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प्रेमाश्रम/४

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २० से – २६ तक

 

तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आ कर कहा, बाबू साहब पूछते है, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ कर कहा, जा कह दे, आप को नीचे बुलाते हैं? क्या सारे दिन सोते रहेगे?

इन महाशय का नाम बाबू ज्वालासिंह था। ज्ञानशंकर के सहपाठी थे और आज ही इस जिले में डिप्टी कलेक्टर हो कर आये। दोपहर तक दोनो मित्रों में बात चीत होती रही। ज्वालासिंह रात भर के जगे थे, सो गये। ज्ञानशंकर को नीद नहीं आयी। इस समय उनकी छाती पर साँप सा लौट रहा था। सब के सब बाजी लिये जाते हैं। और मैं कहीं का न हुआ। कभी अपने ऊपर क्रोध आता, कभी अपने पिता और चाचा के ऊपर। पुराना सौहार्द द्वेष का रूप ग्रहण करता जाता था। यदि इस समय अकस्मात् ज्वालासिंह के पदच्युत होने का समाचार मिल जाता तो शायद ज्ञानशंकर के हृदय को शांति होती। वह इस क्षुद्र भाव को मन में न आने देना चाहते थे। अपने को समझाते थे कि यह अपना-अपना भाग्य है। अपना मित्र कोई ऊंचा पद पाये तो हमे प्रसन्न होना चाहिए, किंतु उनकी विकलता इन सद् विचारों से न मिटती थी और बहुत यत्ल करने पर भी परस्पर सम्भाषण में उनकी लघुता प्रकट हो जाती थी। ज्वालासिंह को विदित हो रहा था कि मेरी यह तरक्की इन्हें जला रही है, किंतु यह सर्वथा ज्ञानशंकर की ईर्षा-वृत्ति का ही दोष न था। ज्वालासिंह के बात-व्यवहार में वह पहले की सी स्नेहमय सरलता न थी, वरन् उसकी जगह एक अज्ञात सहृदयता, एक कृत्रिम वात्सल्य, एक गौरव-युक्त साधुता पायी जाती थी, जो ज्ञानशंकर के घाव पर नमक का काम कर रही थी। इसमें संदेह नहीं कि ज्वालासिंह का यह दु-स्वभाव इच्छित न था, वह इतनी नीच प्रकृति के पुरुष न थे, पर अपनी सफलता ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था। इधर ज्ञानशंकर इतने उदार न थे कि इससे मानव चरित्र के अध्ययन का आनंद उठाते।

कहार के जाने के क्षण भर पीछे ज्वालासिंह उतर पड़े और बोले, यार, बताओ क्या समय है? जरा साहब से मिलने जाना है। ज्ञानशंकर ने कहा, अजी, मिल लेना ऐसी क्या जल्दी है?

ज्वालासिंह-नही भाई, एक बार मिलना जरूरी है, जरा मालूम तो हो जाय किस ढंग का आदमी है, खुश कैसे होता है?

ज्ञान-वह इस बात से खुश होता है कि आप दिन में तीन बार उसके द्वार पर नाक रगड़ें।

ज्वालासिंह ने हंस कर कहा, तो कुछ मुश्किल नहीं, मैं पांच बार सिजदे किया करूंगा।

ज्ञान-और वह इस बात से खुश होता है कि आप कायदे-कानून को तिलाजंलि दीजिए, केवल उसकी इच्छा को कानून समझिए।

ज्वालासिंह-ऐसा ही करूंगा।

ज्ञान-इनकम टैक्स बढ़ाना पड़ेगा। किसी अभियुक्त को भूल कर भी छोड़ा तो बहुत बुरी तरह खबर लेगा।

ज्वाला-भाई, तुम बना रहे हो, ऐसा क्या होगा!

