प्रेमाश्रम/५८

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५८

लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। 'कल' की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल-मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना—यही उनके जीवन के ध्येय थे। उन्होने सदैव इसी त्रिमूर्ति की आराधना की थी और अपनी वंशगत [ ३६५ ]सम्पत्ति का अधिंकाश बर्बाद कर चुकने पर भी वह अपने व्यावहारिक नियमों में संशोघन करने की जरूरत नहीं समझते थे, या समझते थे तो अब किसी नये मार्ग पर चलना उनके लिए असाध्य था। वह एक उदार, गौरवशील पुरुष थे। सम्पत्ति उनकी दृष्टि में मर्यादा पालन का एक संघिन मात्र थी। इससे श्रीवृद्धि भी हो सकती है, धन से धन की उन्नति भी हो सकती है, यह उनके ध्यान में भी नहीं आया था। चिन्ताओं को वह तुच्छ समझते थे, शायद इसीलिए कि उनका निवारण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने महाजन के द्वार तक जाना पड़ता था। उनका जो समय और घन मेहमानों के आदर-सत्कार में लगता था उसी को वह श्रेयस्कर समझते थे। दान-दक्षिणा के शुभ अवसर आते तो उनकी हिम्मत आसमान पर जा पहुँचती थी। उस नशे में उन्हें इसकी सुध न रहती थी कि फिर क्या होगा, और काम कैसे चलेंगे? यह वही बहू का ही काम था कि इस चढी हुई नदी को थामे। वह रुपये को उनकी आँखो से इस तरह बचती थी जैसे दीपक को हवा से बचाते हैं। वह बेधड़क कह देती थी, अब यहाँ कुछ नहीं है। लाला जी उसे धिक्कारने लगते, दुष्टा, अभागिनी, तुच्छ हृदया, जो कुछ मुँह में आता कहते, पर वह टस-से-मस न होती थी। अगर वह सदैव इस नीति पर चल सकती तो अब तक जायदाद बची रहती, पर लाला साहब ऐसे अवसरों पर कौशल से काम लेते है वह विनय के महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। वही बहू उनके कोप का सामना कर सकती थी, पर उनके मुदु वचनों में हार जाती।

