प्रेमाश्रम/४४

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४४

सन्ध्या का समय था। बनारस के सैशन जज के इजलास मे हजारो आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के दिन नगर की जनता अदालत में आ जाती थी। जनता को अभियुक्तो की निर्दोषता को पूरा विश्वास हो गया था। मनोहर के आत्मघात की विविध प्रकार से भीमासा की जाती थी और सभी का तत्त्वं यहीं निकलता था कि वही कातिल था, और लोग तो केवल अदालत के कारण फंसा दिये गये है डाक्टर प्रियनाथ और इझन अली की स्वार्थपरता पर खुली-खुली चोटें की जाती थी। प्रेमशंकर की निष्काम सेवा की सभी सराहना किया करते थे। इस मुकदमे ने उन्हें बहुजनप्रिय बना दिया था।

आज फैसला सुनाया जानेवाला था, इसलिए जमाव भी और दिनो से अधिक था। लखनपुर के लोग तो आये ही थे, आस-पास के देहातो से लोग बड़ी संख्या में आ पहुँचे थे। ठीक चार बजे जज ने तजवीज सुनायी----बिसेसर साह रिहा हो गये, बलराज और कादिरखाँ को कालापानी हुआ, शेष अभियुक्तों को सात-सात वर्ष का सपरिश्रम कारावास दिया गया। बलराज ने बिसेसर को सरोप नेत्रों से देखा जो कह रहे थे कि अगर क्षण भर के लिए भी छूट जाऊँ तो खून पी लें। कादिर खाँ बहुत दुखी थे और उदास थे। यह तजवीज सुनी तो आंसू की कई बूँदे मोछो पर गिर पड़ी। जीवन का अन्त ही हो गया। कब से पैर लटकाये बैठे, सजा मिली कालेपानी की! चारों ओर कुहराम मच गया। दर्शकगण अभियुक्तों की ओर लपके, पर रक्षकों ने किसी को उनसे कुछ कहने-सुनने की आज्ञा न दी। मोटर तैयार खड़ी थी। सातों आदमी उसमे बिठाये गये, खिड़कियाँ बन्द कर दी गयी और मोटर जेल की तरफ चली।

प्रेमशंकर चिन्ता और शोक की मूर्ति बने एक वृक्ष के नीचे खडे सुकरुण नेत्रों से मोटर की और ताक रहे थे, जैसे गाँव की स्त्रियाँ सीवान पर खड़ी सजल नेत्रों से ससुराल जानेवाली लड़की की पालकी को देखती है। मोटर दूर निकल गयी तो दर्शको ने उन्हें घेर लिया और तरह-तरह के प्रश्न करने लगे। प्रेमशंकर उनकी और मर्माहत [ २८१ ]भाव से देखते थे, पर कुछ उत्तर न देते थे। सहसा उन्हें कोई बात याद आ गयी। जेल की और चले। जनता का दल भी उनके साथ-साथ चला। सबको आशा थी कि शायद अभियुक्तो को देखने का, उनकी बाते सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय। अभी यह लोग कचहरी के आहाते से निकले ही थे कि डाक्टर इर्फान अली अपनी मोटर पर दिखायी दिये। आज ही गोरखपुर से लौटे थे। हवा खाने जा रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही मोटर रोक ली और पूछा, कहिए, आज तजवीज सुना दी गयी?

प्रेमशंकर ने रुखाई सेउत्तर दिया, जी हाँ।

इतने में सैकड़ो आदमियों ने चारों ओर से मोटर को घेर लिया और एक तगड़े आदमी ने सामने आ कर कहा- इन्हीं की गरदन पर इन बेगुनाहो का खून है।

सैकड़ो स्वरो से निकला–मोटर से खीच लो, जरा इसकी खिदमत कर दी जाय। इसने जितने रुपये लिये है सच इसके पेट से निकाल लो।

उसी वृहद्काय पुरुष ने इर्फान अली का पहुँचा पकड़ कर इतने जोर से झटक दिया कि वह बेचारे गाड़ी से बाहर निकल पड़े। जब तक मोटर मे थे क्रोध से चेहरा लाल हो रहा था। बाहर आ कर धक्के खायें तो प्राण सूख गये। दया प्रार्थी नेत्रों से प्रेमशंकर को देखा। वह हैरान थे कि क्या करूँ? उन्हें पहले कभी ऐसी समस्या नहीं हल करनी पड़ी थी और न उस श्रद्धा का ही कुछ ज्ञान था जो लोगों की उनमें थी। हाँ, वह सेवाभाव जो दीन जनो की रक्षा के लिए उद्यत रहता था, सजग हो गया। उन्होंने इर्फानअली का दूसरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा और क्रोधोन्मत्त हो कर बोले, यह क्या करते हों, हाथ छोड़ दो।।

