प्रेमाश्रम/४२

विकिस्रोत से
प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २६४ ]

४२

राय कमलानन्द को देखे हुए हमे लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिह्न नही दिखाई देता। बल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही हैं। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार, पोलो और टेनिस, राग और रंग में व्यतीत होता है। योगाभ्यास भी करते जाते हैं। धन पर वह कभी लोलुप नही हुए और अब भी उमका आदर नहीं करते। जिस काम की धुन हुई उसे करके छोड़ते हैं। इसकी जग भी चिन्ता नहीं करते कि रुपये कहाँ से आयेंगे। वह अब भी सलाहकारी सभा के [ २६५ ]मेम्बर है। इस बीच में दो बार चुनाव हुआ और दोनों बार वही बहुमत से चुने गये। यद्यपि किसानों और मध्यश्रेणी के मनुष्यों को भी वोट देने का अधिकार मिल गया था, तथापि राय साहव के मुकाबले में कौन जीत सकता था? किसानों के वोट उनके और उनके अन्य भाइयों के हाथो में थे और मध्य श्रेणी के लोगो को जातीय संस्थाओं मे चन्दे देकर वशीभूत कर लेना कठिन न था।

राय साहब इतने दिनों तक मेम्बर बने रहें, पर उन्हें इस बात का अभिमान थी कि मैंने अपनी ओर से कौंसिल में कभी कोई प्रस्ताव न किया। वह कहते, मुझे खुशीमदी टट्ट, कहने में अगर किसी को आनन्द मिलता है तो कहे, मुझे देश और जानि का द्रोही कहने से अगर किसी का पेट भरता है तो मुझे कोई शिकायत नहीं है, पर मैं अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता। अगर रस्सी तुड़ा कर मैं जंगल मैं अवाध्य फिर सकूँ तो मैं आज ही बँटा उखाड़ फेकूँ। लेकिन जब जानता हूँ कि रस्सी तुड़ाने पर भी मैं बाड़े से बाहर नहीं जा सकता, बल्कि ऊपर से और डंडे पड़ेंगे तो फिर खुटै पर चुपचाप खड़ा क्यों रहूँ? और कुछ नहीं तो मालिक की कृपा-दृष्टि तो रहेगी। जब राज-सत्ता अधिकारियों के हाथ में है, हमारे असहयोग और असम्मति से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता तो इसकी क्या जरूरत है कि हम व्यर्य अधिकारियों पर टीकाटिप्पणी करने बैठे और उनकी आँखो मे खटके? हम काठ के पुतले हैं, तमाशे दिखाने के लिए खड़े किये गये है, इसलिए हमे डोरी के इशारे पर नाचना चाहिए। यह हमारी खामखयाली है कि हम अपने को राष्ट्र का प्रतिनिधि समझते हैं। जाति हम जैसो को, जिसका अस्तित्व ही उसके रक्त पर अवलम्बित है, कभी अपनी प्रतिनिधि न बनायेगी। जिस दिन जाति में अपना हानि-लाभ समझने की शक्ति होगी, हम और आप खेतो में कुदाली चलाते नजर आयेंगे। हमारा प्रतिनिधित्व सम्पूर्णतः हमारी स्वार्थपरता और सम्मान लिप्सा पर निर्भर है। हम जाति के हितैषी नहीं है, हम उसे केवल स्वार्थ-सिद्धि का यन्त्र बनाये हुए हैं। हम लोग अपने वेतन की तुलना अँगरेजो से करते है। क्यों? हमें तो सोचना चाहिए कि ये रुपये हमारी मुट्ठी में न आ कर यदि जाति की उन्नति और उपकार में खर्च हो तो अच्छा है। अँगरेज अगर दोनों हाथो से धन बटोरते हैं तो बटौरने दीजिए। वे इसी उद्देश्य से इस देश में आये है। उन्हें हमारे जाति-प्रेम का दावा नहीं है। हम तो जाति-भक्ति की हाँक लगाते हुए भी देश का गला घोट देने है। हम अपने जातीय व्यवसाय के अघ.पतन का रोना रोते हैं। मैं कहता हूँ आपके हाथ यह दशा और भी असाध्य हो जायगी। हम अगणित मिले खोलेंगे, बड़ी संस्था में कारखाने कायम करेगें, परिणाम क्या होगा? हमारे देहात वीरान हो जायेगे, हमारे कृषक कारखानों के मजदूर बन जायेंगे, राष्ट्र का सत्यानाश हो जायेगा। आप इसी को जातीय उन्नति की चरम सीमा समझते हैं। मेरी समझ मे यह जातीयता का घोर अघ पतन हैं। जाति की जो कुछ दुर्गत हुई है हमारे हाथों हुई हैं। हम जमींदार हैं, साहूकार है, वकील है, सौदागर है, डाक्टर है, पदाधिकारी है, इनमे कौन जाति की सच्ची वकालत करने का दावा कर सकता है? आप जाति के साथ [ २६६ ]बड़ी भलाई करते हैं तो कौसिल में अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव पेश करा देते है। अगर आप जाति के सच्चे नेता होते तो यह निरकुशता कभी न करते। कोई अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग भी नहीं चाहता। हममें तो कितने ही महोदय ने बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त की हैं। पर उस शिक्षा ने हममें सिवा विलास-लालसा और सम्मान प्रेम, स्वार्थ-सिद्धि और अहम्मन्यता के और कौन सा सुधार कर दिया। हम अपने घमड में अपने को जाति का अत्यावश्यक अंग समझते है, पर वस्तुत हम कीट-पतंग से भी गये बीते है। जाति-सेवा करने के लिए दो हजार मासिक, मोटर, बिजली, पखे, फिटन, नौकर या चाकर की क्या जरूरत है? आप रूखी रोटियाँ खा कर जाति की सेवा इससे कही उत्तम रीति से कर सकते है। आप कहेगे-वाह, हमने परिश्रम से विद्योपार्जन किया है इसीलिए। तो जब आपने अपने कायिक सुखभोग के लिए इतना अध्यबसाय किया है तब जाति पर इसका क्या एहसान? आप किस मुंह से जाति के नेतृत्व की दावा करते हैं? आप मिले खोलते है तो समझते हैं हमने आति की बड़ी सेवा की, पर यथार्थ में आपने दस-बीस आदमियों को बनबास दे दिया। आपने उनके नैतिक और सामाजिक पतन का सामान पैदा कर दिया। हाँ, आपने और आपके साझेदारों ने ४५ रु० प्रति सैकडे लाभ अवश्य उठाया। तो भाई, जब तक यह घीगा-धीगी चलती है चलने दो। न तुम मुझे बुरा कहो, न मैं तुम्हे बुरा कहूँ। हम और आप, नरम और गरम दोनो ही जाति के शत्रु है। अन्तर यह है कि मैं अपने को शत्रु समझता हैं और आप अहंकार के मद में अपने को उसका मित्र समझते हैं।

