प्रेमाश्रम/३५

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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३५

सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था । इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बडी निर्भीक दृढता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की और यदि जनता को अधिकार होता तो अन्य अभियुक्तो का बेदाग छूट जाना निश्चित था, किंतु अदालत जाब्ते और नियमों के बन्धन में जकड़ी हुई थी। वह जान कर अनजान बनने पर बाध्य थी । मनोहर के अन्तिम वाक्य बडे मार्मिक थे—सरकार, माजरा यही हैं जो मैंने आपसे अरज किया । मैंने गौस खाँ को इसी कुल्हाड़ी से और इन्हीं हाथ से मारा । कोई मेरा साथी, सलाहकार, मेरा मददगार नही था । अब आपको अख्तियार है, चाहे सारे गाँव को फाँसी पर चढा दे, चाहे कालेपानी भेज दें, चाहे छोड़ दे। फैजू, बिसेसर, दारोगा ने जो कुछ कहा है, सब झूठ है। दारोगा जी की बात तो मैं नहीं चलाता, पर सरकार, फैजू और बिसेसर को अपने घर पर बुलाये और दिलासा दे कि पुलिस तुम्हारा कुछ न कर सकेगी तो मेरी सच झूठ की परख हो जाय और मैं क्या कहूँ । उन लोगों को काठ का कलेजा होगा जो इतने गरीबो को बेकसूर फाँसी पर चढवाये देते हैं। भगवान झूठ-सच सब देखते हैं। बिसेसर और फैजू की तो थोडी औकात है और दारोगा जी झूठ की रोटी खाते हैं, पर डाक्टर साहब इतने बड़े आदमी और ऐसे बड़े विद्वान् कैसे झूठी गगा में तैरने लगे, इसका मुझे अचरज है। इसके सिवा और क्या कहा जाय कि गरीबो को नसीब ही खोटा है कि बिना कसूर किये फाँसी पाते है। अब सरकार से और पचो से यही विनती है कि तुम इस घडी न्याय के आसन पर बैठे हो, अपने इन्साफ से दूध का दूध और पानी का पानी कर दो।

अदालत उठी। यह दुखियारे हवालात चले। और सभी ने तो मन को समझा लिया था कि भाग्य में जो कुछ बदा है वह हो कर रहेगा, पर दुखरन भगत की छाती पर सॉप लोटता रहता था। उसे रह-रह कर उत्तेजना होती थी कि अवसर पाऊँ तो मनोहर को खूब आडे हाथों लूँ । किंतु मजबूर था, क्योकि मनोहर सबसे अलग रखा जाता था। हाँ, वह बलराज को ताना दे-दे कर अपने चित्त की दाह को शान्त किया करता था । आज मनोहर का बयान सुन कर उसे और भी चिढ हुई । जब चिडिया खेत चुन गयी तो यह हाँक लगाने चले है । उस घडी अकल कहाँ चली गयी थी, जब एक जरा सी बात पर कुल्हाडा बाँध कर घर से चले थे । इस समय मार्ग में उसे मनोहर पर अपना क्रोध उतारने का मौका मिल गया। बोला--आज क्या झूठ-मूठ बकवाद कर रहे थे । आदमी को तीर चलाने के पहले ही सोच लेना चाहिए कि वह किसको लगेगा । जब तीर कमान से निकल गया तो फिर पछताने से क्या होता हैं ? तुम्हारे कारण सारा गाँव [ २३४ ]चौपट हो गया। अनाथ लडको और औरतो की कौन सुध लेनेवाला है ? बेचारे रोटियो को तरसते होगे । तुमने सारे गाँव को मटियामेट कर दिया।

मनोहर को स्वय आठो पहर यही शोक सताया करता था। गौस खाँ का बध करते समय भी उसे यही चिंता थी। इसलिए उसने खुद थाने में जा कर अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। गाँव को आफत से बचाने के लिए उसके किये जो कुछ हो सकता था वह उसने किया और उसे दृढ विश्वास था कि वाहे मुझे दुष्कृत्य पर कितना ही पश्चात्तप हो रहा हो, अन्य लोग मुझे क्षम्य ही न समझते होगे, मुझसे सहानुभूति भी रखते होगे । मुझे जलाने के लिए अन्दर की आग क्या कम है किं ऊपर से भी तेल छिडका जाय । वह दुखरन की ये कटु बातें सुन कर विलविला उठा, जैसे पके हुए फोडे मे ठेस लग जाय। कुछ जवाब न दे सका।

