प्रेमाश्रम/५

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २६ ]

एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची में तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की। गौस खाँ के स्व-हित और स्वामि-हित में विरोध हो। रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार को लाभ होगा तो मुझको क्या पड़ी है कि बैठे-बिठाये सिर-दर्द मोल लें। सैकड़ों गरीबों का गला तो मैं दबाऊँ और चैन सारा घर करे। वह इस सारे अन्याय का लाभ अकेले ही उठाना चाहते थे, और लोग भी शरीक हों, यह उन्हें स्वीकार न था। अब उन्हें रात-दिन यही दुश्चिता रहती थी कि किसी तरह चचा साहब से अलग हो जाऊँ। यह विचार सर्वथा उनके स्वार्थानुकूल था। उनके ऊपर केवल तीन प्राणियों के भरण-पोषण का भार था--- : आप, स्त्री और भावज। लड़का अभी दूध पीता था। इलाके की आमदनी का बड़ा भाग प्रभाशंकर के काम आता था, जिनके तीन पुत्र थे, दो पुत्रियां, एक बहू, एक पोता और स्त्री-पुरुष आप। ज्ञानशंकर अपने पिता के परिवार-पालन पर झुंझलाया करते। [ २७ ]आज से तीन साल पहले वह अलग हो गये होते तो आज हमारी दशा ऐसी खराब न होती। चचा के सिर जो पड़ती उसे झेलते, खाते चाहे उपवास करते, हमसे तो कोई मतलब न रहता बल्कि उस दशा में हम उनकी कुछ सहायता करने तो वह इसे ऋण समझते, नहीं तो आज झाड़-लीप कर हाथ काला करने के सिवा और क्या मिला? प्रभाशंकर दुनिया देखे हुए थे। भतीजे का यह भाव देख कर दबते थे, अनुचित बातें सुन कर भी अनसुनी कर जाते। दयाशंकर उनकी कुछ सहायता करने के बदले उलटे उन्हीं के सामने हाथ फैलाते रहते थे, इसलिए दब कर रहने में ही उनका कल्याण था।

ज्ञानशंकर दम्भ और द्वेष के आवेग में बहने लगे। एक नौकर चचा का काम करता तो दूसरे को खामखाह अपने किसी न किसी काम में उलझा रखते। इसी फेर में पड़े रहते कि चचा के आठ प्राणियों पर जितना व्यय होता है उतना मेरे तीन प्राणियों पर हो। भोजन करने जाते तो बहुत-सा खाना जूठा करके छोड़ देते। इतने पर भी संतोष न हुयी तो ये कुत्ते पाले। उन्हें साथ बैठा कर खिलाते। यहां तक कि प्रभाशंकर डाक्टर के यहाँ से कोई दवा लाते तो आप भी उतने ही मूल्य की औषधि अवश्य लाते, चाहे उसे फेंक ही क्यों न दे। इतने अन्याय पर भी चित्त को शान्ति न होती थी। चाहते थे कि महिलाओं में भी बमचख मचे। विद्या की शालीनता उन्हें नागवार मालूम होती, उसे समझाते कि तुम्हें अपने भले-बुरे की जरा भी परवा नहीं। मरद को इतना अवकाश कहीं कि जरा-जरा-सी बात पर ध्यान रखे। यह स्त्रियों का खास काम है, यहाँ तक कि इसी कारण उन्हें घर में आग लगाने का दोष लगाया जाता है, लेकिन तुम्हे किसी बात की सुधि ही नहीं रहती। आँखों से देखती हो कि घी घड़ा लुढका जाना है, पर जबान नहीं हिलती। विद्यावती यह शिक्षा पा कर भी उसे ग्रहण न करती थी।

इसी बीच में एक ऐसी घटना हो गयी, जिसने इस विरोधाग्नि को और भी भड़का दिया। दयाशंकर यों तो पहले से ही अपने थाने में अन्धेर मचाये हुए थे, लेकिन जब से ज्वालासिंह उनके इलाके के मैजिस्ट्रेट हो गये थे तब से तो वह पूरे बादशाह बन बैठे थे। उन्हें यह मालूम ही था कि डिप्टी साद ज्ञानशंकर के मित्र है। इतना सहारा मेलजोल पैदा करने के लिए काफी था। कभी उनके पास चिड़िया भेजते, कभी मछलियों, कभी दूध-घी। स्वयं उनसे मिलने जाने तो मित्रवत् व्यवहार करते। इधर सम्मान बढ़ा तो भय कम हुआ, इलाके को लूटने लगे। ज्वालासिंह के पास शिकायत पहुँची, लेकिन वह लिहाज के मारे न तो दयाशंकर से और न उनके घरवालों से ही इनकी चर्चा कर सके। लोगों ने जब देखा कि डिप्टी साहब भी हमारी फरियाद नहीं सुनते तो हार मान कर चुप हो बैठे। दयाशंकर और भी शेर हुए। पहले दांव-घात देख कर हाथ चलाते थे, अब नि शक हो गये। यहाँ तक कि प्याला लवालब हो गया। इलाके मैं एक भारी डाका पड़ा। वह उसकी तहकीकात करने गये। एक जमींदार पर संदेह हुआ, तुरंत उसके घर की तलाशी लेनी शुरू की, चोरी का कुछ माल बरामद हो गया। फिर क्या था, उसी दम उसे हिरासत में ले लिया। जमींदार ने कुछ दे-दिला कर बला टालीं। पर अभिमानी मनुष्य था, यह अपमान न सहा गया। उसने दूमरे दिन ज्वाला[ २८ ]सिंह के इजलास में दारोगा साहब पर मुकदमा दायर कर दिया। इलाके में आग सुलग रही थी, हवा पाते ही भड़क उठी। चारो तरफ से झूठे-सच्चे इस्तगासे होने लगे। अत में ज्वालासिंह को विवश हो कर इन मामलो की छानबीन करनी पड़ी। सारा रहस्य खुल गया। उन्होंने पुलिस के अधिकारियो को रिपोर्ट की। दयाशकर मुअत्तल हो गये, उन पर रिश्वत लेने और झूठे मुकदमे बनाने के अभियोग चलने लगे। पासा पलट गया; उन्होंने जमींदार को हिरासत में लिया था, अब खुद हिरासत में आ गये। लाला प्रभाशंकर के उद्योग से जमानत तो मजूर हो गयी, लेकिन अभियोग इतने सप्रमाण थे कि दयाशकर के बचने की बहुत कम आशा थी। वह स्वय निराश थे। सिट्टी-पट्टी भूल गयी, मानो किसी ने बुद्धि हर ली हो। जो जबान थाने की दीवारों को कम्पित कर दिया करती थी, वह अब हिलती भी न थी। वह बुद्धि जो हवा में किले बनाती रहती थी, अब इस गुत्थी को भी न सुलझा सकती थी। कोई कुछ पूछता तो शून्य भाव से दीवार की ओर ताकने लगते। उन्हें खेद न था, लज्जा न थी, केवल विस्मय था कि मैं इस दलदल में कैसे फंस गया? वह मौन दशा में बैठे सोचा करते, मुझसे यह भूल हो गयी, अमुक बात बिगड़ गयीं, नहीं तो कदापि नही फंसता। विपत्ति में भी जिस हृदय मे सद्ज्ञान न उत्पन्न हो वह सूखा वृक्ष है, जो पानी पा कर पनपता नही, बल्कि सड़ जाता है। ज्ञानशकर इस दुरवस्था में अपने सम्बन्धियो की सहायता करना अपना धर्म समझते थे; किंतु इस विषय मे उन्हें किसी से कुछ कहते हुए संकोच ही नहीं होता, वरन् जब कोई दयाशकर के व्यवहार की आलोचना करने लगता, तब वह उसका प्रतिवाद करने के बदले उससे सहमत हो जाते थे।

