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प्रेमाश्रम/३

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १५ से – २० तक

 

मनोहर अक्खडपन की बातें तो कर बैठा, किंतु जब क्रोध शांत हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँववाले सब के सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निंदा कर रहे होगे। कारिंदा न जाने कौन-सा उपद्रव मचायें । बेचारे दुर्जन की बात की बात मे मटिया मैट कर दिया, तो फिर मुझे बिगाड़ते क्या देर लगती है। मैं अपनी जबान से लाचार हैं। कितना ही उसे बस में रखना चाहता हैं पर नही रख सकता। यही न होता कि जहाँ और सव लेना-देना है वहाँ दस रुपये और हो जाते, नक्कू तो न बनता।

लेकिन इन विचारो ने एक क्षण में फिर पलटा खाया। मनुष्य जिस काम को हृदय से बुरा नहीं समझता, उसके कुपरिणाम का भय एक गौरवपूर्ण धैर्य की शरण लिया करता है। मनोहर अब इस विचार से अपने को शाति देने लगा, मैं बिगड़ जाऊँगा तो बला से, पर किसी की घौंस तो न सहूँगा, किसी के सामने सिर तो नीचा नहीं करता। जमीदार भी देख लें कि गाँव मे सब के सब भाँड़ ही नहीं है। अगर कोई मामला खड़ा किया तो अदालत में हाकिम के सामने सारा भंडा फोड़ दूंँगा, जो कुछ होगा, देखा जायेगा।

इसी उधेडवुन में वह भोजन करने लगा। चौके में एक मिट्टी के तेल का चिराग जल रहा था; किंतु छत में धुआंँ इतना भरा हुआ था कि उसका प्रकाश मद पड़ गया था। उसकी स्त्री बिलासी ने एक पीतल की थाली में बथुए की भाजी और जौ की कई मोटी-मोटी रौटियाँ परस दी। मनोहर इस भाँति रोटियौ तोड़-तोड़ मुंँह में रखता
था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा, क्या साग अच्छा नहीं? गुड़ दूं?

मनोहर—नहीं, साग तो अच्छा हैं।

बिलासी—क्या भूख नहीं?

मनोहर—भूख क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।

बिलासी—खाते तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नही हुई है?

मनोहर—नहीं, कहा-सुनी किस से होती?

इतने में एक युवक कोठरी में आ कर खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ट-पुष्ट था, छाती चौड़ी और भरी हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यंत्र था और दाहिने बाँह में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।

बिलासी—कहाँ घूम रहे हो? आओ, खा लो, थाली परसूँ।

बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए कहा, काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे।

मनोहर—कुछ नहीं, तुमसे कौन कहता था?

बलराज—सभी लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे, तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गये।

मनोहर—अरे तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा, तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जायगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन-सी बात थी?

बलराज—झगड़े की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगें? किसी का दिया खाते है कि किसी के घर माँगने जाते हैं? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहे? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन समझ लिया हैं?

मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती थी, पर इसके साथ ही यह चिंता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला, चुपके से बैठ कर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहीं जा कर एक की चार जड़ आयेगा। यहाँ कोई अपना मित्र नहीं हैं।

बलराज—सुन लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमंड हो आ कर देख ले। एक-एक का सिर तोड़ के रख दें। यहीं न होगा, कैद हो कर चला जाऊँगा। इनसे कौन डरता हैं? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आये हैं।

बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के भाव से देख कर कहा, तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक न एक बखेड़ा मचाये ही रहते हो। जब सारा गाँव घी दे रहा हैं तब हम क्या गाँव से बाहर हैं। जैसे बन पड़ेगा देंगे। इसमें कोई अपनी हेठी थोड़े ही हुई जाती है? हेठा न तो नारायण ने ही बना दिया है। तो क्या अकड़ने से ऊँचे हो जायँगे? थोड़ा-सा घी हांड़ी में है, दो-चार दिन में और बटोर लूँगी, जाकर तौल आना।

बलराज क्यों दे आयें ? किसी के दबैल हैं।

बिलासी --- नहीं, तुम तौ लाटवर्नर हो। घर में भूनी भाँग नहीं, उस पर इतना घमंड?

बलराज --- हम दरिद्र नहीं, किसी से माँगने तो नहीं जाते?

