प्रेमाश्रम/४५

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४५

डाक्टर इर्फानअली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हे संशय हो रहा था कि कही उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाय नही तो अद की जान के लाले पड़ जायेंगे। आज बड़ी खैरियत हुई कि प्रेमशंकर मौजूद थे, नही तो इन बदमाशों के हाथ मेरी न जाने क्या दुर्गति होती। जब वह अपने घर पर सकुशल पहुँच गये और बरामदे मे आराम कुर्सी पर लेटें तो इस समस्या पर आलोचना करने लगे। अब तक वह न्याय और सत्य के निर्भीक समर्थक समझे जाते थे। पुलिस के विरुद्ध सदैव उनकी तलवार निकली ही रहती थी। यही उनकी सफलता का तत्त्व था। वह बहुत अध्ययनशील, तत्त्वान्वेषी, ताकिक वकील न थे, लेकिन उनकी निर्भीकता इन सारी त्रुटियों पर पर्दा डाल दिया करती थी। पर इस लखनपुरवाले मुकदमे में पहली बार उनकी स्वार्थपरता की कलई खुली। पहले वह प्राय पुलिस से हार कर भी जीत में रहते थे, जनता का विश्वास उनके ऊपर जमा रहता था, बल्कि और बढ़ जाता था। आज पहली बार उनकी सच्ची हार हुई। जनता का विश्वास उनपर से उठ गया। लोकमत ने उनका तिरस्कार कर दिया। उनके कानो मे उपद्रवियों के ये शब्द गूंज रहे थे, इन दोनों का खून इन्हीं की गर्दन पर है। इफनअली उन मनुष्यों मे न थे जिनकी आत्मा ऋद्धि-लालसा के नीचे दब कर निर्जीव हो जाती है। वह सदैव अपने इष्ट-मित्रों से कठिनाइयों का रोना रोया करते थे और निस्सन्देह ये आँसू उनके हृदय से निकलते थे। वह बार-बार इरादा करते थे कि इस पेशे को छोड़ दे, लेकिन जुआरियों की प्रतिज्ञा की भाँति उनका निश्चय भी दृढ न होता था, बल्कि दिनो-दिन वह लोभ में और भी डूबते जाते थे। उनकी दशा उस पथिक की सी थी जो सन्ध्या होने के पहले ठिकाने पर पहुँचने के लिए कदम तेजी से बढाता है। इर्फानअली वकालत छोड़ने के पहले इतना धन कमा लेना चाहते थे कि जीवन सुख से व्यतीत हो। अतएव वह लोभमार्ग में और भी तीव्र गति से चल रहे थे।

लेकिन आज की घटना ने उन्हें मर्माहत कर दिया। अब तक उनकी दशा उन

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रईसो को भी थी जो वहम की दवा किया करते हैं। कभी कोई स्वादिष्ट अवलेह बनवा लिया, कनी कौई सुगन्धित अर्क खिंचवा लिया और रुचि के अनुसार उसका सेवन करते रहे। किन्तु आज उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं एक जीर्ण रोग से ग्रसित हूँ, अब अर्क और अवलेह से काम न चलेगा। इस रोग का निवारण तेज नश्तरो और तीक्ष्णय औषधियों से होगा। मैं सत्य का सेवक बनता था। वास्तव में अपनी इच्छाओं का दास हूँ। प्रेमशंकर ने मुझे नाहक बचा लियो। जरा दो-चार चाोटे पड़ जाती तो मेरी आँखें और खुल जाती।

मुआजल्लाह! मैं कितना स्वार्थी हूँ? अपने स्वार्थ के सामने दूसरों की जान की भी परवाह नहीं करता। मैंने इस मुआमले में आदि से अन्त तक कपट-व्यवहार से काम लिया। कभी मिसलों को गोर मे नही पड़ा, कभी जिरह के प्रश्नो पर विचार नहीं किया, यहां तक कि गवाहों के बयान भी आद्योपान्न न सुने, कभी दूसरे मुकदमे मे चला जाता था, कभी मित्रों से बातें करने लगता था। मैंने थोड़ा सा अध्ययन किया होता तो प्रियनाथ को चुटकियों पर उडा देता। मुखबिर को दो-चार जिरहो मे उखाड सकता था। थानेदार का बयान भी कुछ ऐसा प्रामाणिक न था, लेकिन मैंने तो अपने कर्तव्य पर कभी विचार ही नहीं किया। अदालत में इस तरह जा बैठता था जैसे कोई मित्रों की सभा में जा बैठता हो। मैं इस पेशे को बुरा कहता हूँ, यह मेरी मक्कारी हैं। हमारी अनीति है जिसने इस पेशे को बदनाम कर रखा है। उचित तो यह है कि हमारी दृष्टि सत्य पर हो, पर इसके बदले हमारी निगाह सदैव रुपये पर रहती है। खुदा ने चाहा नो आइन्दा में अब वही करूंगा जो मुझे करना चाहिए। हाँ, अब से ऐसा ही होगा। अब में भी प्रेमशंकर के जीवन को अपना आदर्श बनाऊँगा, संतोष और सेवा के सन्मार्ग पर चलूंगा।

