प्रेमाश्रम/५९

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५९

वाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दडता की घुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमे युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर समझती है। भाँति-भाँति की मृदु-कल्पनाएँ चित्त को आन्दोलित करती रहती हैं। सैलानीपन का भूत सा चढा रहता है। कभी जी में आया है कि रेलगाड़ी में बैठ कर देखूँ कि कहाँ तक जाती है। अर्थी को देख कर उसके साथ श्मशान तक जाते हैं कि वहाँ क्या होता है। मदारी का खेल देख कर जी में उत्कठा होती है कि हमें भी गले में झोली लटकायें देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते। अपनी क्षमता पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में भी नहीं आती। ऐसी सरलता जो अलाउद्दीन के चिराग को ढूँढ निकालना चाहती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमाएँ अपरिमित होती हैं। विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढे जाते हैं। कभी जटाधारी योग बनते हैं, कभी ताता से भी धनवान् हो जाते है। हमें इस अवस्था में फकीरों और साधुओं पर ऐसी श्रद्धा होती है जो उनकी विभूति को कामधेनु समझती हैं। तेजशकर और पद्मशकर दोनों ही सैलानी थे। घर पर कोई देख-भाल करनेवाला न था जो उन्हें उत्तेजनाओ से दूर रखता, उनकी सजीवता को, उनकी अबाध्य कल्पनाओं को सुविचार की ओर कर सकता। लाला प्रभाशकर उन्हें पाठशाला में भरती करके ज्यादा देख-भाल अनावश्यक समझते थे। दोनों लडके घर से स्कूल को चलते; लेकिन रास्ते में नदी के तट पर घूमते, बैड सुनते या सेना की कवायद देखने की इच्छा उन्हें रोक लिया करतीं। किताबो से दोनों को अरुचि थी और दोनों एक ही

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[ ३७० ]श्रेणी में कई-कई साल फेल हो जाने के कारण हताश हो गये थे। उन्हें ऐसा मालूम होता था कि हमें विद्या आ ही नहीं सकती। एक बार लाला जी की आलमारी में इद्रजाल की एक पुस्तक मिल गयी थी। दोनों ने उसे बड़े चाव से पढ़ा और उसके मंत्री को जगाने की चेष्टा करने लगे। दोनों अक्सर नदी की ओर चले जाते और साधु सन्तो की बाते सुनते। सिद्धियो की नयी-नयी कथाएँ सुन कर उनके मन में भी कोई सिद्धि प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। इस कल्पना से उन्हें एक गर्वयुक्त आनन्द मिलता था कि इन सिद्धियो के बल से हम सब कुछ कर सकते हैं, गडा हुआ घन निकाल सकते है, शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं, पिशाचो को वश में कर सकते है। उन्होंने दो-एक लटको का अभ्यास भी किया था और यद्यपि अभी तक उनकी परीक्षा करने का अवसर न मिला था, पर अपनी कृतकार्यता पर उन्हें अटल विश्वास था।

लेकिन जब से गायत्री ने मायाशकर को गोद लिया था, ईर्षा और स्वार्थ से दोनो जल रहे थे। यह् दाह एक क्षण के लिए भी न शान्त होता। जो लडका अभी कल तक उनके साथ का खिलाडी था वह सहसा इतने ऊँचे पद पर पहुँच जाय। दोनो यही सोचा करते कि कोई ऐसी सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए कि जिसके सामने घन और वैभव की कोई हस्ती न रहे, जिसके प्रभाव से वे मायाशकर को नीचा दिखा सकें। अन्त में बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होने भैरव-मन्त्र जगाने का निश्चय किया। एक तन्त्र ग्रन्थ ढूँढ निकाला जिसमे इस क्रिया की विधियाँ विस्तार से लिखी हुई थी। दोनो ने कई दिन तक मन्त्र को कठ किया। उसके मुखाग्र हो जाने पर यह सलाह होने लगी, इसे जगाने का आरम्भ कब से किया जाय ? तेजशकर ने कहा--चलो आज से ही श्रीगणेश कर दें।

पद्म--जब कहो तब । बस, अस्सी घाट की ओर चले।

तेज--चालीसा किसी तरह पूरा हो जाये फिर तो हम अमर हो जायेगे। बन्दूक, तलवार, तोप का हम पर कुछ असर ही न होगा।