लाला प्रभाशकर ने बेटे को बरी कराने के लिए कोई बात उठा नही रखी। वह रात-दिन इसी चिंता मे डूबे रहते थे। पुत्र-प्रेम तो था ही, पर कदाचित् उससे भी अधिक लोकनिन्दा की लाज थी। जो घराना सारे शहर में सम्मानित हो, उसका यह पतन हृदयविदारक था। जब वह चारों तरफ से दौड़-धूप कर निराश हो गये तब एक दिन ज्ञानशकर से बोले, आज जरा ज्वालासिंह के पास चले जाते; तुम्हारे मित्र हैं, शायद कुछ रियायत करे।

ज्ञानशंकर ने विस्मित भाव से कहा, मेरा इस वक्त उनके पास जाना सर्वथा अनुचित है।

प्रभाशंकर—मैं जानता हूँ और इसी लिए अब तक तुमसे जिक्र नहीं किया। लेकिन अब इसके बिना काम नहीं चलता दिखायी देता। डिप्टी साहब अपने इजलास से बरी कर दें, फिर आगे हम देख लेंगे। वह चाहे तो सबूतो को निर्बल बना सकते हैं।

ज्ञान—पर आप इसकी कैसे आशा रखते है कि मेरे कहने से वह अपने ईमान का खून करने पर तैयार हो जायेंगे।

प्रभाशंकर ने आग्रह पूर्वक कहा, मित्रो के कहने सुनने का बडा असर होता है।

बूढ़ो की बातें बहुधा वर्तमान सभ्य प्रथा के प्रतिकूल होती है। युवकगण इन बातो पर अधीर हो उठते हैं। उन्हें बूढो का यह अज्ञान अक्षम्य-सा जान पड़ता है। ज्ञान[ २९ ] शंकर चिढ़ कर बोले, जब आपकी समझ मे बात हीं नहीं आती तो मैं क्या करूँ? मैं अपने को दूसरों की निगाह मे गिराना नहीं चाहता।

प्रभाशंकर ने पूछा, क्या अपने भाई की सिफारिश करने से अपमान होता है?

ज्ञानशंकर ने कटू भाव से कहा, सिफारिश चाहे किसी काम के लिए हो, नीची बात है, विशेष करके ऐसे मामले में।

प्रमाशंकर बोले, इसका अर्थ तो यह है कि मुसीबत मे भाई से मदद की आशा न रखनी चाहिए।

‘मुसीबत उन कठिनाइयों का नाम है जो दैवी और अनिवार्य कारणों से उत्पन्न हो, जान-बूझ कर आग में कूदना मुसीबत नहीं है।'

'लेकिन जो जान-बूझ कर आग में कूदे, क्या उसकी प्राण-रक्षा न करनी चाहिए?

इतने में बड़ी बहू दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गयी और बोली, चल कर लल्लू (दयाशंकर) को जरा समझा क्यों नही देते? रात को भी खाना नहीं खाया और इस वक्त अभी तक हाथ-मुँह नहीं धोया। प्रभाशंकर खिन्न हो कर बोले, कहाँ तक समझाऊँ? समझाते-समझाते तो हार गया। बेटा! मेरे चित्त की इस समय जो दशा है, वह बयान नहीं कर सकता। तुमने जो बातें कही हैं वह बहुत माकूल हैं, लेकिन मुझ पर इतनी दया करो, आज डिप्टी साहब के पास जरा चले जाओ। मेरा मन कहता है, कि तुम्हारे जाने से कुछ न कुछ उपकार अवश्य होगा।

ज्ञानशंकर बगलें झांक रहे थे कि बड़ी बहू बोल उठी, यह जा चुके। लल्लू कहते थे कि ज्ञानू झूठ भी जा कर कुछ कह दे तो सारा काम बन जाय, लेकिन इन्हें क्या परवा है, चाहे कोई चूल्हे भाड़ में जाय। फँसना होता तो चाहे दौड़-धूप करते भी, बचाने कैसे जायें, हेठी न हो जायगी।

प्रभाशंकर ने तिरस्कार के भाव से कहा, क्या बेबात की बात कही हो? अन्दर जा कर बैठती क्यों नही?

बड़ी बहू ने कुटिल नेत्रों से ज्ञानशंकर को देखते हुए कहा, मैं तो बेलाग बात कहती हैं, किसी को भला लगे या बुरा। जो बात इनके मन में है वह मेरी आँखो के सामने है।

ज्ञानशंकर मर्माहत हो कर बोले, चाचा साहब! आप सुनते हैं इनकी बातें? यह मुझे इतना नीच समझती हैं।

बड़ी बहू ने मुँह बना कर कहा, यह क्या सुनेंगे, कान भी हो? सारी उम्र गुलामी करते कटी, अब भी वही आदत पड़ी हुई है। तुम्हारा हाल मैं जानती हूँ।

प्रभाशंकर ने व्यथित हो कर कहा, ईश्वर के लिए चुप हो। बड़ी बहू त्यौरियां चढ़ा कर बोली, चुप क्यों हुँ, किसी का डर है? यहीं तो जान पर बनी हुई है और यह अपने घमंड में भूले हुए हैं। ऐसे आदमी का तो मुंह देखना पाप है।

प्रभाशंकर ने भतीजे की और दीनता से देख कर कहा, बेटा, यह इस समय आपे में नहीं हैं। इनकी बातों का बुरा नहीं मानना। लेकिन ज्ञानशंकर ने ये बातें न सुनी, [ ३० ]चाची के कठोर वाक्य उनके हृदय को मथ रहे थे। बोले, तो मैं आप लोगों के साथ रह कर कौन सा स्वर्ग का सुख भोग रहा हूँ?

बड़ी बहु-जो अभिलाषा मन में हो वह निकाल डालो। जब अपनापन ही नहीं, तो एक घर में रहने में थोड़े ही एक हो जायेंगे!

