प्रेमाश्रम/२७

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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२७

प्रभात का समय था और कुँआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातो मे जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की दुर्गन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करनेवाली धूप होती थी, कभी सावन को शरमानेवाले बादल घिर आते थे। मच्छर और मलेरिया का प्रकोप था, नीम की छाल और गिलोय की बहार थी। चरावर में दूर तक हरी-हरी घास लहरा रही थी। अभी किसी को उसे काटने का अवकाश न मिलता था। इसी समय बिन्दा महराज और कर्तारसिह लाठी कधे पर रखें एक वृक्ष के नीचे आ कर खडे हो गये। कतरि ने कहा, इस बुड्ढे को खुचड सूझती रहती है। भलो बताओ, जो यहाँ मवेशी न चरने पायेगे तो कहाँ जायँगे और जो लोग सदा से चराते आये है वे मानेगे कैसे ? एक बेर कोई इसकी मरम्मत कर देता तो यह आदत छूट जाती।

बिन्दा--हमका तो ई मौजा मा तीस बरसे होय गई। तब से दस कारिन्दे आये पर चरावर कोऊ न रोका। गाँव भर के मवेशी मजे से चरत रहे।

कतरि--उन्हे हुकुम देते क्या लगता है। जायगी तो हमारे माथे ।

बिन्दा--हमार जी तो अस ऊब गवा है कि मन करत है छोड-छाड़ के घर चला जाई। सुनित है मालिक अबैया हैं। बस, एक बेर उनसे भेट होई जाय और अपने घर-के राह लैई।

कर्तार--फैजू दिन भर खाट पर पड़ी रहता है, उससे कुछ नही कहते । जब देखो कर्तार को ही दौडाते है, मानो कर्तार उनके बाप का गुलाम है। और देखो, पीपल के नीचे जहाँ हम-तुम जल चढ़ाते हैं, वहाँ नमाज पढते है, वही दतुअन-कुल्ली करते है, वही नहाते हैं। बताओ, धरम नष्ट मया कि रहा? आप तो रोज कुरान पढते है और [ १९२ ]मैं रामायण पढने लगता हूँ तो कैसे डाँट के कहते हैं, क्या शोर मचा रक्खा है। अब की असाढ मे ३०० रु० नजराना मिली, हमे एक पाई से भेट न हुई।

विन्दा–-हमका तो एक रुपया मिल रहे।

कर्तार--यह भी कोई मिलने में मिलना है। और सब कही चपरासियो को रुपये मे आठ आने मिलते है। यह कुछ न दें तो चार आने तो दे। लेना-देना दूर रहा उस पर आठो पहर सिर पर सवार। कल तुम कही गये थे। मुझसे बोले, कर्तार एक घडा पानी तो खीच लो। मैंने तुरत जवाब दिया, इसके नौकर नही है, फौजदारी करा लो, लाठी चलवा लो, अगर कदम पीछे हटाये तो कहो, लेकिन चिलम भरना, पानी खींचना हमारा काम नहीं है। इस पर आँखें बहुत लाल-पीली की । एक दिन पीपल के नीचे-वाली मुरतो को देख कर बोले, यह क्या ईंट-पाथर जमा कर रखे है। मैंने तो ठान लिया है कि जहाँ अब की कोई नजराना ले कर आया और मैंने हाथ पकड़ा कि चार आने इधर रखिए। जरी भी नरम गरम हुए, मुँह से लाम-काफ निकाली और मैंने गरदन दबायी। फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। फैजू बोले तो उनसे भी मैं समझूँगा। सूब पड़े-पड़े रोटी, गोस उड़ा रहे हैं, सब निकाल दूँगा। वह देखो मवेशी इधर आ रहे हैं। बलराज तो नही है न?

बिन्दा--होवे करी तो कौनो डर हो ? अब की अस जर आवा है कि ठठरी होय गया है।

कर्तार--बड़े कस-बल का पट्ठा है। सुक्खू चौधरी का तालाब जहाँ बन रहा था वही एक दिन अखाड़े मे उससे मेरी एक पकड हो गयी थी। मैं उसे पहले ही झपाटे में नीचे लाया, लेकिन ऐसा तडप के नीचे से निकला कि झोको में आ गया। सँभक ही न सका। बदन नही, लोहा है।

बिन्दा--निगाह का बड़ा सच्चा जवान हैं। क्या मजाल कि कोऊ की बिटिया-महरिया की ओर आँखे उठा के ताके।

कर्तार--वह देखो फैजू और गौस खाँ भी इधर ही आ रहे हैं। आज कुशल नही दीखती ।

बिन्दा--यह गाये-भैसे तो मनोहर की जान परते है। बिलासी लीने आवत है।

कुर्तार ने उच्च स्वर में कहा, यह कौन मवेशी लिए आता है? यहाँ से निकाल ले जाव, सरकारी हुक्म नहीं है। इतने में बिलासी निकट आ गयी और बिन्दा महराज की और निश्चित भाव से देख कर बोली, सुनत हो महराज ठाकुर की बात!

