प्रेम-द्वादशी/६ सत्याग्रह

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सत्याग्रह

हिज़ एक्सेलेंसी वायसराय बनारस आ रहे थे। सरकारी कर्मचारी, छोटे से बड़े तक, उनके स्वागत की तैयारियाँ कर रहे थे। इधर कांग्रेस ने शहर में हड़ताल मनाने की सूचना दे दी थी। इससे कर्मचारियों में बड़ी हलचल थी। एक ओर सड़कों पर झंडियाँ लगाई जा रही थीं, सफाई हो रही थी, बड़े-बड़े विशाल फाटक बनाये जा रहे थे, दफ़्तरों की सजावट हो रही थी, पण्डाल बन रहा था; दूसरी ओर फ़ौज और पुलिस के सिपाही संगीनें चढ़ाये शहर की गलियों में और सड़कों पर क़वायद करते फिरते थे। कर्मचारियों की सिर-तोड़ कोशिश थी, कि हड़ताल न होने पावे; मगर कांग्रेसियों की धुन थी, कि हड़ताल हो और ज़रूर हो। अगर कर्मचारियों को पशु-बल का ज़ोर है, तो हमें नैतिक बल का भरोसा है। इस बार दोनों की परीक्षा हो जाय, कि मैदान किसके हाथ रहता है।

घोड़े पर सवार मैजिस्ट्रेट सुबह से शाम तक दुकानदारों को धमकियाँ देता फिरता, कि एक-एक को जेल भेजवा दूँगा, बाज़ार लुटवा दूँगा; यह करूँगा, वह करूँगा! दूकानदार हाथ बाँधकर कहते—हुज़ूर बादशाह हैं, विधाता हैं; जो चाहें, कर सकते हैं; पर हम क्या करें? कांग्रेसवाले हमें जीता न छोड़ेंगे। हमारी दूकानों पर धरने देंगे, हमारे ऊपर बाल बढ़ावेंगे, कुएँ में गिरेंगे, उपवास करेंगे। कौन जाने दो-चार प्राण ही दे दें तो हमारे मुँह पर सदैव के लिए कालिख पुत जायगी। हुज़ूर उन्हीं कांग्रेसवालों को समझायें, तो हमारे ऊपर बड़ा एहसान करें। हड़ताल न करने से हमारी कुछ हानि थोड़े ही होवेगी। देश के बड़े-बड़े आदमी आवेंगे, हमारी दुकानें खुली रहेंगी, तो एक के दो लेंगे, महँगे सौदे बेचेंगे; पर करें क्या, इन शैतानों से तो कोई बस नहीं चलता।

राय हरनन्दन साहब, राजा लालचन्द और खाँ बहादुर मौजवी महमूदअली तो कर्मचारियों से भी ज्यादा बेचैन थे। मजिस्ट्रेट के साथ [ ८० ]साथ और अकेले भी बड़ी कोशिश करते थे। अपने मकान पर बुलाकर दूकानदारों को समझाते, अनुनय-विनय करते, आँखें दिखाते, इक्के-बग्घीवालों को धमकाते, मज़दूरों की खुशामद करते; पर कांग्रेस के मुट्ठी भर आदमियों का कुछ ऐसा आतंक छाया हुआ था, कि कोई इनकी सुनता ही न था। यहाँ तक कि पड़ोस की कुँजड़िन ने भी निर्भय होकर कह दिया—हुजूर, चाहे मार डालो; पर दूकान न खुलेगी। नाक न कटवाऊँगी। सबसे बड़ी चिन्ता यह थी, कि कहीं पण्डाल बनानेवाले मज़दूर, बढ़ई, लोहार वग़ैरह काम न छोड़ दें; नहीं तो अनर्थ ही हो जायगा। राय साहब ने कहा—हुजूर, दूसरे शहरों से दूकानदार बुलवायें और एक बाज़ार अलग खोलें।

खाँ साहब ने फ़रमाया—वक्त इतना कम रह गया है, कि दूसरा बाज़ार तैयार नहीं हो सकता। हुजूर कांग्रेसवालों को गिरफ़्तार कर लें, या उनकी जायदाद जंब्त कर लें, फिर देखिये कैसे काबू में नहीं आते!