ज्ञान---आप लोगों की यही इच्छा है तो यही नहीं मुझे निकाल दीजिए।

बड़ी बहु — वह हमारी इच्छा है? आज महीनों से तुम्हारा रंग देख रही हूँ। ईश्वर ने आँखें दी हैं, धूप में बाल नहीं सफेद किये हैं। हम लोग तुम्हारी आँख में कांटे की तरह खटकते हैं। तुम समझते हो यह लोग हमारा सर्वस्व खाए जाते हैं। जब तुम्हारे मन में इतना कमीनापन आ गया तो फिर—

प्रभाशंकर ने ठंडी साँस ले कर कहा, या ईश्वर, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती। बड़ी बहु ने पति को कुपित नेत्रों से देख कर कहा, तुम्हें, यह बहुत प्यारे हैं, तो जा कर इनकी जूतियाँ सीधी करो। जो आदमी मुसीबत में साथ न दे, वह दुश्मन है, उससे दूर रहना ही अच्छा है।

ज्ञान — यह धमका किसे देती हो? कल के बदले आज ही हिस्सा बाँट कर लो!

बड़ी बहू-क्या तुम समझने हो कि हम तुम्हारा दिया खाते है?

ज्ञान-उन बातों का प्रयोजन ही क्या है?

बड़ी बहु-नहीं, तुम्हें यही घमंड है।

ज्ञान-अगर यही घमंड है तो क्या अन्याय है। जितना आपका खर्च है उसना मेरा कभी नहीं है।

बड़ी बहु ने पति की ओर देख कर व्यंग भाव में कहा कुछ सुन रहे हो सपूत की बातें! बोलते क्यों नहीं? क्या मुंह में दही जमा हुआ है। बाप हजारो रुपये माल साधु-भिखारियों को खिला दिया करते थे। मरते दम तक पाळकी के बाहर कहार दरवाजे से नहीं टले। इन्हें आज हमारी रोटियाँ अखर रही है। लाला, हमारा बस मानो कि आज रईसों की तरह चैन कर रहे हो, नही तो मुंह में मक्खियाँ आती-जाती।

प्रभासंकर यह बातें न सुन सके। उठ कर बाहर चले गये। बड़ी बहू मोर्चे पर अकेले न ठहर सकी, घर में चली गयी। लेकिन ज्ञानशंकर वही बैठे रहे। उनके हृदय में एक दाह सी हो रही थी। इतनी निष्ठुरता। इतनी कृतघ्नता। मैं कमीना हूँ, मैं दुश्मन हूँ, मेरी सूरत देखना पाप है। जिन्दगी भर हमको नोचा-खसोटा, आज यह बातें! यह घमंड! देखता हूँ यह घमंड कब तक रहता है? इसे तोड़ न दिया तो कहना! ये लोग सोचते होंगे, मालिक तो हम है, कुंजियां तो हमारे पास है, इसे जो देंगे, वह ले लगा। एक-एक चीज आधा कर लूँगा। बुढ़िया के पास जरूर रूपये हैं। पिता जी ने सब कुछ इन्हीं लोगों पर छोड़ दिया था। इसने काट-कपट कर दस-बीस हजार जमा कर लिया है। बस, उसी का घमंड है, और कोई बात नहीं। द्वेष में दूसरों को धनी समझने की विशेष चेष्टा होती है।

ज्ञानशंकर इन कुकल्पनाओं से भरे हुए बाहर आये तो चचा को दीवानखाने में [ ३१ ]मुंशी ईजादहुसेन से बाते करते पाया। यह मुंशी ज्वालासिंह के इजलास के अहलमद थे-बड़े बातूनी, बड़े चलते-पुर्जे। वह कह रहे थे, आप घबरायें नहीं, खुदा ने चाहा तो बाबू दयाशंकर बेदाग बरी हो जायेंगे। मैंने महरी की मारफत उनकी बीबी को ऐसा चग पर चढ़ाया है कि वह दारोगा जी को बिना बरी कराये डिप्टी साहब का दामन न छोड़ेगी। सौ-दो सौ रुपए खर्च हो जायेगे, मगर क्या मुजायका, आबरू तो बच जायगी। अकस्मात् ज्ञानशंकर को वहाँ देख कर वह कुछ झेप गये।

प्रभाशंकर बोले, रुपये जितने दरकार हो ले जायें, आपकी कोशिश से बात बन गयी तो हमेशा आपका शुक्रगुजार रहूँगा।

ईजादहुसेन ने ज्ञानशंकर को देखते हुए कहा, बाबू ज्वालासिंह दोस्ती का कुछ हक तो जरूर ही अदा करेंगे। जबान से चाहे कितने ही बेनियाज बने, लेकिन दिल में वह आपका बहुत लेहाज करते है। मैं भी इस पर खूब रंग चढ़ाता रहता हूँ। कल आपका जिक्र करते हुए मैंने कहा, वह तो दो-तीन दिन से दाना-पानी तक किये हुए है। यह सुन कर कुछ गौर करने लगे, बाद अजां उठ कर अंदर चले गये।

प्रभाशंकर ने मुंशी को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा, पर ज्ञानशंकर ने तुच्छ दृष्टि से देखा और ऊपर चले गये। विद्यावती उनकी राह देख रही थी, बोली, आज देर क्यों कर रहे हो' भोजन तो कभी से तैयार है।

ज्ञानशंकर ने उदासीनता से कहा, क्या खाऊँ, कुछ मिले भी? मालिक और मालकिन दोनों ने आज से मेरा निबटारा कर दिया। उन्हें मेरी सूरत देखने से पाप लगता है। ऐसो के साथ रहने से तो मर जाना अच्छा है।

विद्यावती ने सशक होकर पूछा, क्या बात हुई?

ज्ञानशंकर ने इस प्रश्न का उत्तर विस्तार के साथ दिया। उन्हें आशा थी कि इन बातों से विद्या की शांति-प्रियता को आघात पहुंचेगा, किन्तु उन्हें कितनी निराशा हुई जब उसने सारी कथा सुनने के बाद कहा, तुम्हे ज्वालासिंह के यहाँ चले जाना चाहिए था। चाचा जी की बात रह जाती। ऐसे ही अवसरों पर तो अपने-पराये की पहचान होती है। तुम्हारी ओर से आना-कानी देख कर उन लोगों को क्रोध आ गया होगा। क्रोध मे आदमी अपने मन की बात नहीं कहता। वह केवल दूसरे का दिल दुखाना चाहता है।

ज्ञानशंकर खिन्न हो कर बोले, तुम्हारी बातें सुन कर जी चाहता है कि अपना और तुम्हारा दोनों का सिर फोड़ लूँ। उन लोगों के कटु वाक्यों को फूल-पान समझ लिया, मुझी को उपदेश देने लगी। मुझे तो यह लज्जा आ रही है कि इस गुरगे ईजादहुसेन ने मेरी तरफ से न जाने क्या क्या रद्दे जमाये होंगे और तुम मुझे सिफारिश करने की शिक्षा देती हो। मैं ज्वालासिंह को जता देना चाहता हूँ कि इस विषय में सर्वथा स्वतत्र हूँ। गरजमद बन कर उनकी दृष्टि में नीचा बनना नहीं चाहता।

विद्या ने विस्मित होकर पूछा, क्या उनसे यह कहने जाओगे?