एक बलवान युवक बोली, इनकी गर्दन पर गाँव भर का खून सवार हैं।

प्रेमशंकर-खुन इनकी गर्दन पर नहीं, इनके पेशे की गर्दन पर सवार है।

युवक-इनसे कहिए इस पेशे को छोड़ दें।

कई कठो से आवाज आयी, बिना कुछ जलपान किये इनकी अकल ठिकाने न आयगी।

सैकड़ों आवाजे आयी हाँ, हाँ, लग, बेभाव की पड़े!

प्रेमशंकर ने गरज कर कहा---खबरदार, जो एक हाथ भी उठा, नहीं तो तुम्हे यहाँ मेरी लाश दिखाई पड़ेगी। जब तक मुझमे खड़े होने की शक्ति है, तुम इनका बाल भी बांका नही कर सकते।

इस वीरोचित ललकार ने तत्क्षण असर किया। लोग डाक्टर साहब के पास से हट गये। हाँ उनकी सेवा-सत्कार के ऐसे सुदर अवसर के हाथ से निकल जाने पर आपस मे कानाफूसी करते रहे। डाक्टर साहब ने ज्यों ही मैदान साफ पाया, कृतज्ञनेओं से प्रेमशंकर को देखा और मोटर पर बैठ कर हवा हो गये। हजारों आदमियों ने तालियाँ बजायी---भाग! भागा।।

प्रेमशंकर बड़े संकट में पड़े हुए थे। प्रतिक्षण शंका होती थीं कि ये लोग न जाने क्या अधम मचाये। किसी बग्घी या फिटन को आते देख कर उनका दिल धड़कने [ २८२ ]लगता कि ये लोग उसे रोक न ले। वह किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाना चाहते थे, पर इसका कोई उपाय न सूझना था। हजारों झल्लाये हुए आदमियों को काबू में लाना कठिन था। सोचते थे, अब की तो मेरी धमकी ने काम किया, कौन कह सकता है। कि दूसरी बार भी वह उपयुक्त होगी। कहीं पुलिस आ गयीं तो अनर्थ ही हो जायगा। अवश्य दो-चार आदमियों की जान पर आ बनेगी। वह इन्हीं चिन्ता में डुबे हुए आगे बढ़े। रास्ते में ही डाक्टर प्रियनाथ का बँगला था। वह इस वक्त बरामदे में टहल रहे थे। टेनिस का रैकेट हाथ में था। शायद गाड़ी की राह देख रहे थे। यह भीड़-भाड़ देखी तो अपने फाटक पर आ कर खड़े हो गये।

सहसा किसी ने कहा—जरा इनकी भी खबर लेते चलो। सच पूछिए तो इन्ही महाशय ने बेचारो की गर्दन काटी है।

कई आदमियो ने इसका अनुमोदन किया--- ही, पकड़ लो जाने न पाये।

जब तक प्रेमशंकर डाक्टर साहब के पास पहुँचे-पहुँचे तब तक सैकड़ो आदमियो ने उन्हें घेर लिया। उसी वलिष्ठ युवक ने आगे बढ़कर डाक्टर साहब के हाथ से रैकेट छीन लिया और कहा---बताइए साहब, लखनपुर के मामले में कितनी रिश्वत खायी है।

कई आदमियों ने कहा- बोलते क्यों नहीं, कितने रुपये उड़ाये थे?

डाक्टर महोदय ने चिल्ला-चिल्ला कर नौकरों को पुकारना शुरू किया किन्तु नौकरी ने आना उचित न समझा।

एक आदमी बोला- यह बिना समझावन-बुझायन के न बतायेंगे।

प्रियनाथ-मैं सबको जेल भेजवा दूंगा, रैसकल्स!

