सामग्री पर जाएँ

प्रेमाश्रम/३८

विकिस्रोत से
प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २४६ से – २५० तक

 

३८

डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्म-हत्या का शेष अभियुक्तो पर क्या असर पड़ेगा ? कानूनी ग्रन्थो का ढेरे सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे, मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रु० का नुकसान हो रहा है और अभी मालूम नही कितने दिन लगेंगे। लाहौल । फिर रुपये की तरफ ध्यान गया। कितना ही चाहता हूँ कि दिल को इधर न आने दूँ, मगर ख्याल आ ही जाता है। वकालत छोडते भी नहीं बनती। ज्ञानशकर से प्रोफेसरी के लिए कहे तो आया हूँ, लेकिन जो सचमुच यह जगह मिल गयी तो टेढ़ी खीर होगी ! मैं अब ज्यादा दिनो तक इस पेशे मे रह नही सकता, और न सही तो सेहत के लिए जरूर ही छोड़ देना पड़ेगा। बस, यही चाहता हूँ कि घर बैठे १००० रु० माहवारी रकम मिल जाया करे। अगर प्रोफेसरी से १००० रु० भी मिले तो भी काफी होगा। नहीं, अभी छोडने का वक्त नही आया । ३ साल तक सख्त मेहनत करने के बाद अलबत्ता छोडने का इरादा कर सकता हूँ। लेकिन इन तीन बरसों तक मुझे चाहिए कि रियायत और मुरौवत को बालायताक रख दूँ। सबसे पूरा मेहनताना लूँ, वरना आजकल की तरह फँसता रहा तो जिन्दगी भर छुटकारा न होगा ।

हाँ, तो आज इस मुकदमे में बहस होगी। उफ ! अभी तक तैयार नहीं हो सका। गवाहो के बयानो पर निगाह डालने का भी मौका न मिला । खैर, कोई मुजायका नही। कुछ न कुछ बातें तो याद ही हैं। बहुत कुछ उधर के वकील की तकरीर से सूझ जायेंगी । जरा नमक मिर्च और मिला दूँगा, खासी बहस हो जायगी। यह तो रोज का ही काम है, इसकी क्या फिक्र ...

इतने मे अमौली के राजा साहब की मोटर आ पहुँची। डाक्टर साहब ने बाहर निकल कर राजा साहब का स्वागत किया। राजा साहब अँगरेजी मे कोरे, लेकिन अँगरेजी रहन-सहन, रीति-नीति में पारगत थे। उनके कपडे विलायत से सिल कर आते थे । लड़को को पढ़ाने के लिए लेडियाँ नौकर थी और रियासत का मैनेजर भी अँगरेज था। राजा साहब का अधिकांश समय अँगरेजी दुकानो की सैर मे कटता था। टिकट और सिक्के जमा करने का शौक था । थियेटर जाने में कभी नागा न करते थे। कुछ दिनो से उनके मैनेजर ने रियासत की आमदनी पर हाथ लपकाना शुरू किया था। इसलिए उन्हें हटाना चाहते थे; किन्तु अँगरेज अधिकारियो के भय से साहस न होता था । मैनेजर स्वयं राजा को कुछ न समझता था, आमदनी का हिसाब देना तो दूर रहा । राजा साहब इस मामले को दीवानी में लाने का विचार कर रहे थे। लेकिन मैनेजर साहब की जज से गहरी मैत्री थी, इसलिए अदालत के और वकीलों ने इस मुकदमे को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था। निराश हो कर राजा साहब ने इर्फान अली की शरण ली थी । डाक्टर साहब देर तक उनकी बातें सुनते रहे। बीच-बीच में तस्कीन देते जाते थे । आप घबरायें नहीं । मैं मैनेजर साहब से एक-एक कौडी वसूल कर लूँगा । यहाँ के वकील दब्बू है, खुशामदी टट्टू--पेशे को बदनाम करनेवाले । हमारा पेशा आजाद है । हक़ की हिमायत करना हमारा काम है, चाहे बादशाह से ही क्यो न मुकाबला करना पड़े। आप जरा भी तरहृद न करें। मैं सब बाते ऐसी खूबसूरती से तय कर दूँगा कि आप पर छीटा भी न आने पायेगी । अकस्मात् तार के चपरासी ने आ कर डाक्टर साहब को एक तार का लिफाफा दिया । ज्ञानशकर ने एक मुकदमे की पैरवी करने के लिए ५०० रू० रोज पर बुलाया था।

डाक्टर महोदय ने राजा साहब से कहा यह पेशा बडी मूजी है। कभी आराम से बैठना नसीब नहीं होता। रानी गायत्रीदेवी का तार है, गोरखपुर बुला रही है।

राजा--मैं अपने मुकदमे को मुलतबी नही कर सकता। मुमकिन है मैनेजर कोई और चाल खेल जाय। डाक्टर--आप मुतलक अन्देशी न करे, मैंने मुकदमे को हाथ में ले लिया। अपने दीवान साहब को भेज दीजिएगी, वकालतनामा तैयार हो जायगा। मैं कागजात देखकर फौरन दावा दायर कर देंगी। गोरखपुर गया भी तो आपके कागजात लेता जाऊँगा।