ज्ञान-नहीं, विश्वास मानिए, वह ऐसा ही विचित्र जीव है।

ज्वाला-तब तो उसके साथ मेरा निबाह कठिन है।

ज्ञान-जरा भी नहीं। आज आप ऐसी बातें कर रहे हैं, कल को उसके इशारों पर नाचेंगे। इस घमंड में न रहिए कि आपको अधिकार प्राप्त हुआ है, वास्तव में आपने गुलामी लिखायी है। यहां आपको आत्मा की स्वाधीनता से हाथ धोना पड़ेगा, न्याय और सत्य का गला घोटना पड़ेगा, यही आपकी उन्नति और सम्मान के साधन हैं। मैं तो ऐसे अधिकार पर लात मारता हूँ। यहाँ तो अल्लाहताला भी आसमान से उतर आयें और अन्याय करने को कहे तो उनका हुक्म न मानें।

ज्वालासिंह समझ गये कि यह जले हुए दिल के फफोले है। बोले, अभी ऐसी दूर की ले रहे हो, कल को नामजद हो जाओ, तो यह बातें भूल जायें।

ज्ञानशंकर--हाँ, बहुत सम्भव है, क्योंकि मैं भी तो मनुष्य हैं, लेकिन संयोग से मेरे इस परीक्षा में पड़ने की कोई संम्भावना नहीं है और हो भी तो मैं आत्मा की रक्षा करना सर्वोपरि समझूँगा।

ज्वालासिंह गर्म होकर बोले, आपको यह अनुमान करने का क्या अधिकार है कि और लोग अपनी आत्मा का आपसे कम आदर करते है? मेरा विचार तो यह है कि संसार में रहकर मनुष्य आत्मा की जितनी रक्षा कर सकता है, उससे अधिकार उसे वंचित नहीं कर सकता। अगर आप समझते हो कि वकालत या डाक्टरी विशेष रूप से आत्म-रक्षा के अनुकूल है तो आपकी भूल है। मेरे चचा साहब वकील है, बड़े भाई साहब डाक्टरी करते हैं, पर वह लोग केवल धन कमाने की मशीनें है, मैंने उन्हें कभी असत्-सत् के झगड़े में पढ़ते हुए नहीं पाया?

ज्ञानशंकर--वह चाहे तो आत्मा की रक्षा कर सकते है।

ज्वालासिंह-बस, उतनी ही जितनी कि एक सरकारी नौकर कर सकता है। वकील को ही ले लीजिए, यदि विवेक की रक्षा करे तो रोटियाँ चाहे भले खाय, समृद्धिशाली नहीं हो सकता। अपने पेशे में उन्नति करने के लिए उसे अधिकारियों का कृपा-पात्र बनना परमावश्यक है और डाक्टरों का तो जीवन ही रईसो की कृपा पर निर्भर है, गरीबों से उन्हें क्या मिलेगा। द्वार पर सैकड़ो गरीब रोगी खड़े रहते हैं, लेकिन जहाँ किसी रईस का आदमी पहुँचा, वह उनको छोड़ कर फिटन पर सवार हो जाते है। इसे मैं आत्मा की स्वाधीनता नहीं कह सकता।

इतने में गौस खाँ, गिरधर महाराज और सुक्खू ने कमरे में प्रवेश किया। गौस तो-सलाम करके फर्श पर बैठ गयें, शेष दोनो आदमी खड़े रहे। लाली प्रभाकर बरामदे में बैठे हुए थे। पूछो, असामियों को घी के रुपये बाँट दिये।

गौस खाँ---जी हाँ, हुजूर के इकवाल से सब रुपये तकसीम हो गये, मगर इलाके में चंद आदमी ऐसे सरकश हो गये है कि खुदा की पनाह। अगर उनकी तबीह न की गयी तो एक दिन मेरी इज्जत में फर्क आ जायगा और क्या अजब है कि जान से भी हाथ घोऊँ।

ज्ञानशंकर--(विस्मित हो कर) देहात में भी यह हवा चली?

गौस खाँ ने रोनी सुरत बना कर कहा, हुजूर, कुछ न पूछिए, गिरधर महाराज भाग न खड़े हो तो इनके जान की खैरियत नहीं थी।

ज्ञान−उन आदमियों को पकड़ के पिटवाया क्यों नहीं?

गौस−मैं थानेदार साहब के लिा थैली कहाँ से लाता? ज्ञान-अजी आप लोगों को तो सैकडों हथकडे मालूम है, किसी भी शिकंजे में कस लीजिए?

गौस-हुजूर, मौरूसी असामी है। यह सब जमीदार को कुछ नहीं समझते। उनमे एक का नाम मनोहर है। बीस बीघे जोतता है और कुल ५० रु० लगान देता है। आज उसी आराजी का किसी दूसरे असामी से बदोबस्त हो सकता तो १०० रुपये कही नहीं गये थे।

ज्ञानशंकर ने चचा की ओर देख कर पूछा, आपके अधिकांश असामी दखलदार क्यों कर हो गये?