राजा साहब बोले—पकड़-धकड़ से तो लोग और भी झल्लायेंगे। कांग्रेसवालों से हुज़ूर कहें, कि तुम हड़ताल बन्द कर दो, तो सबको सरकारी नौकरी दे दी जायगी। उसमें अधिकांश बेकार लोग भरे पड़े हैं, यह प्रलोभन पाते ही फूल उठेंगे।

मगर मैजिस्ट्रेट को कोई राय न जँची। यहाँ तक कि वायसराय के आने में तीन दिन और रह गये।

(२)

आखिर राजा साहब को एक युक्ति सूझी। क्यों न हम लोग भी नैतिक बल का प्रयोग करें? आख़िर कांग्रेसवाले धर्म और नीति के नाम पर ही तो यह तूमार बाँधते हैं। हम लोग भी उन्हीं का अनुकरण करें, शेर को उसके माँद में पछाड़ें। कोई ऐसा आदमी पैदा करना चाहिये, जो व्रत करे, कि दुकानें न खुलीं, तो मैं प्राण दे दूँगा। यह ज़रूरी है, कि वह ब्राह्मण हो, और ऐसा, जिसको शहर के लोग मानते हों, आदर करते हों। अन्य सहयोगियों के मन में भी यह बात बैठ गई। उछल पड़े। [ ८१ ]

राय साहब ने कहा—बस अब पड़ाव मार लिया। अच्छा, ऐसा कौन पण्डित है, पण्डित गदाधर शर्मा?

राजा साहब—जी नहीं, उसे कौन मानता है? खाली समाचारपत्रों में लिखा करता है। शहर के लोग उसे क्या जानें?

राय साहब—दमड़ी ओझा तो है इस ढंग का?

राजा साहब—जी नहीं, कॉलेज के विद्यार्थियों के सिवा उसे और कौन जानता है?

राय साहब—पण्डित मोटेराम शास्त्री?

राजा साहब—बस-बस। आपने खूब सोचा। बेशक वह है इस ढंग का! उसी को बुलाना चाहिये। विद्वान् है, धर्म-कर्म से रहता है, चतुर भी है। वह अगर हाथ में आ जाय, तो फिर बाज़ी हमारी।

राय साहब ने तुरन्त पण्डित मोटेराम के घर संदेशा भेजा। उस समय शास्त्रीजी पूजा पर थे। यह पैग़ाम सुनते ही जल्दी से पूजा समाप्त की, और चले। राजा साहब ने बुलाया है, धन्य भाग! धर्मपत्नी से बोले—आज चन्द्रमा कुछ बली मालूम होते हैं। कपड़े लाओ, देखूँ क्यों बुलाया है।

स्त्री ने कहा—भोजन तैयार है, कर के जाओ; न जाने कब लौटने का अवसर मिले।

किन्तु शास्त्रीजी ने आदमी को इतनी देर खड़ा रखना उचित न समझा। जाड़े के दिन थे। हरी बनात की अचकन पहनी, जिस पर लाल शंजाफ़ लगी हुई थी। गले में एक ज़री का दुपट्टा डाला। सिर पर बनारसी साफ़ा बाँधा। लाल चौड़े किनारे की रेशमी धोती पहनी, और खड़ाऊँ पर चले। उनके मुख से ब्रह्म-तेज टपकता था। दूर ही से मालूम होता था, कोई महात्मा आ रहे हैं। रास्ते में जो मिलता, सिर झुकाता। कितने ही दूकानदारों ने खड़े होकर पैलगी की। आज काशी का नाम इन्हीं की बदौलत चल रहा है; नहीं तो और कौन रह गया है। कितना नम्र स्वभाव है। बालकों से हँसकर बातें करते हैं। इस ठाट से पण्डितजी राजा साहब के मकान पर पहुँचे। तीनो मित्रों ने खड़े [ ८२ ]होकर उनका सम्मान किया। खाँ बहादुर बोले—कहिये पण्डितजी मिज़ाज तो अच्छे हैं? वल्लाह, आप नुमाइश में रखने के क़ाबिल आदमी हैं। आपका वज़न दस मन से कम तो न होगा?

राय साहब—एक मन इल्म के लिए दस मन अक्ल चाहिए। उसी कायदे से एक मन अक्ल के लिए दस मन का जिस्म ज़रूरी है; नहीं तो उसका बोझ कौन उठावे?