घड़ी मे दस बजे। खानसामा ने दस्तरखान बिछाया। भोजनालय इस दफ्तर के बगल ही में था। मसाले की सुगन्ध कमरे में फैल गयी, लेकिन डाक्टर साहब अपना शिकार फँसाने में तल्लीन थे। भय होता था मैं भोजन करने चला जाऊँ और शिकार हाथ से निकल जाय। लगभग आध घटे तक वह राजा साहब से मुकदमे के सम्बन्ध में बातें करते रहे। राजा साहब के जाने के बाद वह दस्तरखान पर बैठे। खाना ठढा हो गया था। दो-चार ही कौर खाने पाये थे कि ११ बज गये। दस्तरखान से उठ बैठे। जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और कचहरी चले। रास्ते में पछताते जाते थे कि भरपेट खाने भी न पाया। आज पुलाव कैसा लजीज बना था। इस पैशे का बुरा हो, खाने की फुर्सत नहीं। हां, रानी को क्या जवाब दें? नीति तो यही है कि जब तक। किसानो का मामला तय न हो जाय, कहीं न जाऊँ। लेकिन यह ५०० ९० रोज का नुकसान कैसे बर्दाश्त करू? फिर एक बड़ी रियासत से ताल्लुक हो रहा है, साल मे सैकड़ों मुकदमे होते होगें, सैकड़ों अपीले होती होगी। वहाँ अपना रंग जरूर जमाना चाहिए। मुहरिर साहब सामने ही बैठे थे, पूछा- क्यो मुन्शी जी, रानी साहेब को क्या जवाब दें? आप के ख्याल में इस वक्त वहाँ मैरा जाना मुनासिब हैं?

मुहरिर--हजूर किसी के ताबेदार नहीं है। शौक से जायें। सभी वकील यही करते हैं। ऐसे भौके को न छोड़े।

डाक्टरबदनामी होती है।

मुहरर-जरा भी नहीं। जब यही आम रिवाज है तो कौन किसे बदनाम कर सकता है।

इन शब्दो ने इफन अली की दुविधाओं को दूर कर दिया। औघते को लेटने का बहाना मिल गया। ज्यो ही मोटर कचहरी मे पहुँची, प्रेमशंकर दौडे हुए आए और बोले, मैं तो बड़ी चिन्ता में था। पेशी हो गयी।

डाक्टर--अमौली के राजा साहब आ गये, इससे जरा देर हो गयी, खाना भी नहीं नसीव हुआ। इस पेशे की न जाने क्यो लोग इतनी तारीफ करते है। असल में इससे यइतर कोई पेशा नहीं। थोडे दिनों में आदमी कोल्हू का बैल बन जाता है।

प्रेमशंकर–आप उघर कहाँ तशरीफ लिए जाते हैं?

डाक्टर-जरा सब-जज के इजलास में एक बात पूछने। आप चले, मैं अभी आता हैं।

प्रेम---सरकारी वकील ने बहस शुरू कर दी है।

डाक्टर---कोई मुजायको नही, करने दीजिए। मैं उसका जवाब पहले ही तैयार कर चुका हूँ।

प्रेमशंकर उनके साथ सब-जज के इजलास तक गये। डाक्टर साह्न लगभग एक घंटे तक दफ्तरवालों से बात करते रहे। अन्त में निकले तो बड़े सोच भाव से बोले आप को यहाँ खड़े-खड़े बेहद तकलीफ हुई, मुआफ फरमाइएगा। मुझे यह कहते हुए आपसे बहुत नादिम होना पड़ता है कि मैं तीन-चार दिन इस मुकदमे की पैरवी न कर सकूँगा।

प्रेम-यह तो आप ने बुरी खबर सुनायी। आप खुद अन्दाज कर सकते है कि ऐसे नाजुक मौके पर आप को न रहना कितना जुल्म है।

डाक्टर—मजबूर हूँ, आप के भाई साहब ने तार से गोरखपुर बुलाया है।

प्रेम—इस खबर से मेरी तो रूह ही फना हो गयी। आप इन बेचारे किसानों को मझधार में छोड़ देते हैं। ख्याल फरमाइए, इनवी क्या हालत होगी। यह इतने तंग वक्त में कोई दूसरा वकील भी तो नहीं मिल सकता।