प्रभाशंकर ने उदासीनता से कहा, जो कुछ किया होगा इन्हीं कारिंदो ने किया होगा, मुझे क्या खबर?

ज्ञानशंकर-(व्यंग से) तभी तो इलाका चौपट हो गया।

प्रभाशंकर ने झुंझला कर कहा, अब तो भगवान की दया से तुमने हाथ-पैर संभाले, इलाके का प्रबंध क्यों नहीं करते?

ज्ञान-आपके मारे जब मेरी कुछ चले तब तो।

प्रभा-मुझसे कसम ले लो, जो तुम्हारे बीच कुछ बोलूं, यह काम करते बहुत दिन हो गये, इसके लिए लोलुप नहीं हूँ।

ज्ञान-तो फिर मैं भी दिखा दूंगा कि प्रबंध से क्या हो सकता है?

इसी समय कादिर खाँ और मनोहर आ कर द्वार पर खड़े हो गये। गौस खाँ ने कहा, हुजूर, यह वही असामी है, जिसका अभी मैं जिक्र कर रहा था।

ज्ञानशंकर ने मनोहर की ओर क्रोध से देखकर कहा, क्यों रे जिस पत्तल मे खाता है उसी मे छेद करता है? १०० रुपये की जमीन ५० रुपये मे जोतता है, उस पर जब थोड़ा सा बल खाने का अवसर पड़ा तो जामे से बाहर हो गया?

मनोहर की जबान बंद हो गयी। रास्ते मे जितनी बाते कादिर खाँ ने सिखायी थी, वह सब भूल गयी।

ज्ञानशंकर ने उसी स्वर मे फिर कहा, दुष्ट कहीं का! तू समझता होगा कि मैं दखलदार हूँ, जमींदार मेरा कर ही क्या सकता है। लेकिन मैं तुझे दिखा दूंगा कि जमींदार क्या कर सकता है? तेरा इतना हियाव है कि तू मेरे आदमियों पर हाथ उठाये?

मनोहर निर्बल क्रोध से कांप और सोच रहा था, मैंने धी के रुपये नही लिये, वह कोई पाप नहीं है। मुझे लेना चाहिए था, दवाव के भय से नहीं, केवल इसलिए कि बड़े सरकार हमारे ऊपर दया रखते थे। उसे लज्जा आयी कि मैंने ऐसे दयाल स्वामी की मात्मा के साथ कृतघ्नना की, किंतु इसका दंड गाली और अपमान नहीं है। उसका अपमानाहत हृदय उत्तर देने के लिए व्यग्र होने लगा। किंतु कादिर ने उसे बोलने का अवसर न दिया। बोला, हुजूर, हम लोगों की मजाल ही क्या है कि सरकार के आदमियों के सामने सिर उठा सके? हाँ, अनपढ़ गंवार ठहरे, बातचीत करने का सहूर नहीं है, उजड्डपन की बाते मुंह से निकल आती है। क्या हम नहीं जानते कि हुजूर चाहे तो आज हमारा ठिकाना न लगे! अब तो यही विनती है कि जो खता हुई, माफी दी जाय।

लाला प्रभाशंकर को मनोहर पर दया आ गयी, सरल प्रकृति के मनुष्य थे। बोले, तुम लोग हमारे पुराने असामी हो, क्या नहीं जानते हो कि असामियों पर सख्ती करना हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं है? ऐसा ही कोई काम आ पड़ता है तो तुमसे बैगार ली जाती है और तुम हमेशा उसे हंसी-खुशी देते रहे हो। अब भी उसी तरह निभाते चलो। नहीं तो भाई, अब जमाना नाजुक है, हमने तो भली-बुरी तरह अपना निभा दिया, मगर इस तरह लड़को से न निभेगी। उनका खून गर्म ठहरा, इसलिए सब संभल कर रहो, चार बात सह लिया करो, जाओ, फिर ऐसा काम न करना। घर से कुछ खा कर चले न होगे। दिन भी चढ़ आया, यही खा-पी कर विश्राम करो, दिन ढले चले जाना।