आज अभियुक्तो के लिए प्रेमशकर ने जेल के दारोगा की अनुमति से कुछ स्वादिष्ट भोजन बनवा कर भेजे थे। अपने उच्च सिद्धान्त के विरुद्ध वह जेलखाने के छोटे-छोटे कर्मचारियों की भी खातिर-खुशामद किया करते थे, जिसमें वे अभियुक्तो पर कृपा दृष्टि रखें। जीवन के अनुभवों ने उन्हे बतला दिया था कि सिद्धान्तों की अपेक्षा मनुष्य अधिक आदरणीय वस्तु है। औरो ने तो इच्छापूर्ण भोजन किया, लेकिन मनोहर इस समय हृदय ताप से विकल था । उन पदार्थों की रुचि-वर्द्धक सुगन्धि भी उसकी क्षुधा को जागृत न कर सकी। आज वह शब्द उसके कानो मे गूँज रहे थे जो अब तक केवल हृदय में ही सुनायी देते थे--तुम्हारे कारण सारा गाँव मटियामेट हो गया, तुमने सारे गाँव को चौपट कर दिया । हा, यह कलक मेरे माथे पर सदा के लिए लग गया, अब यह दाग कभी न छूटेगा । जो अभी बालक है वे मुझे गालियाँ दे रहे होगे । उसके बच्चे मुझे गाँव का द्रोही समझेंगे । जव मरद के यह विचार है, जो सब बाते जानते है, जिन्हें भली-भाँति मालूम है कि मैने गाँव को बचाने के लिए अपनी ओर से कोई बात उठा नहीं रखी और जो यह अन्धेर हो रहा है वह समय का फेर है, तो भला स्त्रियाँ क्या कहती होगी, जो बेसमझ होती है । बेचारी विलासी गाँव में किसी को मुँह न दिखा सकती होगी। उसका घर से निकलना मुश्किल हो गया होगा और क्यों न कहे ? उनके सिर पर बीत रही है तो कहेगे क्यो न ? अभी तो अगहनी घर में खाने को हो जायगी, लेकिन खेन तो बोये न गये होगे । चैत में जब एक दाना भी ने उपजेगा, बाल-बच्चे दाने-दाने को रोयेगें तब उनकी क्या दशा होगी । मालूम होता है इस कम्बल में खटमल हो गये है, नीचे डालते है, और यह रोना साल दो साल का नहीं है, कही सब काले पानी भेज दिये गये तो जन्म भर का रोना है। कादिर मियाँ का लडक़ा तो घर सँभाल लेगा, लेकिन और सभी तो मिट्टी में मिल जायेंगे और यह सब मेरी करनी को फल है ।

सोचते-सोचते मनोहर को झपकी आ गयी। उसने स्वप्न देखा कि एक चौड़े मैदान में हजारो आदमी जमा है । फाँसी खडी है और मुझे फाँसी पर चढ़ाया जा रहा है। हजारी आँखें मेरी ओर धृणा की दृष्टि से ताक रही है। चारो तरफ से यही ध्वनि [ २३५ ]आ रही है, इसी ने सारे गाँव को चौपट किया । फिर उसे ऐसी भावना हुई कि मर गया हूँ और कितने ही भूत-पिशाच मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं और कह रहे हैं कि इसी ने हमे दाने-दाने को तरसा कर मार डाला, यही पापी है, इसे पकड़ कर आग में झोंक दी । मनोहर के मुख से सहसा एक चीख निकल आयी । आँखें खुल गयी । कमरा खुब अँधेरा था, लेकिन जागने पर भी वही पैशाचिक भयकर मूर्तियाँ उसके चारों तरफ मँडराती हुई जान पड़ती थी। मनोहर की छाती बडे वेग से धड़क रही थी। जी चाहता था, बाहर निकल भागे, किन्तु द्वार बन्द थे ।