कर्तार--सरकारी हुक्म हो गया कि अब कोई जानवर यहाँ न चरने पाये।

बिलासी--कैसा सरकारी हुकुम ? सरकार की जमीन नहीं है। महाराज, तुम्हे तो यहाँ एक युग बीत गया, कभी किसी ने चराई भी मना किया है ?

बिन्दा--उन पुरानी बातन का न गावो, अब से हुकुम भवा है। जानवर का और कौनो कैती ले जाव, नाही तो वह गौस खाँ आवत हैं, सभन का पकड़ के कानी हौद पठे दैहैं? [ १९३ ]

विलासी--कानीहौज कैसे पठे दैहैं, कोई राहजनी है? हमारे मवेशी सदा से यहाँ चरते आये है और सदा यही चरेगे। अच्छा सरकारी हुकुम है? आज कह दिया चरावर छोड दो, कल कहेगे अपना घर छोडो, पेड तले जा कर रहो। ऐसा कोई अधेर हैं?

इतने मे गौस खाँ और फैजू भी आ पहुँचे। बिलासी के अन्तिम शब्द खाँ साहब के कान मे पडे। डपट कर बोले, अपने जानवरो को फौरन निकाल ले जा, वरना मवेशीखाने भेज दूँगा।

बिलासी--क्यो निकाल ले जाऊँ ? चरावर सारे गाँव का है। जब सारा गाँव छोड़ देगा तो हम भी छोड़ देंगे।

गौस खाँ--जानवरो को ले जाती है कि खडी-खड़ी कानून बघारती है ?

बिलासी–-तुम तो खाँ साहब, ऐसी घुडकी जमा रहे हों जैसे मै तुम्हारा दिया खाती हूँ।

गौस खाँ--फैजू, यह जवाँदराज औरत यो न मानेगी। घेर लो इसके जानवरों को और मवेशीखाने हाँक ले जाओ।

फैजू तो मवेशियों की तरफ लपका, पर कर्तार और बिन्दा महाराज धर्म सकट में पडे खडे रहे। खाँ साहब ने उन्हें भी ललकारा--खडे मुँह क्या देख रहे हो? घेर लो। जानवरो को और हाँक ले जाओ। सरकारी हुक्म है या कोई मजाक है।

अब कर्तार और बिन्दा महाराज भी उठे और जानवरों को चारो ओर से घेरने का आयोजन करने लगे। मवेशियो ने चौकन्नी आँखों से देखा, कान खड़े किये और इधर उधर बिदकने लगे। परिस्थिति को ताड़ गये। विलासी ने कहा, मैं कहती हूँ इन्हें मत घेरो, नहीं तो ठीक न होगा।

किन्तु किसी ने उसकी धमकी पर ध्यान न दिया। थोड़ी देर में सब जानवर घिर गये। और कन्धे से कन्धे मिलाये, कनखियो से ताकते, तीनो चपरासियो के बीच में धीरे-धीरे चले। विलासी एक सदिग्ध दशा में मूर्तिवत् खड़ी थी। जब जानवर कोई बोस कदम निकल गये तब वह उन्मत्तो की भाँति दौडी और हाँफते हुए बोली, मैं कहती हूँ कि इन्हें छोड़ दो, नहीं तो ठीक न होगा।

फैजू--हट जा रास्ते से। कुछ शामत तो नहीं आयी है।

विलासी रास्ते में खड़ी हो गयी और बोली, ले कैसे जाओगे ?

गौस खाँ–-न हटे तो इसकी मरम्मत कर दो।

विलासी–-कह देती हूँ, इन जानवरों के पीछे लोहू की नदी बह जायगी। माथे गिर जायँगे।

फैजू--हटती है या नही चुडैल ?

