प्रेमाश्रम/३२

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद
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३२

डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रेमशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे । इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसेन ने कमरे में प्रवेश किया और ज्वालासिंह को देखते ही सलाम करके उनके सामने खड़े हो गये। उनके साथ एक हिन्दू युवक और भी था जो चाल ढाल से धनाढ्य जान पड़ता था ।

ज्वालासिंह--बोले, आइए-आइए ! मिजाज तो अच्छा हैं ? आजकल किसकी पेशी में हैं ?

ईजाद--जब से हुजूर तशरीफ ले गये, मैंने भी नौकरी को सलाम किया । जिन्दगी शिकमपर्वरी में गुजर जाती थी । इरादा हुआ कुछ दिन कौम की खिदमत करूँ। इसी गरज से अंजुमन इत्तहाद खोल रखी है। उसका मकसद हिन्दू मुसलमानों में मेल-जोल पैदा करना है। मैं इसे कौम का सबसे अहम (महत्त्वपूर्ण) मसला समझता हूँ। दोनों साहब अगर अंजुमन को अपने कदमों से मुमताज फरमायें तो मेरी खुशनसीबी ही है ।

ज्वाला--आप वाकई कौम की सच्ची खिदमत कर रहे हैं।

ईजाद--शुक्र है, जनाब की जबान से यह कलाम निकला। यहाँ मुझे मियाँ "इत्तहाद” कह कर मेरा मजाक उड़ाया जाता है। अंजुमन पर आवाजें कसी जाती हैं । मुझे खुदमतलब और खुदगरज कहा जाता है। यह सब जिल्लत उठाता हूँ। दोनों कौमों के बाहमी निफाक को देखता हूँ तो जिगर के टुकड़े हो जाते हैं। वह मुहब्बत और एखलाक जिस पर कौम की हस्ती कायम है, रोज-बरोज गायब होती जाती है। अगर एक हिन्दू इसलाम पर यकीन लाता है तो शोर मच जाता है कि हिन्दू कौम तबाह हुई जाती है। अगर एक हिन्दू कोई ऊँचा ओहदा पा जाता है तो मुसलमानों में 'हाय ! हाय !' की सदा उठने लगती है। कोई कहता है इसलाम गारत हुआ; कोई कहता है इसलाम की किश्ती भँवर में पड़ी । लाहौल विला कूअत ! मजहब रूहाना तसकीन और नजात का जरिया है न कि दुनिया के कमाने का ढकोसला । इस बाहमी कुदूरत को हमारे मुल्ला और पण्डित और भी भड़काते हैं। मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती की सदा है। पर कौमी दर्द, कौमी गैरत चुप नहीं बैठने देती । गला फाड़-फाड़ चिल्लाता हूँ, कोई सुने या न सुने । अंजुमन में इस वक्त सौ मेम्बर हैं । कोई सत्तर हिन्दू साहबान हैं और तीस मुसलमान । उनके इन्तजाम से एक कुतुब-खाना और मदरसा चलता है। अंजुमन का इरादा है कि एक इत्तहादी इबादतगाह बनाया जाय, जिसके एक जानिब शिवाला हो और दूसरे जानिब मस्जिद । एक यतीमखाने की बुनियाद डाल दी गयी है। दोनों कौमों के यतीमों को दाखिल किया जाता है। मगर अभी तक इमारतें नहीं बन सकीं । यह सब इरादे रुपये के मुहताज हैं । फकीर ने तो अपना सेव कुछ निसार कर दिया। अब कौम को अख्तियार है, उसे चलाये या बन्द कर दे। क्यों डाक्टर साहब, मेरा हिब्बनामा आपने तैयार फरमाया ? [ २२५ ]

इर्फान अली--कोई तातील आये तो इतमीनान से आपका काम करूँ।

प्रेमशकर ने श्रद्धाभाव मे कहा, सैयद साहब की जात कौम के लिए वर्कत है। अजुमन के लिए १०० रु० की हकीर रकम नजर करता हूँ और यतीमखाने के लिए ५० मन गेहूँ, ५ मन शक्कर और २० रू माहवार ।

ईजाद हुसेन--खुदा आपको सवाव अता करे। अगर इजाजत हो तो जनाब का नाम भी ट्रस्टियों में दाखिल कर लिया जाय ।

प्रेमशकर--मैं इस इज्जत के लायक नहीं हूँ।

ईजाद--नही जनाब, मेरी यह इल्तजा आपको कबूल करनी होगी। खुदा ने आपको एक दर्दमन्द दिल अता किया है। क्यों नहीं, आप लाला जटायफर मरहूम के ललक हैं जिनकी गरीबपरवरी से सारा शहर मालामाल होता था। यतीम आपको दुआएँ देंगे और अजुमन हमेशा आपकी ममनून रहेगी।

इर्फान अली ने ज्वालासिंह से पूछा, आपका कयाम यहाँ कब तक रहेगा ?