पद्म--यार, बडा मजा आयेगा। सैकड़ो वरस तक जीते रहेगे।

तेज--सैकडो ! अभी हजारो क्यो नही कहते ? हिमालय की गुफाओं में ऐसे-ऐसे साधु पड़े हैं जिनकी अवस्थाएँ चार-चार सौ साल से अधिक हैं। उन्होने भी यहीं मन्त्र जगाया होगा। मौत का उन पर कोई वश नहीं चलता।

पद्म--माया बडी शेखी मारा करते हैं। बच्चा एक दिन मर जायेंगे, सब यही रखा रह जायगा। यहाँ कौन चिन्ता है? तोप से भी न डरेंगे।

तेज़--लेकिन मन्त्र जगाना सहज नही है। डरे और काम तमाम हुआ, जरा चौके और वहीं ढेर हो गये । तुमने तो किताब मे पढा ही है, कैसी-कैसी भयकर सूरते दिखायी देती हैं। कैसी-कैसी डरावनी आवाजें सुनायी देती है। भूत-प्रेत, पिशाच नगी तलवार लिए मारने दौड़ते हैं। उस वक्त जरा भी शका न करनी चाहिए।

पद्म--मैं जरा भी न डरूँगा, वह कोई सचमुच के भूत-प्रेत थोड़े न होगे। देवता लोग परीक्षा के लिए डराते होगे। [ ३७१ ] तेज–हाँ और क्या। सब भ्रम है। अपना कलेजा मजदूत किये रहना।

पद्म—और जो कहीं तुम डर जाओ।

तेजशंकर ने गर्व से हँस कर कहा- मैंने डर को भून कर खा लिया है। वह मैरे पास नही फटक सकता। मैं तो सचमुच प्रेतो से न डरूँ, शंकाओं की कौन चलाये।

पद्म-तो हम लोग अमर हो जायेंगे।'