डाक्टर साहब ने भय दिखला कर काम निकालना चाहा, पर यह न समझे कि साधारणत जो लोग आँख के इशारे पर कांप उठतें हैं वे विद्रोह के समय गोलियो की भी परवाह नहीं करते। उनके मुंह से इतना निकला था कि लोगों के तेवर बदल गये। शोर मचा, जाने न पाये, मार कर गिरा दो, देखा जायगा।

इतने में प्रेमशंकर डाक्टर साहब के पास जा कर खड़े हो गये। सैकडो लाठियाँ, छतरिय और छुडियाँ उठ चुकी थी। प्रेमशंकर को सम्मुख देख कर सब की सब हवा में रह गयी, केवल एक लाठी न रुक सकी, वह प्रेमशंकर के कन्धे मे जोर से लगी।

उसी बलिप्ठ युवक ने डाक्टर साहब को धिक्कार कर कहा, उनके पीछे क्या चोरों की तरह छिपे खड़े हो! सामने आ जाओ तो मजा चखा दें। खूब रिश्वतें ले-ले कर खफीफ को शदीद और दादीद को खफीफ बनाया।

अभी यह वाक्य पूरा न होने पाया था कि लोगों ने प्रेमशंकर को लड़खड़ा कर जमीन पर गिरते देखा। किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं, पर सबको किसी अनिष्ट की सुचना हो गयी। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लोगों की उड्डता शंका में परिवर्तत हो गयी। लोग पूछने लगे, यह किसकी लाठी थी, यह किसने मारा? उसके हाथ तोड़ दो, पकड़ कर गर्दन मरोड दो! किसकी लाठी थी? सामने क्यों नहीं आता। क्या ज्यादा चोट आयी? [ २८३ ] सहसा डाक्टर प्रियनाथ ने उच्च स्वर से कहा, अधमरा ही क्यों छोड़ दिया? एक लाठी और क्यों न जड़ दी कि काम तमाम हो जाता? मूर्खों। तुम्हारा अपराधी तो मैं था, इन्होने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?

यह कह कर वह प्रेमशंकर के पास घुटनों के बल बैठ गये और घाव को भलीभाँति देखा। कंधे की हड्डी टूट गयी थी। तुरन्त रुमाल निकाल कर कन्धे में पट्टी बाँधी। तब अस्पताल जा कर एक चारपाई लिवा लाये और प्रेमशंकर को उठाकर ले गये। हजारो आदमी अस्पताल के सामने चिन्ता मे डूबे खड़े थे। सबको यही भय हो रहा था कि कहीं चोट ज्यादा न आ गयी हो। लेकिन जब डाक्टर साहब ने मरहम पट्टी के बाद आ कर कहा, चोट तो बहुत ज्यादा आयी है, कन्धे की हड्डी टूट गयी है, लेकिन आशा है कि बहुत जल्द अच्छे हो जायेंगे तब लोगों के चित्त शान्त हुए। एक-एक करके सभी वहाँ से चले गये।

लाली प्रमाशंकर को ज्यों ही यह शोक सम्वाद मिला वह बदहवास दौड़े हुए आये और प्रेमशंकर के पास बैठ कर देर तक रोते रहे। प्रेमशंकर सचेत हो गये थे। हाँ विषम-पीड़ा से विकल थे। डाक्टर ने बोलने या हिलने को मना कर दिया था, इसलिए चुपचाप पड़े हुए थे। लेकिन जब प्रभाशंकर को बहुत अधौर देखा तो धीरे से बोले, आप घबराये नही, मैं जल्द अच्छा हो जाऊँगा। कंधों में दर्द हो रहा है। इसके सिवा मुझे और कोई कष्ट नही हैं। ये बातें सुन कर प्रभाशंकर को तस्कीन हुई। चलते समय उन्होंने डाक्टर साहब के पास जा कर बड़े विनीत भाव से कहा-बाबू जी, यह लड़का मेरे कुल का दीपक हैं। आप इस पर कृपा-वृष्टि रखिएगा। इसके प्राण बच गये तो यथाशक्ति आपकी सेवा करने में कोई बात उठा न रखेगा। यद्यपि मैं किसी लायक नहीं हैं तथापि अपने से जो कुछ हो सकेगा वह अवश्य आपको भेंट करूंगा।

प्रियनाथ ने कहा लाला जी, आप यह क्या कहते हैं। अगर मैं इनकी सेवासुश्रूषा में तन-मन से न लगे तो मुझसे ज्यादा कुतन प्राणी संसार में न होगा। मेरे ही कारण इन्हे यह चोट आयी है। अगर यह वही न होते तो मेरी हड्डियों को भी पता न मिलता। इन्होंने जान पर खेल कर मेरी प्राण-रक्षा की। इनका एहसान कभी मेरे सिर से नहीं उतर सकता।