ज्ञानशंकर अवश्य जाऊँगा। दूसरे की आबरू के लिए अपनी प्रतिष्ठा क्यों खोऊं? [ ३२ ] विद्या--भला वह अपने मन में क्या कहेंगे? क्या इससे तुम्हारा द्वेष न प्रकट होगा?

ज्ञानशंकर तुम मुझे जितना मूर्ख समझती हो, उतना नहीं हूँ। मुझे मालूम है। कौन बात किस ढंग से करनी चाहिए।

विद्या चिन्तित नेत्रों से भूमि की ओर देखने लगी। उसे पति की सकीर्णता पर खेद हो रहा था, लेकिन कुछ और कहते डरती थी कि कहीं उनकी दुष्कामना और भी दृढ़ न हो जाय। इतने मे दयाशंकर की स्त्री भोजन करने के लिए बुलाने आयी। उधर श्रद्धा ने आ कर बड़ी बहू को मनाना शुरू किया। विद्या ने लाला प्रभाशंकर को मनाने के लिए तेजशंकर को भेजा, पर इनमे कोई भी भोजन करने न उठा। प्रभाशंकर को यह ग्लानि हो रही थी कि मेरी स्त्री ने ज्ञानशंकर को अप्रिय बातें सुनायी। बड़ी बहू की शौक था कि मेरे पुत्र का कोई हितैषी नहीं। और ज्ञानशंकर को यह जलन थी कि यह लोग मेरा खा कर मुझी को आँखें दिखाते हैं। क्षुधाग्नि के साथ क्रोधाग्नि भी भड़कती जाती थी।

विवाद में हम बहुधा अत्यत नीतिपरायण बन जाते है, पर विस्तव में इससे हमारा अभिप्राय यही होता है, कि विपक्षी की जबान बंद कर दें। इन पद घटो मै ही ज्ञानशंकर की नीतिपरायणता ईर्षाग्नि में परिवर्तित हो चुकी थी। जिस प्राणी के हित के लिए ज्वालासिंह से कुछ कहना उन्हें असंगत जान पड़ता था, उसी के अहित के लिए वह वहाँ जाने को तैयार हो गये। उन्होंने इस प्रसंग की सारी बाते मन में निश्चित कर ली थी, इस प्रश्न को ऐसी कुशलता से उठाना चाहते थे कि नीयत का परदा में खुलने पाये।

दूसरे दिन प्रात काल ज्यों ही नौ बजे, ज्ञानशंकर ने पैरगाड़ी सँभाली और घर से निकले। द्वार पर लाला प्रभाशंकर अपने दोनों पुत्री के साथ टहल रहे थे। ज्ञानशंकर ने मन में कहा, बुड्ढा साठ बरस का हो गया है, पर अभी तक वही जवानी की ऐठ है। कैसा अकड़ कर चलता है। अब देखता हूँ, मिश्री और मक्खन कहाँ मिलता है? लौंडे मेरी ओर कैसे घूर रहे हैं, मानो निगल जायेंगे। वर्षा का आगमन हो चुका था, घटा उमड़ी हुई थी मानो समुन्द्र आकाश पर चढ़ गया हो। सड़को पर इतना कीचड़ था कि ज्ञानशंकर की पैर गाड़ी मुश्किल से निकल सकी, छीटो से कपड़े खराब हो गयें। उन्हें म्युनिसिपैलिटी के सदस्यों पर क्रोध आ रहा था कि यह सब के सब स्वार्थी खुशामदी और उचक्के हैं। चुनाव के समय भिखारियों की तरह हार द्वार चूमते-फिरते हैं, लेकिन मेम्बर होते ही राजा बन बैठते हैं। उस कठिन तपस्या का फल यह निर्वाण पद प्राप्त हो जाता है। यह बड़ी भूल है कि मेम्बरों को एक निर्दिष्ट काल के लिए रखा जाता है। वोटरों को अधिकार होना चाहिए कि जब किसी सदस्य को जी चुराते देखें तो उसे पदच्युत कर दें। यह मिथ्या है कि उस दशा में कोई कर्तव्यपरायण मनुष्य मेम्बरी के लिए खड़ा न होगा। जिन्हें राष्ट्रीय उन्नति की धुन है, वह प्रत्येक अवस्था में जाति-सेवा के लिए तैयार रहे। मेरे विचार में जो लोग सच्चे अनुराग से काम करना चाहते हैं वह इस बंधन से और भी खुश होंगे। इससे उन्हें अपनी अक[ ३३ ] र्मण्यता से बचने का एक साधन मिल जायगा। और यदि हमें जाति-सेवा का अनुराग नहीं तो म्युनिसिपल हाल में बैठने की तृष्णा क्यों हो। क्या इससे इज्जत होती है। सिपाही बन कर कोई लड़ने से जी चुराये, यह उमकी कीर्ति नहीं, अपमान है।

ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे कि ज्वालासिंह का बंगला आ गया। वह घोड़े पर हवा खाने जा रहे थे। साईस घोड़ा कसे खड़ा था। ज्ञानशंकर को देखते ही बड़े प्रेम से मिले और इधर-उधर की बाते करने लगे। उन्हें भ्रम हुआ कि यह महाशय अपने भाई की सिफारिश करने आये होंगे। इसलिए उन्हें इस तरह बातों मे लगाना चाहते थे कि उस मुकदमें की चर्चा ही न आवे पाये। उन्हें दयाशंकर के विरुद्ध कोई सबल प्रमाण न मिला था। यह वह जानते थे कि दयाशंकर का जीवन उज्ज्वल नहीं है, परंतु यह अभियोग सिद्ध न होता था। उनको बरी करने का निश्चय कर चुके थे। ऐसी दशा मे वह किसी को यह विचार करने का अवसर नहीं देना चाहते थे कि मैंने अनुचित पक्षपात किया है। ज्ञानशंकर के आने से जनता के संदेह की पुष्टि हो सकती थी। जनता को ऐसे समाचार बड़ी आसानी से मिल जाते है। अरदली और चपरासी अपना गौरव बढ़ाने के लिए ऐसी खबरे बड़ी तत्परता से फैलाते है। बोले, कहिए, आपके असामी सीधे हो गये।

ज्ञानशंकर-जी नहीं, उन्हें काबू में करना इतना सहज नहीं है। चाचा साहब ने उन्हें सिर चढ़ा दिया है। मैं इधर ऐसे झमेले में पड़ा रहा कि उस विषय मे कुछ करने का अवकाश ही न मिला।

