प्रेमाश्रम/३३

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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३३

डाक्टर प्रियनाथ चोपडा बहुत ही उदार, विचारशील और सहृदय सज्जन थे ! चिकित्सा का अच्छा ज्ञान था और सबसे बड़ी बात यह है कि उनका स्वभाव अत्यन्त कोमल और नम्र था। अगर रोगियों के हिस्से की शाक-भाजी, दूध-मक्खन, उपले-ईंधन को एक भाग उनके घर में पहुँच जाता था तो यह केवल वहाँ की प्रथा थी । उनके पहले भी ऐसा ही व्यवहार होता था। उन्होंने इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत न समझी। इसलिए उन्हें कोई बदनाम न कर सकता था और न उन्हें स्वय ही इसमें कुछ दूषण दिखायी देता था। वह कम वेतनवाले कर्मचारियों से केवल आधी फीस लिया करते थे और रात की फीस भी मामूली ही रखी थी । उनके यहाँ सरकारी चिकित्यालय से मुफ्त दबा मिल जाती थी, इसीलिए उनकी अन्य डाक्टरों से अधिक चलती थी । इन कारणों से उनकी आमदनी बहुत अच्छी हो गयी थी। तीन साल पहले वह यहाँ आये थे तो पैरगाड़ी पर चलते थे, अब एक फिटन थी । बच्चों को हवा खिलाने के लिए छोटी-छोटो सेजगाडियाँ थी। फर्निचर और फर्शे आदि अस्पताल के ही थे । नौकरो का वेतन भी गाँठ से न देना पड़ता था। पर इतनी मितव्ययिता पर भी वह अपनी अवस्था की तुलना जिले के सब-इजीनियर या कतिपय वकीलो से करते थे तो [ २२७ ]उन्हें विशेष आनन्द न होता था। यद्यपि उन्हें कभी-कभी ऐसे अवसर मिलते थे जो उनकी आर्थिक कामनाओं को सफल कर सकते थे, पर उनकी विचारशीलता भी उन्हें बहकने न देती थी । कालेज छोड़ने के बाद कई वर्ष तक उन्होंने निर्भीकता से अपने कुर्तव्य का पालन किया था, लेकिन जब कई बार पुलिस के विरुद्ध गवाही देने पर मुँह की खानी पड़ी तो चेत गये । वह नित्य पुलिस का रुख देख कर अपनी नीति स्थिर किया करते थे तिसपर भी अपने निदानों को पुलिस की इच्छा के अधीन रखने में उन्हें मानसिक कष्ट होता था । अतएव जब गौस खाँ की लाश उनके पास निरीक्षण के लिए भेजी गयी तो वह बड़े असमंजस में पड़े । निदान कहता था कि यह एक व्यक्ति का काम है, एक ही बार में काम तमाम हुआ है, किन्तु पुलिस की धारणा थी कि यह एक गुट्ट का काम है। वेचारे बड़ी दुविधा में पड़े हुए थे। यह महत्त्वपूर्ण अभियोग था । पुलिस ने अपनी सफलता के लिए कोई बात उठा न रखी थी। उसका खंडन करना उससे बैर मोल लेना था और अनुभव से सिद्ध हो गया था कि यह बहुत मँहगा सौदा है । गुनाह था मगर वेलज्जत। कई दिन तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे; पर बुद्धि कुछ काम न करती थी। इसी बीच में एक दिन ज्ञानशंकर उनके पास रानी गायत्री देवी का एक पत्र और ५०० रु० पारितोपिक ले कर पहुँचे । रानी महोदया ने उनकी कीर्ति सुन कर अपनी गुण-ग्राहकता का परिचय दिया था। उनसे शिशु-पालन पर एक पुस्तक लिखवाना चाहती थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें अपना गृह चिकित्सक भी नियत किया था और प्रत्येक 'विजिट' के लिए १०० रु० का वादा था । डाक्टर साहब फूले न समाये । ज्ञानशंकर की ओर अनुग्रहपूर्ण नेत्रों से देख कर बोले, श्रीमती जी की इस उदार गुणग्राहकता का धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। आप मुझे अपना सेवक समझिए । यह सब आपकी कृपादृष्टि है, नहीं तो मेरे जैसे हजारों डाक्टर पड़े हुए हैं । ज्ञानशंकर ने इसका यथोचित उत्तर दिया। इसके बाद देश-काल सम्बन्धी विषयों पर वार्तालाप होने लगा । डाक्टर साहब का दावा था कि मैं चिकित्सा में आई० एम० एस० वालों से कहीं कुशल हूँ और ऐसे असाध्य रोगियों का उद्धार कर चुका हूँ जिन्हें मर्वज्ञ आई० एम० एस० बालों ने जवाब दे दिया था। लेकिन फिर भी मुझे इस जीवन में इस पराधीनता से मुक्त होने की कोई आशा नहीं । मेरे भाग्य में विलायत के नवशिक्षित युवकों की मातहती लिखी हुई है।

ज्ञानशंकर ने इसके उत्तर में देश की राजनीतिक परिस्थिति का उल्लेख किया । चलते समय उनसे बडे निःस्वार्थ भाव से पूछा, लखनपुर के मामले में आपने क्या निश्चय किया ? लाश तो आपके यहाँ आयी होगी ?