तीन-चार दिन में प्रेमशंकर इतने स्वस्थ हो गये कि तकिये के सहारे बैठ सके। लकड़ी ले कर औषधालय के बरामदे में टहलने भी लगे। उनका कुशल समाचार पूछने के लिए शहर में सैकड़ो आदमी प्रतिदिन आते रहते थे। प्रेमशंकर सबसे डाक्टर साहब की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते। प्रियनाथ के सेवा-भाव ने उन्हें मोहित कर दिया था। वह दिन में कई बार उन्हें देखने आते। कभी-कभी समाचार-पत्र पढ़ कर सुनाते, उनके लिए अपने घर में विशेष रीति से भोजन बनवाते। प्रेमशंकर मन में बहुत लज्जित थे कि ऐसे सज्जन, ऐसे देवतुल्य पुरुष के विषय में मैंने क्यो अनुचित सन्देह किये। वह अपनी विमल श्रद्धा से उच्च अभक्ति की पूर्ति कर रहे थे।

एक सप्ताह बीत चुका था । प्रेमशंकर उदास बैठे हुए सोच रहे थे कि उन दीन [ २८४ ]अभियुक्तों का अब क्या हाल होगा? मैं यहाँ पड़ा हूँ। अपीलों को अभी तक कुछ निश्चय न हो सका और अपील होगी कैसे? इतने रुपये कहां आयेंगे? आजकल तो न्याय गरीबों के लिए एक अलभ्य वस्तु हो गया है। पग-पग पर रुपये का खर्च। और यह क्या मालूम कि अपील की नतीजा हमारे अनुकूल होगा। कही ये ही सजाएँ बहाल रह गयी तो अपील करना निष्फल हो जायेगा। लेकिन कुछ भी हो अपील करनी चाहिए। रुपये का कोई न कोई उपाय निकल ही आयेगी। और कुछ न होगा तो दुकान-दुकान और घर-घर घूम झर चन्दा माँगूंगा। दीनों से स्वभावतः लोगों की सहानुभूति होती है। सम्भव है काफी धन हाथ आ जाय। ज्ञानशंकर को बुरी लगेगी लगे, इसमे मेरा कुछ बस नहीं। क्या उन्हें इस दुर्घटना की खबर न मिली होगी? आना तो दूर रहा, एक पत्र भी न लिखा कि मुझे तस्कीन होती।

वह इन विचारों में मग्न थे कि प्रियनाथ आ गये और बोले, आप इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। थोड़ी सी चाय पी लीजिए, चित्त प्रसन्न हो जाय।

प्रेमशंकर-जी नहीं, बिलकुल इच्छा नहीं है। आप मुझे यहाँ से कब तक बिदा करेंगे?

प्रियनाथ-अभी शायद आपको यहाँ एक सप्ताह और नजरबन्द रहना पड़ेगा, अभी हड्डी के जुड़ने में थोड़ी सी कसर है, और फिर ऐसी जल्दी क्या है? यह भी तो आपका ही घर है।

प्रेमशंकर—आप मेरे सिर पर उपकारों का इतना बोझ रखते जाते हैं कि मैं शायद हिल भी न सकूँ। यह आपकी कृपा, स्नेह और शालीनता का फल है कि मुझे पीड़ा कष्ट कभी जान ही न पड़ा। मुझे याद नहीं आता कि इतनी शांति कही और मिली हो। आपकी हार्दिक समवेदना ने मुझे दिखा दिया कि संसार में भी देवताओं का वास हो सकता है। सभ्य जगत पर से मेरा विश्वास उठ गया था। आपने उसे फिर जीवित कर दिया।