विलासी--तू हट जा, दाढीजार।

इतना उसके मुँह से निकलना था कि फैजू ने आगे बढ़ कर विलासी की गर्दन की और उसे इतने जोर से झोका दिया कि वह दो कदम पर जा गिरी। उसकी आँखे तिलमिली गयी, मूर्छा सी आ गयी। एक क्षण वह वही अचेत पड़ी रही, तब उठी और लँग-

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छाती हुई उन पुरुषों से अपनी अपमान कथा कहने चली जो उसके मान मर्यादा के रक्षक थे।

मनोहर और बलराज दोनों एक दूसरे गाँव में धान काटने गये हुए थे। वह यहाँ से कोस भर पड़ता था। लखनपुर में धान के खेत न थे। इसलिए सभी लोग प्रायः उसी गाँव में धान बौते थे। बिलासी घान के मैडौ पर चली जाती थी। कभी पैर इधर फिसलते, कभी उधर वह ऐसी उदिन हो रही थी कि किसी प्रकार चड़ कर वहाँ पहुँच जाऊँ। पर चुटनियों में चौट आ गयी थी इसलिए विवश थी। उसके रोम-रोम से अग्नि की ज्याला निकल रही थीं। अग-अंग से यही ध्वनि निकलती थी--इनकी इतनी मजाल!

उसे इस समय परिणाम और फल की लैश-मात्र भी चिन्ता न थी। कौन भरेगा। किसका घर मिट्टी में मिलेगा। यह बातें उसकै ध्यान में भी न आती थी। यह संकल्प विकल्प के बन्धन से मुक्त हो गयी थी।

लेकिन जब उस गाँव के समीप पहुंची और घान से लहराते हुए खेत दिखायी वैसे लगे तो पहली बार उसके मन में यह प्रश्न उठा कि इसका फल क्या होगा? बलराज एक ही क्रोधी है, भनौहर उससे भी एक अंगुल आगे। मैरा रोना सुनते ही दोनो भभक उठेंगे। जान पर खेल जायेंगे, तब! किन्तु आहत हुवय ने उत्तर दिया, क्या हानि है? लड़कों के लिए आदमी क्यौ शौकता है। पति के लिए क्यो रौती है। इसी दिन के लिए हो। इस कलमुँह फैजू का मान मरदन तो हो जायेगा! गौस का घमंड तौ चूर-चूर हो जायेगा।

सब भी, जब वह अपने खेतो के डाँड़े पर पहुँची, मनोहर और दलराज नजर आने लगै सव उसके पैर आप ही रुकने लगे। यहाँ तक कि जब वह उनके पास पहुँची तव परिणाम चिन्ता ने उसे परास्त कर दिया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। जानती थी और समझती थी कि यह आंसू की बूंदै आग की चिनगारियाँ हैं, पर आवेश पर अपना काबू न था। वह खेत के किनारे खड़ी हो गयी और मुंह ढक कर रोने लगी।

अलराज ने सशक हो कर पूछा, अम्मा क्या है? रोती क्यों है? क्या हुआ? यह सारा कपड़ा कैसे लहूलुहान हो गया?'

विलासी ने साड़ी की ओर देखा तो वास्तव मै रक्त के छीटे दिखायी दियें। घुटनियों से खून बह रहा था। उसका हृदय थर-थर काँपने लगा। इन छीटो को छिपाने के लिए वह इस समय अपने प्राण तक दे सकती थी। हाय। मेरे सिर पर कौन सा भूत सवार हो गया कि यहाँ दौड़ी हुई आयी। मैं क्या जानती थी कि कहीं फूट-फाट भी गया है। अब गजब हो गया। मुझे चाहिए था कि धीरज धरे बैठी रहत। साँझ को जब यह लोग घर जाते और गाँव के सब आदमी जमा होते तो सारा वृत्तान्त कह देती। सव की सलाह होती, वैसा किया जाता। इस अव्यवस्थित दशा में वह कोई शान्तिप्रद उत्तर न सोच सकी।

बलराज ने फिर पूछा, कुछ मुँह से बोलती क्यो नहीं? बस रोयें जाती है। क्या हुआ, कुछ बता भी तो। [ १९५ ] बिलासी--(सिसकते हुए) फैजू और गौस खाँ इमारी सब गायें-भैसै कानी हौद हॉक ले गये।

बलराज—क्यों? क्या उनकी सर में पड़ी थी।

बिलासी—नहीं, कहते थे कि चरावर में चराने की मनाही हो गयी।

बलराज ने देखा कि माता कि आँखें झुकी हुई हैं और मुख पर मर्माघात की आशा झलक रही है। उसने उग्रवस्था में स्थिति को उससे कही भयंकर समझ लिया जितनी वह वस्तुत थी। कुछ और पूछने की हिम्मत न पड़ी। आँखें रक्तवर्ण हो गयीं। कन्धे पर लट्ठ रख लिया और मनोहर से बोला, मैं जरा गाँव तक जाता हूँ।

मनोहर—क्या काम है?