प्रियनाथ--जी हाँ, लाश आयी थी। चिह्न से तो यह पूर्णतः सिद्ध होता है कि यह केवल एक आदमी का काम है, किन्तु पुलिस इसमें कई आदमियों को घसीटना चाहती है। आपसे क्या छिपाऊँ, पुलिस को असन्तुष्ट नहीं कर सकता, लेकिन यों निरपराबियों को फँसाते हुए आत्मा को घृणा होती है।

ज्ञानशंकर-–सम्भव है आपने चिह्न से जो राय स्थिर की है वहीं मान्य हो, लेकिन [ २२८ ]वास्तव में यह हत्या कई आदमियो की साजिशो से हुई है। लखनपुर मेरा ही गाँव है।

प्रियनाथ--अच्छा, लखनपुर आपका ही गाँव है। तो यह कारिन्दा आपका नौकर था ?

ज्ञान--जी हाँ, और बड़ा स्वामिभक्त, अपने काम मे कुशल । गाँववालो को उससे केवल यही चिढ थी कि वह उनसे मिलता न था। प्रत्येक विषय में मेरे ही हानि-लाभ का विचार करता था। यह उसकी स्वामिभक्ति का दड है। लेकिन मैं इस घटना को पुलिस की दृष्टि से नही देखता। हत्या हो गयी, एक ने की या कई आदमियो ने मिल कर की। मेरे लिए यह समस्या इससे कही जटिल हैं। प्रश्न जमीदार और किसानो का है। अगर हत्याकारियों को उचित दड न दिया गया तो इस तरह की दुर्घटनाएँ आये दिन होने लगेगी और जमीदारों को अपनी जान बचाना कठिन हो जायगा ।

प्रस्तुत प्रश्न को यह नया स्वरूप दे कर ज्ञानशकर विदा हुए । यद्यपि हत्या के सबध मे डाक्टर साहब की अब भी वही राय थी, लेकिन अब यह गुनाह बेलज्जत न था। ५०० रू का पारितोषिक १०० रू फीस, साल मे हजार दस हजार मिलते रहने की आशा, उसपर पुलिस की खुशनूदी अलग। अब आगे-पीछे की जरूरत न थी। हाँ, अब अगर भय था तो डाक्टर इर्फान अली की जिरहो का । डाक्टर साहब की जिरह प्रसिद्ध थी। अतएव प्रिंयनाथ ने इस विषय के कई ग्रन्थो का अवलोकन किया और अपने पक्षसमर्थन के तत्त्व खोज निकाले। कितने ही बेगुनाहो की गर्दन पर छुरी फिर जायेगी इसकी उन्हें एक क्षण के लिए भी चिन्ता न हुई। इस ओर उनका ध्यान ही न गया। ऐसे अवसरों पर हमारी दृष्टि कितनी सकीर्ण हो जाती है ?

दिन के दस बजे थे। डाक्टर महोदय ग्रन्थों की एक पोटली ले कर फिटन पर सवार हो कचहरी चले। उनका दिल धड़क रहा था। जिरह में उखड जाने की शका लगी हुई थी। वहाँ पहुँचते ही मैजिस्ट्रेट ने उन्हें तलब किया। जब वह कटघरे के सामने आ कर खड़े हुए और अभियुक्तों को अपनी ओर दीन नेत्रो से ताकते देखा तो एक क्षण के लिए उनका चित्त अस्थिर हो गया। लेकिन यह एक क्षणिक आवेग था, आया और चला गया। उन्होने बड़ी तात्त्विक गभीरता और मर्मज्ञतापूर्ण भाव से इस हत्या- काड़ का विवेचन किया। चिह्नों से यह केवल एक आदमी का काम मालूम होता है। लेकिन हत्याकारियो ने बड़ी चालाकी से काम लिया है। इस विषय में वे बड़े सिद्धहस्त है। मृत्यु का कारण कुल्हाडी या गँडासे का आघात नहीं है, बल्कि गले का घोटना है और कई आदमियों की सहायता के बिना गौस खाँ जैसे बलिष्ठ मनुष्य का गला घोटना असम्भव है। प्राणान्त हो जाने पर एक वार से उसकी गर्दन काट ली गयी है जिसमें यह एक ही व्यक्ति का कृत्य समझा जाय।

इर्फान अली की जिरह शुरू हुई ।

'आपने कौन सा इम्तहान पास किया है ?'