तेज--अवश्य, इसमें भी कुछ सन्देह है।

दोनो ने इस भाँति निश्चय करके मन्त्र जगाना शुरू किया। जब घर के सब लोग सो, जाते तो दोनो चुपके से निकल जाते और अस्सी घाट पर गंगा के किनारे बैठ कर मन्त्र जाप करते। इस प्रकार उन्तालीस दिनों तक दोनो ने अभ्यास किया। इस विकट परीक्षा में है कैसे पूरे उतरें इसकी व्याख्या करने के लिए एक पोथी अलग चाहिए। उन्हें वह सब विकराल सूरते दिखायी दी, वे सब रोमांचकारी शब्द सुनायी दिये, जिनका उस पुस्तक में जिक्र था। कभी मालूम होता था आकाश फटा पड़ता है, कभी आग की एक लहर सामने आती हुई नजर आती, कही कोई भयंकर राक्षस मुंह से अग्नि की ज्वाला निकालता हुआ उन्हें निगलने को लपकता, लेकिन भय की पराकाष्ठा का नाम साहस है। दोनो लड़के आँखै बन्द किये, नीरव, निश्चल, निस्तब्ध, मूत के समान बैठें रहते। जाप को तो केवल नाम था, सारी मानसिक शक्तियाँ इन शंकाओं को दूर रखने में ही केन्द्रीभूत हो जाती थी। यह भय कि जरा भी चौके, झिझके या विचलित हुए तो तत्क्षण प्राणान्त हो जायेगा उन्हें अपनी जगह पर बांध रहता था। मेरा भाई समीप ही बैठा है, यह विश्वास उनकी दृढ़ता का एक मुख्य कारण था, हालाँकि इस विश्वास से तेजशंकर को उतना ढाढस न होता था जितना पद्मशंकर को। उसे (तेजशंकर को) पद्म पर वह भरोसा न था जो पद्म को उस पर था। अतएव तेजशंकर के लिए यह परीक्षा ज्यादा दुस्साध्य थी, पर यह भय कि मैं जरा भी हिला तो पद्म की जान पर बन जायगी, उस विश्वास की थोड़ी सी कसर पूरी कर देता था। इन दिनो दोनो बहुत दुर्बल हो गये थे, मुख पीले, आँखें चंचल, ओठ सूखे हुए। दोनो सारे दिन संज्ञा-हीन से पड़े रहते, खेल-कूद, सैर-सपाटे, आमोद-विनोद से उन्हें जरा भी रुचि न थी, आठो पहर मन उचटा रहता था यहाँ तक कि भोजन भी अच्छा न लगता। इस तरह उन्तालीस दिन बीत गये, चालीसवाँ दिन आ पहुँचा। आज भोर से ही उनके चित्त उद्विग्न होने लगे, शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया, आशाएँ भी प्रबल हुई। दोनो आशा और भय की दशा में बैठे हुए कभी अमरत्व की कल्पना से प्रफुल्लित हो जाते, कभी आज की कठिनतम परीक्षाओं के भय से काँपते, पर आशाएँ भय के ऊपर थी। सारे शहर में हलचल मच जायेगी, हम लोग जलती हुई आग में कूद पड़ेंगे और बेदाग निकल जायेगे, आँच तक न आयेगी। उस मुंडेर पर से निश्शक नीचे कूद पड़ेंगे, जरा भी चोट न लगेगी। लोग देख कर दंग हो जायेगे। दिन भर दोनों ने कुछ नहीं खाया। कभी नीचे जाते, कभी ऊपर जाते, कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते। कोई दूसरा आदमी उनकी यह दशा देख कर समझता कि पागल हो गये हैं। [ ३७२ ] जब अँधेरा हुआ तो तेजशंकर घर में से एक तलवार निकाल लाया जिसे लाला जी में हाल ही में जयपुर से मंगाया था। दोनों ने कमरे का द्वार बन्द कर उसे मिट्टी के तेल ने खूब साफ किया, उसे पत्थर पर गड़ा, यहाँ तक कि उनमें चिनगारियाँ निकलने लगी। तब उसे बिछावन के नीचे छिपा कर दोनों बाजार की चैर करने निकल गये। लौटे तो नौ बज गये थे। बड़ी बहू के बहुत अनुरोध करने पर दोनों ने कुछ सूक्ष्म भोजन किया और तब अपने कमरे में लोगों के निद्रामग्न हो जाने का इन्तजार करने लगे। ज्यों ज्यों समय निकट आता था उनका आशा-दीपक भय-तिमिर में विलुप्त होता जाता था। इस सनय उनकी दशा कुछ उन अपराधी की ही थी जिसकी फाँसी का समयं प्रति क्षण निकट होता जाता हौ। भाँति-भंति की शंकाएँ और दुष्कल्पनाएँ रही थीं, किन्तु इस आँची और तूफान में भी एक नौका का स्पष्ट चिह्न दूर से दिन्वाय देता था जिससे उनकी हिम्मत वैध जाती थी। तेज शंकर चिन्तित और गमौर था और पद्मशंकर की मरल, आशामय बातो का जवाब तक न देता था।

निश्चित समय आ पहुँचा तो दोनों घर से निकले। माघ का महीना, तुषारवेष्टित वायु हड्डियों में चुभती थी। हाथ-पाँच अकड़े जाते थे। तेजशंकर ने तलवार को अपनी चादर के नीचे छिपा लिया और दोनों चले, जैसे कोई मन्द बुद्धि चालक परीक्षा भवन की ओर चले। पग-पग पर वे शंका-विह्वल हो कर ठिठक जाते, कलेजा मजबूत करके आगे बढ़ते। यहाँ तक कि कई बार उन्होंने लौटने का इरादा किया, लेकिन उन्तालीस दिन की तपस्या के बाद वरदान मिलने के दिन हिम्मत हार जाना अक्षम्य दुर्बलता और भीत्ता थी। अब तो चाहे जो हो, यह अन्तिम परीक्षा अनिवार्य थी। इस तरह डरलें हिचकते दोन घाट पर पहुँच गये। रास्ते में किनी के मुँह ने एक अब्द भी न निकला।