प्रेमशंकर की नन्नता और सरलता डाक्टर महोदय के हृदय को दिनों-दिन मोहित करती जाती थीं। ऐसे शुद्धात्मा, साधु और निस्पृह पुरुष को श्रद्धा-पात्र बन कर उनकी क्षुदताएँ और मलिनताएँ आप ही आप मिटती जाती थी। वह ज्योति दीपक की भांति उनके अन्त करण के अन्धेरे को विच्छिन्न किये देती थी। इस श्रद्धा-रत्न को फ कर वह ऐसे मुग्ध थे जैसे कोई दरिद्र पुरुष अनायास कोई सम्पत्ति पा जाय। उन्हें सदैव यही चिन्ता रहती थी कि कहीं यह रत्न मेरे हाथ से निकल न जाय। उन्हें कई दिनों से यह इच्छा हो रही थी कि लखनपुर के मुकदमें के विषय में प्रेमशंकर से अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दे, पर इसका कोई अवसर न पाते थे। इस समय अवसर पा कर बोले, आप मुझे बहुत लज्जित कर रहे हैं। किसी दूसरे सज्जन के मुँह से ये बाते सुनकर मैं अवश्य समझता कि वह मुझे बना रहा है। आप मुझे उससे कहीं ज्यादा विवेक-परायण और सच्चरित्र समझ रहे हैं जितना मैं हूँ। साधारण मनुष्यों की भाँति लोभ से ग्रसित, इच्छाओं का दास और इन्द्रियों का भक्त हूँ। मैंने अपने जीवन [ २८५ ]में घोर पाप किये है। यदि वह आपसे बयान कहें तो आप चाहे कितने ही उदार क्यों न हो, मुझे तुरन्त नजरों से गिरा देंगे। मैं स्वय अपने कुकृत्यो का परदा बना हुआ हैं, इन्हें बाह्य आडम्बरों से ढके हुए हैं, लेकिन इस मुकदमे के सम्बन्ध में जनता ने मुझे जितना बदनाम कर रखा है उसका मैं भागी नहीं हूँ। मैं आपसे सत्य कहता हूँ। कि मुझपर जो आक्षेप किये गये हैं वे सर्वथा निर्मूल हैं। सम्मव है हत्या-निरूपण मे मुझे भ्रम हुआ हो और अवश्य हुआ है, लेकिन मैं इतना निर्दय और विवेकहीन नहीं हैं कि अपने स्वार्थ के लिए इतने निरपराधियों का गला काटता। यह मेरी दासवृत्ति है जिसने मेरे माथे पर अपयश का टीका लगा दिया।

प्रेमशंकर ने ग्लानिमय भाव से कहा--भाई साहब, आपकी इस बदनामी का सारा दोष मेरे सिर है। मैं ही आपका अपराध हैं। मैंने ही दूसरो के कहने मे आ कर आप पर अनुचित सन्देह किये। इसका मुझे जितना दुख और खेद है वह आप से कह नही सकता। आप जैसे साधु पुरुष पर ऐसा घोर अन्याय करने के लिए परमात्मा मुझे न जाने क्या दई देगे? पर आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि मेरी अल्पशता पर विचार कर मुझे क्षमा कीजिए।

प्रियनाथ के हृदय पर से एक बोझ सा उतर गया। प्रमशंकर इसके दो-चार दिन बाद हाजीपुर लौट आये, पर डाक्टर साहब रोज सन्ध्या समय उनसे मिलने आयी करते। अब वह पहले से कहीं ज्यादा कर्तव्य-परायण हो गये थे। दस बजे के पहले प्रातःकाल चिकित्सा भवन मे आ बैठते, रोगियों की दशा ध्यान से देखते, उन्हें सान्त्वना देते। इतना ही नहीं, पहले वह पूरी फीस लिये बिना जगह से हिलते न थे, अब बहुधा गरीबों को देखनै विना फीस लिये ही चले जाते। छोटे-छोटे कर्मचारियों से आधी ही फीस लेते। नगर की सफाई का नियमानुसार निरीक्षण करते। जिस गली यी सड़क से निकल जाते, लोग बड़े आदर से उन्हें सलाम करते। चन्द महीनों में सारे नगर में उनको बखान होने लगा। काशी का प्रसिद्ध समाचार-पत्र गौरव' उनका पुराना शत्रु था। पहले उन पर खूब चोटे किया करता था। अब वह भी उनका भक्त हो गया। उसने अपने एक लेख मै यह आलोचना की काशी के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि बहुत दिनों के बाद उसे ऐसा प्रजावत्सल, ऐसा सहृदय, ऐसा कर्तव्यपरायण डाक्टर मिला। चिकित्सा का लक्ष्य धनोपार्जन नही, यशोपार्जन होना चाहिए और महाशय प्रियनाथ ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया है कि वह इस उच्चादर्श का पालन करना अपना ध्येय समझते हैं।' डाक्टर साह्य को सुकीत का स्वाद मिल गया। अब दीनो की सेवा में उनका चित्त जितना उल्लसित होता था उतना पहले सचित घन की बढ़ती हुई संख्याओं से भी न हुआ था। यद्यपि घन की तृष्णा से वह अभी मुक्त नही हुए थे, पर कीति-लाभ की सदिच्छा ने धन-लिप्सा परास्त कर दिया था। प्रेमशंकर के सम्मुख जाते ही उनका हृदय ओस बिन्दुओ से धुले हुए फूलो के सदृश निर्मल हो जाता, निखर उठता। उस सरल सन्तोषमय, कामनारहित जीवन के सामने उन्हें अपनी धन-लालसा तुच्छ मालूम होने लगती थीं। सन्तान की चिन्ता का बोझ कुछ [ २८६ ]हलका हो जाता था। जब इस दशा में भी हम सतुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं. यशस्वी बन सकते हैं, दूसरों की सहायता कर सकते हैं, प्रेम और श्रद्धा के पात्र बन सकते हैं तो फिर घन पर जान देना व्यर्थ है। उन्हें ज्ञात होता था कि सफल जीवन के लिए धन कोई अनिवार्य साधन नहीं है। उन्हें खेद होता था कि मेरी आवश्यकताएँ क्यो इतनी वढ़ी हुई हैं। मैं डाक्टर हो कर रसना का दास क्यों बना हैं, सुन्दर वस्त्रों पर क्यों भरती हूँ। इन्हीं के कारण तो मैं सारे नगर में बदनाम था, लोभी, स्वार्थी, निदेय बना हुआ था और अब भी हैं। लोगों को शक होती थी कि कहीं यहू रोग को बढ़ा न दे, इस लिए जल्दी कोई मुझे बुलाता न था। इन विचारों का डाक्टर साहब के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ने लगी।