बलराज—फैजू और गौस खाँ से दो-दो बातें करनी है।

मनोहर—ऐसी बातें करने का यह मौका नहीं। अभी जाओगे तो बात बढ़ेगी और कुछ हाथ भी न लगेगा। चार आदमी तुम्हीं को बुरा कहेंगे। अपमान का बदला इस तरह नहीं लिया जाता।

मनोहर के इन शब्दों में इतना भयंकर संकल्प, इतना घातक निश्चय भरा हुआ था कि बलराज अधिक आग्रह न कर सका। उसने लाठी रख दी और माँ से कहा, अभी घर जाओ। हम लोग आयेंगे तो देखा जायगा।

मनोहर—नहीं घर मत जाओ। यही बैठो। साँझ को सब जने साथ ही चलेंगे। वह कौन दौड़ा आ रहा है? बिन्दा महाराज हैं क्या?

बलराज नहीं, कादिर दादा जान पड़ते हैं। हाँ, वही हैं। भागे चले जाते हैं। मालूम होता है गाँव में मारपीट हो गयी। दादा, क्या है? कैसे दौड़े आते हो, कुशल तो हैं।

कादिर ने दम ले कर कहा, तुम्हारे ही पास तो आते हैं। बिलासी रोती आयी है। मैं डरा तुम लोग गुस्से में न जाने क्या कर बैठो। चला कि राह में मिल जाओगे तो रोक लूँगा, पर तुम कहीं मिले ही नहीं। अब तो जो हो गया सो हो गया, आगे की खबर करो। आज से जमींदार ने चरावर रोक दी है। यह अन्धेर देखते हो?

मनोहर—हाँ, देख तो रहा हूँ, अन्धेर ही अन्धेर है।

कादिर—फिर अदालत जाना पड़ेगा।

मनोहर—चलो, मैं तैयार हूँ।

कादिर आज जाओ तो सलाह पक्की करके सवाल है दे। अब की हाईकोर्ट तक लड़ेगें, चाहे घर बिक जाय। बस, हल पीछे चन्दा लगा लिया जाय।

मनोहर-हाँ, यही अच्छा होगा।

कादिर-मैं नमाज पढ़ता था, सुनो बिलासी को बराबर में चपरासियों में बुराभला कहा और वह रोती हुई इधर आयी हैं। समझ गया कि आज गजब हो गया। बारे तुमने सबर से काम लिया। अल्लाह इसका सवाब तुमको देगा। तो मैं अब जाता हूँ, अपने चन्दे की बातचीत करता हूँ। जरा दिन रहते चले आना। [ १९६ ] कादिर खाँ सावधान हो कर चले गये। यह न समझे कि यहाँ मन में कुछ और ठन गयी है। मनोहर के तुले हुए शब्दों को उन्होंने मानसिक धैर्य का द्योतक समझा।

मनोहर ऐसे उद्दीप्त उत्साह से अपने काम में दत्तचित्त था मानों उसकी युवावस्था का विकास हो गया है। धान के पोलो के ढेर लगते जाते थे। न आगे ताकता था ने पीछे, न किसी से कुछ बाेलता था, न किसी की कुछ सुनता था, न हाथ थकते थे, ने कमर दुखती थी। बलराज ने चिलम भर कर रख दी। तम्बाकू रख-रखे जल गया। बिलासी खाँड़ का रस घोल कर सामने लायी। उसने उसकी ओर देखा तक नहीं, कुत्ता पी गया। आर की धूप थी, देह से चिनगारियाँ निकलती थी, पसीने की धारे बहती थी, किन्तु वह सिर तक न उठाता था। बलराज कभी खेत मे आता, कभी पेड़ के नीचे जा बैठता, कभी चिलम पीता। एक ही अग्नि दोनों के हृदय में प्रज्ज्वलित थी, एक और सुलगती हुई, दूसरी ओर दक्कती हुई। एक ओर वायु के वेग से चंचल, दूसरी ओर निर्बलता से निश्चल। एक ही भावना दोनों के हृदय में थी, एक में उद्दामउच्छृखल, दूसरे में गम्भीर और स्थिर।

दोपहर हुई। बिलासी ने आ कर डरते-डरते कहा, चबेना कर लो।

मनोहर ने सिर झुकाये हुए जवाब दिया—चलो आते हैं।

एक घंटे के बाद बिलासी फिर आ कर बोली, चलो, चबेना कर लो, दिन ढल गया। क्या आज ही सब खेत काट लोगे?