प्रेमशंकर की जमानत के अवसर पर लाला प्रभाशंकर ने जौ रुपये कर्ज लिये थे, उसका अधिकांश उसके पास बेच रहा था। वह रुपये उन्होनें महाजन को लौटा कर न दिये। शायद ऋण-धन को वह अपनी कमाई समझते थे। घन-प्राप्ति का कोई अन्य उपाय उन्हें ज्ञात ही न था। बहुत दिनों के बाद इतने रुपये एक मुश्त उन्हें मिले थे—मानों भाग्य सूर्य उदय हो गया। आत्मीय जनों और मित्रों के यहाँ तोहफे और सौगात जाने लगे, मित्रों की दावते होने लगी। लाला जी पाक-कला सिद्धहस्त थे। उनका निज रचित एक ग्रन्थ था जिसमे नाना प्रकार के व्यजनो के बनाने की विधि लिखी हुई थी। वह विद्या उन्होंने बहुत खर्च करके हलवाइयों और बावर्चीयों से प्राप्त की थी। वह निमकौड़ियों की ऐसी स्वादिष्ट खीर पका सकते थे कि बादाम का धोखा हो। बाल विषाक्त मिर्चा का ऐसा हलवा बना सकते थे कि मोहनभोग का भ्रम हो। अमि की गुठलियो का कबाब बना कर उन्होने अपने कितने ही रसज्ञ मित्रो को धोखा दे दिया था। उनका लिसोडा का मुरब्बा अगर के मुरने से भी बाजी मार ले जाता था। यद्यपि इन पदार्थों को तैयार करने मे धन का अपव्यय होता था, सिर मगचन भी बहुत करना पड़ता था और नक्स-नक्ल ही रहती थी, लेकिन लाला जी इस विषय में पूरे कवि थे जिनके लिए सुहृदयजनों की प्रशंसा ही सब से बड़ी पुरस्कार है। अबकी कई साल के बाद उन्होने अपने बड़े भाई की जयन्ती हौसले के साथ की। भोज और दावत की हफ्तों तक धूम रही। शहर में एक से एक गप्य-मान्य सज्जन पड़े हुए थे, पर कोई उनसे टक्कर लेने का साहस न कर सकता था। [ ३६६ ] बड़ी बहू जानती थी कि जब तक घर में रुपये रहेगे इनका हाथ न रुकेगा, साल-आघ-साल में सारी रकम खा-पी कर बराबर कर देंगे, इसलिए जब घर में आग है लगायी है तो क्यों न हाथ सेंक ले। अवसर पाते ही उसने दोनो कन्याओं के विवाह की बातचीत छेड़ दी। यद्यपि लड़कियाँ अभी विवाह के योग्य न थी, पर मसहलत यही थी कि चलते हाथ इस भार से उऋण हो जायें। जिस दिन ज्वालासिंह अपील दायर करने चले उसी दिन लाला प्रभाशंकर ने फलदान चढ़ाये। दूसरे ही दिन से वह बारातियों के आदर-सत्कार की तैयारियों में व्यस्त हो गये। ऐसे सुलभ कार्यों में वह किफायत को दूषित ही नही, अक्षम्य समझते थे। उनके इरादे तो बहुत बड़े थे, लेकिन कुशल यह थी कि आजकल प्रेमशंकर प्राय नित्य उनकी मदद करने के लिए आ जाते। प्रभाशंकर दिल से उनका आदर करते थे, इसलिए उनकी सलाहे सर्वथा निरर्थक ने होती। विवाह की तिथि अगहन मे पड़ती थी। वे ड़ेढ़-दो महीने तैयारियों में ही कटें। प्रेमशंकर अक्सर सन्ध्या को यही भोजन भी करते और कुछ देर तक गपशप करके हाजीपुर चले जाते। आश्चर्य यह था कि अब महाशय ज्ञानशंकर भी चाची से प्रसन्न मालूम होते थे। उन्होंने गोरखपुर से कई बोरे चावल, शक्कर और कई कुप्पे घी भेजे। विवाह के एक दिन पहले वह स्वयं आये और बड़े ठाट-बाट से आये। कई सशस्त्र सिपाही साथ थे। फर्श-कालौने, दरियाँ तो इतनी लाये थे कि उनसे कई बरातें सज जाती। दोनो वरों को सौने की एक-एक घड़ी और एक-एक मोहनमाला दी। बरातियों को भोजन करते समय एक-एक अशर्फी भेंट की। दोनो भौजियों के लिए सोने के हार बनवा लाये थे और दोनों समधियों को एक-एक सजी हुई पालकी भेंट की। बरात के नौकरो, कहारों और नाइयों को पाँच-पाँच रुपये विदाई दी। उनकी इस असाधारण उदारता पर सारा घर चकित हो रहा था और प्रभाशंकर तो उनके ऐसे भक्त हो गये मानो वह कोई देवता थे। सारे शहर में वाह-वाह होने लगी। लोग कहते थे-भरा हाथी तो भी नौ लाख की। बिगड़े गये लेकिन फिर भी हौसला और शान वही है। यह पुराने रईसो का ही गुर्दा है! दूसरे क्या खा कर इनकी बराबरी करेंगे? घर में लाखों भरे हों, कौन देखता है। यही हौसला अमीरी की पहचान है। लेकिन यह किसे मालूम था कि लाला साहब ने किन दामों यह नामवरीखरीदी है।

विवाह के बाद कुछ दिन तो बची-खुची कामग्रियों से बाला प्रभाशंकर की रसना तृप्त होती रही, लेकिन शनैः शनै यह द्वार भी बन्द हुआ और रूखे फीके भोजन पर कटने लगी। उस वर्षा के बाद यह सूखा बहुत अखरता था। स्वादिष्ट पदार्थों के बिना उन्हें तृप्ति में होती थी। रूखा भोजन कंठ से नीचे उतरता ही न था। बहुघा चौके पर से मुंह जूठा करके उठ आते, पर सारे दिन जी ललचाया करता। अपनी किताब खोल कर उसके पन्ने उलटते कि कौन सी चीज आसानी से बन सकती हैं, पर वहाँ ऐसी कोई चीज न मिलती। बेचारे निराश हो कर किताब बन्द कर देते और मन को बहलाने के लिए बरामदे में टहलने लगते। बार-बार घर में जाते, आत्मारियों और ताखो की और उत्कण्ठित नेत्री से देखते कि शायद कोई चीन निकल आये। अभी [ ३६७ ]तक थोड़ी सी भवरल चटनी बची हुई थी। कुछ और न मिलता तो सब की नजर बचर उसमे से एक चम्मच निकाल कर चाट जाते। विडम्बना यह थी कि इस दुख में कोई उनका साथी, कोई हमदर्द न था। बड़ी बहू से अगर कभी डरते-डरते अच्छी चीजें बनाने को कहते तो वह या तो टाल जाती या झुंझला कर कह बैठती--तुम्हारी जीभ भी लड़को की तरह चटोरी है, जब देखो जाने की ही फिक्र। सारी जायदाद हलुवै और पुलाव की भेंट कर दी और अब तक तस्कीन न हुई। अब क्या रखा है? बेचारे लाला साहब यह झिड़कियाँ सुन कर लज्जित हो जाते। प्रेमियों को प्रेमिका की चर्चा से शान्ति प्राप्ति होती है; किन्तु खेद यह था कि यह कोई वह चर्चा सुनानेवाला भी न था।

अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि वह खचेवाल को बुलाते और उनसे चाटके दोनें लेकर घर के किसी कोने में जा बैठते बौर चुपचाप मजे ले-ले कर खाते। पहले चाट की ओर वह आँख उठा कर ताकते भी न थे, पर, अब वह शान न थी। डेढ़-दो महीने तक उनका यही ढंग रहा, पर टूट पूँजिये खचैवाले वादों पर कब तक रहते! उनके तकाजे होने लगे। लाला जी पहले तो उनकी विचित्र पुकार पर कान लगाये रहते थे, अब उनकी आवाज सुनते ही छिपने के लिए बिल ढूंढने लगते। उनके बादे अब सुनिश्चित न होते थे, उनमें विनय और अविश्वास की मात्रा अधिक होतीं थी। मालूम नहीं इन तकाजो से उन्हें कब तक मुंह छिपाना पड़ता, लेकिन संयोग से उनके पूरे करने की एक विधि उपस्थित हो गयी। श्रद्धा ने एक दिन उन्हें बाजार से दो जोड़ी साडियां लाने के लिए दाम दिया। वह साड़ियाँ उधार लायें और रुपये खोंचेवालो को देकर गला छुड़ाया। बजाज की ओर से ऐसे दुराग्रह पूर्ण और निन्दास्पद तकाजो की आशंका न थी। उसे बरसो बादो पर टाला जा सकता था, मगर उक्त दिन से चाटवालों ने उनके द्वार पर आना ही छोड़ दिया।

लेकिन चाट बुरी लत है। अच्छे दिनों मे वह गले की जंजीर है, किन्तु बुरे दिनों में तो वह पैनी छुरी हो जाती है जो आत्म-सम्मान और लज्जा का तसमा भी नहीं छोड़ती। माघ का महीना, सर्दी का यह हाल था कि नाड़ियों में रक्त जमा जाता था। लाला प्रभाशंकर नित्य वायु सेवन के बहाने प्रेमशंकर के पास जा पहुँचते और देशकाल के समाचार सुनते। मौका पाते ही किसी न किसी स्वादिष्ट पदार्थ की चर्चा छेड़ देते, उस समय की कथा कहने लगते जब वह चीज खायी थी, मित्रों ने उस पर क्या-क्या टिप्पणियां की थी। प्रेमशंकर उनका इशारा समझ जाते और शीलमणि से वह पदार्थ बनवा कर लाते, लेकिन प्रभाशंकर की स्वाद लिप्सा कितनी दारुण थी इसका उन्हें ज्ञान न था। अतएव कभी-कभी लाला जी का मनोरथ वहाँ भी पूरा न होता। तब घर आते समय वह सीधी राह से न आते। स्वाद तृष्णा उन्हे नानबाइयों के मुहल्ले में ले जाती। प्याज और मसालो की सुगन्ध से उनकी लोलुप आत्मा तृप्त होती थी। कितना करुणाजनक दृश्य था! सत्तर साल का बुढ़ा, उच्च कुल मर्यादा पर जान देनेवाला पुरुष, गंध से रस का आनन्द उठाने के लिए घंटो नानबाइयों की गली में चक्कर लगाया [ ३६८ ]करता, लज्जा से मुंह छिपाये हुए कि कोई देख न ले साजे कबाब की सुगन्ध से उनके मुँह में पानी भर आता, यहाँ तक कि खाद्याखाद्य का विचार भी न रहता। उस समय केवल एक अव्यक्त शंका, एक मिथ्या संकोच उनके सिलते हुए पैरो को संभाल लिया करता था।

एक दिन लाला जी प्रेमशंकर के पास गये तो उन्होने अपील को फैसला सुनाया। प्रभाशंकर प्रसन्न हो कर बोले- यह बहुत अच्छा हुआ। ईश्वर ने तुम्हारी उद्योग सफल किया। बेचारे निरपराध किसान जेल में पड़े सड़ रहे थे। ईश्वर बड़ा दयालु है। इस आनन्योत्सव में एक दावत होनी चाहिए।