अमावस की रात थी। आँखों का होना न होना बराबर था। तारागणे भौं बादलों में मुंह छिपाये हुए थे। अन्धकार में जल और वीरू, पृथ्वी और आकाश को समान कर दिया था। केवल जल की मधुर-बनि गंगा का पता देती थी। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि जल-नाद भी उसमें निमग्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि अभी शून्य के गर्भ में पड़ी हुई है। अनन्त जीवन के दोनों आराधक पग-पगपर ठोकरें खाते शंका-रचित बाधाओं से पग-पग पर चौंकते नदी के किनारे पहुँचे और जल में उतरे।। पानी बर्फ हो रहा था। उनके मारे अंग शिथि हो गये। स्नान करके दोनों रेत पर बैठ गये और मन्त्र का जाप करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि आज उन्हें कोई ऐसा दृष्य ने दिखायी दिया जिसे मैं देख न चुके हो, न कोई ऐसी आवाजें सुनायी दी जो वे सुन न चुके हो, कोई असाधारण घटना न हुई। सरदी ने शंकाओं को भी शान्त कर दिया था। विषम कल्पनाएँ भी निर्जीव हो गयी थी। दोनों डर है थे कि आज न जाने कैसी-कैसी विकराल मूर्तियाँ विवाबी देंगी, प्रेत न जाने किन मन्त्री से आघात करेंगे। न जाने प्राण बचेंगे या जायेंगे? लेकिन आज और दिन से सस्ते छूट गये। [ ३७३ ] जब रात समाप्त हो गयी और दोनो साघको ने आँखे खोली तब आकाश पर उषालालिमा दिखायी दी। पृथ्वी शनै शनै तिमिर-पट से निकलने लगी। उस पार के वृक्ष और रेत व्यक्त हो गये जैसे किसी मूति रोगी के मुख पर चैतन्य का विकास हो रहा हो। श्यामल जल वैग से बह रहा था मानो अन्धकार को अपने साथ बहाये लिए जाता हो। उस पार के वृक्ष इस तरह सिर झुकाये खड़े थे मानो शोक समाज किसी की दाह-क्रिया करके शोक से सिर झुकाये चला जाता है।

सहसा तेजशंकर उठ खड़ा हुआ और बोला—जय भैरव की।

दोनो के नेत्रो में एक अलौकिक प्रकाश था, दोनों के मुखो पर एक अद्भुत प्रतिभा झलक रही थी।

तेजशंकर-तलवार हाथ में लो, मैं सिर झुकाये हुए हैं।

पद्म-नहीं, पहले तुम चलाओ मैं सिर झुकाता हूँ।

तेज- क्या अब भी डरते हो? हमने मौत को कुचल दिया, काल को जीत लिया, अब हम अमर है।

पद्म—नही, पहले तुम ही श्रीगणेश करो। ऐसा हाथ चलाना कि एक ही बार में गर्दन अलग आ गिरे। मगर यह तो बताओ दर्द तो न होगा?

तेज-कैसा दर्द? ऐसा जान पड़ेगा जैसे किसी ने फूल से मारा हो। इसी से तो कहता है कि पहले तुम शुरू करो।

पद्म नहीं, पहले मैं सिर झुकाता हूँ।

तेजशंकर ने तलवार हाथ में ली, उसे तौला, दो-तीन बार पैतरे बदले और तब 'जय भैरव की' कह कर पद्मशंकर की गर्दन पर तलवार चलायी। हाथ भरपूर पड़ा; तलवार तेज थी, सिर धड़ से अलग जा गिरा, रक्त का फौवारा छूटने लगा। तेजशंकर खड़ा मुस्कुरा रहा था, मानो कोई फुलझड़ी छूट रही हो। उसके चेहरे पर तेजोमय शान्ति छायी हुई थी। कोई शिकारी भी पक्षी को भूमि पर तड़पते देखकर इतना अविचलित न रहता होगा। कोई अभ्यस्त बधिक भी पशु की गर्दन पर तलवार चला कर इतना स्थिर-चित्त न रह सकता होगा। वह ऐसे सुदृढ विश्वास के भाव से खड़ा था जैसे कोई कबूतरबाज अपने कबूतर को उड़ा कर उसके लौट आने की राह देख रहा हो।

लाश कुछ देर तक तड़पती रही, इसके बाढ़ शिथिल हो गयी। खून के छीटे बन्द हो गये, केवल एक-एक बूंद टपक रही थी जैसे पानी बरसने के बाद ओरी टपकती है, किन्तु पुनरुज्जीवन के संसार का कोई लक्षण न दिखायी दिया। एक मिनट और गुजरा। तेजशंकर को कुछ भ्रम हुआ, पर विश्वास ने उसे शान्त कर दिया। उसने गंगाजल चुल्लू में लेकर भैरव मन्त्र पढ़ा और उस पर एक फूक मार कर उसे लाश पर छिड़क दिया, किन्तु यह क्रिया भी असफल हुई। उस कटे हुए सिर में कोई गति न हुई, उस मृत देह में स्फूति का कोई चिह्न न दिखायी दिया। मन्त्र की जीवन-सचारिणी शक्ति का कुछ असर न हुआ। [ ३७४ ] अब तेजशंकर को शक होने लगी, विश्वास की नीव हिलने लगी। इस पुस्तक मे स्पष्ट लिखा था कि सिर गर्दन से अलग होते ही तुरन्त उसमे चिमट जाता है और यदि इस क्रिया में कुछ विलम्ब हों तो भैरव मन्त्र से फूके हुए पानी का एक चुल्लू काफी है। यहाँ इतनी देर हो गयी और अभी तक कुछ भी असर न हुआ। यह बात क्या है? मगर यह असम्भव है कि मन्त्र निष्फल हो। कितने लोगो ने इस मन्त्र को सिद्ध किया है। नहीं, घबराने की कोई बात नहीं, अभी जान आयी जाती है।

