ की कमी न थी। हाजीपुरवाले तो उन्हें देवता समझते थे और अपने भाग्य को सराहते थे कि ऐसे पुण्यात्मा ने हमे उबारने के लिए यहाँ निवास किया। उनके सदय, उदार, सरल स्वभाव ने मस्ती कोरी के अतिरिक्त गाँव के कई कुचरित्र मनुष्यों की उद्धार कर दिया था। भोला अहीर जिसके मारे खलिहान मैं अनाज न बचता था, दमड़ी पासी जिसका पेशा ही लठेती था, अब गाँव के सबसे मेहनती और ईमानबार किसान थे।

प्रेमशंकर अक्सर कृषकों की आर्थिक दुरवस्था पर विचार किया करते थे। अन्य अर्थशास्त्रवेत्ताओं की भाँति वह कृषकों पर फजूलखर्ची, आलस्य, अशिक्षा या कृर्षिविधान से अनभिज्ञता का दोष लगा कर इस प्रश्न को हल न करते थे। वह परोक्ष मैं कहा करते थे कि मैं कृषको को शायद ही कोई ऐसी बात बता सकता हूँ जिसका उन्हें शान न हो। परिश्रमी तो इनसे अधिक कोई संसार में न होगा। मितव्ययिता मे, आत्मसंयम में, गृह-प्रबन्ध में निपुण हैं। उनकी दरिद्रता का उत्तरदायित्व उन पर नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों पर है जिनके अधीन उनका जीवन व्यतीत होता है, और यह परिस्थितियों क्या हैं? आपस की फूट, स्वार्थपरता और एक ऐसी संस्थाका विकास, जो उनके पाँव की बेड़ी बनी हुई हैं। लेकिन जरा और विचार कीजिए तो यह तीनो कहानियाँ एक ही शाखा से फूटी हुई प्रतीत होगी और यह वही संस्था है। जिसका अस्तित्व कृषको के रक्त पर अवलम्बित है। आपस में विरोध क्यों है? दुरबस्थाओं के कारण, जिनकी इस वर्तमान शासन ने सृष्टि की है। परस्पर प्रेम और विश्वास क्यों नहीं है? इसलिए कि यह शासन इन सद्भावों को अपने लिए घातक समझता है और उन्हें पनपने नहीं देता। इस परस्पर विरोध का सबसे दुःखजनक फल क्या है? भूमि का क्रमश अत्यन्त अल्प भागों में विभाजित हो जाना और उसके लगान की अपरिमित वृद्धि। प्रेमशंकर इस शासन के सुधार को तो मानव शक्ति से परे समझते थे, लेकिन भूमि के बंटवारे को रोकना उन्हें साध्य जान पड़ता था और यद्यपि किसी आन्दोलन में अगुआ बनना उन्हें पसन्द न था, किन्तु इस विषय में वह इतने उत्सुक थे कि समाचार पत्रों में अपने मन्तव्यों को प्रकट करने से न रुक सके। इससे उनका उद्देश्य केवल यह था कि कोई मुझसे अधिक अनुभवशील, कुशल और प्रतिभाशाली व्यक्ति इस प्रश्न को अपने हाथ में ले ले।

एक दिन वह कई सहृदय मित्रों के साथ बैठे हुए इसी विषय पर बातचीत कर रहे थे कि एक सज्जन ने कहा, यदि आप का विचार है कि यह प्रथा कानून से बन्द की जा सकती है तो आपकी भ्रान्ति है। इस विष-युक्त पौधे की जड़े मनुष्य के हृदय मे है और जब तक इसे हृदय से खोद कर न निकालिएगा यह इसी प्रकार फूलता-फलता रहेगा।

प्रेमशंकर—कानून में कुछ न कुछ सुधार तो हो ही सकता है।

इस पर उन महाशयों ने जोर देकर कहा, कदापि नहीं। बल्कि स्वार्थ प्रत्यक्ष रूप से स्फुटित होने का अवसर न पा कर और भी भयंकर रूप धारण कर लेगा।