इन तर्को को सुन कर लोग उन्हे नक्की और झक्की कते थे। अवस्था के साथ रायसाहब का संगीत-प्रेम और भी बढ़ता जाता था। अधिकारियों से मुलाकात का उन्हें अब इतना व्यसन नहीं था। जहाँ किसी उस्ताद की खबर पाते, तुरन्त बुलाते और यथायोग्य सम्मान करते। संगीत की वर्तमान अभिरुचि को देख कर उन्हें भय होता था कि अगर कुछ दिनों यही दशी रही तो इसका स्वरूप ही मिट जायगा, देश और भैरव की तमीज भी किसी को न होगी। वह संगीत-कला को जाति की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति समझते थे। उसकी अवनति उनकी समझ में जातीय पतन का निकृष्टतम स्वरूप था । व्यय का अनुमान चार लाख किया गया था। राय साहब ने किसी से सहायता माँगना उचित न समझा था, लेकिन कई रईसो ने स्वय २-२ लाख के वचन दिये थे। तब भी राय साहब पर २-२ लाख का भार पड़ना सिद्ध था। यूरोप से छह नामी सगीतज्ञ आ गये थे—दो जर्मनी से, दो इटली से, एक मास और एक इंगलिस्तान से। मैसूर, ग्वालियर, ढाका, जयपुर, काश्मीर के उस्तादों को निमन्त्रण-पत्र भेज दिये गये थे। राय साहब को प्राइवेट सेकेटरी सारे दिन पत्र-व्यवहार में व्यस्त रहता था, तिस पर चिट्ठियों की इतनी कसरत हो जाती थी कि बहुधा राय साहब को स्वयं जवाब लिखने पड़ते थे। इसी काम को निबटाने के लिए उन्होने ज्ञानशंकर को बुलाया और वह आज ही विद्या के साथ आ गये थे। राय साहब ने गायत्री के न आने पर बहुत खेद प्रकट किया और बोले, वह इसी लिए नहीं आयी है कि मैं सनातनधर्म सभा के उत्सव में न आ सका था। [ २६७ ]अब रानी हो गयी है। क्या इतना गर्व भी न होगा? यहाँ तो मरने की भी छुट्टी न थी, जाता क्योंकर?

ज्ञानशंकर रात भर के जागे थे, भोजन करके लेटे तो तीसरे पहर उठे। राय साहब दीवानखाने मै वैठे हुए चिट्ठियाँ पढ़ रहे थे। ज्ञानशंकर को देख कर बोले, आइए, भगत जी, आइए! तुमने तो काया ही पलट दी। बड़े भाग्यवान हो कि इतनी ही अवस्था में ज्ञान प्राप्त कर लिया। यहाँ तो मरने के किनारे आये, पर अभी माया मोह से मुक्त न हुआ । यह देखो, पूना से प्रोफेसर माधौल्लकर ने यह पत्र भेजा है। उन्हें न जाने कैसे यह शफा हो गयी है कि मैं इस देश में विदेशी संगीत का प्रचार करना चाहता हैं। इस पर आपने मुझे खूब आड़े हाथों लिया है।

ज्ञानशंकर मतलब की बात छेड़ने के लिए अधीर हो रहे थे, अवसर मिल गया, बोले- आपने यूरोप से लोगों को नाहक बुलाया। इसी से जनता को ऐसी शकाएँ हो रही है। उन लोगो की फीस तय हो गयी है?