अकस्मात् मनोहर के मन मे यह विचार अकुरित हुआ--क्या मैं यहीं सब कीतुक देखने और सुनने के लिए जीयूँ ? सारा गाँव, सारा देश मुझसे घृणा कर रहा है। बलराज भी मन मे मुझे गालियाँ दे रहा होगा । उसने मुझे कितना समझाया, लेकिन मैंने एक न मानी । लोग कहते होगे सारे गाँव को बँधवा कर अब यह मुस्टडा बना हुआ। हैं। इसे तनिक भी लज्जा नहीं, सिर पटक कर मर क्यों नहीं जाता । वलराज पर भी चारो ओर से वौछारें पडती होगी, सुन-सुन कर कलेजा फटता होगा । अरे भगवान, यह कैसा उजाला है। नहीं, उजाला नहीं है। किमी पिशाच की लाल-लाल आँखें है, मेरी ही तरफ लपकी आ रही हैं। या नारायण ! क्या करूँ ? मनोहर की पिंडलियां काँपने लगी। यह लाल आँखें प्रतिक्षण उसके समीप आती जाती थी। वह न तो उधर देख हीं सकता था और न उधर से आँख ही हटा सकता था, मानो किसी आसुरिक शक्ति ने उसके नेत्रो को बाँध दिया हो । एक क्षण के बाद मनोहर को एक ही जगह कई आँखें दिखायी देने लगी, नही, प्रज्ज्वलित, अग्निमय, रक्तयुक्त नेत्रो का एक समूह है। वड नही, सिर नहीं, कोई अंग नही, केवल विदग्ध आँखे ही हैं, जो मेरी तरफ टूटे हुए तारो की भाँति सर्राटा भरती चली आती हैं । एक पल और हुआ, यह नेत्र समह शरीर-युक्त होने लगा और गौस खाँ के आहत स्वरुप में बदल गया। यकायक बाहर घडाक की आवाज हुई । मनोहर बदहवास हो कर पीछे की दीवार की ओर भागा, लेकिन एक ही पग में दीवार से टकरा कर गिर पड़ा, सिर में चोट आयी। फिर उसे जान पडा कि कोई द्वार का ताला खोल रहा है। तब किसी ने पुकारा, 'मनोहर ! मनोहर !' मनोहर ने आवाज पहचानी । जेल का दारोगा था। उसकी जान में जान आयी । कड़क कर बोला--हाँ साहब जागता हूँ। पैशाचिक जगत से निकल कर वह फिर चैतन्य संसार में आया। उसे अब नेत्र समूह का रहस्य खुला । दारोगा की लालटेन की ज्योति थी जो किवाड़ की दरारो से कोठरी में आ रही थी। इसी साधारण-सी बात ने उसे इतना सशक कर दिया था। दारोगा आज गश्त करने निकला था।

दारोगा के चले जाने के बाद मनोहर कुछ सावधान हो गया। शकोत्पादक कल्पनाएँ शान्त हुई, लेकिन अपने तिरस्कार और अपमान की चिन्ताओं ने फिर आ घेरा । सोचने लगा, एक वह है जो उजड़े हुए गाँवों को आबाद करते हैं और जिनका यश संसार गाता है। एक मैं हूँ जिसने गॉव को उजाड़ दिया। अब कोई भौर के समय मेरा नाम न लेगा । ऐसा जान पड़ता है कि सभी डामिल जायेंगे, एक भी न बचेगा। [ २३६ ]अभी न जाने कितने दिन यह मामला चलेगा । महीने भर लगे, दो महीने लग जाये। इतने दिनो तक मैं सब की आँखों में काँटे की तरह खटकता रहूँगा, सब मुझे कोसेंगे, गालियाँ दिया करेंगे । आज दुखरन ने कह ही सुनाया, कल कोई और ताना देगा । कादिर खाँ को भी यह कैद अखरती ही होगी। और तो और, कहीं वलराज भी न खुल पडे । हा । मुझे उसकी जवानी पर भी तरस न आया, मेरा लाल मेरे ही हाथो मैं अपने जवान बेटे को अपने ही हाथो हा भगवान् । अब यह दुख नही सही जाता । फाँसी अभी न जाने कब होगी । कौन जाने कहीं सबके साथ मेरा भी डामिल हो जाय, तब तो मरते दम तक इन लोगों के जले-कटे वचन सुनने पड़ेंगे । वलराज, तुझे कैसे बचाऊँ ? कौन जाने हाकिम यही फैसला करे कि यह जवान है, इसी ने कुल्हाडा मारा होगा । हा भगवान् ! तब क्या होगा ? क्या अपनी ही आँखो से यह देखूँगा ? नहीं, ऐसे जीने में मरना ही अच्छा है। नकटा जिया बुरे हवाल । बम, एक ही उपाय है--हाँ ।