माया बोला- जी हाँ, यही तो अभी मैं कह रहा था। मैं तो अपने स्कूल के सब लड़को को नैवता दूंगा।

प्रेमशंकर—पहले बेचारे आ तो जायें। अभी तो उनके आने में महीनों की देर है, कोई किसी जेल में है, कोई किसी में। जज ने तो पुलिस का पक्ष करना चाहा था, पर डाक्टर इर्फानअली ने उसकी एक न चलने दी।

प्रभा---इन जी का यही हाल है। उनका अभीष्ट सरकार का रोब जमाना होता है, न्याय करना नही। इस मुकदमे में तुमने इतनी दौड़ धूप न की होती तो उन बेचारो की कौन सुनता? ऐसे कितने निरपराधी केवल पुलिस के कौशल तथा वकीलो की दुर्जनता के कारण दंड भोगा करते हैं। मैं तो जब वकीलो को बहस करते देखता हैं तो ऎसा मालूम होता है मानो भाट कवित्त पढ़ रहे हो। न्याय पर किसी पक्ष की दृष्टि नहीं होती। दोनो मौखिक बल से एक दूसरे को परास्त करना चाहते है। जो वाक्य-चतुर है उसी की जीत होती है। आदमियो के जीवन मरण का निर्णय सत्य और न्याय के बल पर नही, न्याय को घोखा देने के बल पर होता है।

प्रेम जब तक मुद्दई और मुद्दालेह अपने-अपने वकील अदालत में लायेंगे तब तक इस दशा में सुधार नहीं हो सकता, क्योकि वकील तो अपने मुवक्किल का मुखपात्र होता है। उसे सत्यासत्य निर्णय से कोई प्रयोजन नही, उसका कर्तव्य केवल अपने मुवक्किल के दावे को सिद्ध करना है। सन्चे न्याय की आशा तो तभी हो सकती है जब वकीलो को अदालत स्वयं नियुक्त करे और अदालत भी राजनीतिक भावों और अन्य दुस्सस्कारों से मुक्त हो। मेरे विचार में गवर्नमेंट को पुलिस में सुयोग्य और सच्चरित्र आदमी छाँट-छाँट कर रखने चाहिए। अभी तक इस विभाग में सच्चरित्रता पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। वही लोग भर्ती किये जाते है जो जनता को दबा सकें, उन पर रोब जमा सके। न्याय का विचार नहीं किया जाता।

प्रभा–जरा फैसला तो सुनाओ, देखें क्या लिखा है?

प्रेम—हाँ सुनिये, मैं अनुवाद करता हूँ। देखिए, पुलिस की कैसी तीव्र आलोचना की है। यह अभियोग पुलिस के कार्यक्रम का एक उज्ज्वल उदाहरण है। किसी विषय का सत्यासत्य निर्णय करने के लिए आवश्यक है, साक्षियों पर निष्पक्ष भाव से विचार किया जाय और उनके आधार पर कोई धारणा स्थिर की जाय; लेकिन पुलिस के अधि [ ३६९ ]कारी वर्ग ठोक उल्टे चलते हैं, ये पहले एक धारणा स्थिर कर लेते हैं और तब उसको सिद्ध करने के लिए साक्षियों और प्रमाणों की तलाश करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी दशा में वह कार्य से कारण की ओर चलते हैं और अपनी मनोनीत धारणा में कोई संशोधन करने के बदले प्रमाणो को ही तोड-मरोड़ कर अपनी कल्पनाओ के साँचे में ढाल देते है। यह उल्टी चाल क्यो चली जाती है? इसका अनुमान करना कठिन है; पर प्रस्तुत अभियोग में कठिन नही। एक समूह जितना भार सँभाल सकता है उतना एक व्यक्ति के लिए असाध्य है।

प्रभाशकर ने चिन्ता भाव से कहा--यह तो खुला हुआ आक्षेप है। पुलिस से जवाब तो न तलव होगा ?

प्रेम--इन आक्षेपों को कौन पूछता है? इन पर कुछ ध्यान दिया जाये तो पुलिस कब की सुधर गयी होती।

इतने में ज्वालासिंह आते हुए दिखायी दिये। प्रेमशकर ने कहा---चाचा साहव कहते हैं कि विजय का उत्सव करना चाहिए।

ज्वाला--मेरी भी इच्छा है।