मनोहर ने कठोर स्वर में कहा, यही विचार में है। कौन जाने, कल आये या न आये।

जैसे किसी भरे हुए घड़े में एक कंकर लग जाय और पानी बह निकले, उसी भाँति बिलासी के हृदय में एक चोट सी लगी और आँसू बहने लगे। वह रह-रह कर हाथ मलती थी। हाय न जाने इन्होंने मन में क्या ठान लिया है।

वह कई मिनट तक वहीं खड़ी रोती रही। परिणाम की भयावह विकराल मूर्ति उसके नेत्रों के सामने नाच रही थी। मुंह खोले उसे निगलने को दौड़ती थी और शोक। इस मूर्ति को उसने अपने ही हाथों रचा था। अन्त में वह मनोहर के सम्मुख बैठ गयी और उसकी ओर अत्यन्त दीन भाव से देख कर बोली, हाथ जोड़ कर कहती हूँ, चल कर चबेना कर लो। तुम्हारे इस तरह गुमसुम रहने से मेरा कलेजा दहल रहा है। तुमने क्या ठान रखी है, बोलते क्यों नहीं?

मनोहर—जा कर चुपके से बैठो। जब मुझे भूख लगेगी खा लूंगा।

विलासी—हाय राम। तुम क्या करने पर तुले हो?

मनोहर—करूंगा क्या? कुछ करने ही लायक होता तो आज यह बेइज्जती नहीं होती। जो कुछ तकदीर में है वह होगा।

यह कह कर वह फिर अपने काम में व्यस्त हो गया। कोई किसी से न बोला। बलराज टालमटोल करता रहा और बिलासी उदास बैठी कभी रोती और कभी अपने को कोसती; यहाँ तक कि सन्ध्या हो गयी। तीनों ने धान के गळे गाड़ी पर लादे और [ १९७ ]लखनपुर चले। बलराज गाड़ी हाँकता था और मनोहर पीछे-पीछे उच्च स्वर से एक बिरहा गाता हुआ चला आता था। राह में कल्लू अहीर मिला, बोला, मनोहर काका आज बड़े मगन हो। मनोहर का गाना समाप्त हुआ तो उसने भी एक बिरहा गाया। दोनों साथ साथ गाँव मे पहुँचे तो एक हलचल सी मची हुई थी। चारों ओर चरावर की ही चर्चा थी। कादिर के द्वार पर एक पंचायत सी बैठी हुई थी। लेकिन मनोहर पंचायत में न जा कर सीधा घर गया और जाते ही जाते भोजन माँगा। बहू ने रसोई तैयार कर रखी थी। इच्छापूर्ण भोजन करके नारियल पीने लगा। थोड़ी देर में बलराज़ भी पंचायत से लौटा। मनोहर ने पूछा, कहो, क्या हुआ?

बलराज—कुछ नहीं, यह सलाह हुई है कि खाँ साहब को कुछ नजर-वजर दे कर मना लिया जाय। अदालत से सब लोग घबड़ाते हैं।

मनोहर—यह तो मैं पहले ही समझ गया था। अच्छा जा कर चटपट खा-पी लो। आज मैं भी तुम्हारे साथ रखवाली करने चलूंगा। आँख लग जाय तो जगा लेना।

एक घंटे के बाद दोनों खेत की और चलने को तैयार हुए। मनोहर ने पूछा, कुल्हाड़ा खूब चलती है न?