राय साहब-हाँ, यह तो पहली बात थी। दो सज्जनों की फीस तो रोजाना दो-दो हजार है। सफर का खर्च अलग। जर्मनी के दोनो महाशय डेढ़डेढ हजार रोजाना लेंगे। केवल इटली के दोनो आदमियों ने नि स्वार्थ भाव से शरीक होना स्वीकार किया है।

ज्ञान–अगर यह चारो महाशय यहाँ १५ दिन भी रहे तो एक लाख रुपये तो उन्हीं को चाहिए?

राय-हाँ, इससे क्या कम होगा।

ज्ञान—तो कुल खर्च चाहे ५-५॥ लाख तक जा पहुँचे।

राय—तखमीना तो ४ लाख' का किया गया था, लेकिन शायद इससे कुछ ज्यादा ही पड़ जाये।

ज्ञान–यहाँ के रईसों ने भी कुछ हिम्मत दिखायी?

राय-यहाँ, कई सज्जनों ने वचन दिये है। सम्भव है दो लाख मिल जायें।

ज्ञान-अगर वह अपने वचन पूरे भी कर दें तो आपको २-३ लाख की जेरवारी होगी।

राय साहब ने व्यगपूर्ण हास्य के साथ कहा, मैं उसे जेरबारी नहीं समझता। धन सुद्ध-भोग के लिए है। उसका और कोई उद्देश्य नहीं है। मैं घन को अपनी इच्छाओं को गुलाम समझता हूँ, उसका गुलाम बनना नहीं चाहता।

ज्ञान-लेकिन वारिसों को भी तो सुख-भोग का कुछ न कुछ अधिकार है?

राय साहब-संसार में सब प्राणी अपने कर्मानुसार सुख-दुख भोगते हैं। मैं किसी के भाग्य को विधाता हूँ?

ज्ञान-क्षमा कीजिएगा, यह शब्द ऎसे पुरुष के मुंह से शोभा नहीं देते जो अपने जीवन का अधिकाश बिता चुका हूँ।

राय साहब ने कठोर स्वर से कहा, तुमको मुझे उपदेश करने का कोई अधिकार नही हैं। मैं अपनी सम्पत्ति का स्वामी हैं, उसे अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार खर्च [ २६८ ]करूंगा। यदि इससे तुम्हारे सुख-स्वप्न नष्ट होते है तो हो, मैं इसकी परवाह नहीं करता। यह मुमकिन नहीं कि सारे संसार में इस कान्फ्रेंस की सूचना देने के बाद अब मैं उसे स्थगित कर दें। मेरी सारी जायदाद बिक जाय तो भी मैंने जो काम उठाया हैं उसे अत तक पहुँचा कर छोड़ूँगा। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम कृष्ण के ऐसे भक्त और त्याग तथा वैराग्य के ऐसे साधक हो कर माया-मोह मे इतने लिप्त क्यों हो? जिसने कृष्ण का दामन पकड़ा, प्रेम का आश्रय लिया, भक्ति की शरण गही, उसके लिए सांसारिक विभब क्या चीज है! तुम्हारी बातें सुन कर और तुम्हारे चित्त की यह वृत्ति देख कर मुझे संशय होता है कि तुमने वह रूप धरा है और प्रेम-भक्ति का स्वाद नहीं पाया। कृष्ण का अनुरागी कभी इतना संकीर्ण हृदय नहीं हो सकता। मुझे अब शंका हो रही है कि तुमने यह जाल कहीं सरल-हृदय गायत्री के लिए न फैलाया हो।

यह कह कर राय साहब ने ज्ञानशंकर को तीव्र नेत्रों से देखा। उनके संदेह का निशाना इतना ठीक बैठा था कि ज्ञानशंकर का हृदय काँप उठा। इस भ्रम की मुलोच्छेद करना परमावश्यक था। रायसाहब के मन में इसका जगह पाना अत्यन्त भयंकर था। इतना ही नहीं, इस भ्रम को दूर करने के लिए निर्भीकता की आवश्यकता थी। शिष्टाचार का समय न था। बोले, आपके मुख से स्वाँग और बहुरूप की लाछना सुन कर एक मसल याद आती है, लेकिन आप पर उसे घटित करना नहीं चाहता है जो प्राणी घर्म के नाम पर विषय-वासना और विष पाने को स्तुत्य समझता हो वह यदि दूसरो की धार्मिक वृत्ति को पाखड समझे तो क्षम्य है।

राय साहब ने ज्ञानशकर को फिर चुभती हुई दृष्टि से देखा और कड़ी आवाज से बोले, तुम्हे सच कहना होगा!

ज्ञानशंकर को ऐसा अनुभव हुआ मानो उनके हृदय पर से कोई पर्दा सा उठा जा रहा है। उनपर एक अर्द्ध विस्मृति की दशा छा गयी। हीन भाव से बोले- जी हाँ, सच कहूँगा।

राय तुमने यह जाल किसके लिए फैलाया है?

ज्ञान-गयित्री के लिए।

राय—तुम उससे क्या चाहते हो?

