प्रेमाश्रम/३७

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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३७

प्रात काल ज्यों ही मनोहर की आत्म-हत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार--सब के हाथो के तोते उड गये । जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिकारियों का दल आ पहुँचा। मौके की जाँच होने लगी, जेल कर्मचारियों के वयान लिखे जाने लगे। एक घटे में सिविल सर्जन और डाक्टर प्रियनाथ भी आ गये। फिर मजिस्ट्रेट, कमिश्नर और सिटी मजिस्ट्रेट का आगमन हुआ। दिन भर तहकीकात होती रही। दूसरे दिन भी यही जमघट रहा और यही कार्यवाही होती रही, लेकिन मॉप मर चुका था, उसकी बाँबी को लाठी से पीटना व्यर्थ था। हाँ, जेल-कर्मचारियों पर बन आयी, जेल दारोगा ६ महीने के लिए मुअत्तल कर दिये गये, रक्षकों पर कडे जुर्माने हुए । जेल के नियमो में सुधार किया गया, खिडकियो पर दोहरी छडे लगा दी गयी । शेष अभियुक्तो के हाथो में हथकडियाँ न डाली गयी थी, अब दोहरी हथकडियों डाल दी गयीं । प्रेमशकर यह खबर पाते ही दौडे हुए जेल आये; पर अधिकारियों ने उन्हें फाटक के सामने से ही भगा दिया। अब तक जेल-कर्मचारियों ने उनके साथ सब प्रकार की रियायत की थी। अभियुक्तो से उनकी मुलाकात करा देते थे, उनके यहाँ [ २४४ ]से आया हुआ भोजन अभियुक्तों तक पहुंचा देते थे। पर आज उन सबका रूख बदला हुआ था। प्रेमशंकर जेल के सामने खड़े सोच रहे थे, अब क्या करूँ कि पुलिस को प्रधान अफसर जेल से निकला और उन्हें देख कर बोला, यह तुम्हारे ही उपदेशों का फल है, तुम्ही ने शेष अपराधियों को बचाने के लिए यह आत्महत्या करायी है। जेल मे दारोगा ने भी उनसे इसी तरह की बाते की। इन तिरस्कारों से प्रेमशंकर को बड़ा दुख हुआ। जीवन उन्हें नये-नये अनुभवों की पाठशाला जान पड़ता था। यह पहला ही अवसर था कि उनकी दयार्द्रता और सदिक्षा की अवहेलना की गयी। वह आव घटे तक चिन्ता मे डूबे वही खड़े रहे, तद अपने झोंपड़े की ओर चले: मानो अपने किसी प्रियबन्धु की दाह-क्रिया करके रहे हो।

घर पहुँच कर वह फिर उन्हीं विचारो मे मग्न हुए। कुछ समझ में न आता था कि जीवन का क्या लक्ष्य बनाया जाय। क्षुद्र लौकिकता से चित्त को घृणा होती थी और उत्कृष्ट नियमों पर चलने के नतीजे उल्टे होते थे। उन्हें अपनी विवशता का ऐसा निराशाजनक अनुभव कभी न हुआ था। मानव-बुद्धि जितनी भ्रमयुक्त है। उसकी दृष्टि कितनी संकीर्ण—इसका ऐसा प्रमाण कभी न मिला था। यदपि वह अहंकार को अपने पास न आने देते थे, पर वह किसी गुप्त मार्ग से उनके हृदयस्थल में पहुँच जाता था। अपने सहकार्यों को सफल होते देख कर उनका चित उत्साहित हो जाता था और हृदय-कणों मे किसी और से मंद स्वरों में सुनाई देता था—मैंने कितना अच्छा काम किया! लेकिन ऐसे प्रत्येक अवसर पर एक ही क्षण के उपरान्त उन्हें कोई ऐसी चेतावनी मिल जाती थी, जो उन्हें अहंकार को चूर-चूर कर देती थी। मूर्ख! तुझे अपनी सिद्धान्त-प्रियता का अभिमान है! देख वह कितने कच्चे हैं। तुझे अपनी बुद्धि और विद्या का घमंड है! देख, वह कितनी भ्रांतिपूर्ण है। तुझे अपने ज्ञान और सदाचार का गुरूर है! देख वह कितना और भ्रष्ट हैं। क्या तुम्हें निश्चय हैं कि तुम्हारी ही उत्तेजनाएँ की हत्या का कारण नहीं हुई? तुम्हारे ही कटु उपदेशों ने मनोहर की जान नहीं ली? तुन्हारे ही कटु नीति पालन ने ज्ञानशंकर की श्रद्धा को तुमसे विमुख नहीं किया?

