प्रेमाश्रम/४१

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४१

जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ। रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश मे वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म सस्था को ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार और उसकी विरोधी तथा सहायक शक्तियों का बड़ी योग्यता से निरूपण किया गया था। सस्था की वर्तमान दशी और भावी लक्ष्य की बड़ी मार्मिक आलोचना की गयी थी। पत्रों मे उस वक्तृता को पढ़ कर लोग चकित हो जाते थे और जिन्होंने उसे अपने कानों से सुना वे उसका स्वर्गीय आनन्द कभी न भूलेगे। क्या वाक्यशैली थी, कितनी सरल, कितनी मधुर, कितनी प्रभावशाली, कितनी भावमयी! वक्तृता क्या थी—एक मनोहर गान था!

तीन दिन बीत चुके थे। ज्ञानशंकर अपने भव्य-भवन में समाचार-पत्रों का एक दफ्तर सामने रखे बैठे हुए थे। आजकल उनका यहीं काम था कि पत्रों में जहाँ कही इस जलसे की आलोचना हुई तुरंत काट कर रख लेते। गायत्री अब ज्ञानशंकर को दैवतुल्य समझती थी। उन्हीं की बदौलत आज समस्त देश में उसकी सुकीर्ति की। [ २६२ ]धूम मची हुई थी। उनके इस अतुल उपकार का एक ही उपहार था और वह प्रेम पूर्ण श्रद्धा थी।

सन्ध्या हो गयी थी कि अकस्मात् ज्ञानशंकर पत्रों की एक पोट लिए हुए अन्दर गये और गायत्री से बोले, देखिए, रायसाहब ने यह नया शिगुफा छोड़ा।

गायत्री नै भौहें चढ़ा कर कहा, मैरे सामने उनका नाम न लीजिए। मैंने उनकी कितनी चिरौरी की थी कि एक दिन के लिए जलसे में अवश्य आइए, पर उन्होंने जरा भी परवाह न की। पत्र का उत्तर तक न दिया। बाप हैं तो क्या, मैं उनके हाथ भी अपना अपमान नहीं सह सकती।

ज्ञान मैंने तो समझा था, यह उनकी लापरवाही है, लेकिन इस पत्र से विदित होता है कि आजकल वह एक दूसरी ही बुन में हैं। शायद इसी कारण अवकाश न मिला हो।

गायत्री--क्या बात है, किसी अँगरेज से लड़ तो नहीं बैठे?

ज्ञान-नहीं, आजकल एक संगीत-सभा की तैयारी कर रहे हैं।

गायत्री---उनके यहाँ तो बारहो मास संगीत-सभा होती रहती है।

ज्ञान-नहीं, यह उत्सव बड़ी धूम से होगा। देश के समस्त गर्वयो के नाम निमत्रण-पत्र भेजे गये हैं। यूरोप से भी कोई जगद्विख्यात गायनाचार्यं बुलाये जा रहे हैं। रईसों और अधिकारियो को दावत दी गयी है। एक सप्ताह तक जलसा होगा। यहाँ के सगीत-शास्त्र और पद्धति में सुधार करना उनका उद्देश्य है।

गायत्री हमारी सगीत-शास्त्र ऋषियों का रचा हुआ है। उसमें कोई क्या सुधार करेंगा? इस भैरव और ध्रुपद के शब्द यशोदानन्दन की वशीं से निकलते थे। पहले कोई गा तो ले, सुधारना तो छोटा मुंह बड़ी बात है।

ज्ञान–राय साहब को कोई और चिन्ता तो है नहीं, एक न एक स्वाँग रचते रहते हैं, कर्ज बढ़ता जाता है, रियासत बोझ से दी जाती है, पर वह अपनी धुन में किसी की कब सुनते हैं! मेरा अनुमान है कि इस समय उनपर कोई ३॥ लाख देना है।

गायत्री--इतना धन कृष्ण भगवान की सेवा में खर्च करते तो परलोक बन जाता! चिट्ठियाँ सो खोलिए, जरूर कोई पत्र होगा।

ज्ञान–हाँ, देखिए यह लिफाफा उन्हीं का मालूम होता है। हाँ, उन्हीं का है। मुझे बुला रहे हैं और आपको भी बुला रहे हैं।

गायत्री-मैं जा चुकी। जब वह यहाँ आने में अपनी हैठी समझते हैं, तो मुझे क्या पड़ी है कि उनके जलसो-तमाशों में जाऊँ? हाँ, विद्या को चाहे पहुँचा दीजिए, मगर शर्त यह है कि आप दो दिन से ज्यादा वहाँ न ठहरें।

ज्ञान–इसके विषय में सोच कर निश्चय करूंगा। यह दो पत्र वरहल और आमगाँव के कारिंदो के हैं। दोनों लिखते हैं कि असामी सभा का चन्दा देने से इन्कार करते हैं।

गायत्री की त्यौरियाँ बदल गयी। प्रेम की देवी क्रोध की मूर्ति बन गयी। बोली, [ २६३ ]क्या देहात में भी वह हवा फैलने लगी? कारिन्दो को लिख दीजिए कि इन पाजियों के घर में आग लगवा दे और उन्हे. कोड़ो से पिटवायै। उनका यह दिल कि मेरी आज्ञा का अनादर करें। देवकीनन्दन, तुम इन नर-पिशाचो को क्षमा करो। आप आज ही वहाँ आदमी रवाना करे! मैं यह अवज्ञा नहीं सह सकती। यह सब के सब कृतघ्न है। किसी दूसरे राज में होते तो आटे-दाल का भाव खुलता। मैं उनके साथ उतनी रिआयत करती हूँ, उनकी मदद के लिए तैयार रहती हूँ, उनके लिए नुकसान उठाती हूँ। और उसका यह फल।

ज्ञान---यह मुन्शी रामसनेही का पत्र है। लिखते हैं, ठाकुरद्वारे का काम तीन दिन से बन्द है। बेगारो को कितनी ताकीद की जाती है, मगर काम पर नहीं आते।

गायत्री-उन्हें मजूरी दी जाती है न?