एक दिन डाक्टर साहब किसी मरीज को देख कर लौटते हुए प्रेमशंकर की कृषि शाला के सामने से निकले। दस बज गये थे। धूप तेज थी। सूर्य की प्रखर किरणें आकाश मेडल को बाणो से छेदती हुई जान पड़ती थी। डाक्टर साहब के जी में नयी देखता चलूँ। क्या कर रहे हैं? अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह अपने झोपड़े के वृक्ष के नीचे खड़े गेहूं के पोले बिखेर रहे थे। कई मजूर छौनी कर रहे थे। प्रियनाथ को देखते ही प्रेमशंकर झोपड़े में आ गये और बोले घूप तेज है।

प्रियनाथ–लेकिन आप तो इस तरह काम में लगे हुए है मानो घूप है ही नहीं।

प्रेम–उन मजूरो को देखिए! धूप की कुछ परवाह नहीं करते।

प्रियनाथ-हमे इस कृत्रिम जीवन नै चौपट कर दिया, नहीं तो हम भी ऐसे हो आदमी होते और अम को बुरा न समझते।

प्रेमशंकर कुछ और कहना चाहते थे कि इतने में दो वृद्धाएँ सिर पर लकड़ी के गर्छ, रखे आयी और पूछने लगी–सरकार, लकड़ी ले लों। इन स्त्रियों के पीछे-पीछे लड़के भी लकड़ी के बोझ लिये हुए थे। सबो के कपड़े तरबतर हो रहे थे। छाती और पसली की हड्डियां निकली हुई थी, ओठ सूखे हुए, देह पर मैल जमी हुई, उस पर सूखे हुए पसीने की घारियाँ सी बन गयी थी। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम पूछे, सबके गड्ढे इतरवा लिये, लेकिन देखा तो सन्दूक में पैसे न थे। गुमास्ता को रुपया भुनाने को दिया। दोनों वृद्धाएँ वृक्ष के नीचे छाँह मे वैठ गयी और लड़के बिखरे हुए दाने चुनचुन खाने लगे। प्रेमशंकर को उन पर दया आ गयी। थोड़े-थोड़े मटर सब लइको को दे दिये । दोनो स्त्रियाँ आशीष देती हुई बोलीं-बाबू जी, नारायण तुम्हे सदा सुखी रखें। इन बेचारो ने अभी कलेवा नहीं किया है।

प्रेम—तुम्हारा घर कहाँ है?

एक बुढ़िया—सरकार, लखनपुर का नाम सुना होगा।

प्रियनाथ—आपने गढ़े देखे नहीं, सवो ने खूब कैची लगायी है।

मशकर–दरिद्रता सब कुछ करा देती है। (वृद्धा से) तुम लोग इतनी दूर लकड़ी बेचने आ जाती हो?