इस पर एक किसान जो बंटवारे की दरख्वास्त करके कचहरी से लौटा था और आज यही ठहरा हुआ था, बाेल उठा, कहूँ कुछ न होई। हम तो अपें लोगन के पीछे-पीछे चलित है। जब आपे लौगन मे भाई-भाई मे निबाह नाहीं होय सकते हैं। तो हमार कस होई! आपका नारायण सब कुछ दिये है, मुदा आपे अपने भाई से अलग रहत हौ।

ये उच्छृखल शब्द प्रेमशंकर के हृदय में तीर के समान चुभ गये। सिर झुका लिया। मुखश्री मलीन हो गयी। मित्रों ने कृषक की और तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखा। यह एक जगत्-व्यापार था। यहाँ व्यक्तियों को खींचना नितान्त न्याय-विरुद्ध था, पर वह अक्खड़ देहाती सभ्यता के रहस्यों को क्या जाने? मुँह में जो बात आयी कह डाली। एक महाशय ने कहा, निरे गंवार हो, जरा भी तमीज़ नहीं।

दूसरे महाशय बोले, अगर इतना ही ज्ञान होता तो देहाती क्यों कहलाते? न अवसर का ध्यान, न औचित्य को विचार, जो कुछ ऊटपटाँग मुंह में आया, बक डाला।

बेचारे किसान को अब मालूम हुआ कि मुँह से कोई अनुचित बात निकल गयी। लज्जित हो कर बोला, साहब, मैं गंवार मनई। ई सब फेरफार का जानौ। जीन कुछ भूल चूक हो गयी होय माफ कीन जाय।

प्रेमशंकर—नहीं-नहीं, तुमने कोई अनुचित बात नहीं कही। मेरे लिए इस स्पष्ट कथन की आवश्यकता थी। तुमने अच्छी शिक्षा दे दी। कोई सन्देह नहीं कि शिक्षित जनों मैं भी विरोध और वैमनस्य का उतना ही प्रकोप है जितना अशिक्षित लोगों में हैं और में इस विषय में दोषी हूँ। मुझे किसी को समझाने का अधिकार नहीं।

मित्रगण कुछ देर तक और बैठे रहे, लेकिन प्रेमशंकर कुछ ऐसे दब गये कि फिर जबान ही ने खुली । अन्त में सब एक-एक करके चले गये ।

सूर्यास्त हो रहा था। प्रेमशंकर घोर चिन्ता की दशा में अपने झोपड़े के सामने टहल रहे थे। उनके सामने अब यह समस्या थी कि ज्ञानशकर से कैसे मेल हो। वह जितना ही विचार करते थे, उतना ही अपने को दोषी पाते थे । यह सब मेरी ही करनी है। जब असामियो से उनकी लडाई ठनी हुई थी तो मुझे उचित नहीं था कि असामियो का पक्ष ग्रहण करता । माना कि ज्ञानशकर का अत्याचार था । ऐसी दशा में मुझे अलग रहना चाहिए था या उन्हे भ्रातृवत् समझना चाहिए था। यह तो मुझसे न हुआ । उल्टे उन्हीं से लड बैठा। माना कि उनके और मेरे सिद्धान्तो में घोर अन्तर है। लेकिन सिद्धान्त-विरोध परस्पर भ्रातृ-प्रेम को क्यो दूषित करे ? यह भी माना कि जब से मैं आया हूँ उन्होंने मेरी अवहेलना ही की हैं, यहाँ तक कि मुझे पली-प्रेम से भी वचित कर दिया, पर मैंने भी तो कभी उनसे मिले रहने की उनसे कटु व्यवहार को भूल जाने की, उनकी अप्रिय बातो को सह लेने की चेष्टा नहीं की । वह मुझसे एक अगुल खसके तो मैं उनसे हाथ भर हट गया । सिद्धान्त-प्रियता का यह आशय नहीं है कि आत्मीय जनो से विरोध कर लिया जाय । सिद्धान्तो को मनुष्यो से अधिक मान्य समझना अक्षम्य है। उनके हृदय को अपनी तरफ से साफ करने का यह अच्छा अवसर है।