यह सोचते-सोचते उनका ध्यान अपनी आर्थिक कठिनाइयों की ओर गया। अभी न जाने यह मुकदमा कितने दिनों चलेगा। इर्मानजी कोई तीन हजार ले चुके और शायद अभी उनका इतना ही बाकी है। गन्ने तैयार हैं. लेकिन हजार रुपये से ज्यादा न ला सकेंगे। बेचारे गाँववालो को कहाँ तक दबाऊँ? फलों के जो कुछ मिल वह सब खर्च हो गया।किसी को अभी हिसाब तक नहीं दिखाया। न जाने यह सब अपने मन में क्या समझते हो। लखनपुर की कुछ खबर न ले सका। मालूम नहीं उन दुखियों पर क्या बीत रही हैं।

अकस्मात भोला की त्री बुधिया आ कर बोली दाबू, दो दिन से घर में चूल्हा नही जल और आपका हलगहा मेरी जान खाए जाता है। बताइए मैं क्या कहें। क्या चोरी करू? दिन भर चक्की पिसती हूँ और जो कुछ पाती हूँ, वह सब गृहस्थी मे झोंक [ २४५ ]देती हूँ, तिसपर भी भरपेट दाना नसीब नहीं होता । आप उसके हाथ में तलब न दिया करे । सब जुए मे उडा देता है। आप उसे न डाँटते हैं, न समझाते है । आप समझते है कि मजदूरी बढ़ाते हीं वह ठीक हो जायगा । आप उसे हजार का महीना भी दे तो भी उसके लिए पूरे न पडेगे । आज से आप तलब मेरे हाथ मे दिया करें ।

प्रेमशकर--जुआ खेलना तो उसने छोड दिया था ?

बुधिया--वही दो-एक महीने नही खेला था। बीच-बीच मे भी कभी छोड़ देता है, लेकिन उसकी तो लत पड गयी है ! आप तलब मुझे दे दिया करे, फिर देखूँ कैसे जुआ खेलता है। आपका सीधा सुभाव है, जब माँगता है तभी निकाल कर दें देते हैं।

प्रेम--मुझसे तो वह यही कहता है कि मैंने जुआ छोड़ दिया। जब कभी रुपये माँगता है, तो यही कहता है कि खाने को नही है । न दूँ तो क्या करूँ ?

बुधिया--तभी तो उसके मिजाज नहीं मिलते । कुछ पेशगी तो नहीं ले गया है ?

प्रेम--उसी से पूछो, ले गया होगा तो बतायेगा न ।

बुधिया--आपके यहाँ हिसाब-किताब नहीं है क्या ?

प्रेम--मुझे कुछ याद नहीं है।

बुधिया--आपको याद नहीं हैं तो वह बता चुका । शराबियो-जुआरियो के भी कही ईमान होता है ?

प्रेम–-क्यो, क्या शराब से ईमान घुल जाता है ?

बुधिया--धुल नही जाता तो और क्या ? देखिए, बुलाके आपके मुँह पर पूछती हूँ। या नारायण, निगोडा तलब की तलब उडा देता है, उसपर पेशगी ले कर खेल डालता है । अब देखूँ, कहाँ से भरता है ?