जब तक प्रेमशंकर औषधालय में रहे, इफनियली प्राय. नित्य उनका समाचार पूछने जाया करते थे। उनके धैर्य और साहस पर डाक्टर साहब को आश्चर्य होता था। प्रेमशंकर के प्रति उनकी श्रद्धा दिनों-दिन बढ़ती जाती थी। अपने मुवक्किलों के साथ उनका व्यवहार अब अविक विनयपूर्ण होता था। वह उनके मुआमले ध्यान से देखते, एक समय एक से अधिक मुकदमा न लेने और एक मुकदमे को इजलास पर छोड़ कर दुसरे मुकदमे की पैरवी करने की तो उन्होंने मानो सपथ हीं खा ली। वह अपील करने के लिए बार-बार प्रेमशंकर को प्रेरित करना चाहते थे, पर अपनी असज्जनता को याद करके संकुच जाते थे। अन्त में उन्होंने सीतापुर जा कर बाबू ज्वालासिंह से उन विषय में परामर्श करने का निश्चय किया; किन्तु वह महाशय अभी तक दुविधा में पड़े हुये थे। प्रेमशकर को लिख चुके थे कि त्याग-पत्र दे कर शीघ्र ही आप की सेवा में आना हैं। लकिन फिर कोई न कोई ऐसी बात आ जाती थी कि उन्हें अपने इरादे को स्थगित करने पर विवश होना पड़ता था। यह बात थी कि शीलमणि उनके इस्तीफा देने पर राजी न होती थी। वह कहनी—कला से तुम्हारे अफसर तुमसे अप्रसन्न है, तरक्की नही होती हैं, न सही। तुम्हारे हाथों में न्याय करने का अधिकार तो है। [ २९१ ]अगर तुम्हारे विघातागण तुम्हारे व्यवहार से असन्तुष्ट हो कर तुम्हे पदच्युत कर.दे, तो तुम्हे अपील करनी चाहिए और चोट के हाकिमों से लड़ना चाहिए। यह नही कि अफसरों ने जरा तोवर बदला और तुमनें भयभीत हो कर त्याग-पत्र देने की ठान ली। तुम्हारी इस अकर्मण्यता से तुम्हारे कितने ही न्यायशील और आत्माभिमानी सहर्वागियों की हिम्मत टूट जायेगी और वह भाग निकलने का उपाय करने लगेगे। यह विभाग सज्जनो से खाली हो जायगा और वही खुशामदी टट्ट, हाकिम के इशारे पर नाचनेवाले बाकी रह जायेंगे। ज्वालासिंह इस दलील का कोई जवाब न दें सकते थे। जब डाक्टर इर्फानअली सिर पर जा पहुँचे तो वह अपनी शिथिलता और अधिका-प्रेम का दोप शीलमणि पर रख कर अपने को मुक्त न कर सके।

शीलमणि समझ गयी कि अब इन्हें रोकना कठिन है, मेरी एक न सुनेगें। ज्यों ही अवसर मिला उसने ज्वालासिंह से पूछ डाक्टर साहब को क्या जवाब दिया?

ज्वालासिंह जवाब क्या देना है, इस्तीफा दिये देता हैं। अब हीला-हवाला करने से काम न चलेगा। जब तक मैं न जाऊँगा, बाबू प्रेमशंकर कुछ न कर सकेंगे। दुर्भाग्य से वह मुझपर उससे कहीं ज्यादा विश्वास करते हैं, जिसके योग्य मैं हूँ। अपील की अवधि बीत जायगी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी। अपील के सफल होने की बहुत कुछ आशा है और यदि मैरे सदुद्योग से कई निरपराधों की जान बच जायें, तो मुझे अब एक क्षण भी विलम्ब न करना चाहिए।

शीलमणि----तो अधिक दिनों की छुट्टी क्यों नही ले लेते?

ज्वालासिंह-तुम तो जान बूझ कर अनजान वनती हो। वहाँ मुझे कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ेगी जो दासत्व की बेड़ियाँ पहने हुए नहीं कर सकता। रुपये के लिए चन्दे माँगना, वकीलों से मिलना-जुलना, लखनपुरवालों के कष्ट-निवारण की आयोजना करना, यह सभी काम करने पड़ेंगे। पुलिसवालों की निगाह पर चढ़ जाऊँगा, अधिकारी वर्ग तन जायेगे, तो इस बेड़ी को काट ही क्यों न दें? मुझे पूरा विश्वास है कि मैं स्वाधीन हो कर जितनी जाति-सेवा कर सकता हूँ, उतनी इस दशा मे कभी न कर सकेंगी।

शीलमणि बहुत देर तक उनसे तर्क-वितर्क करती रहीं, अन्त में क्रुद्ध हो कर बोली उँह, जो इच्छा हो करो! मुझे क्या करना है? जैसा सूखा सावन वैसा भरा भादौ। आप ही पछताओगें। यह सब आदर-सम्मान तभी तक है, जब तक हाकिम हो। जब जाति सेवकों में जा मिलोगे तो कोई बात भी न पूछेगा! क्या वहाँ सब के सब सज्जन ही भरे हुए है? अच्छे-बुरे सभी जगह होते हैं। प्रेमशंकर की तो मैं नहीं कहती, वह देवता है, लेकिन जाति-सेवकों में तुम्हे सैकड़ो आदमी ऐसे मिलेंगे जो स्वार्थ के पुतले हैं और सेवा भेष बना कर गुलछरें उड़ाते है। वह निस्पृह, पवित्र आत्माओं को फूटी आँख नहीं देख सकते। तुम्हें उनके बीच में रहना दुर्भर हो जायेगा। उनका अन्याय, कपट-व्यवहार और सकीर्णता देख कर तुम कुढोगे, पर उनसे कुछ कह न सकोगे। इसलिए जो कुछ करो, सोच-समझ कर करो। [ २९२ ] ये वही बातें थी जो ज्वालासिंह ने स्वयं शीलमणि से कही थी। कदाचित् यही बातें सुन-सुन कर वह इस्तीफे के विपक्ष में हो गयी थी पर इस समय वह यह निराशाजनक बातें न सुन सके, उठ कर बाहर चले आयें और उसी आवेश मे आ कर त्यागपत्र लिखना शुरू किया।