ज्वालासिंह डरे कि भूमिका तो नहीं है। तुरंत पहलू बदल कर बोले, भाई साहब, मैंने यह नौकरी क्या कर ली, एक जंजाल सिर ले लिया। प्रात काल से सध्या तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। बहुधा दस ग्यारह बजे रात तक काम करना पड़ता है। और इतना ही होता तो भुगत भी लेता, इसके साथ-साथ यह चिन्ता भी लगी रहती है कि ऊपरवाले खुश रहे। आप जानते ही है, अब की वर्षा बहुत हुई है, मेरे इलाके के सैकडों गाँवो मे बाढ़ आ गयी। खेतों का तो कहना ही क्या, किसानों की झोपड़ियाँ तक बह गयी। जमीदारों ने आधी मालगुजारी की छूट की प्रार्थना की है और यह सर्वथा न्यायानुकूल है। किंतु हाकिमों की यह इच्छा मालूम होती है कि इन दरखास्तों को दाखिल दफ्तर कर दिया जाय। यद्यपि वह प्रत्यक्ष ऐसा करते नहीं, पर हानियों की जांच में इतनी बाधाएँ डालते है कि जाँच व्यर्थ हो जाती है। अब यदि मैं जान कर अनजान बनूं और स्वच्छंदता से जांच कहें तो अवश्य ही मुझ पर फटकार पड़ेगी। लोग संदेह की दृष्टि से देखने लगेंगे। यहाँ की हवा ही कुछ ऐमी बिगड़ी हुई है कि मनुष्य इम अन्याय से किसी भांति बच नहीं सकता। अपने अन्य सहवगियों की दया देख कर बस यही इच्छा होती है कि इस्तीफा दे कर घर की राह लूं। मनुष्य कितना स्वार्य-प्रिय और कितना चापलूस बन सकता है, इनका यहाँ से उत्तम उदाहरण और कहीं न मिल सकेगा। यदि साहब बहादुर जरा-सा इशारा कर दें कि आमदनी के टैक्स की जांच अच्छी तरह की जाय नो विश्वास मानिए हमारे मित्रगण दो ही दिन में

[ ३४ ]

टैक्स को बढ़ाकर दुगुना-तिगुना कर देंगे। यदि इशारा हो जाय कि अब की तकावी जरा हाथ रोक कर दी जाये तो समझ लीजिए कि वह बंद हो जायगी। इन महानुभावों की बातें सुन कर ऐसी घृणा होती है कि इनका मुंह न देखूं। न कोई वैज्ञानिक निरूपण, न कोई राजनैतिक या आर्थिक बात, न कोई साहित्य की चर्चा। बस मैंने यह किया, साहब ने यह कहा, तो मैंने यह उत्तर दिया। आपने यथार्थ कहता हूँ, कोई छंटा हुआ शोहदा भी अपनी कपट-लीलाओं की डींग यों न मारेगा। खेद तो यह है कि इस रोग से पुराने विचार के बुड्ढे ही ग्रसित नहीं, हुमारा नवशिक्षित वर्ग उनसे कहीं अधिक रोग से जर्जरित दिख पड़ता है। मालें, मिल और स्पेन्सर सभी इस स्वार्थ सिद्धांत के सामने दब जाते हैं। अजी, यहाँ ऐसे-ऐसे भद्र पुरुष पड़े हुए हैं जो खानसामों और अरदलिओं की पूजा किया करते हैं, केवल इसलिए कि वह साहेब से उनकी प्रशंसा किया करें। जिसे अधिकार मिल गया है समझने लगता है,

कि अब मैं हाकिम हूँ, अब जनता से देशबन्धओं में मेरा कोई संबंध नहीं हैं। अँगरेज अधिकारियों के सम्मुख जायेंगे तो नम्रता, विनय और शील के पुतले बन जायेंगे, मानो ईश्वर के दरबार में खड़े हैं, पर जब दौरे पर निकलेंगे तो प्रजा और जमींदारों पर ऐसा रोब जमायेंगे मानों उनके भाग्य के विधाता हैं।

ज्वालासिंह ने स्तिथि को खूब बढ़ा कर दर्शाया, क्योंकि इस विषय में वह ज्ञानशंकर के विचारों ने परिचित थे। उनका अभिप्राय केवल यह था कि इस समय दयाशंकर के अभियोग की चर्चा न आने पाए।

ज्ञानशंकर ने प्रसन्न हो कर कहा, मैंने तो आपसे पहले ही दिन कहा था, किंतु आपको विश्वास ने आता था। अभी तो आपको केवल अपने सहवर्गियों की कपटनीति का अनुभव हुआ हैं। कुछ दिन और रहिए तो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की चालें देख कर तो आप दंग रह जायेंगे। यह सब आपको कठपुतली बना कर नचाएगें। बदनामी से बचने का इसके सिवा और उपाय नहीं है कि उन्हें मुंह न लगाया जाय। आपका अहमद ईजादहूसेन एक ही घाघ हैं, उससे होशियार रहिएगा। वह तरह-तरह से आपको अपने पंजे में लाने की कोशिश करेगा। आज ही मैंने उसके मुंह से ऐसी बातें सुनी हैं जिनसे विदित होता हैं कि वह आपको धोखा दे रहा है। उमने आपसे कदाचित मेरी और से दयाशंकर की सिफारिश की है। यद्यपि मुझे दयाशंकर में उतनी ही सहानुभूति है जितनी भाई को भाई के साथ हो सकती हैं, तथापि मैं ऐसा धृष्ट नहीं हूँ कि मित्रता से अनुचित लाभ उठाकर कर न्याय का बाधक बनूँ। मैं कुमार्ग का पक्ष कदापि न ग्रहण करूंगा; चाहे मेरे पुत्र के ही सम्बन्ध में क्यों न हो। मैं मनुष्यत्व को भ्रातृप्रेम में उच्चतर समझता हूँ। मैं उन आदमियों में हूँ कि यदि ऐसी दशा में आपको सहृदयता की और झुका हुआ देखूं तो आपको उनसे बाज रखूँ।

ज्वालासिंह मनोविज्ञान के ज्ञाता थे। समझ गये कि यह महाशय इस समय अपने चाचा से बिगड़े हुए हैं। यह नीतिपरायणता उसी का बुखार है। द्वेष और वैमनस्य कहाँ तक छिपाया जा सकता है, इसका अनुभव हो गया। उनकी दृष्टि में ज्ञानशंकर [ ३५ ] की जो प्रतिष्ठा थी वह लुप्त हो गयी। भाई का अपने भाई की सिफारिश करना सर्वथा स्वाभाविक और मानवचरित्रानुकूल है। इसे बह बहुत बुरा नहीं समझते थे, किंतु भाई का अहित करने के लिए नैतिक सिद्धान्तों का आश्रय लेना वह एक अमानुषिक व्यापार समझते थे। ऐसे दुष्प्रकृति मनुष्यों को जो आठों पहर न्याय और सत्य की हांक लगाते फिरते हो मर्माहत करने का यह अच्छा अवसर मिला। बोले, आपको भ्रम हुआ है। ईजाद हुसैन ने मुझसे इस विषय में कोई बातचीत नहीं की। और न इसकी जरूरत ही थी, क्योंकि मैं अपने फैसले में दयाशंकर को पहले ही निरपराध लिख चुका हूँ। और सब को यह भली-भाँति मालूम है, कि मैं किसी को नहीं सुनता। मैंने पक्षपात-रहित हो कर यह धारणा की है और मुझे आशा है कि आप यह सुन कर प्रसन्न होंगे।