सन्ध्या हो गयी थी । ज्ञानशकर अपने सुरम्य बँगले के सामने मौलवी ईजाद हुसेन के साथ बैठे बात कर रहे थे। मौलवी साहब ने सरकारी नौकरी में मनोनुकूल सफलता न देख इस्तीफा दे दिया था और कुछ दिनों से जाति-सेवा में लीन हो गये थे। उन्होंने "अजुमन इत्तहाद” नाम की एक सस्था खोल ली थी, जिसका उद्देश्य हिन्दू-मुसलमानो में परस्पर प्रेम और मैत्री बढाना था । यह सस्था चन्दे से चलती थी और इसी हेतु से सैयद साहब यहाँ पधारे थे।

ज्ञानशकर ने कहा, मुझे दिन-दिन तजरबा हो रहा है कि जमीदारी करने के लिए बडी सख्ती की जरूरत है। जमीदार नजर-नजराना, हरी-बेगार, डाँड-बाँध सब कुछ छोड सकता है, लेकिन लगान तो नही छोड़ सकता हैं। वह भी अब बगैर अदालती कार्रवाई के नहीं वसूल होता।

ईजाद हुसेन--जनाब बजा फरमाते हैं, लेकिन गुलाम ने ऐसे रईसो को भी देखा है जो कभी अदालत के दरवाजे तक न गयें । जहाँ किसी असामी ने सरकणी की, उसकी मरम्मत कर दी और लुत्फ यह कि कभी डडे या हटर से काम नहीं लिया। गरमी में झुलसती हुई धूप और जाड में बर्फ का सा ठंढा पानी । बस इसी लड़के से उनकी सारी मालगुजारी वसूल हो जाती है। मई और जून की धूप जरा देर सिर पर लगी और असामी ने कपर ढीलीं की।

ज्ञानशकर--मालूम नही ऐसे आदमी कहाँ हैं । यहाँ तो ऐसे बदमाशो से पाला पडा है जो बात-बात पर अदालत का रास्ता लेते हैं। मेरे ही मौजे को देखिए, कैसा तूफान उठ गया और महज चरावर को रोक देने के पीछे ।

इतने में डाक्टर इर्फान अली बार-एट्ला की मोटर आ पहुँची। ज्ञानशकर ने उनका स्वागत किया।

डाक्टर--अबकी आप ने बडा इन्तजार कराया । मैं तो आपसे मिलने के लिए गोरखपुर आनेवाला था ।

ज्ञानशकर--रियासत का काम इतना फैला हुआ है कि कितना ही समेटें नही सिमटता ।

डाक्टर--आपको मालूम तो होगा यहाँ युनिवर्सिटी मे इकनोमिक्स की जगह खाली है । अब तो आप सिंडिकेट में भी आ गये है।

ज्ञानशकर--जी हाँ, सिंडिकेट में तो लोगों ने जबरदस्ती धर घसीटा, लेकिन यहाँ रियासत के कामो से फुर्सत कहाँ कि इघर तवज्जह करूँ ? कुछ कागजात गये थे, लेकिन मुझे उनके देखने का मौका ही न मिला ।

डाक्टर–-डाक्टर दास के चले जाने से यह जगह खाली हो गयी है और मै इसका उम्मीदवार हूँ ।

ज्ञानशकर ने आश्चर्य से कहा, आप !