ज्ञान-उसकी सम्पत्ति और उसका प्रेम।

राय साहव खिलखिलाकर हँसे। ज्ञानशंकर को जान पड़ा, मैं कोई स्वप्न देखते देखते जाग उठा। उनके मुँह से जो बातें निकली थी, वह उन्हें याद थी। उनका कृत्रिम क्रोध शान्त हो गया था। उसकी जगह उस लज्जा और दीनता ने ले ली थी जो किसी अपराधी के चेहरे पर नजर आती है। वह समझ गये कि राय साहब ने मुझे अपने आत्मबल से वशीभूत करके मेरी दुष्कल्पना को स्वीकार कर लिया। इस समय वह उन्हें अत्यन्त भयावह रूप में देख पड़ते थे। उनके मन में अत्याचार का प्रत्याघात करने की घातक चेष्टा लहरें मार रही थी, पर इसके साथ ही उनपर एक विचित्र भय आच्छादित हो गया था। वह इस शैतान के सामने अपने को सर्वथा निर्बल और [ २६९ ]अशक्त पाते थे। इन परिस्थितियों से वह ऐसे उद्विग्न हो रहे थे कि जी चाहता था आत्महत्या कर लें। जिस भवन को वह छह सात वर्षों से एक-एक ईंट जोड़ कर बना रहे थे इस समय वह हिल रहा था और निकट था कि गिर पड़े। उसे सँभालना उनकी शक्ति के बाहर था। शोक मेरे भन्सूबे मिट्टी में मिले जाते हैं। इधर से भी गया। यकायक राय साहब बोले–बेटा, तुम व्यर्थ मुझपर इतना कोप कर रहे हो। मैं इतना क्षुद्द-हृदय नहीं हूँ कि तुम्हें गायत्री की दृष्टि में गिराऊँ। उसकी जायदाद तुम्हारे हाथ लग जाय तो मेरे लिए इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या होगी? लेकिन तुम्हारी चेष्टा उसकी जायदाद ही तक रहती तो मुझे कोई आपत्ति न होती। आखिर वह जायदाद किसी न किसी को तो मिलेगी ही और जिन्हें मिलेगी वह मुझे तुमसे ज्यादे प्यारे नहीं हो सकते। किन्तु मैं उसके सतीत्य को उसकी जायदाद से कहीं ज्यादा बहुमूल्य समझता हूँ और उसपर किसी की लोलुप दृष्टि का पड़ना सहन नहीं कर सकता। तुम्हारी सच्चरित्रता की मैं सराहना किया करता था, तुम्हारी योग्यता और कार्यपटुता का में कायल था, लेकिन मुझे इसका गुमाने भी न था कि तुम इतने स्वार्थ-भक्त हो। तुम मुझे पाखडी और विषयी समझते हो, मुझे इसका जरा भी दुख नहीं है। अनात्मवादियों को ऐसी शंका होनी स्वाभाविक है। किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हैं। कि मैंने कभी सौदर्य को बासना की दृष्टि से नहीं देखा। मैं सौदर्य की उपासना करता हूँ, उसे अपने आत्म-निग्रह का साधन समझता हूँ, उससे आत्म-बल संग्रह करता हूँ, उसे अपनी चेष्टायों की सामग्री नहीं बनाता। और मान लो, मैं विषयी ही सही। बहुत दिन बीत गये हैं, थोड़े दिन और बाकी है, जैसा अब तक रहो वैसा ही आगे भी रहूँगा। अब मेरा सुधार नहीं हो सकता। लेकिन तुम्हारे सामने अभी सारी उम्र पड़ी हुई है, इसलिए मैं तुमसे अनुरोध करता हैं और प्रार्थना करता हूँ कि इच्छा के, कुवासनाओं के गुलाम मत बनो। तुम इस भ्रम में पड़े हुए हो कि मनुष्य अपने भाग्य का विघाता है। यह सर्वथा मिथ्या है। हम तकदीर के खिलौने है, विधाता नहीं। वह हमें अपने इच्छानुसार नचाया करती है। तुम्हें क्या मालूम है कि जिसके लिए तुम सत्यासत्य में विवेक नहीं करते, पुण्य और पाप को समान समझते हो उस शुभ मुहर्त तक सभी विघ्न बाधाओं से सुरक्षित रहेगा? सम्भव है कि ठीक उस समय जब जायदाद पर उसका नाम चढाया जा रहा हो एक फुसी उसका काम तमाम कर दे। यह न समझो कि मैं तुम्हारा बुरा चेत रहा हूँ। तुम्हें आशाओं की असारता का केवल एक स्वरूप दिखाना चाहता हूँ। मैंने तकदीर की कितनी ही लीलाएँ देखी हैं और स्वयं उसका सताया हुआ है। उसे अपनी शुभ कल्पनाओं के साँचे में ढालना हमारी सामर्थ्य से बाहर है। मैं नहीं कहता कि तुम अपने और अपनी सन्तान के हित की चिंता मत करो, धनोपार्जन न करो। नहीं, खूब घन कमाओं और खूब समृद्धि प्राप्त करो, किंतु अपनी आत्मा और ईमान को उसपर बलिवान ने करो। धूर्तता और पाखड, छल और कपट से बचते रहो। मेरी जायदाद २० लाख से कम की मालियत नहीं है। अगर दो-चार लाख कर्ज ही हो जाये तो तुम्हें धबड़ाना नहीं चाहिए। क्या इतनी [ २७० ]सम्पत्ति मायाशंकर के लिए काफी नहीं है। तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति भी २ लाख से कम की नहीं है। अगर इसे काफी नही समझते तो गायत्री की जायदाद पर भी निगाह रखो, इसे मैं बुरा नहीं कहता। अपने सुप्रबन्ध से, कार्य कुशलता से, किफायत से, हितेच्छा से उसके कृपा-पात्र बन जाओ, न कि उसके भोलेपन, उसकी सरलता और मिथ्या भक्ति को अपनी कूटनीति का लक्ष्य बना और प्रेम का स्वाँग भर कर उसके जीवन-रन पर हाथ बढाओ।

