प्रेमाश्रम/३४

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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३४

जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तो का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आये । यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठियाँ गयी थी। मायाशकर को भी साथ लाये । विद्या ने बहुत कहा कि मेरा जी घबड़ायेगा, पर उन्होंने न माना।

इस एक महीने में ज्ञानशकर ने वह समस्या हल कर ली थी जिस पर वह कई सालों से विचार कर रहे थे। उन्होंने वह मार्ग निर्धारित कर लिया था जिससे गायत्री देवी के हृदय तक पहुँच सके । इस मार्ग की दो शाखाएँ थी, एक विरोधात्मक और दूसरी विघानात्मक । ज्ञानशकर ने यहीं दूसरा मार्ग ग्रहण करना निश्चय किया । गायत्री के धार्मिक भावो को हटाना, जो किसी गढ की दुर्भद्य दीवारो की भाँति उसको वासनाओं से बचाये हुए थे, दुस्तर था। ज्ञानशकर एक बार इस प्रयत्न में असफल हो चुके थे और कोई कारण नही था कि उस सावन का आश्रय ले कर वह फिर असफल न हो। इसकी अपेक्षा दूसरा मार्ग सुगम और सुलभ था। उन धार्मिक भावो को हटाने के बदले उन्हें ओर दृढ़ क्यो न कर दूँ । इमारत को विध्वस करने के बदले उसी भित्ति पर क्यो न और रहें चढा दूँ ? उसको अपना बनाने के बदले क्यो न आप ही उसका हो जाऊँ?

ज्ञानशकर ने गोरखपुर आ कर पहले से भी अधिक उत्साह और अध्यवसाय से काम करना शुरू किया । धर्मशाला का काम स्थगित हो गया था । अब की ठेकेदारो से काम न ले कर उन्होंने अपनी ही निगरानी मे बनबाना शुरू किया। उसके सामने ही एक ठाकुरद्वारे का शिलारोपण भी कर दिया। वह नित्य प्रति प्रात काल मोटर पर सवार हो कर घर से निकल जाते और इलाके का चक्कर लगा कर सन्ध्या तक लौट आते । किसी कारिन्दे या कर्मचारी की मजाल न थी कि एक कौडी तक खा सके। किसी शहना या चपरासी की ताव न थी कि असामियों पर किसी प्रकार की सख्ती कर सके और न किसी असामी का दिल था कि लगान चुकाने में एक दिन का भी विलम्ब कर सके । सहकारी बैंक का काम भी चल निकला । किसान महाजनों के जाल से मुक्त होने लगे और उनमें यह सामर्थ्य होने लगी कि खरीदारों के भाव पर जिन्स न बेच कर [ २३१ ]अपने भाव पर बेच सके । ज्ञानशकर का यह सुप्रबन्ध और कार्यपटुता देख कर गायत्री की सदिच्छा श्रद्धा का रूप धारण करती जाती थी। वह विविधरूपसे प्रत्युपकार की चेष्टा करती। विद्या के लिए तरह-तरह की सौगात भेजती और मायाशकर पर तो जान ही देती थी। उसकी सवारी के लिए दो टाँघन थे, पढ़ाने के लिए दो मास्टर। एक सुबह को आता था, दूसरा शाम को। उसकी टहल के लिए अलग दो नौकर थे। उसे अपने सामने बुला कर नाश्ता कराती थी । आप अच्छी-अच्छी चीजे बना कर उसे खिलाती, कहानियाँ सुनाती और उसकी कहानियाँ सुनती । उसे आये दिन इनाम देती रहती । मायाशकर अपनी माँ को भूल गया । वह ऐसा समझदार, ऐसा मिष्टभापी, ऐसा विनयशील, ऐसा सरल बालक था कि थोड़े ही दिनों में गायत्री उसे हृदय से प्यार करने लगी।

ज्ञानशकर के जीवन में भी एक विशेष परिवर्तन हुआ। अब वह नित्य सन्ध्या समय भागवत की कथा सुना करते । दो-चार साधु-सन्त जमा होते, मेल-जोल के दस-पाँच सज्जन आ जाते, महल्ले के दो-चार श्रद्धालु पुरुष आ बैठते और एक छोटी-मोटी धार्मिक सभा हो जाती । यहाँ कृष्ण भगवान् की चर्चा होती, उसकी प्रेम-कथाएँ सुनायी जाती और कभी-कभी कीर्तन भी होता था। लोग प्रेम में मग्न हो कर रोने लगने और सबसे अधिक अश्रवर्षा ज्ञानशकर की ही ऑखो से होती थी। वह प्रेम के हाथ बिक गये थे।

एक दिन गायत्री ने कहा, अब तो आपके यहाँ नित्य कृष्ण-चर्चा होती है, पर्दे का प्रबन्ध हो जाय तो मैं भी आया करूँ। ज्ञानशकर ने श्रद्धापूर्ण नेत्रो से गायत्री को देखकर कहा, यह सब आप ही के सत्सग का फल है। अपने ही मुझे यह भक्ति-मार्ग दिखाया है और मैं आपको ही अपना गुरु मानता हैं । आज से कई मास पहले मैं माया-मोह मै फँसा हुआ, इच्छाओं का दास, वासनाओं का गुलाम और सामारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ था। आपने मुझे बता दिया कि संसार में निर्लिप्त हो कर क्योकर रहना चाहिए । इतनी सम्पत्तिशालिनी हो कर भी आप सन्यासिनी हैं। आपके जीवन ने मेरे लिए सदुपदेश का काम किया है।