ज्ञानशंकर का मुख पीला पड़ गया, मानो किसी ने उसके घर में आग लगाने का समाचार कह दिया हो। हृदय में तीर-सा चुभ गया। अवाक् रह गये।

ज्वालासिंह-गवाह कमजोर थे। मुकदमा बिलकुल बनावटी था।

ज्ञानशंकर-यह सुन कर असीम आनन्द हुआ। आपको हजारों धन्यबाद। चाचा साहब तो सुन कर खुशी से बावले हो जायेगें।

ज्वालासिंह इस चुटकी से पीड़ित हो कर बोले, यह कानून की बात है।

ज्ञानशंकर--आप चाहे जो कुछ कहें, पर मैं तो इसे अनुग्रह ही समझूँगा। मित्रता कानून की सीमा को को अज्ञात रूप से विस्तृत कर देती है। इसके सिवा आप लोगों को भी तो पुलिस को दबाव मानना पड़ता है। उनके द्रोही बनने से आप लोगों के मार्ग में कितनी बाधाएँ पड़ती है, इसे भी तो विचारना ही पड़ता हैं।

ज्वालासिंह इस व्यंग से और भी तिलमिला उठे। गर्व से बोले, यहाँ जो कुछ करते है न्याय के बल पर करते हैं। पुलिस क्या, ईश्वर के दबाव को भी नहीं मान सकते। आपकी इन बातों मे कुछ वैमनस्य की गंध आती है। मुझे संदेह होता है कि दयाशंकर का मुक्त होना आपको अच्छा नहीं लगा।

ज्ञानशंकर ने उत्तेजित होकर कहा, यदि आपको ऐसा संदेह है तो यह कहने के लिए मुझे क्षमा कीजिए कि इतने दिनों तक साथ रहने पर भी आप मुझसे सर्वथा अपरिचित हैं। मेरी प्रकृति कितनी ही दुर्बल हो, पर अभी इस अघोगति को नहीं पहुँची है कि अपने भाई की और हाथ उठाये। मगर यह कहने में भी मुझे संकोच नहीं है। कि भ्रातृ-स्नेह की अपेक्षा मेरी दृष्टि में राष्ट्र-हित का महत्त्व कहीं अधिक है और जब इन दोनों में विरोध होगा तो मैं राष्ट्र-हित की ओर झुकूँगा। यदि आप इसे वैमनस्य या ईर्ष्या समझे तो यह आपकी सज्जनता है। मैरी नीति-शिक्षा ने मुझे यही सिखाया है और यथासाध्य उसका पालन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। जब एक व्यक्ति-विशेष से जनता को अपकार होता हो तो हमारा धर्म है कि उस व्यक्ति का तिरस्कार करें और उसे सीधे मार्ग पर लायें, चाहे वह कितना ही आत्मीय हो। संसार के इतिहास में ऐसे उदाहरण अप्राप्य नहीं हैं, जहाँ राष्ट्रीय कर्तव्य ने कुल-हित पर विजय पायी है, ऐसी दशा में जब आप मुझ पर दुराग्रह का दोषारोपण करते हैं तो मैं इसके [ ३६ ] सिवा और क्या कह सकता हूं कि आपकी नीति शिक्षा और इथिक्स ने आपको कुछ भी लाभ नहीं पहुंचाया।

यह कह कर ज्ञानशंकर बाहर निकल आये। जिस मनोरथ से वह इतने सबेरे यहाँ आये थे उसके यों विफल हो जाने से उनका चित्त बहुत खिन्न हो रहा था! हाँ, यह आवश्य था कि मैंने इन महाशय के दाँत खट्टे कर दिये, अब यह फिर मुझसे ऐसी बातें करने का साहस नहीं कर सकेंगे। ज्वालासिंह ने भी उन्हें रोकने की चेष्टा नहीं की। वह सोच रहे थे कि इन मनुष्य ने बुद्धि-बल और दुर्जनता का कैसा विलक्षण समावेश हो गया? चातुरी कपट के साथ मिलकर दो-आतशा शराब बन जाती हैं। इस फटकार से कुछ तो आँखें खुली होंगी। समझ गये होंगे कि कूटनीति परखनेवाले संसार में लोप नहीं हो गये।

ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनकी दशा उस जुवारी की-सी थी जो जुए में हार गया हो और सोचता हो कि ऐसी कौन-सी वस्तु दाँव पर लगा कि मेरी जीत हो जाय। इन चित्त उद्विग्न हो रहा था। ज्वालासिंह को यद्यपि उन्होंने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया था फिर भी उन्हें प्रतीत होता था कि मैं कोई गहरी चोट न कर सका। अब ऐसी कितनी है बातें याद आ रही थीं, जिनसे ज्वालासिंह के हृदय पर आघात किया जा सकता था। और कुछ नहीं तो रिश्वत का ही दोष लगा देता। खैर, फिर कभी देखा जाएगा। अब उन्हें राष्ट्र-प्रेम और मनुष्यत्व का वह उच्चादर्शक भी हास्यास्पद-सा जान पड़ता था, जिसके आधार पर उन्होंने ज्वालासिंह को लज्जित करना चाहा था। वह ज्यों-ज्यों इस सारी स्थिति का निरूपण करने थे; उन्हें ज्वालासिंह का व्यवहार सर्वथा असंगत जान पड़ता था। मान लिया कि उन पर मेरी ईर्ष्या का रहस्य खुल गया तो सहृदयता और शालीनता इसमें थी कि वह मुझ पर सहानुभूति प्रकट करते, मेरे आँसू पोंछते। ईर्ष्या भी मानव स्वभाव का ही एक अंग है, चाहे वह कितना ही अवहेलनीय क्यों न हो। यदि कोई मनुष्य इसके लिए मेरा अपमान करे तो इसका कारण उनकी आत्मिक विचित्रता नहीं वरन् मिथ्याअभिमान है। ज्वालासिंह कोई ऋषि नहीं, देवता नहीं, और न यह संभव है कि ईर्ष्या-वेग से कभी उनका हृदय प्रवाहित न हुआ हो। उनकी यह गर्वपूर्ण नीतिज्ञता और धर्मपरायणता स्वयं इस ईर्ष्या का फल है, जो उनके हृदय में अपनी मानसिक लघुता के ज्ञान में प्रज्ज्वलित हुई है।