इतने में प्राइवेट सेक्रेटरी साहब आये। राय साहब उनकी ओर आकृष्ट हो गयें। ज्ञानशंकर रो रहे थे। भेद खुल जाने का शोक था, चिरसचित अभिलाषाओं के विनष्ट हो जाने का दुख, कुछ ग्लानि, कुछ अपनी दुर्जनता का खेद, कुछ निर्बल क्रोध। तर्कना शक्ति इतने आघातों को प्रतिरोध न कर सकती थी।

ज्ञानशंकर उठ कर बगल में एक बैच पर जा बैठे। माघ का महीना था और सध्या का समय। लेकिन उन्हें इस समय जरा भी सरदी न लगती थी। समस्त शरीर अतरस्थ चिन्ता दाह से खौल रहा था। राय साहब का उपदेश सम्पूर्णतः विस्मृत हो गया था। केवल यह चिंता थी कि गिरती हुई दीवार को क्यों कर थामे, मरती हुई अभिलाषाओं को क्यों कर सँभाले? यह महाशय कहते हैं कि मैं गायत्री से कुछ न कहूँगा, लेकिन इनको एतभार ही क्या इन्होंने जहाँ उनके कान भरे वह मेरी सूरत से घृणा करने लगेगी। गौरवशील स्त्री है, उसे अपने सतीत्व पर घमंड है। यद्यपि उसे मुझसे प्रेम है किन्तु अभी तक उसका आधार धर्म पर हैं, मनोवेगों पर नहीं। उसकी स्थिति का क्या भरोसा? दुष्ट अपनी जायदाद का सर्वनाश तो किये ही डालता है, उधर का द्वार भी बन्द किये देता है कि मुझे कहीं निकलने का मार्ग ही न मिले। मैं इतनी निराशाओं का भार नहीं सह सकता। इस जीवन में अब कोई आनन्द नहीं रहा। जब अभिलाषाओं का ही अन्त हुआ जाता है तब जी कर ही क्या करना हैं? हाँ। क्या सोचता था और क्या हो रहा हैं?

राय साहब तो शाम को क्लब चले गये और ज्ञानशंकर उसी निर्जन स्थान पर बैठे हुए जीवन और मृत्यु का निर्णय करते रहे। उनकी दशा उस व्यापारी की सी थी जिनका सब कुछ जलमग्न हो गया हो, बाउस विद्यार्थी की सी थी जो वर्षों के कठिन श्रम के बाद परीक्षा में गिर गया हो। जब बाग में खूब औस पड़ने लगी तो वह उठ कर कमरे में चले गये। फिर उन्हीं चिन्ताओं ने आ घेरा। जीवन में अब निराशा और अपमान के सिवा और कुछ नहीं रहा। ठोकरें खाता रहूंगा। जीवन का अन्त ही अब मेरे डूबते हुए बेड़े को पार लगा सकता है। राय साहब इतने नीच नहीं है कि मरने पर भी मुझे बदनाम करें। उन्होने बहुत सच कहा था कि मनुष्य अपने भाग्य का खिलौना है। मैं इस दशा में हैं कि मृत्यु ही मेरे सारे दुखों का एकमात्र उपाय है। सामान्यतः लोग यही समझेंगे कि मैंने संसार से विरक्त हो कर प्राण त्याग दिये, माया मोह के वन्धन से मुक्त हो गया। ऐसी मुक्त आत्मा के लिए यह अन्वकारमय जगत अनुकूल न था। विद्या की निगाह में मेरा आदर कई गुना बढ़ जायगा और गायत्री तो मुझे [ २७१ ] कृष्ण का अवतार समझने लगेगी। बहुत सम्भव है कि मेरी आत्मा को प्रसन्न करने के लिए वह माया को गोद ले ले। चाचा और भाई दोनों मुझपर कुपित है। मौत उनको भी नर्म कर देगी। और मुश्किल ही क्या है? कल गोमती स्नान करने जाऊँ। एक सीढ़ी भी नीचे उतर गया तो काम तमाम है। बीस हजार जो मैं नगद छोड़े जाता हूँ, विद्या के निर्वाह के लिए काफी हैं। लखनपुर की आमदनी अलग।