डाक्टर--जी हाँ, अब मैंने यह फैसला किया है। मेरी तबीयत रोज-व-रोज चकालत से बेजोर होती जाती है।

ज्ञानशकर--आखिर क्यो ? आपकी वकालत तो तीन-चार हजार से कम की नहीं। हुक्काम की खुशामद तो नही खलती? या कासेन्स (आत्मा) का खयाल है?

डाक्टर--जी नही, सिर्फ इसलिए कि इस पेशे में इन्सान की तबीयत बेजा जरपरस्ती की तरफ मायल हो जाती हैं। कोई वकील कितना ही हकशिनास क्यो न हो, उसे हमदर्दी और इन्सानियत से वह खुशी नही होती जो एक शरीफ आदमी को होनी चाहिए। इसके खिलाफ आपस की लड़ाइयो और दगाबाजियों से एक खास दिलचस्पी हो जाती है जो लतीफ जजबात से खाली है। मैं महीनो से इसी कशमकश में पड़ा हुआ हूँ और अब यही इरादा है कि जितनी जल्द मुमकिन हो इस पेशे को सलाम करूँ ।

यही बातें हो रही थी कि फैजू और कर्तारसिंह ने सामने आ कर सलाम किया। ज्ञानशकर ने पूछा, कहो खैरियत तो है ।

फैजू--हुजूर, खैरियत क्या कहे ! रात को किसी ने खाँ साहब को मार डाला ।

ईजाद हुसेन और इर्फान अली चौक पड़े, लेकिन ज्ञानशकर लेश-मात्र भी विचलित न हुए, मानो उन्हें यह बात पहले ही मालूम थी। बोले, तुम लोग कहाँ थे ? कही सैर-सपाटे करने चल दिये थे या अफीम की पिनक में पड़े हुए थे।

फैजू--हुजूर, थे तो चौपाल में ही, पर किसी को क्या खबर कि यह वारदात होगी ?

ज्ञान–-क्यो, खबर क्यो न थी ? जो आदमी साँप को पैरो से कुचल रहा हो उसे यह मालूम होना चाहिए कि साँप के दाँत जहरीले होते हैं। जमीदारी करना साँप को नचाना है। वह सैपेरा अनाड़ी हैं जो साँप को काटने का मौका दे ! खैर, कातिल का कुछ पता चला ?

फैजू--जी हाँ, वही मनोहर अहीर है। उसने सबेरे ही थाने में जा कर एकवाल कर दिया। दोपहर को थानेदार साहब आ गये और तहकीकात कर रहे हैं। खाँ साहब का तार हुजूर को मिल गया था ? जिस दिन खाँ साहब ने चरावर को रोकने का हुक्म दिया उसी दिन गाँववालो में एका हो गया । खाँ साहब ने घवडा कर हुजूर को तार दिया । मैं तीन बजे तारघर से लौटा तो गाँव में मुकदमा लड़ने के लिए चदे का गुट्ट हो रहा था। रात को यह वारदात हो गयी।

अकस्मात् प्रेमशंकर लाला प्रभाशकर के साथ आ गये। ज्ञानशंकर को देखते ही प्रेमशंकर टूटकर उनसे गले मिले और पूछा, कब आयें ? सब कुशल है न ?

ज्ञानशकर ने रुखाई से उत्तर दिया, कुशल का हाल इन आदमियो से पूछिए जो अभी लखनपुर से आये हैं। गाँववालो ने गौस खाँ का काम तमाम कर दिया ।

प्रेमशकर स्तम्भित हो गये । मुँह से निकला, अरे । यह कब ?

ज्ञान--आज ही रात को ।

प्रेम--बात क्या है?

ज्ञान--गाँववालो की वदमाशी और सरकशी के सिवा और क्या बात हो सकती है। मैंने चरावर को रोकने का हुक्म दिया था। वहाँ एक बाग लगाने का विचार था। बस, इतना बहाना पा कर सब खून-खच्चर पर उद्यत हो गये ।

प्रेम--कातिल का कुछ पता चला ?