वृद्धा—क्या करे मालिक, बीच कोई वस्ती नहीं है। घड़ी रात के चले है, चुप [ २८७ ]हरी हो गयी, किसी पेड़ के नीचे पड़े रहेगे, दिन हुनेगा तो साँझ तक घर पहुँचेगे। करम का लिला भोग है! जो कभी न करना था, वह मरते समय करना पड़ा!

प्रेम—आज कल गाँव का क्या हाल है।

वृद्धा-क्या हाल बतायें सरकार, जमींदार की निगाह टेढी हो गयी, मारा गाँव बँध गया, कोई डामिल गया, कोई कैद हो गया। उनके बाल-बच्चे अब दाने-दाने को तरस रहे हैं। मैरे दो बेटे थे। दो हल की बेनी होती थी। एक तो डामिल गया, दूसरे की साल भर से कुछ टोह ही नहीं मिली। बैल थे, वे चारे बिना टूटे गये। खैनी बारी कौन करे? बहुएँ हैं वै बाहर आ-जा नहीं सकती। मैं ही उपले बैच कर ले जाती हैं तो सब के मुंह मे दाना पड़ता है। पोते थे, उन्हें भगवान ने पहले ही है लिया। बुढ़ापे में यहीं भोगना लिखा था।

प्रेम-तुम डपटसिंह की मा तो नहीं हो?

वृद्धा ही सरकार, आप कैसे जानते हैं?

प्रेम-ताऊन के दिनों में जब तुम्हारे पोते बीमार थे तब मैं वहीं था। कई बेर और हो आया हैं। तुमने मुझे पहचाना नहीं? मेरा नाम प्रेमाशंकर है।

वृद्धा ने थोड़ा सा घूँघट निकाल लिया। दीनता की जगह लज्जा का हल्का ना रंग चेहरे पर आ गया। बोली, हाँ बेटा अब मैंने पहचाना। आँखों से अच्छी तरह सूझता नहीं। भैया, तुम जुग जुग जियो। आज सारा गाँव तुम्हारा या गा रहा है। तुमने अपनी वाली कर दी, पर भाग में जो कुछ लिखा था वह कैसे टलता? बेटा! सारे गाँव मे हाहाकार मचा हुआ है। दुखरन भगत को तो जानते ही होने? यह बुढ़िया उन्हीं की घरवाली है। पुराना खाती थी, नया रखती थी। अब घर में कुछ नहीं रहा। यह दोनों लड़के बधूके हैं। एक रंग का लड़का है और ये दोनों कादिर मियाँ के पोते हैं। न जाने क्या हो गया कि घर से मरद के जाते ही जैसे बरक्क्त हो उठ गयी। सुनती थी कि कादिर मियां के पास बड़ा धन है, पर इतने ही दिनों में यह हाल हो गया कि लड़के मजदूरी न करे तो मुँह में मक्खी आये-जाये। भगवान इम कलमुँह फैजू का सत्यानाश करे, इसने और भी अँधेर मचा रखा है। अब तक तो उसने गाँव भर को बेदखल कर दिया होता, पर नारायण नुक्लू चौधरी का भला करे कि उन्होंने सारी बाकी कौड़ी पाई-पाई चुका दी। पर अबकी उन्होंने भी खबर न ली और फिर अकेला आदमी सारे गाँव को कहों तक संभाले? साल दो साल की बात हो तो निबाह दे, यहाँ तो उम्र भर का रोना है। कारिन्दा अभी से घमका रहा है कि अब की बेदखल करके तभी दम लेंगे। अब की साल तो कुछ आधे-साझे में खेती हो गयी थी। खेत निकल जायेंगे तो क्या जाने क्या गति होगी?

यह कहने क्हते बुढिया रोने लगी। प्रेमशंकर की आँखे भी भर गयी पूछा---बिसेसर साह का क्या हाल है?