प्रभाशंकर ने अपने निद्वंद्व स्वभाव के अनुसार इस मामले को टालना चाहा, किंतु ज्ञानशंकर ने उनकी ओर तीन नेत्रों से देख कर कहा, आप मेरे बीच मे क्यों बोलते हैं? इस नरमी ने तो इन आदमियों को शेर बना दिया है। अगर आप इस तरह मेरे कामों में हस्तक्षेप करते रहेगें तो मैं इलाके का प्रबंध कर चुका। अभी आपने वचन दिया है कि इलाके से कोई सरोकार न रखूंगा। अब आपको बोलने का कोई अधिकार नहीं है।

प्रभाशंकर यह तिरस्कार न सह सके, रुष्ट होकर बोले, अधिकार क्यों नहीं है? क्या मैं मर गया हूँ?

ज्ञानशंकर-नहीं, आप को कोई अधिकार नहीं है। आपने सारा इलाका चौपट कर दिया, अब क्या चाहते है कि जो बचा-खुचा है, उसे धूल में मिला दे।

प्रभाशंकर के कलेजे में चोट लग गयी। बोले, बेटा। ऐसी बातें करके क्यों दिल दुखाते हो? तुम्हारे पूज्य पिता मर गये, लेकिन कभी मेरी बात नहीं दुलखी। अब तुम मेरी जबान बंद कर देना चाहते हो, किंतु यह नहीं हो सकता कि अन्याय देखा करूं और मुंह न खोलें। जब तक जीवित हूँ, तुम यह अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते।

ज्वालासिंह ने दिलासा दिया, नहीं साहब, आप घर के मालिक हैं, यह आपकी गोद के पले हुए लड़के हैं, इनको अबोध बातों पर ध्यान न दीजिए। इनकी भूल है जो कहते है कि आपका कोई अधिकार नहीं है। आपको सब कुछ अधिकार है, आप घर के स्वामी है।

गौस खां ने कहा, हुजूर का फर्माना बहुत दुरुस्त है। आप खानदान के सरपरस्त और मुरब्बी हैं! आपके मन्सब से किसे इनकार हो सकता है?

ज्ञानशंकर समझ गये कि ज्यालासिंह ने मुझसे बदला ले लिया, उन्हें यह खेद हुआ कि ऐसी अविनय मैंने क्यों की! खेद केवल यह था कि ज्वालासिंह यहाँ बैठे थे और उनके सामने वह असज्जनता नही प्रकट करना चाहते थे। बोले, अधिकार से मेरा वह आशय नहीं था जो आपने समझा। मैं केवल यह कहना चाहता था कि जब आपने  इलाके का प्रबंध मेरे सुपुर्द कर दिया है तो मुझी को करने दीजिए। यह शब्द अनायास मेरे मुंह से निकल गया। मैं इसके लिए बहुत लज्जित हैं। भाई ज्वालासिंह, में चचा साहब का जितना अदब करता हूँ उतना अपने पिता को भी नहीं किया। मैं स्वयं गरीब आदमियों पर सख्ती करने का विरोधी हूँ। इस विषय मे आप मैरे विचारों से भली भाँति परिचित हैं। किंतु इसका यह आशय नहीं है कि हम दीनपालन की धुन में इलाके से ही हाथ धो बैठे? पुराने जमाने की बात और थी। तब जीवन संग्राम इतना भयंकर न था, हमारी आवश्यकताएँ परिमित थी, सामाजिक अवस्था इतनी उन्नत न थी और सब से बड़ी बात तो यह है कि भूमि का मूल्य इतना चढ़ा हुआ न था। मेरे कई गाँव जो दो-दो हजार पर बिक गये हैं, उनके दाम आज बीस हजार लगे हुए हैं। उन दिनों असामी मुश्किल से मिलते थे, अब एक टुकड़े के लिए सौ-सौ आदमी मुँह फैलाये हुए हैं। यह कैसे हो सकता है कि इस आर्थिक दशा का असर जमींदार पर न पड़े।

लाला प्रभाशंकर को अपने अप्रिय शब्द का बहुत दुख हुआ, जिस भाई को वह देवतुल्य समझते थे, उसी के पुत्र से द्वेष करने पर उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। बोले, भैया, इन बातों को तुम जितना समझोगे मैं बूढ़ा आदमी उतना क्या समझूँगा? तुम घर के मालिक हो। मैंने भूल की कि बीच में कूद पड़ा। मेरे लिए एक टुकड़ा रोटी के सिवा और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। तुम जैसे चाहो वैसे घर को सँभालो।

थोड़ी देर तक सब लोग चुप-चाप बैठे रहे। अंत में गौस खाँ ने पूछा, हुजूर, मनोहर के बारे में क्या हुक्म होता है?