ज्ञान--अभी तो मनोहर ने थाने में जा कर एकवाल किया है।

प्रेम-–मनोहर तो बडा सीधा, गम्भीर पुरुष है।

ज्ञान--(व्यग से) जी हाँ, देवता था।

डाक्टर साहब ने मार्मिक भाव से देख कर कहा, यह किसी एक आदमी का फेल हर्गिज नही है।

ज्ञान--यही मेरा भी ख्याल है। मनोहर की इतनी मजाल नही है कि वह अकेला यह काम कर सके। निस्सन्देह सारा गाँव मिला हुआ है। मनोहर को सवने तवेले का बन्दर बना रखा है। देखिए थानेदार की तहकीकात का क्या नतीजा होता है। कुछ भी हो, अब मैं इस मौजे को वीरान करके ही छोडूँगा । क्यो फैजू, तुम्हारा क्या ख्याल है ? मनोहर अकेले यह काम कर सकता है ?

फैजू--नही हुजूर, साठ वरस का बुड्ढा भला क्या खा कर हिम्मत करता। और कोई चाहे उसका मददगार न हो, लेकिन उसका लडका तो जरूर ही साथ रहा होगा ।

कर्तार--वह बुड्ढा हैं तो क्या, बडे जीवट का आदमी है। उसके सिवा गाँव में किसी का इतना कलेजा नहीं है।

ज्ञान--तुम गँवार आदमी हो, इन बातो को क्या समझो। तुम्हें तो भंग का गोला चाहिए । डाक्टर साहब, मुआमले में मुद्दई तो सरकार होगी, लेकिन आप भी मेरी तरफ से पैरवी कीजिएगा। मैंने फैसला कर लिया है कि गाँव के किसी बालिग आदमी को बेदाग न छोडूँगा।

प्रेमाशकर ने दबी जवान से कहा, अगर तुम्हे विश्वास हो कि यह एक आदमी का काम है तो सारे गाँव को समेटना उचित नही । ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय ।

ज्ञानशकर क्रुद्ध हो कर बोले, बहुत अच्छा हो अगर आप इस विषय में अपने सत्य और न्याय के नियमों का स्वाँग न रचे । यह इन्ही की बरकत है कि आज इन दुष्टों को इतना साहस हुआ है । आप मुझे साफ-साफ कहने पर मजबूर कर रहे हैं । ये सब आपके ही बल पर कूद रहे है। आपने प्रत्येक अवसर पर मेरे विपक्ष मे उनकी सहायता की है, उनसे भाईचारा किया है । और उनके सिर पर हाथ रखने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं । आपके इसी त्रातृ-भाव ने उनके सिर फिरा दिये । मेरा भय उनके दिल से जाता रहा । आपके सिद्धान्तों और विचारो का मैं आदर करती हूँ, लेकिन आप कडवी नीम को दूध से सीच रहे है और आशा करते है कि मीठे फल लगेगें । ऐसे कुपात्रो के साथ ऊँचे नियमो का व्यवहार करना दीवाने के हाथ में मशाल दे देना है।