बिलासी --– अरे जा बैठ, आया है बड़ा जोवा बनके। ऊँट जब तक पहाड़ पर नहीं चढ़ता तब तक समझता है कि मुझसे ऊँचा और कौन होगा? जमीदार से वैर कर गाँव में रहना सहज नहीं है। (मनोहर से) सुनते हो महापुरुष: कल कारिंदा के पास जाके कह-सुन आओ।

मनोहर --- तो बच नहीं जाऊँगा। बिलासी क्यों? ननोहर व्यों क्या, रूपनी खुशी है। जायें क्या, अपने ऊपर तालियों लगवायें ? बिलामी-अच्छा, तो मुझे जाने दोगे? ननोहर गुन्हें भी न जाने दूंगा। कारिदा हमारा नर ही ज्या सकता है ? बहुत भरेगा स्ना निकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही सही। यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था, पर वास्तव में उसका इन्कार अव पराज त समान था। यदि विना दूसरों की दृष्टि में अपमान उनये विगड़ा हुमा खेल बन जाय तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा-प्रार्थना करने में अपनी ही समझता था। एक बार तन कर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उइंडता उसे शांत करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई । प्रातःकाल बिलासी चौपाल जाने को तैयार हुई पर न मनोहर साय चलने को राजी होता था, न दलराज। बक्ली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में नादिर मियां ने घर में प्रवेश लिया। बूढ़े बादमी थे, गिना डील, लम्बी दाढ़ी, घुटने के उपर तक घोती, एक गाड़े की मिरपई पहने हुए थे। गांव के नाते से वह मनोहर के बड़े भाई होते थे। विलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा चूंघट निकाल लिया।

कादिर ने चिंतापुर्ण भाव से कहा, अरे मनोहर, क्ल तुम्हें क्या सूझ गयी ? जल्दी नागरकारिता साह्म को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-घरते न बनेगी। नुना है व्ह तुम्हारी शिकान्त करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्टू भी साय जाने को गर है। नहीं मालूम, दोनों में क्या सांगां हुई है।

बिलासी --- भाई जी, यह बढ़े हो गये, लेन्नि इनका लड़कपन अभी नहीं गया। जितना म्यादी हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं। इन्हीं की देखा-देखी एक लड़न है वह मी हाय से निकला जाता है। जिसने देखोनी से उलझ पड़ता है। भला इनमें पूछा जाय कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाही करने में क्या पड़ी थी?

कादिर--इनकी भूल है और क्या दस रुपये हमे भी लेने पड़े, क्या करते? और यह कोई नयी बात थोड़े ही है? बड़े सरकार थे तब भी तो एक न एक बेगार लगी ही रहती थी।

मनोहर-भैया, तब की बाते जाने दो। तब साल दो साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहां से लकड़ी, चारा और २५ रु० बँधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं? जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार करती थी। अब यह बाते तो गयी, बस एक न एक पन्चड़ लगा ही रहता है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई हैं। तो हम भी कोई मिट्टी के लोदे बड़े ही है?

कादिर-तब की बाते छोड़ो, अब जो सामने है उसे देखो। चलो, जल्दी करो, मैं इसी लिए तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे बैल खेत में खड़े हैं।

मनोहर--दादा, मैं तो न जाऊँगा।

बिलासी–इनकी चूड़ियाँ मैली हो जायेंगी, चलो मैं चलती हूँ।

कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले। वहीं इस वक्त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आये, कुछ घी के रुपये लेने के लिए और कुछ केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिदे का नाम गुलाम गौस खाँ था। वह बृहदाकार मनुष्य थे, साँवला रंग, लम्बी दाढी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी मै वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुंचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी ले कर घर भाग आये और यही से इस्तीफा पेश कर दिया। वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।

सुक्खू ने कहा, हम मजदूर ठहरे, हम घमंड करे तो हमारी भूल है। जमीदार की जमीन में बसते हैं, उसका दिया जाते है, उससे बिगड़ कर कहाँ जायँगै-क्यों दुखरन?

दुखरन हाँ, ठीक ही है।

सुक्खू नारायण हमे चार पैसे दे, दस मन अनाज है तो क्या हम अपने मालिको से लड़े, मारे घमंड के धरती पर पैर न रखें?

दुखरन---यही मद तो आदमी को खराब करता है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासघ और दुरजोधन का सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है।

इतने में कादिर मियाँ चौपाल में आये। उनके पीछे-पीछे बिलासी भी आयी। कादिर ने कहा, खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आयी है, जितने रुपये चाहे घी के लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी। गौस खाँ ने कटू स्वर से कहा, वह कहाँ हैं मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी?

बिलसी ने दीनता पूर्वक कहा, सरकार उनकी बातों का कुछ ख्याल न करे। आपकी गुलामी करने को मैं तैयार हैं।

कादिर- यूँ तो गऊ हैं, किंतु आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यों मुक्खू महतो, आज तक गाँव में किसी से लड़ाई हुई है?