यह कह कर वह झल्लायी हुई गयी और जरा देर में भोला को साथ लिये आयी। भोला की आँखे लाल थी । लज्जा से सिर झुकाये हुए था। बुधिया ने पूछा, बताओ, तुमने बाबू जी से कितने रुपये पेशगी लिये है ?

भोला ने स्त्री की ओर सरोष नेत्रों से देख कर कहा--तू कौन होती है पूछने वाली ? बाबू जी जानते नही क्या ?

बुधिया--बाबू जी ही तो पूछते हैं, नहीं तो मुझे क्या पडी थी ?

भोला--इनके मेरे ऊपर लाख आते है और मैं इनका जन्म भर का गुलाम हूँ।

बुधिया--देखा बाबू जी ! कहती न थीं, वह कुछ न बतायेगा ? जुआरी कभी ईमान के सच्चे हुए हैं कि यही होगा ?

भोला--तू समझती है कि मैं बाते बना रहा हूँ। बाते उनसे बनायी जाती है जो दिल के खोटे होते हैं, जो एक घेला दे कर पैसे का काम कराना चाहते है। देवताओं से बात नही बनायी जाती। यह जान इनकी है, यह तम इनका है, इशारा भर मिल जाये।

बुधिया--अरे जा, जालिये कही के ! बाबू जी बीसो बार समझा के हार गये । [ २४६ ]तुझसे एक जुआ तो छोड़ा जाता नही, तू और क्या करेगा ? जान पर खेलनेवाले और होते हैं।

भोली--झूठी कहीं की, मैं कब जुआ खेलता हूँ ।

प्रेम--सच कहना भोला, क्या तुम अब भी जुआ खेलते हो ? तुम मुझसे कई बार कह चुके हो कि मैंने बिलकुल छोड दिया।

भोला का गला भर आया । नशे में हमारे मनोभाव अतिशयोक्ति-पूर्ण हो जाते है। वह जोर से रोने लगा। जब ग्लानि को वेग कम हुआ तो सिसिकियाँ लेता हुआ बोला--मालिक, यही आपका एक हुकुम है, जिसे मैंने टाला है । और कोई बात नहीं टाली। आप मुझे यही बैठा कर सिर पर १०० जूते गिन कर लगायें, तब यह भूत उतरेगा। मैं रोज सोचता हूँ कि अब कभी न खेलूँगा, पर साँझ होते ही मुझे जैसे कोई ढकेल कर फड की ओर ले जाता है। हा! मैं आपसे झूठ बोला, आपसे कपट किया, भगवान् मेरी क्या गति करेंगे ? यह कह कर वह फिर फूट-फूट कर रोने लगा।

लज्जा--भाव की यह पवित्रता देख कर प्रेमशंकर की आँखें भी भर आयी । वह शराबी और जुआरी गोला, जिसे वह नीच समझते थे, ऐसा पवित्रात्मा, ऐसा निर्मल-हृदय था ! उन्होने उसे गले लगा लिया, तुम क्यों रोते हो ? मैं तुम्हे कुछ कहता थोड़े ही हूँ ?

भोला--आपका कुछ न कहना ही तो मुझे मार डालता है। मुझे गालियाँ दीजिए, कोडे से मारिए, तब यह नशा उतरेगी। हम लातो के देवता बातो से नहीं मानते ।

प्रेम--तुम्हारी तलब बुधिया को दे दिया करूँ?

भोला--जी हाँ, आज से मुझे एक कौडी भी ने दिया करें।

प्रेम--(बुधिया से) लेकिन जो यह जुए से भी बुरी कोई आदत पकड़ ले तो ?

बुधिया--जुए से बुरी चोरी है। जिस दिन इसे चोरी करते देखूँगी, जहर दे दूँगी । मुझे राँड़ बनना मजूर है, चोर की लुगाईं नहीं बन सकती।

उसने भोला का हाथ पकड़ कर घर चलने का इशारा किया और प्रेमशकर के लिए एक जटिल समस्या छोड़ गयी।