यह सोचते-सोचते ज्ञानशंकर इतने शोकातुर हुए कि जोर-जोर से सिसकियाँ भर कर रोने लगे। यही जीवन का फल है? इसी लिए दुनियाँ भर के मनसूबे बाँधे थे? यह दुष्ट कमलानन्द मेरी गर्दन पर छुरी फेर रहा है। यहीं निर्दय मेरी जान का गाहक हो रहा है।

इतने में विद्यावती आ गयी और बोली, आज दादा जी से तुमसे कुछ तकरार हो गयी क्या? मुख्तार साहब कहते थे कि राय साहब बडे क्रोध में थे। तुम नाहक उनके बीच में बोला करते हो। वह जो कुछ करें करने दो। अम्मा समझाते-समझाते मर गयी, इन्होंने कभी रत्ती भर परवाह न की। अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं।

ज्ञान—मैंने तो केवल इतना कहा कि आप को व्यर्थ २-३ लाख रुपया फेंक देना उचित नहीं है। बस इतनी सी बात पर बिगड़ गये।

विद्या—यह तो उनका स्वभाव ही है। जहाँ उनकी बात किसी ने काटी और वह आग हुए। बुरा मुझे भी लग रहा हैं, पर मुंह खोलते काँपती हूँ।

ज्ञान—मुझे इनकी जायदाद की परवाह नहीं है। मैंने वृन्दावनविहारी का आश्रय लिया है, अब किसी बात की अभिलाषा नहीं, लेकिन यह अनर्थ नहीं देखा जाता।

विद्या चली गयीं। थोड़ी देर में महाराज ने भोजन की थाली ला कर रख दी। लेकिन ज्ञानशंकर को कुछ खाने की इच्छा न हुई। थोडा सा दूध पी लिया और फिर विचारों में मुग्न हुए—स्त्रियों के विचार कितने सकुचित होते हैं। तभी तो इन्हें सन्तोष हो जाता है। वह समझती है, आदमी को चैन से भोजन वस्त्र मिल जाँय, गहने-जेवर बनते जाये, संताने होती जायें, बस और क्या चाहिए। मानो मानव-जीवन भी अन्य जीववारियो की भाँति केवल स्वाभाविक आवश्यकताएँ पूरी करने के ही लिए है। विद्या को कितना सन्तोष है! लोग स्त्रियों के इस गुण को बड़ी प्रशंसा करते है। मेरा विचार तो यह है कि धैर्य और संतोष उनकी बुद्धि-हीनता का प्रमाण है। उनमें इतना बुद्धि सामर्थ ही नहीं होता कि अवस्था और स्थिति का यथार्थ अनुमान कर सकें। राय साहब की फूँक ताप विद्या को भी अखरती हैं, लेकिन कुछ बोलती नहीं, जरा भी चिन्तित नहीं हैं। यह नहीं समझती कि वह सरासर अपनी ही हानि, अपना ही सर्वनाश है। दया ने कैसा पलटा खाया है। अगर मेरे मनसूवे सफल हो जाते तो दो-चार वर्ष में मैं ३ लाख रुपये वार्षिक का आदमी होता। दस-पन्द्रह वर्षों में अतुल्य संपत्ति का स्वामी होता लेकिन मन की मिठाई खाने से क्या होता है?

ज्ञानशंकर बड़ी गम्भीर प्रकृति के मनुष्य थे। उनमे शुद्ध संकल्प की भी कमी न थी। मौकों मे उनके पैर न उखड़ते थे, कठिनाइयो मे उनकी हिम्मत न छूटती थीं। [ २७२ ]गोरखपुर में उनपर चारो ओर से दाँव-पेच होते रहे लेकिन उन्होंने कभी परवाह न की। लेकिन उनकी अबिचलता वह थी जो परिस्थित-ज्ञान-शून्यता की हद तक जा पड़ती है। वह उन जुआरियों में न थे, जो अपना सब कुछ एक दाँव पर हार कर अकड़ते हुए चलते है। छोटी-छोटी हा का, छोटी-छोटी असफलताओं का असर उन पर न होता था, लेकिन उन मन्तव्यों का नष्ट भ्रष्ट हो जाना, जिन पर जीवन उत्सर्ग कर दिया गया हो, धैर्य को भी विचलित, अस्थिर कर लेता है, और फिर यहाँ केवल नैराश्य आर शौक न था। मेरे छल कपट का पर्दा खुल गया! मेरी भक्ति और धर्मनिष्ठा की, मैरे वैराग्य और त्याग की, मेरे उच्चादर्शी की, मेरे पवित्र आचरण की कलई खुल गयी! संसार अब मुझे यथार्थ रूप में देखेगा। अब तक मैंने अपनी तर्कनाओं से, अपनी प्रगल्भता से, अपनी कुलुपता को छिपाया। अब वह बात कहाँ?