प्रेमशंकर ने फिर जबान न खोली और न सिर उठाया । लाला प्रभाशंकर को ये बाते ऐसी बुरी लगी कि वह तुरन्त उठ कर चले गये । लेकिन प्रेमशकर आत्म-परीक्षा में मौन मर्तावत् बैठे रहे । दीन देहातियों के साथ साधारण सज्जनता का वर्ताव करने का परिणाम ऐसा भयकर होगा यह एक बिलकुल नया अनुभव था। केवल एक आदमी की जान ही नहीं गयीं, वरन् और भी कितने ही प्राणो के बलिदान होने की आशंका थी। भगवान् उन गरीबो पर दया करो। मैंने सच्चे हृदय से उनकी सेवा नहीं की । द्वेष का भाव मुझे प्रेरित करता रहा । मैं ज्ञानशकर को नीचा दिखाना चाहता था। यह समस्या उसी द्वेष भाव का दड़ है। क्या एक लखनपुर ही अपने जमीदार के अत्याचार से पीडित था ? ऐसा कौन-सा इलाका है जो जमीदार के हाथो रक्त के आँसू न बहा रहा हो । तो लखनपुरवालो के ही प्रति मेरी सहानुभूति क्यो इतनी प्रचड हो गयी और फिर ऐसे अत्याचार क्या इससे पहले न होते थे ? यह तो आये दिन ही होता रहता था, लेकिन कभी असामियो को चूँ करने की हिम्मत न पडती थी। इस बार यह क्यो मार-काट पर उद्यत हो गये । इन शकाओं का उन्हें एक ही उत्तर मिलता था और वह उस उत्तरदायित्व के भार को और गुरुतर बना देता था। हाय ! मैंने कितने प्राणो को अपनी ईर्षाग्नि के कुड़ में झोक दिया। अब मेरा कर्तव्य क्या है ? क्या यह आग लगा कर दूर से खडा तमाशा देखूँ ? यह सर्वथा निन्छ है । अब तो इन अभागो की यथा योग्य सहायता करनी ही पडेगी, चाहे ज्ञानशकर को कितना ही बुरा लगे। इसके सिवा मेरे लिए कोई दूसरा मार्ग नही है ।

प्रेमशकर इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि मायाशकर ने आ कर कहा, चाचा जी, अम्माँ कहती है अब तो बहुत देर हो गयी, हाजीपुर कैसे जाइएगा ? यही भोजन कर लीजिए और आज यही रह जाइए।

प्रेमशकर शोकमय विचारों की तरग मे भूल गये कि अभी मुझे हाजीपुर लौटना है । माया को प्यार करके बोले, नही बेटा, मैं चला जाऊँगा, अभी ज्यादा रात नही गयी है। यहाँ रह जाऊँ, तो वहाँ बडा हर्ज होगा।

यह कह कर वह उठ खड़े हुए। ज्ञानशकर की ओर करुण नेत्रों से देखा और बिना कुछ कहे ही चले गये । ज्ञानशकर ने उनकी तरफ ताका भी नहीं।

उनके जाने के बाद डाक्टर महोदय बोले, मैं तो इनकी बडी तारीफ सुना करता था, पर पहली ही मुलाकात मे तबीयत आसूदा हो गयी। कुछ क्रुद्ध-से मालूम होते है।

ज्ञान--बड़े भाई है, उनकी शान मैं क्या कहूँ, कुछ दिनों अमेरिका क्या रह आये है भोया हक और इन्साफ का ठेका ले लिया है। हालांकि अभी तक अमेरिका में भी यह खयालात अमल के मैदान से कोसों दूर है। दुनिया में इन खयालो के चर्चे हमेशा रहे है और हमेशा रहेगे। देखना सिर्फ यह है कि यह कहाँ तक अमल में लाये जा सकते हैं। मैं खुद इन उसूलो का कायल हूँ, पर मेरे खयाल में अभी बहुत दिनो तक इस जमीन में यह बीज सरसब्ज नही हो सकता हैं।

इसके बाद कुछ देर तक इस दुर्घटना के सम्बन्ध में बातचीत होती रही। जब डाक्टर साहब और ईजाद हुसेन चले गये तब ज्ञानशकर घर मे जा कर बोले, देखा, भाई साहब ने लखनपुर में क्या गुल खिलाया ? अभी खबर आयी है कि गौस खाँ को लोगो ने मार डाला। दोंनो स्त्रियाँ हक्की बक्की होकर एक दूसरे का मुँह ताकने लगी।