गायत्री ज्ञानशकर को विद्या और ज्ञान का अगाध सागर समझती थी। वह महान् पुरुष जिसकी लेखनी में यह सामर्थ्य हो कि मुझे रानी के पद से विभूषित करा दे, जिसकी वक्तृताओं को मुन कर बडे-बडे अँगरेज उच्चाधिकारी दंग रह जायें, जिसके सुप्रबन्ध की आज सारे जिले में धूम है, मेरा इतना भक्त हो, इस कल्पना से ही उसका गौरवशील हृदय विह्वल हो गया । ऐसे सम्मानो के अवसरों पर उसे अपने स्वामी की याद आ जाती थी। बिनीत भाव से बोली, बाबू जी यह सब भगवान की दया है। उन्होंने आपको यह भक्ति प्रदान की है नहीं तो लोग यावज्जीवन धर्मोपदेश सुन्ने रह जाते है और फिर भी उनके ज्ञानचक्षु नहीं खुलने । कहीं स्वामी से आपकी भेट हो गयी होती तो आप उनके दर्शनमात्र से ही मुग्ध हो जाते । वह धर्म और प्रेम के अवतार थे । मैं जो कुछ हूँ उन्ही की बनायी हुई हूँ । यथासाध्य उन्ही की शिक्षाओं का [ २३२ ]पालन करती हूँ, नही तो मेरी इतनी गति कहाँ थी कि भक्तिरस का स्वाद पा सकती।

ज्ञानशकर--मुझे भी यह खेद है कि उन महात्मा के दर्शन से वचित रह गया । जिसके सदुपदेश में यह महान् शक्ति है वह स्वय कितना प्रतिभाशील होगा । मैं कभी कभी स्वप्न में उनके दर्शन से कृतार्थ हो जाता हूँ। कितनी सौम्य मूर्ति थी । मुखारविन्द से प्रेम की ज्योति सी प्रसारित होती हुई जान पड़ती है। साक्षात् कृष्ण भगवान के अवतार मालूम होते है ।

दूसरे दिन से पर्दे की आयोजना हो गयी और गायत्री नित्य प्रति इन सत्सगों में भाग लेने लगी । भक्तो की संख्या दिनों-दिन बढने लगी । कीर्तन के समय लोग भावोन्मत्त हो कर नाचने लगते । गायत्री के हृदय से भी यही प्रेम-तरणें उठती । यहाँ तक कि ज्ञानशकर भी स्थिर चित्त न रह सकते । कृष्ण के पवित्र प्रेम की लीलाएँ उनके चित्त को भी एक क्षण के लिये प्रेम से आभासित कर देती थी और इस प्रकाश में उन्हें अपनी कुटिलता और शुद्रता अत्यन्त घृणोत्पादक दीख पडती । लेकिन सत्सग के समाप्त होने ही यह क्षणिक ज्योति फिर स्वार्थान्धकार में विलीन हो जाती थी। बालक कृष्ण की भोली-भाली क्रीडाएँ, उनकी वह मनोहर तोतली बाते, यशोदा का वह विलक्षण पुत्र-प्रेम, गोपियो को वह आत्म-विस्मृति, प्रीति के वह भावमय रहस्य, वह अनुराग के उद्गार, वह वशी की मतवाली तान, वह यमुना-तट के बिहार की कथाएँ लोगो को अतीव आनन्दप्रद आत्मिक उल्लास का अनुभव देती थी। मूतवादियो की दृष्टि में ये कथाएँ कितनी ही लज्जास्पद क्यो न हो, पर उन भक्तो के अन्त करण इनके श्रवण-मात्र में ही गद्गद हो जाते थे। राधा और यशोदा का नाम आते ही आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी । कृष्ण के नाम में क्या जादू हैं, इसका अनुभव हो जाना था।

एक बार वृन्दावन में रासलीला मडली आयी और महीने भर तक लीला करती रही। मारा शहर देखने को फट पड़ता था। ज्ञानशकर प्रेम की मूर्ति बने हुए लोगो का आदर-सत्कार करते । छोटे-बड़े सबको खातिर से बैठाते । स्त्रियों के लिए विशेष प्रबन्ध कर दिया गया था। यहाँ गायत्री उनका स्वागत करती, उनके बच्चो को प्यार करती और मिठाई-मेवे बाँटती । जिस दिन कृष्ण के मथुरा-गमन की लीला हुई, दर्शको की इतनी भीड हुई कि साँस लेना मुश्किल था। यशोदा और नन्द की हृदय-विदारणी बातें सुन कर दर्शकों में कोहराम मच गया। रोते-रोते कितने ही भक्तो की धिग्घी बँघ गयी और गायत्री तो मूर्छित हो कर गिर ही पड़ी। होश आने पर उसने अपने को अपने शयनगृह में पाया। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, केवल ज्ञानशकर उसे पखा झल रहे थे। गायत्री पर इस समय अलमता छायी हुई थी। जब मनुष्य किसी थके हुए पथिक की भाँति अवीर हो कर छाँह की ओर दौडता है, उसका हृदय निर्मल, विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। उसने ज्ञानशंकर को बैठ जाने का संकेत किया और तब शैशवोचित सरलता ने उनकी गोद में सिर रख कर आकाक्षापूर्ण भाव से बोली, मुझे वृन्दावन ले चलो । [ २३३ ]

तीसरे दिन रासलीला समाप्त हुई। उसी दिन ज्ञानशकर गायत्री को सग ले बड़े समारोह के साथ वृन्दावन चले।