ज्ञान जी हाँ, लेकिन जमींदारी की दर से दी जाती है। जमींदारी शरह दो आने है, आम शरह छह आने है।

गायत्री—आप उचित समझे तो रामसनेही को लिख दीजिए कि चार आने के हिसाब से मंजूरी दी जाय।

ज्ञान–लिख तो दें, वास्तव में दो आने में एक पेट भी नहीं भरता, लेकिन इ मूर्ख, उजड्ड गवारों पर दया भी की जाय तो वह समझते है कि दब गये। कल को छह आने माँगने लगेंगे और फिर बात भी न सुनेगे।

गायत्री–फिर लिख दीजिए कि बॅगारो को जबरदस्ती पकड़वा ले। अगर न आयें तो उन्हें गाँव से निकाल दीजिए। हम स्वयं दया-भाव से उनके साथ चाहे जो सलूक करें मगर यह कदापि नहीं हो सकता कि कोई असामी मेरे सामने हेकड़ी जताये। अपना रोब और भय बनाये रखना चाहिए।

ज्ञान--यह पत्र अमेलिया के बाजार से आया है। ठेकेदार लिखता है कि लोग गौले के भीतर गाडियाँ नहीं लाते। बाहर ही पेड़ो के नीचे अपना सौदा बेचते हैं। कहते हैं, हमारा जहाँ जी चाहेगा बैठेंगे। ऐसी दशा में ठीको रद्द कर दिया जाये, अन्यथा मुझे बड़ी हानि होगी।

गायत्री---बाजार के बाहर भी तो मेरी ही जमीन है, वहाँ किसी को दूकान रखने का क्या अधिकार है।

ज्ञान–कुछ नहीं, बदमाशी है। बाजारों में रुपये पीछे एक पैसा बयाई देनी पड़ती है, तौल ठीक ठीक होती है, कुछ धर्मार्थ कटौती देनी पड़ती है, बाहर मनमाना राज है।

गायत्री यह क्या बात है कि जो काम जनता के सुभीते और आराम के लिए। किये जाते है, उनका भी लोग विरोध करते है।

ज्ञान कुछ नहीं, यह मानव-प्रकृति है। मनुष्य को स्वभावत दबाव से, रोक-थाम से, चाहे वह उसी के उपकार के लिए क्यो न हो, चिढ़ होती है। किसान अपने मूर्ख पुरोहित के पैर धो-धो पीयेगा, लेकिन कारिन्दों को, चाहे वह विद्वान आह्मण ही क्यों न हो, सलाम करने में भी उसे संकोच होता है। यो चाहे वह दिन भर धूप में खड़ा [ २६४ ]रहे, लेकिन कारिन्दा था चपरासी को देख कर चारपाई से उठना उसे असह्य होता हैं। वह आठौ पहर अपनी दीनता और विवशता के भार से दवा रहना नहीं चाहता। अपनी खुशी से नीम की पत्तियों चबायेगा, लेकिन जबर्दस्ती दूध और शर्बत भी न पीयेगा। यह जानते हुए भी हम उनपर मस्ती करने के लिए बाध्य हैं।

इतने में मायाशंकर एक पीताम्बर ओढे हुए ऊपर से उतरा। अभी उसकी उम्र चौदह वर्ष से अधिक न थी, किन्तु मुख पर एक विलक्षण गम्भीरता और विचारशीलता झलक रही थी जो इस अवस्था में बहुत कम देखने में आती है। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहाँ चले मुन्नू?

माया ने तीव्र नेत्रों से देखते हुए कहा, घाट की तरफ संध्या करने जाता हूँ।

ज्ञान-आज सर्दी बहुत है। यही बाग में क्यों नहीं कर लेते?

माया—वहाँ एकान्त मे चित्त खूब एकाग्र हो जाता है।

वह चला गया तो ज्ञानशंकर ने कहा, इस लड़के का स्वभाव विचित्र है। समझ में ही नहीं आता। सवारियाँ सब तैयार हैं, पर पैदल ही जायगी। किसी को साथ भी नहीं लेता है।

गायत्री-महरियाँ कहती है, अपना बिछावन तक किसी को नहीं छूने देते। वह वैचारियाँ इनका मुँह जौहीं करती है कि कोई काम करने को कहे, पर किसी से कुछ मतलब ही नहीं।

ज्ञान--इस उम्र में कभी-कभी यह सनक सवार हो जाया करती है। संसार का कुछ ज्ञान तो होता नहीं। पुस्तकों में जिन नियमों की सराहना की गयी है, उनके पालन करने को प्रस्तुत हो जाता है। लेकिन मुझे तो यह कुछ मन्दबुद्धि सा जान पड़ता है। इतना बड़ा हुआ, पैसे की कदर ही नहीं जानता। अभी १०० रु० दे दीजिए तो शाम तक पास कौड़ी न रहेगी। न जाने कहाँ उड़ा देता है, किन्तु इसके साथ ही माँगता कभी नहीं। जब तक खुद न कीजिए, अपनी जवान से कभी न कहेगा।

गायत्री-मेरी समझ मे तो यह पूर्व जन्म में कोई सन्यासी रहे होगे।

ज्ञानशंकर ने आज की गाड़ी से बनारस जा कर विद्या को साथ लेते हुए लखनऊ जाने का निश्चय किया। गायत्री बहुत कने-सुनने पर भी राजी न हुई।