उसने तीन-चार मिनट तक और इन्तजार किया; पर लाश ज्यों की त्यो शान्त, शिथिल पड़ी हुई थी। तब उसने फिर गंगाजल छिड़का, फिर मन्त्र पढ़ा, किन्तु लाश न उठी। उसने चिल्लाकर कहा--हा ईश्वर। अब क्या करूं? विश्वास का दीपक बुझ गया। उसने निराश भाव से नदी की और देखा। लहरे दाढे मार-मार कर रोती हुई जान पड़ी। वृक्ष शोक में सिर धुनते हुए मालूम हुए। उसके कठ से बलात् अन्दन ध्वनि निकल आयी, वह चीख मार कर रोने लगा। अब उसे ज्ञान हुआ कि मैंने कैसा घोर अनर्थ किया। अनन्त जीवन की सिद्धि कितनी उद्भ्रात, कितनी मिथ्या थीं। हा! मैं कितना अन्या, कितना मन्द बुद्धि, कितना उद्दड हूँ। हा! प्राणी से प्यारे पद्म, मैंने मिथ्या भक्ति की धुन में अपने ही हाथो से, इन्ही निर्दय हाथो से, तुम्हारी गर्दन पर तलवार चलायी।! मैंने तुम्हारे प्राण लिए। मुझ सा पापी और अभागी कौन होगा? अब कौन सा मुँह ले कर घर जाऊँ? कौन सा मुंह दुनिया को दिखाऊँ? अब जीवन वृथा है। तुम मुझे प्राणो से भी प्यारे थे। अव तुम्हे कैसे देखूँगा, तुम्हे कैसे पाऊंगा?

तेजशंकर कई मिनट तक इन्ही शौकमय विचारों से विह्वल हो कर खड़ा रोता रहा। अभी एक क्षण पहले उसके दिल में क्या-क्या इरादे थे, कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थी? बह सब इरादे मिट्टी में मिल गये? आह। जिसे धूर्त पापी ने यह किताब लिखी है। उसे पाता तो इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लेता। उसके भ्रम जाल में पड़ कर मैंने अपना सर्वनाश किया।

हाय! अभी तक लाश में जान नही आयी। उसे उसकी ओर ताकते हुए अब भय होता था।

नैराश्य-व्यया, शोकाघात, परिणाम-भय, प्रेमोंदगार, ग्लानि–इन सभी भावो ने उसके हृदय को कुचल दिया।

तिस पर भी अभी तक उसकी आशाओं का प्राणान्त न हुआ था। उसने एक बार डरते-डरते कनखियों से लाश को देखा, पर अब भी उसमें प्राण-प्रवेश का चिह्न न दिखायी दिया तो आशाओं का अन्तिम सूत्र भी टूट गया, धैर्य ने साथ छोड़ दिया।

उसने एक बार निराश होकर आकाश की ओर देखा। भाई की लाश पर अन्तिम दृष्टि डाली तब सँभल कर बैठ गया और वही तलवार अपने गले पर फेर दी। रक्त की फुवारें छूटी, शरीर तड़पने लगा, पुतलियाँ फैल गयी। बलिदान पूरा हो गया। मिथ्या विश्वास ने दो लहलहाते हुए जीव-पुष्प को पैर से मसल दिया। [ ३७५ ] सूर्य देव अपने आरक्त नेत्रों से यह विषम माया लीला देख रहे थे। उनकी नीरव, पीत किरणें उन दोनो माहत बालको पर इस भाँति पड़ रही थी मानो कोई शोकविह्वल प्राणी उनके गले से लिपट कर रो रहा हो।