यह सोचते हुए वह घर पहूँचे वो अपने दोनों छोटे चचेरे भाइयों को अपने कमरे में किताबें उलटते-पुलटते देखा। यद्यपि यह कोई असाधारण बात न थी, पर ज्ञानशंकर इस समय मानसिक अशान्ति से पीड़ित हो हे थे। जल गये और दोनों लड़कों को डांटकर भगा दिया। इन लोगों ने अवश्य मुझे छेड़ने के लिए इन शैतानों को यहाँ भेज दिया। नीचे इतना बड़ा दीवानखाना है, दो कमरे हैं क्या उनके लिए इतना काफी नहीं कि मेरे पास छोटे-से कमरे को भी नहीं देख सकते। क्या इस पर भी दांत है? मुझे घर से निकालने की ठानी है क्या? इस मामले को अभी न साफ कर लेना चाहिए। यह कदापि नहीं हो सकता कि मुझे लोग दबाते जाएं और मैं चूँ न [ ३७ ] करूं। मन में यह निश्चय करके उन्होंने तत्क्षण अपने चाचा के नाम यह पत्र लिखा---

‘मान्यवर, यह बात मेरे लिए असह्य है कि आपके सुपुत्र मेरी अनुपस्थिति में मेरे कमरे में आ कर ऊधम मचायें और मेरी वस्तुओं का सर्वनाश करें। मैं चाहता हूं कि आज घर का बँटवारा हो जाय और लड़कों को ताकीद कर दी जाय कि वह भूल करा भी मेरे मकान में पदक्षेप न करें, अन्यथा मैं उनकी ताड़ना करूँ, तो आपको या चाची को मुझसे शिकायत करने का कोई अधिकार न रहेगा। इसका ध्यान रखिएगा कि मुझे जो भाग मिले वह गार्हस्थ्य आवश्यकताओं के अनुकूल हो, और सबसे बड़ी बात यह है कि वह पृथक् हो जिसमे मैं उसको अपना समझ सकें और आते-जाते, उठते-बैठते, आग्नेय नेत्रों और व्यंग शरो का लक्ष्य न बनूँ।'

यह पत्र कहार को दे कर वह उत्तर का इंतजार करने लगे। सोच रहे थे कि देखे, बुड्ढा अब की क्या चाल चलता है? एक क्षण में कहार ने उसका जवाब ला कर उनके हाथ में रख दिया--

बेटा, मेरे लड़के तुम्हारे लड़के हैं। उन्हें दंड देने का तुमको पूरा अधिकार है, इसकी शिकायत मुझे न कभी हुई है न होगी। बल्कि तुम्हारा मुझपर अनुग्रह होगा, यदि कभी-कभी इनकी खबर लेते रहो। रहा घर का बंटवारा, उसे मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। घर तुम्हारा है, मैं भी तुम्हारा हूँ, जो टुकड़ा चाहो मुझे दे दो, मुझे कोई आपत्ति न होगी। हाँ, यह ध्यान रखना कि मैं बाहर बैठने का आदी हूँ, इसलिए दीवानखाने के बरामदे मे मेरे लिए एक चौकी की जगह दे देना। बस, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरे जीवनकाल में यह विच्छेद न होता, पर तुम्हारी यदि यही इच्छा है और तुम इसी में प्रसन्न हो तो मैं क्या कर सकता हूँ।'

ज्ञानशंकर ने पुर्जे को जेब में रख लिया और मुस्कराये। बुढ़ा कैसा घाघ हैं, इन्हीं नम्रताओं से उसने पिता जी को उल्लू बना लिया था, मुझसे भी वही चाल चल रहा है, पर मैं ऐसा गौखा नहीं हूँ। समझे होंगे कि जरा दब जाऊँ तो वह आप ही दब जायेगा! यहाँ ऐसी विषम शालीनता का पाठ नहीं पढ़ा है। विवश हो कर दबना तो समझ में आता है, पर किसी के खातिर से दबना, केवल मुरौवत के हाथों की कठपुतली बनना, यह निरी भावुकता है!

ज्ञानशंकर बैठ कर सोचने लगे, कैसे इस समस्या की पूर्ति करूँ, केवल यह एक कमरा नीचे के दीवानखाने और उसके बगल के दोनों कमरो की समता नहीं कर सकता। ऊपर के दो कमरों पर दयाशंकर का अधिकार है। पर अमर के तीनों कमरे मेरे, नीचे के तीनों कमरे उनके। यहाँ तो बड़ी सुगमता से विभाग हो गया, किंतु जनाने घर में यह पार्थक्य इतना सुलभ नहीं। पद की कम से कम दो दीवारें खीचनी पड़ेगी। पूर्व की और निकास के लिए एक द्वार खोलना पड़ेगा, और इसमें झंझट है। म्युनिसिपैलिटी महीनों का अलसेट लगा देगी। क्या हर्ज हैं, यदि मैं दीवानखाने के नीचे-ऊपर के दोनों भागों पर संतोष कर लूँ? जनाना मकान उन्हीं के हिस्से में डाल दूं। यहाँ ऊपर स्त्रियाँ भली-भाँति रह सकती है। जनाना मकान इनसे बड़ा अवश्य हैं, पर न जाने कब का बना [ ३८ ] हुआ है। थोड़े ही दिनों में उसे फिर बनवाना पड़ेगा। दीवारे अभी से गिरने लगी हैं। नित्य मरम्मत होती ही रहती है। छत भी टपकती है। बस मेरे लिए दीवानखाना ही अच्छा है। चाचा साहब का इसमें गुजर नहीं हो सकती, उन्हें विवश हो कर जनाना मकान लेना पड़ेगा। यह बात मुझे खूब सूक्षी, अपना अर्थ भी सिद्ध हो जायेगा और इदारता का श्रेय भी हाथ रहेगा।

मन में यह निश्चय करके वह स्त्रियों से परामर्श करने के लिए अंदर गये। वह सभ्यता के अनुसार स्त्रियों की सम्मति अवश्य लेते थे, पर 'वीटों' का अधिकार अपने हाथ में रखते और प्रत्येक अवसर पर उसका उपयोग करने के कारण वह अबाघ्य सम्मति का गला घोट देते थे। वह अंदर गये तो उन्हें बड़ा करुणाजनक दृश्य दिखाई दिया। दयाशंकर कचही जा रहे थे और बड़ी बहू आँखों में आँसू भरे उनको विदा कर रही थी। दोनों बहनें उनके पैरों से लिपट कर रो रही थी। उनकी पत्नी अपने कमरे के द्वार पर घूँघट निकाले उदास खड़ी थी। संकोचवश पति के पास न आ सकती थी। श्रद्धा भी खड़ी रो रही थी। आज अभियोग का फैसला सुनाया जानेवाला था। मालूम नहीं क्या होगा। घर लौट कर आनी बदा है या फिर घर का मुंह देखना नसीब न होगा। दयाशंकर अत्यंत कातर देख पड़ते थे। ज्ञानशंकर को देखते ही उनके नेत्र सजल हो गये, निकट आ कर बोले, भैया, आज मेरा हृदय शंका से काँप रहा है। ऐसा जान पड़ता है, आप लोगों के दर्शन न होगे। मेरे अपराधों को क्षमा कीजिएगा, कौन जाने फिर भेंट हो या न हो, दया का क्या आसरा? यह घर अब आपके सुपुर्द है।