“मैं लाहौर का एल० एम० एस० और कलकत्ते का एम० वी० हूँ ?"

‘आपकी उम्र वया है ?' [ २२९ ]

'चालीस वर्ष ।'

'आपका मकान कहाँ है ?'

'दिल्ली ।'

'आपकी शादी हुई है ? अगर हुई है तो औलाद है या नही ?'

'मेरी शादी हो गयी है और कई औलाद है।'

'उनकी परवरिश पर आपका माहवार कितना खर्च होता है ।'

इर्फान अली यह प्रश्न ऐसे पाडित्य-पूर्ण स्वाभिमान से पूछ रहे थे, मानो इन्ही पर मुकदमे का दामदार है। प्रत्येक प्रश्न पर ज्वालासिंह की ओर गर्व के साथ देखते मानो उनसे अपनी प्रखर नैयायिकता की प्रशसा चाहते है। लेकिन इन अन्तिम प्रश्न पर मैजिस्ट्रेट ने एतराज किया, इस प्रश्न से आप का क्या अभिप्राय है ?

इर्फान अली ने गर्व से कहा--अभी मेरा मन्शा जाहिर हुआ जाता है।

यह कह कर उन्होंने प्रियनाथ से जिरह शुरु की । बेचारे प्रियनाथ मन में सहमे जाते थे। मालूम नहीं यह महाशय मुझे किस जाल में फॉस रहे है।

इर्फान अली--आप मेरे आखिरी सवाल का जवाब दीजिए ?

'मेरे पास उसका कोई हिसाब नहीं है।'

'आपके यहाँ माहवार कितना दूध आता है और उसकी क्या कीमत पडती हे ?'

‘इसका हिसाब मेरे नौकर रखते हैं।'

‘घीं पर माहवार क्या खर्च होता है ?'

'मैं अपने नौकरी से पूछे वगैर इन गृह-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता।'

इर्फान अली ने मैजिस्ट्रेट से कहा, मेरे सवालो के काविल इतमीनान जवाब मिलने चाहिए।

मैजिस्ट्रेट--मैं नही समझता कि इन सवालो मे आपकी मन्शा क्या है ?

इर्फान अली--मेरा मन्या गवाह की एखलाकी हालत का परदा फाश करना है। इन सवालो से मैं यह साबित कर देना चाहता हूँ कि वह बहुत ऊँचे वसूली का आदमी नहीं है।

मैजिस्ट्रेट--मैं इन प्रश्नो को दर्ज करने से इन्कार करता हूँ।

इर्फान अली--तो मै भी जिरह करने से इन्कार करता हूँ।

यह कह कर बारिस्टर साहब इजलास से बाहर निकल आये और ज्वालासिंह से बोले, आपने देखा, यह हजरत कितनी बेजा तरफदारी कर रहे है । वल्लाह । मै डाक्टर साहूब के लते उड़ा देता । यहाँ ऐसी-वैसी जिरह न करते । मैं साफ साबित कर देता कि जो आदमी छोटी-छोटी रकमो पर गिरता है वह ऐसे बडे मामले में वेलौस नही रह सकता। कोई मुजायका नही। दीवानी में चलने दीजिए, वहाँ इनकी खबर लूँगा।

इसके एक घटा पीछे मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया--सर्व अभियुक्त सेशन सुपुर्द ।

सन्ध्या हो गयी थी। ये विपत्ति के मारे फिर हवालात चले । सवो के मुख पर [ २३० ]उदासी छायी हुई थी। प्रिंयनाथ के बयान ने उन्हें हताश कर दिया था। वह यह कल्पना भी नही कर सकते थे कि ऐसा उच्च पदाधिकारी प्रलोभनो के फेर में पड़ कर असत्य की ओर जा सकता है। सभी गर्दन झुकाये चले जाते थे। अकेला मनोहर रो रहा था ।

इतने में प्रियनाथ की फिटने सड़क से निकली। अभियुक्तो ने उन्हे अवहेलनापूर्ण नेत्रों में देखा । मानो कह रहे थे, 'आपको हम दीन-दुखियो पर तनिक भी दया न आयी ।' डाक्टर साहब ने भी उन्हें देखा, आँखों में ग्लानि का भाव झलक रहा था।