बुढिया क्या जानू भैया, मैंने तो साल भर से उसके द्वार पर झाँका भी नहीं। अब कोई उधर नहीं जाता। ऐसे आदमी का मुंह देखना पाप है। लोग दूसरे गाँव से [ २८८ ]नोन तेल लाते है। वह भी अब घर से बाहर नहीं निकलता। दूकान उठा दी है। पर मे बैठा न जाने क्या-क्या करता है। जो दूसरे को गड्ढा खोदेगा, उसके लिए कुओं तैयार है। देखा तो नही पर सुनती हूँ, जब से यह मामला उठा है उसके घर मे किसी को चैन नहीं है। एक न एक परानी के सिर भूत आया ही रहता है। ओझे-सयाने रात-दिन जमा रहते हैं। पूजा-पाठ, जप-तप हुआ करता है। एक दिन बिलासी से रास्ते में मिल गया था। रोने लगा। बहुत पछताता था कि मैंने दूसरो की बातो में आ कर यह कुकर्म किया। मनोहर उसके गले पड़ा हुआ है। मारे डर के साँझ से केवाड़ बन्द हो जाता है। रात को बाहर नहीं निकलता। मनोहर रात-दिन उसके द्वार पर खड़ा रहता है, जिसको पाता है उसी को चपेट लेता है। सुनती हूँ, अब गांव छोड़ कर किसी दूसरे गाँव मे बसनेवाला है।

प्रेमशंकर यह बातें सुन कर गहरे सोच मे डूब गये। मैं कितना बेपरवाह हूँ। इन बेचारो को सजा पाये हुए साल भर होने आते हैं और मैंने उनके बाल-बच्चो की सुधि तक न ली। वह सब अपने मन में क्या कहते होंगे? ज्ञानशंकर से बात हार चुका हूँ। लेकिन अब वहां जाना पड़ेगा। अपने बचन के पीछे इतने दुखियारो को मरने दूं यह नहीं हो सकता। इनका जीवन मेरे बचन से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। अक-स्मात् बुढिया ने कहा-कहो भैया, अब कुछ नहीं हो सकता? लोग कहते हैं, अभी किसी और बड़े हाकिम के यहाँ फरियाद लग सकती है।

प्रेमाशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। पन का प्रबन्ध तो बहुत कठिन न था, लेकिन उन्हे अपील से उपकार होने की बहुत कम आशा थी। वकीलों की भी यही राय थी । इसीलिए इस प्रश्न को टाल आते थे। डाक्टर साहब से भी उन्होने अपील की चर्चा कमी न की थी। प्रियनाथ उनके मुख की ओर ध्यान से देख रहे थे। उनके भन के भावों को भांप गये और उनके असमंजस को दूर करने के लिए बोले- हाँ, फरियाद लग सकती है, उसका बन्दोबस्त हो रहा है, धीरज रखखो, जल्दी ही अपील दायर कर दी जायेगी।

वृद्धा-बेटा, दूधो नहाव पूतो फलो। सुनती हूँ कोई बड़ा डाक्टर था, उसी ने जमींदार से कुछ ले दे कर इन गरीबों को फंसा दिया। न हो, तुम दोनों उसी डाक्टर के पास जा कर हाथ-पैर जोड़ो, कौन जाने तुम्हारी बात, मान जाये। उसके आगे भी तो बाल-बच्चे होगे? क्यो हम गरीबों को बेकसूर मारता है? किसी की हाय बटोरना अच्छा नहीं होता।

प्रेमशंकर जमीन में गड़े जा रहे थे। डाक्टर साहब को कितना दुख हो रहा होगा, अपने मन में कितने लज्जित हो रहे होगे। कही बुढिया गाली न देने लगे, इसे कैसे चुप कर दूं? इन विचारों से वह बहुल विकल हो रहे थे, किन्तु प्रियनाथ के चेहरे पर। उदारता झलक रही थी, नेत्रों से वात्सल्य-भाव प्रस्फुटित हो रहा था। मुस्कुराते हुए बोले-हम लोग उस डाक्टर के पास गये थे। उसे खूब समझाया। है तो लालची, पर कहने-सुनने से राह पर आ गया है, अब सच्ची गवाही देगा। [ २८९ ] इतने मे मस्ता पैसे ले कर आ गया। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम दिये। बुढिया लकड़ी के साथ आशीर्वाद दे कर चली गयी। द्वार पर पहुँच कर उसने फिर कहा–भैया भूल मत जाना, धरम का काम है, तुम्हे बड़ा जस होगा।

उनके चले जाने के बाद कुछ देर तक प्रेमशंकर और प्रियनाथ दोनों मौन बैठे रहे। प्रेमशंकर को मुंह संकोच ने बन्द कर दिया था, डाक्टर को लज्जा ने।

सहसा प्रियनाथ खड़े हो गये और निश्चयात्मक भाव से बोले- भाई साहब, अवश्य अपील कीजिए। आप आज ही इलाहाबाद चले जाइए। आज के दृश्य ने मेरे हृदय को हिला दिया। ईश्वर ने चाहा तो अब की सत्य की विजय होगी।