मुक्खू ने बगले झाँकते हुए कहा, नहीं भाई, कोई झूठ थोड़े ही कह देगा।

कादिर--अब बैठा रो रहा है। किंतना समझाया कि चल के खाँ साहब से कसूर माफ करा ले, लेकिन शरम से आता नहीं है।

गौस खाँ- शर्म नहीं, शरारत है। उसके सिर पर जो भूत चढ़ा हुआ हैं उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया है।

कादिर--अरे खाँ साहब, बेचारा मजूर गरूर किस बात पर करेगा? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नहीं है।

गौस खाँ–तुम्हें वकालत करने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हैं। इस तरह दबने लगा तब तो मुझसे कारिंदागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कल उसके दूसरे भाई और हो जायेंगे। फिर जमीदार को कौन पूछता है। अगर पलटने से किसी ने ऐसी शरारत की होती तो उसे गोली मार दी जाती। जमीदार से आँखे बदलना साला जी का घर नहीं हैं।

यह कह कर गौस ख़ाँ टाँगन पर सवार होने चले। बिलासी रोती हुई उनके सामने हाथ बाँध कर खड़ी हो गयी और बोली, सरकार कही की न रहूँगी। जो डाँड चाहे लगा दीजिए, जो सजा चाहे दीजिए, मालिकों के कान में यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब ने सुक्खू महतो को हत्थे पर चढ़ा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपट चाल में बाधक बनाना नहीं चाहते थे। तुरंत घोड़े पर सवार हो गये और सुंक्खू को आगे-आगे चलने का हुक्म दिया। काबिर मियाँ ने धीरे से गिरधर महाराज के कान में कहा, क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानाश करके ही दम लोगे?

गिरधर ने गौरव-युक्त भाव से कहा, जब तुम हमसे आँखे दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेगे। हमसे कोई एक अगुल दबे तो हम उससे हाथ भर दबने को तैयार हैं। हमसे जी भर लगा हम उससे गज भर तन जायेगे।

कादिर—यह तो सुपद ही है, तुम हुक से दबने लगोगे तो तुम्हें कौन पूछेगा? मुदा अब मनोहर के लिए कोई राह निकालो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्सैल आदमी है, पहले बिगड़ जाता है, फिर बैठ कर रोता है। बेचारा मिट्टी में मिल जायगा।

गिरधर-भाई, अब तो तीर हमारे हाथ से निकल गया।

कादिर--मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर ही पड़ेगी।

गिरधर एक उपाय मेरी समझ में आता है। जा कर मनोहर से कह दो कि मालिक के पास जा कर हाथ-पैर पड़े। वहाँ मैं भी कुछ कह-सुन दूंगा। तुम लोगों के साथ नेकी करने को जी तो नहीं चाहता, कम पड़ने पर घिघिआते हो, काम निकल गया तो सीधे ताकते भी नहीं। लेकिन अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। जा कर उसे भेज दो।

कादिर और बिलासी मनोहर के पास गये। वह शंका और चिंता की मूर्ति बना हुआ उसी रास्ते की ओर ताक रहा था। कादिर ने जाते ही यहाँ का समाचार कहा और गिरधर महाराज का आदेश भी सुना दिया। मनोहर क्षण भर सोच कर बोला, वहाँ मेरी और भी दुर्गति होगी। अब तो सिर पर पड़ी ही है, जो कुछ होगा, देखा जायगा।

कादिर--नही, तुम्हें जाना चाहिए। मैं भी चलूँगा।

मनोहर---मेरे पीछे तुम्हारी भी ले-दे होगी।

बिलासी ने कादिर की और अत्यत विनीत भाव से देख कर कहा, दादा जी, वह न जायेंगे, मैं ही तुम्हारे साथ चली चलूँगी।

कादिर---तुम क्या चलोगी, वहीं बड़े आदमियों के सामने मुँह तो खुलना चाहिए।

बिलासी-–ने कुछ कहते बनेगा, रो तो लूँगी।।

कादिर—यह जाने देंगे?

विलासी-जाने क्यों न देंगे, मैं कुछ माँगती हूँ? इन्हें अपनी बुरा-भला न सुझता हो, मुझे तो सूझती है।

कादिर तो फिर देर न करनी चाहिए, नहीं तो वह लोग पहले से ही मालिको की कान भर देंगे।

मनोहर ज्यों को त्यों मूरत की तरह बैठा रहा। बिलासी घर में गयी, अपने गहने निकाल कर पहने, चादर ओढ़ी और बाहर निकल कर खड़ी हो गयी। कादिर मियाँ संकोच में पड़े हुए थे। उन्हें आशा थी कि अब भी मनोहर उठेगा; किंतु जब वह अपनी जगह से जग भी न हिला तब धीरे-धीरे आगे चले। बिलासी भी पीछे-पीछे चली। पर रह रह कर कातर नेत्रों से मनोहर की और ताकती जाती थी। जब वह गाँव के बाहर निकल गये, तो मनोहर कुछ सोच कर उठी और लपका हुआ कादिर मियाँ के समीप आ कर बिलासी से बोला, जा घर बैठ, मैं जाता हूँ।