ज्ञानशंकर−इजाफा लगान का दावा कीजिए?

कादिर-सरकार, वह गरीब आदमी है, मर जायेगा।

ज्ञानशंकर---अगर इसकी जोत में कुछ सिकमी जमीन हो तो निकाल लीजिए।

कादिर-सरकार, बेचारा बिना मारे मर जायगा।

ज्ञानशंकर- उसकी परवाह नहीं, असामियों की कमी नहीं है।

कादिर-हुजूर....

ज्ञानशंकर—चुप रहो, मैं तुमसे हुज्जत नहीं करना चाहता।

कादिर--सरकार, जरा....

ज्ञानशंकर---बस, कह दिया कि जबान मत खोलो।

मनोहर अब तक चुपचाप खड़ा था। प्रभाशंकर की बात सुनकर उसे आशा हुई थी कि यहाँ आना निष्फल नहीं हुआ। उनकी विनयशीलता ने वशीभूत कर लिया था। ज्ञानशंकर के कटु व्यवहार के सामने प्रभाशंकर की नम्रता उसे देवोचित प्रतीत होती थी। उसके हृदय में उत्कंठा हो रही थी कि अपना सर्वस्व लाकर इनके सामने रख दें और कह दें कि यह मेरी ओर से बड़े सरकार की भेंट है। लेकिन ज्ञानशंकर के अंतिम शब्दों ने इन भावना को पद-दलित कर दिया। विशेषतः कादिर मियाँ का अपमान उसे असह्य हो गया। तेवर बदल बोला, दादा, इस दरबार से अब दया धर्म उठ गया। चलो, भगवान की जो इच्छा होगी, वह होगा। जिसने मुंह चीरा है। बह् खाने को भी देगा। भीख नहीं तो परदेश तो कहीं नहीं गया है?

यह कह कर उसने कादिर का हाथ पकड़ा और उसे जबरदस्ती खींचता हुआ दीवानखाने से बाहर निकल गया। ज्ञानशंकर को इस समय इतना क्रोध आ रहा था। कि यदि कानून का भय न होता तो वह उसे जीता चुनवा देते। अगर इसका कुछ अंश मनोहर को डाँटने-फटकारने में निकल जाता तो कदाचित् उनकी ज्वाला कुछ शांत हो जाती, किंतु अब हृदय में खौलने के सिवा उनके निकलने का कोई रास्ता न था। उनकी दशा उस बालक की-सी हो रही थी, जिसका हमजोली उसे दाँत काट कर भाग गया हो। इस ज्ञान से उन्हें शांति न होती थी कि मैं इस मनुष्य के भाग का विघाता हैं, आज इसे पैरों तले कुचल सकता हूँ। क्रोध को दुर्वचन से विशेष रुचि होती है।

ज्वालासिंह मौनी बने बैठे थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि ज्ञानशंकर में इतनी दयाहीन स्वार्थपरता कहाँ से आ गयी? अभी क्षण भर पहले यह महाशय न्याय और लोक-सेवा का कैसा महत्त्वपूर्ण वर्णन कर रहे थे। इतनी ही देर में यह कायापलट। विचार और व्यवहार में इतना अंतर? मनोहर चला गया तो ज्ञानशंकर से बोले, इजाफा लगान का दावा कीजिएगा तो क्या उसकी ओर से उज़्रदारी न होगी? आप केवल एक असामी पर दावा नहीं कर सकते।

ज्ञानशंकर-हाँ, यह बात ठीक कहते हैं। खाँ साहब, आप उन असामियों की एक सूची तैयार कीजिए, जिन पर कायदे के अनुसार इजाफा हो सकता है। क्या हरज है, लगे हाथ सारे गाँव पर दावा हो जाय?

ज्वालासिंह ने मनोहर की रक्षा के लिए यह शंका की थी। उसका सह विपरीत फल देख कर उन्हें फ़िर कुछ कहने का साहस न हुआ} उठ कर ऊपर चले गये।