ज्ञानशकर ने फिर कहा, यह वर्षों से वहाँ जा-जा कर असामियो से जाने क्या कहते थे, न जाने क्या सिखाते थे, जिसका यह नतीजा निकला है। मैंने जब इनके वहाँ आने-जाने की खबर पायी तो उसी वक्त मेरे कान खड़े हुए और मैंने इनसे विनय की थी कि आप गँवारो को अधिक सिर ने चढाये। उन्होने मुझे भी वचन दिया कि उनसे कोई सम्बन्ध न रखूँगा। लेकिन अपने आगे किसी को समझते ही नहीं । मुझे भय है कि कहीं इस मामले में वह भी न फँस जायँ । पुलिसवाले एक ही कट्टर होते है। वह किसी न किसी मोटे असामी को जरूर फाँसेगे । गाँववालो पर जरा सख्ती की कि सब खुल पड़ेंगे और सारी अपराध भाई साहब के सिर डाल देगे।

श्रद्धा ने ज्ञानशकर की ओर कातर नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया ।अपने मन के भावो को प्रकट न कर सकी। विद्या ने कहा, तुम जरा थानेदार के पास क्यो नही चले जाते ? जैसे बने, उन्हें राजी कर लो।

ज्ञान--हाँ, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा, लेकिन एक छोटे आदमी की खुशामद करना, उसके नखरे उठाना कितने अपमान की बात है । भाई साहब को ऐसा न समझता था।

श्रद्धा ने सिर झुकाये हुए सरोष स्वर से कहा, पुलिसवाले उन पर जो अपराध लगाये, वह ऐसे आदमी नही है कि गाँववालो को वहकाते फिरें, बल्कि अगर गाँववालो की नीयत उन्हें पहले मालूम हो जाती तो यह नौबत ही न आती । तुम्हे थानेदार की खुशामद करने की कोई जरूरत नही । वह अपनी रक्षा आप कर सकते हैं।

विद्या--मैं तुम्हे बरावर समझाती आती थी कि देहातियो से राड़ ने बढाओ । विल्ली भी भागने को राह नहीं पाती तो शेर हो जाती है। लेकिन तुमने कभी कान ही न दिये।

ज्ञान--कैसी बेसिर-पैर की बाते करती हो ? मैं इन टुकड़गदे किसानो से दवता फिरूँ ? जमीदार न हुआ कोई चरकटा हुआ । उनकी मजाल थी कि मेरे मुकाबले में खड़े होते ? हाँ, जब अपने ही घर में आग लगानेवाले मौजूद हो तो जो कुछ न हो जाय वह थोड़ा है। मैं एक नहीं सौ बार कहूँगा कि अगर भाई साहब ने इन्हें सिर न चढाया होता तो आज इनके हौसले इतने न बढ़ते ।

विद्या--(दबी जुबान से) सारा शहर जिसकी पूजा करता है उसे तुम घर में आग लगानेवाला कहते हो ?

ज्ञान--यही लोक-सम्मान तो इन सारे उपद्रवो का कारण है।

श्रद्धा और ज्यादा न सुन सकी । उठ कर अपने कमरे में चली गयी। तब ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे तो इनके फँसने मे जरा भी सन्देह नहीं हैं।

विद्या--तुम अपनी ओर से उनके बचाने में कोई बात उठा न रखना, यह तुम्हारा धर्म है। आगे विधाता ने जो लिखा है वह तो होगा ही।

ज्ञान--भाभी की तबियत का कुछ और ही रग दिखाई देता है।

विद्या--तुम उनका स्वभाव जानते नही । वह चाहे दादा जी के साये से भी भागें, पर उनके नाम पर जान देती है, हृदय से उनकी पूजा करती हैं।

ज्ञान--इधर भी चलती हैं, उधर भी।

विद्या--इधर लोक-लाज से चलती हैं, हृदय उधर ही है।

ज्ञान--तो फिर मुझे कोई और ही उपाय सोचना पड़ेगा।

विद्या--ईश्वर के लिए ऐसी बातें मुझसे न किया करो।