ज्ञानशंकर उनकी यह बातें सुन कर पिघल गये। अपने हृदय की संकीर्णता-क्षुद्रता पर ग्लानि उत्पन्न हुई। तस्कीन देते हुए बोले, ऐसी बातें मुंह से न निकालो, तुम्हारी बाल भी बाँका न होगा। ज्वालासिंह कितने ही निर्दयी बने, पर मेरे एहसानों को नहीं भूल सकते। और सच्ची बात तो यह है कि मैं अभी तुम्हारे ही सम्बन्ध में बातें करके उनके पास से आ रहा हूँ, तुम अवश्य बरी हो आओगे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों मे मुझे इसका विश्वास दिलाया है। चलता तो मैं भी तुम्हारे साथ, किन्तु मेरे जाने से काम बिगड़ जायगा।

दयाशंकर ने अविश्वासपूर्ण कृतज्ञता के भाव से उनकी ओर देख कर कहा, हाकिमों की बात का क्या भरोसा?

ज्ञानशंकर-ज्वालासिंह उन हाकिमों में नहीं है।

दयाशंकर---यह न कहिए, बड़ा बेमुरौवत आदमी है।

ज्ञानशंकर ने उनके हृदयस्थ अविश्वास को तोड़ कर कहा, यही हृदय की निर्बलता हमारे अपराधों का ईश्वरीय दंड है, नहीं तो तुम्हें इतना अविश्वास न होता।

दयाशंकर लज्जित हो कर वहाँ से चले गये। ज्ञानशंकर ने भी उनसे और कुछ न कहा---उन्होंने हारी हुई बाजी को जीतना चाहा था, पर सफल न हुए। वह इस बात पर मन में झुंझलाये कि यह लोग मुझे उच्च भावों के योग्य नहीं समझते। मैं इनकी दृष्टि में विषैला सर्प हूँ। जब मुझ पर अविश्वास है तो फिर जो कुछ करना है वह [ ३९ ]खुल्लम-खुल्ला क्यो न करूंँ? आत्मीयता का स्वाँग भरना व्यर्थ है। इन भावो से यह लोग अब हत्थे चढनेवाले नही । सद्भावो का अकुर जो एक क्षण के लिए उनके हृदय में विकसित हुआ था, इन दुप्कामनाओं से झुलस गया। वह विद्या के पास गये तो उसने पूछा, आज सवेरे कहाँ गये थे?

ज्ञानशकर---जरा ज्वालासिंह से मिलने गया था।

विद्या--तुम्हारी ये बाते मुझे अच्छी नहीं लगती।

ज्ञान--कौन-सी बातें ?

विद्या-यही, अपने घर के लोगो की हाकिम से शिकायत करना। भाइयो में खटपट सभी जगह होती है, मगर कोई इस तरह भाई की जड नही काटता।

ज्ञानाकर ने होठ चबा कर कहा, तुमने मुझे इतना कमीना, इतना कपटी समझ लिया है ?

विद्या दृढता से बोली, अच्छा, मेरी कसम खाओ कि तुम इसलिए ज्वालासिंह के पास नही गये थे।

ज्ञानशकर ने कठोर स्वर में कहा, मैं तुम्हारे सामने अपनी सफाई देना आवश्यक नहीं समझता।

यह कह कर ज्ञानशकर चारपाई पर बैठ गये। विद्या ने पते की बात कही थी और इसने उन्हें मर्माहत कर दिया था। उन्हें इस समय विदित हुआ कि सारे घर के लोग, यहाँ तक कि मेरी स्त्री भी मुझे कितना नीच समझती है।

विद्या ने फिर कहा, अरे तो यहाँ कोई दूसरा थोड़े ही बैठा हुआ है, जो सुन लेगा।

ज्ञान--चुप भी रहो, तुम्हारी ऐसी बातो से बदन में आग लग जाती है। मालूम नहीं, तुम्हें कब बात करने की तमीज आयेगी। क्या हुआ, आज भोजन न मिलेगा क्या? दोपहर तो होने को आयीं।।

विद्या--आज तो भोजन बना ही नहीं। तुम्ही नै घर बाँटने के लिए चाचा जी को कोई चिट्ठी लिखी थी। तब से वह बैठे हुए रो रहे हैं।

ज्ञान--उनका रोने को जी चाहता है तो रोयें। हम लोगो को भूखो मारेंगे क्या?

विद्या ने पति को तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा, घर में जब ऐसा रार मचा हो तो खाने-पीने की इच्छा किसे होती है ? चचा जी को इस दशा मे देख कर किसके घट के नीचे अन्न जायगा। एक तो लड़के पर यह विपत्ति दूसरे घर में यह द्वेष। जब से तुम्हारी चिट्ठी पायी है, मिर नही उठाया। तुम्हे अलग होने की यह धुन क्यो समायी है।

ज्ञान--इसी लिए कि जो थोड़ी बहुत जायदाद बच रही है वह भी इस भाड़ में न जल जाय। पहले घर में छह हजार सालाना की जायदाद थी। अब मुश्किल से दो हजार की रह गयी है। इन लोगों ने सब खा-पीकर बराबर कर दिया।

विद्या--तो यह लोग कोई परायें तो नहीं हैं।

ज्ञान--नुम जब ऐसी बड़ी-बडी बातें करने लगती हो तो मालूम होता है, बन्नासँठ [ ४० ] की बेटी हो। तुम्हारे बाप के पास तो लाखों की सम्पत्ति है, क्यों नहीं उसमे थोड़ी-सी हमें दे देते, वह तो कभी बात नहीं पूछते और तुम्हारे पैरों तले गंगा बहती है।

विद्या-पुरुषार्थी लोग दूसरों की सम्पत्ति पर मुँह नहीं फैलाते। अपने बाहुबल का भरोसा रखते है।

ज्ञान-लजाती तो नहीं हो, ऊपर से बढ़-बढ़ कर बाते करती हो। यह क्यों नहीं कहती कि घर की जायदाद प्राणों से भी प्रिय होती है और उसकी रक्षा प्राणों से भी अधिक की जाती है? नहीं तो ढाई लाख सालाना जिसके घर में आता हो, उसके लिए बेटी-दामाद पर दो-चार हजार खर्च कर देना कौन-सी बड़ी बात है? लाला साहब तो पैसे को यो दाँतों से पकड़ते है और तुम इतनी उदार बनती हो, मानो जायदाद की कुछ मूल्य ही नहीं।

इतने में श्रद्धा आ गयी और ज्ञानशंकर घर के बंटवारे के विषय में उससे बातें करने लगे।