ज्वाला--कुछ अर्ज नहीं कर सकता। आया तो इस इरादे में हैं कि बाबू प्रेमशकर की गुलामी मे जिन्दगी गुजार दूँ। मुलाजमत से इस्तीफा देना तै कर चुका हूँ ।

इर्फान अली-वल्लाह । आप दोनो साहब बड़े जिन्दादिल है । दुआ कीजिए कि खुदा मुझे भी कनाअत (सन्तोष) की दौलत अता करे और मैं भी आप लोगों की सोहवत से फैज उठाऊँ ।

ज्वालासिंह ने मुस्करा कर कहा, हमारे मुलाजिमो को बरी करा दीजिए, तब हम शवोरोज आपके लिए दुआएँ करेंगे ।

इर्फान अली हँस कर बोले, शर्त तो टेढ़ी हैं, मगर मजूर है। डाक्टर चौपडा का बयान अपने मुआफिक हो जाय तो बाजी अपनी है ।

ईजाद--अब जरा इस गरीब की भी खबर लीजिए । मेरे मुहल्ले में रहते है । कपडे की बड़ी दूकान है। इनके बड़े भाई इनमे बेरुग्बी से पेश आते है। इन्हें जेब खर्च के लिए कुछ नहीं देने । हिसाब भी नहीं दिखाते, मारा नफा खुद हजम कर जाते है। कल इन्हें बहुत सस्त सुस्त कहा। जब इनका आधा हिस्सा है, तो क्यों न अपने हिस्से का दावा करें। यह बालिग है, अपना फायदा नुकसान समझते है, भाई की रोटियो पर नहीं रहना चाहते । बोलो, भाई मथुरादाम, बारिस्टर साहब से कहो क्या कहते हो ।

मथुरादास में जमीन की तरफ देखा और ईजाद हुसेन की ओर कनखियो में ताफते हुए बोले--मैं यहीं चाहता हूँ कि भैया से आप मेरी राजी-खुशी कर दे। कल मैंने उन्हें गाली दे दी थी। अब वह कहते हैं, तु ही घर सँभाल, मुझमे कोई वास्ता नहीं । कुजिया सब फेक दी है और दूकान पर नहीं जाते ।

ईजादहुसेन ने मथुरादास की ओर बक्दृन्टि में देख कर कहा, साफ-साफ अपना मतलब क्यों नहीं कहते ? आप इनकी मन्शा समझ गये होगे। अभी नानजुर्बेकार

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[ २२६ ]आदमी, बातचीत करने की तमीज नही है, जभी तो रोज धक्के खाते है। इनकी मन्शा है कि आप दावा दायर करें, लेकिन यह मामले को तूल नही देना चाहते, सिर्फ अलहदा होना चाहते हैं। क्यो ठीक है न ?

मथुरादास--(सरल भाव से) जी हाँ, बस यही चाहता हूँ कि उनसे मेरी राजी-खुश हो जाय ।

मुन्शी रमजानअली मुहर्रिर थे । ईजादहुसेन मथुरादाम को उनके कमरे में ले गये। वहाँ खासा दफ्तर था। कई आदमी बैठे लिख रहे थे । रमजान अली ने पूछा, कितने का दावा होगा ?

ईजाद--यही कोई एक लाख का ।

रमजान अली ने वकालतनामा लिखा । कोर्ट फीस, तलवाना, मेहनताना, नजराना आदि वसूल किये, जो मथुरादास ने ईजाद हुसेन की ओर अविश्वास की दृष्टि से देखते हुए दिये, जैसे कोई किसान पछता-पछता कर दक्षिणा के पैसे निकालता है। और तब दोनों सज्जनो ने घर की राह ली।

रास्ते मे मथुरादास ने कहा, अपने जबरदस्ती मुझे भैया से लड़ा दिया। सैकडौ रुपये की चपत पड गयी और अभी कोर्ट फीस बाकी ही है।

ईजाद हुसेन बोले, एहसान तो न मानोगे कि भाई की गुलामी से आजाद होने का इन्तजाम कर दिया । आधी दूकान के मालिक बन कर बैठोगे, उल्टे और शिकायत करते हो ।