ज्ञानशंकर को नींद न आयी। जरा आँखे झपक जाती तो भयावह स्वप्न दिखाय देने लगते। कभी देखते, मैं गोमती में डूब गया हूँ और मेरा शव चिता पर जलाया जा रहा है। कभी नजर आता, मेरा विशाल भवन् विध्वस हो गया है और मायाशंकर उसके भग्नावेश पर बैठा हुआ रो रहा है। एक बार ऐसा जान पडा किं गायत्री मेरी ओर कोप-दृष्टि से देख कर कह रहीं हैं, तुम मक्कार हो, आँखो से दूर हो जाओ।

प्रात काल ज्ञानशंकर उठे तो चित्त बहुत खिन्न था। ऐसे अलसाये हुए थे, मानो कोई मजिल तय करके आये हो। उन्होनें किसी से कुछ बातचीत न की। घोती उठायी और पैदल गोमती की ओर चले। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था, लेकिन तमाखूवालों की दुकाने खुल गयी थी। ज्ञानशंकर ने सोचा, क्या तमाखू ही जीवन की मुख्य वस्तु हैं कि सबसे पहले इनकी दूकान खुलती है? जरा देर मे मलाई-भक्खन की ध्वनि कानों मे आयी। दुष्ट कितना जीभ ऐंठ कर बोलता है। समझता होगा कि यह कर्णकटु शब्द रुचिवर्द्धक होगे। भला गाता तो एक बात भी थी। अच्छा, धाय गरम भी आ पहुँची। गर्म तो अवश्य ही होगी, बिना फूके पियो तो जीभ जल जाय, मगर स्वाद वही गर्म पानी की। यह कौन महाशय घोड़ा दौडाये चले आते है। घौडा ठोकर ले तो साहब बहादुर की हड्डि चूर हो जायँ।

वह गोमती के तट पर पहुँचे तो भक्त जनो की भीड़ देखी। श्यामल जलधारा पर श्यामल कुहिर घटा छायी हुई थी। सूर्य की सुनहरी किरणें इस श्याम घटा में प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक थी। दो-चार नौकाएँ पानी में खड़ी काँप रही थी।

ज्ञानशंकर ने धोती चौकी पर रख दी और पानी में घुसे तो सहसा उनकी आँखे सजल ही गयी। कमर तक पानी में गये, आगे बढ़ने का साहस न हुआ। अपमान और नैराश्य के जिन भावों ने उनकी प्रेरणाओं को उत्तेजित कर रखा था वह अकस्मात् शिथिल पड़ गये। कितने रण-मद के मतवाले रणक्षेत्र मे आ कर पीठ फेर लेते है। मृत्यु दूर से इतनी विकराल नहीं दीख पड़ती, जितनी सम्मुख आ कर। सिंह कितना भयंकर जीव है, इसका अनुमान उसे सामने देख कर हो सकता है। पहाड़ो को दूर से देखो तो ऊँची मेड़ के सदृश देख पड़ते है, उनपर चढ़ना आसान मालूम होता है, किन्तु [ २७३ ]समीप जाइए तो उनकी गगन-स्पर्शी चोटियों को देख कर चित्त कैसा भयभीत हो जाता है! ज्ञानशंकर ने मरने को जितना सहज समझा था उससे कही कठिन ज्ञात हुआ। उन्हें विचार हुआ, मैं कैसा मन्द बुद्धि हैं कि एक जरा सी बात के लिए प्राण देने पर तत्पर हो रहा हैं। माना, मैं राय साहब की नजरों में गिर गया, माना गायत्री भी मुझे मुंह न लगायेगी और विद्या भी मुझसे घृणा करने लगेगी, तब भी क्या मैं जीवनकाल मे कुछ काम नहीं कर सकता? अपना जीवन सफल नहीं बना सकता? संसार का कर्म क्षेत्र इतना तंग नहीं है। मैं इस समय आज से छह सात वर्ष पूर्व की अपेक्षा कहीं अच्छी दशा में हूँ। मेरे २० हजार रुपये बैंक में जमा है, २०० रु० मासिक की आमदनी गाँव से है, बँगला है, मोटर है, मकान किराये पर उठा दें तो ५०-६० रु० माहवार और मिलने लगे। अगर किसी की चाकरी न करूं तो भी एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत कर सकता हूँ। राय साहब यदि मेरी कलई खोल दे तो क्या मैं उनकी खबर नहीं ले सकता? उन्हें अपने कलम के जोर से इतना बिगाड़ सकता हैं कि वह किसी। को मुंह दिखाने योग्य न रहेगे। गायत्री भी मेरे पजे में हैं, मेरी तरफ से जरा भी निगाह मोटी करे तो आन की आन में उसे इस उच्चासन से गिर सकता हूँ। उसे मैंने ही इतना नेकनीम बनाया है और बदनाम भी कर सकता हूँ। मेरी बुद्धि न जाने कहाँ चली गयी थी। कूटनीति की रंगभूमि क्या इतनी संकीर्ण है? अब तक मुझे जो कुछ सफलता हुई है इसी की बदौलत हुई है, तो अब मैं उसका दामन क्यों छोड़े? उससे निराश क्यों हो जाऊँ? अगर इस टूटी हुई नौका पर बैठ कर मैंने आधी नदी पार कर ली है तो अब उसपर से जल में क्यों कुद पड़ूँ।