डाक्टर—मुझे खुद निहायत अफसोस है। मगर जब तक दुकान हैं तब तक खरीदारों की खातिर करनी ही पड़ेगी। यह पेशा एसा मनहूस हैं कि इसमें आईन पर कायम रहना दुश्वार हैं। मुझे इन मुसीबतजदो का खुद ख्याल है, लेकिन मिस्टर ज्ञानशंकर को नाराज भी तो नहीं कर सकता। और जनाब, माफ साफ तो यह है कि जब काफिर हुए तो शराब से क्यों तोबा करे? जब वकालत का सियाह जामा पहना तो उसपर शराफत का सुफेद दागे क्यों लगाये ?जब लूटने पर आये तो दोनों हाथों से क्यों न समेटे? दिल मे दौलत का अरमान क्यों रह जाय? बनियों को लोग ख्वाहमख्वाह लालची कहते है। इस लकब का हक हमको है। दौलत हमारा दीन है, हमारा ईमान है। यह न समझिए कि इस पेशे के जो लोग चोटी पर पहुँच गये हैं वे ज्यादा रोशन ख्याल है। नहीं जनाब, वे बगुले भगत हैं। ऐसे खामोश बैठे रहते है, गोया दुनिया से कोई वास्ता ही नहीं, लेकिन शिकार नजर आते ही आप उनकी झपट और फुरती देख कर दंग हो जायेंगे। जिस तरह कसाई बकरे को सिर्फ उसके वजन के एतबार से देखता है उसी तरह हम इन्सान को महज इस एतवार से देखते है कि वह कहाँ तक आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा है। लोग इसे अजाद पेशा कहते है, मैं इसे इन्तही दरजे की गुलामी कहता हूँ। अभी चन्द महीने हुए मेरे भाई की शादी दरपेश थी। सादात के कस्बे में बारात गयी थी। तीन दिन बारात यहाँ मुकीम रही। मैं रोज सवेरे यहाँ चला आता था और रात की गाड़ी से लौट जाता था। सभी रस्मे मेरी गैरहाजिरी मे अदा हुई। एक दिन भी कचहरी का नागा नहीं किया। मैं अपनी इस हवस को मकरूह समझता हूँ और जिन्दगी भर उस आदमी का शुक्रगुजार रहूँगा जो मुझे इस मर्ज से नजात दे दे।

यह कह कर डाक्टर साहब मोटर पर आ बैठे और एक क्षण में घर पहुँच गये। एक बजे गाड़ी जाती थी। सफर का सामान होने लगा। दो चमड़े के सन्दूक, एक हैंड बैग, हैट रखने का सन्दुक, आफिस बक्स, भोजन सामग्रियों का सन्दुक आदि सभी सामान बग्घी पर लादा गया। प्रत्येक वस्तु पर डाक्टर साहब का नाम लिखा हुआ था। समय बहुत कम था, डाक्टर साहब घर में न गये। मोटर पर बैठना ही चाहते थे कि महरी ने आ कर कहा, हजूर, जरा अन्दर चले, बेगम साहब बुला रही है। मुनीरा को कई दस्त और के आये हैं।

डाक्टर साहब—तो जरा कपूर का अर्क क्यों नही पिला देती? खाने में कोई बदपरहेजी हुई होगी। चीखने-चिल्लाने की क्या जरूरत है?

महरी—हजूर, दवा तो पिलायी है। जरा आप चल कर देख लें। बेगम साहब डाक्टर बुलाने को कहती हैं।

इर्फानअली झल्लाये हुए अन्दर गये और बेगम से बोले, तुमने क्या जरा सी बात का तूफान मचा रखा है?

बेगम—मुनीरा की हालत अच्छी नहीं मालूम होती। जरा चल कर देखो तो। उसके हाथ-पाँव अकड़े जाते हैं। मुझे तो खौफ होता है, कही कालरा न हो।

इर्फान—यह सब तुम्हारा बहम है। सिर्फ खाने-पीने की बेएहतियाती है, और कुछ नहीं। अर्क-कपूर दो-दो घंटे बाद पिलाती रहो, शाम तक सारी शिकायत दूर हो जायगी। घबड़ाने की जरूरत नहीं। मैं इसी ट्रेन से जरा गोरखपुर जा रहा हूँ। तीनचार दिन में वापस आऊँगा। रोजाना खैरियत की इत्तला देती रहना। मैं रानी गायत्री के बँगले में ठहरूंगा।

बेगम ने उन्हें तिरस्कार भाव से देख कर कहा, लड़की की यह हालत है और आप इसे छोड़े चले जाते हैं। खुदा न करे, उसकी हालत ज्यादा खराब हुई तो?

इर्फान—तो मैं रह कर क्या करूँगा? उसकी तीमारदारी तो मुझसे होगी ही नहीं और न बीमारी से मेरी दोस्ती है कि मेरे साथ रियायत करे।

बेगम–लड़की की जान को खुदा के हवाले करते हो, लेकिन रुपये खुदा के हवाले नहीं किये जाते! लाहौल विलाकूवत! आदमी में इन्सानियत न हो, औलाद की मुहब्बत तो हो! दौलत की हवस औलाद के लिए होती हैं। जब औलाद ही न रही, तो रुपयों का क्या अलाव लगेगा?

इर्फान—तुम अहमक हो, तुमसे कौन सिर-मगजन करे?

यह कह कर वह बाहर चले आये, मोटर पर बैठे और स्टेशन की तरफ चल पड़े।