बलराज—हाँ, आज ही तो रगड़ा है।

मनोहर—तो उसे ले लो।

बलराज—मेरा तो कलेजा थर-थर काँप रहा है।

मनोहर—काँपने दो। तुम्हारे साथ मैं भी तो रहूँगा। तुम दो-एक हाथ चलाके वहाँ से लम्बे हो जाना और सब मैं देख लूँगा। इस तरह आके सो रहना, जैसे कुछ जानते ही नहीं। कोई कितनी ही पूछे, डरावे-धमकावे मुँह मत खोलना। मैं अकेले ही जाता, मुदा एक तो मुझे अच्छी तरह सुझता नहीं, कई दिनों से रतौथी होती है, दूसरे हाथों में अब वह बल नहीं कि एक चोट में वारा-न्यारा हो जाय।

मनोहर यह बातें ऐसी सावधानी से कह रहा था मानो कोई साधारण घरेलू बातचीत हो। बलराज इसके प्रतिकूल शंका और भय से आतुर हो रहा था। क्रोध के आवेश मै वह आग में कूद सकता था, किन्तु इस पैशाचिक हत्या कांड से उसके प्राण सूख जाते थे।

खेत में पहुँच कर दोनों मचान पर लेटे। अमावस की रात थी। आकाश पर कुछ बादल भी हो आये थे। चारों ओर घोर अन्धकार छाया हुया था।

मनोहर तो लेटते ही खर्राटे लेने लगा, लेकिन बलराज पड़ा-पड़ा करवटे बदलता रहा। उसका हृदय नाना प्रकार की शकाओं को अविरल स्रोत बना हुआ था।

दो घड़ी बीतने पर मनोहर जागा, बोला, बलराज सो गयें क्या?

बलराज—नहीं, नींद नहीं आती।

मनोहर—अच्छा, तो अब राम का नाम है कर तैयार हो जाओ। डरने या घबराने की कोई बात नहीं। अपने मरजाद की रक्षा करना मरदों का काम है। ऐसे अत्याचारों को हम और क्या जवाब दे सकते हैं? बेइज्जत हो कर जीने से मर जाना अच्छा [ १९८ ]है। दिल को खूब सँभालो। अपना काम करके सीधे यहाँ चले आना। अँधेरी रात है। किसी की नजर भी नहीं पड़ सकती। थानेदार तुम्हें डरायेंगे, लेकिन खबरदार, डरना मत। बरा गाँव के लोगों से मेल रखोगे तो कोई तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकेगा। दुखरन भगत अच्छा आदमी नहीं है, उससे चौकन्ने रहना। हाँ, कादिर भरोसे का आदमी है। उसकी बातों का बुरा मत मानना। मैं तो फिर लौट कर घर न आऊँगा। तुम्हीं घर के मालिक बनोगे। अब वह लड़कपन छोड़ देना, कोई घार बात कहे तो गम खाना। ऐसा कोई काम न करना कि बाप-दादे के नाम को कलंक लगे। अपनी घरवाली को सिर मत चढ़ाना। उसे समझाते रहना कि सास के कहने में है। मैं तो देखने न आऊँगा, लेकिन इसी तरह घर में राड़ मचता रहो तो घर मिट्टी में मिल जायेगा।

बलराज ने अवरुद्ध स्वर से कहा, दादा मेरी इतनी बात मानों, इस बखत सबुर कर जाओ। मैं कल एक-एक की खोपड़ी तोड़ कर रख दूंगा।

मनोहर—हाँ, तुम्हें कोई मारे तो तुम संसार भर को मार गिरायो। फैजू और कर्तार क्या मिट्टी के लदे है? गौस खाँ भी पलटन में रह चुका है। तुम लकड़ी में उनसे पेश न पा सकोगे। वह देखो हिरना निकल आया। महाबीर जी का नाम ले कर उठ खड़े हो। ऐसे कामों मे आगा-पीछा अच्छा नहीं होता। गाँव के बाहर ही बाहर चलना होगा, नहीं तो कुत्ते भूकेंगे और लोग जाग उठेंगे।

बलराज—मेरे तो हाथ पैर काँप रहे हैं।

मनोहर—कोई परवा नहीं। कुल्हाड़ी हाथ में लोगे तो सब ठीक हो जायेगा। तुम मेरे बेटे हो, तुम्हारा कलेजा मजबूत हैं। तुम्हें अभी जो डर लग रहा है, वह ताप के पहले का जाड़ा है। तुमने कुल्हाड़ा कन्धे पर रखा, महाबीर का नाम ले कर उधर चले, तो तुम्हारी आँखो से चिनगारियाँ निकलने लगेंगी। सिर पर खून सवार हो जायगी। बाज की तरह शिकार पर झपटोगे। फिर तो मैं तुम्हें मना भी करूँ तो न सुनोगे। वह देखो सियार बोलने लगे, आधी रात हो गयी। मेरा हाथ पकड़ लो और आगे आगे चलो। जय महावीर की!