ज्ञानशंकर स्नान करके जल से निकल आये। उनका चेहरा विजय-ज्योति से चमक रहा था।

लेकिन जिस प्रकार विजयी सैना शत्रुदल को मैदान से हटा कर और भी उत्साहित हो जाती है और शत्रु को इतना निर्बल और अपंग बना देती है कि फिर उसके मैदान मे आने की सम्भावना ही न रहे, उसी प्रकार ज्ञानशंकर के हौसले भी बढे। सोचा, इसकी नौबत ही क्यो आने दें कि मुझपर चारो ओर से आक्षेप होने लगें और मैं अपनी सफाई देता फिरूँ? मैं मर कर नेकनाम बनना चाहता था, क्यों न मार कर वही उद्देश्य पूरा करूं? इस समय यही पुरुषोचित कर्तव्य है। मरने से मारना कही सुगम है। भाग्य-विधाता। तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। तुमने मुझको मृत्यु के मुख से निकाल लिया। बाल-बाल बचा! मैं अब भी अपने मनसूबो को पूरा कर सकता हूँ। विभव, यश, सुकीर्ति सब कुछ मेरे अधीन है, केवल थोड़ी सी हिम्मत चाहिए। ईश्वर का कोई भय नहीं, वह सर्वज्ञ है। पर्दा तो केवल मनुष्यों की आँखों पर डालना है, और मैं इस काम में सिद्धहस्त हूँ।

ज्ञानशंकर एक किराये के ताँगे पर बैठ कर घर आयें। रास्ते भर वह इन्ही विचारों में लीन रहे। उनकी ऋद्धि-प्राप्ति के मार्ग में रायसाहव ही बाधक हो रहे थे। इस बाधा को हटाना आवश्यक था। पहले ज्ञानशंकर ने निराश हो कर मार्ग से लौट जाने

१८

[ २७४ ]का निश्चय किया था। अपने प्राण दे कर इस संकट से निवृत्त होना चाहते थे। अब उन्होंने रायसाहब को ही अपनी आकांक्षाओं की बेदी पर बलिदान करने की ठानी। ससार इसे हिंसा कहेगा, उसकी दृष्टि में यह घोर पाप है-सर्वथा अक्षम्य, अमानुषीय। लेकिन दार्शनिक दृष्टि से देखिए तो इसमें पाप को सम्पर्क तक नही है। रायसाहब के मरने से किसी को क्या हानि होगी? उनके बाल-बच्चे नहीं हैं जो अनाथ हो जायेगे। वह कोई ऐसा महान कार्य नहीं कर रहे है जो उनके मर जाने से अधूरा रह जायगा, उनकी जायदाद का भी ह्रास नहीं होता; बल्कि एक ऐसी व्यवस्था का आरोपण हुआ जाता है जिससे वह सुरक्षित रहेगी। समाज और अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार तो इसे हत्या कह ही नहीं सकते। नैतिक दृष्टि से भी इसपर कोई आपत्ति नही हो सकती। केवल धार्मिक दृष्टि से इसे पाप कहा जा सकता है। और लौकिक रीति के अनुसार तो यह काम केवल सराहनीय ही नही परमावश्यक है। यह जीवन संग्राम है। इस क्षेत्र में विवेक, धर्म और नीति का गुजर नही। यह कोई धर्मयुद्ध नहीं है। यहाँ कपट, दगा, फरेब सब कुछ उपयुक्त हैं, अगर उससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है। यहाँ छापा मारना, आड़ से शस्त्र चलाना विजय प्राप्ति के साधन हैं। यहाँ औचित्य अनौचित्य का निर्णय हमारी सफलता के अधीन है। अगर जीत गये तो सारे घोखे और मुगालते सुअवसर के नाम से पुकारे जाते हैं, हमारी कार्य कुशलता की प्रशंसा होती है। हारे तो उन्हें पाप कहा जाता है। बस, इस पत्थर को मार्ग से हुदा हैं और मेरा रास्ता साफ है।

ज्ञानशंकर ने नाना प्रकार के तर्कों से इन मनोगत विचारों को उसी तरह प्रोत्साहित किया , जैसे कोई कबूतरबाज बहके हुए कबूतरों को दाने बिखेर-बिखेर कर अपनी छतरी पर बुलाता हैं। अन्त में उनकी हिंसात्मक प्रेरणा दृढ हो गयी। जगत हिंसा के नाम से काँपता है, हिंसक पर बिना समझे दूझे चारो ओर से वार होने लगते हैं। वह दुरात्मा है, दंडनीय है, उसका मुंह देखना भी पाप है। लेकिन यह अनन्त संसार केवल मूर्खों की बस्ती हैं। इसके विचारो का, इसके भावों का सम्मान करना काँटो पर चलना है। यहाँ कोई नियम नहीं, कोई सिद्धान्त नहीं , कोई न्याय नहीं। इसकी जवान बन्द करने का बस एक ही उपाय है। इसकी आँखो पर परदा डाल दो और वह तुमसे जरा भी एतराज न करेगी। इतना ही नहीं, तुम समाज के सम्मान के अविकारी हो जाओगे।

घर पहुँच कर ज्ञानशंकर तुरन्त राय साहब के पुस्तकालय में गये और अँगरेजी का वृहत् रसायन कोष निकाल कर विषाक्त पदार्थों के गुण और प्रभाव का अन्वेषण करने लगे।