राजा साहब—आप लोग इसका मतलब नहीं समझते। बुद्धि एक प्रकार का नज़ला है; जब दिमाग़ में नहीं समाती, तो जिस्म में आ जाती है।

खाँ साहब—मैंने तो बुजुर्गों की ज़बानी सुना है, कि मोटे आदमी अक्ल के दुश्मन होते हैं।

राय साहब—आपका हिसाब कमज़ोर था; वर्ना आपकी समझ में इतनी बात ज़रूर आती, कि अक्ल और जिस्म में एक और दस की निस्बत है, तो जितना ही मोटा आदमी होगा, उतना ही उसकी अक्ल का वज़न भी ज़्यादा होगा।

राजा साहब—इससे यह साबित हुआ, कि जितना ही मोटा आदमी उतनी ही मोटी उसकी अक्ल।

मोटेराम—जब मोटी अक्ल की बदौलत राज-दरबार में पूछ होती है, तो मुझे पतली अक्ल लेकर क्या करना है?

हास-परिहास के बाद राजा साहब ने वर्तमान समस्या पंडितजी के सामने उपस्थित की, और उसके निवारण का जो उपाय सोचा था, वह भी प्रकट किया। बोले—बस, यह समझ लीजिये, कि इस साल आपका भविष्य पूर्णतया अपने हाथों में है। शायद किसी आदमी को अपने भाग्य-निर्णय का ऐसा महत्त्व-पूर्ण अवसर न मिला होगा। हड़ताल न हुई, तो और कुछ नहीं कह सकते, आपको जीवन-भर किसी के दरवाज़े जाने की ज़रूरत न होगी। बस, ऐसा कोई व्रत ठानिये, कि शहरवाले थर्रा उठे। कांग्रेसवालों ने धर्म का अवलंबन करके इतनी शक्ति बढ़ाई है। बस, ऐसी कोई युक्ति निकालिये, कि जनता के धार्मिक भावों को चोट पहुँचे। [ ८३ ]मोटेराम ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया—यह तो कोई ऐसा कठिन काम नहीं है। मैं तो ऐसे-ऐसे अनुष्ठान कर सकता हूँ, कि आकाश से जल-वर्षा करा दूँ; मरी के प्रकोप को भी शान्त कर दूँ, अन्न का भाव घटा-बढ़ा दूँ। कांग्रेसवालों को परास्त कर देना तो कोई बड़ी बात नहीं। अँगरेज़ी पढ़े-लिखे महानुभाव सभझते हैं, कि जो काम हम कर सकते हैं, वह कोई नहीं कर सकता; पर गुप्त विद्याओं का उन्हें भी ज्ञान नहीं।

खाँ साहब—तब तो जनाब, यह कहना चाहिये, कि आप दूसरे खुदा हैं। हमें क्या मालूम था कि आप में यह कुदरत है; नहीं तो इतने दिनों तक क्यों परेशान होते।

मोटेराम—साहब, मैं गुप्त धन का पता लगा सकता हूँ, पितरों को बुला सकता हूँ, केवल गुण-ग्राहक चाहिये। संसार में गुणियों का अभाव नहीं है, गुणज्ञों का ही प्रभाव है।—'गुन ना हिरानो गुनग्राहक हिरानो है।'

राजा साहब—भला इस अनुष्ठान के लिए आपको क्या भेंट करना होगा।

मोटेराम—जो कुछ आपकी श्रद्धा हो।

राजा साहब—कुछ बतला सकते हैं, कि यह कौन-सा अनुष्ठान होगा?

मोटेराम—अनशन-व्रत के साथ मंत्रों का जप होगा। सारे शहर में हलचल न मचा दूँ, तो मोटेराम नाम नहीं।

राजा साहब—तो फिर कब से?

मोटेराम—आज ही हो सकता है। हाँ, पहले देवताओं के आवाहन के निमित्त थोड़े-से रुपए दिला दीजिये।

रुपये की कमी ही क्या थी। पण्डित जी को रुपए मिल गये और वह खुश-खुश घर आये। धर्मपत्नी से सारा समाचार कहा। उसने चिंतित होकर कहा—तुमने नाहक यह रोग अपने सिर लिया! भूख न बरदाश्त हुई, तो? सारे शहर में भद हो जायगी, लोग हँसी उड़ावेंगे। रुपए लौटा दो।

मोटेराम ने आश्वासन देते हुए कहा—भूख कैसे न बरदाश्त होगी? मैं ऐसा मूर्ख थोड़े ही हूँ, कि यों हीं जा बैठूँगा; पहले मेरे भोजन का [ ८४ ]प्रबन्ध करो। इमर्तियाँ, लड्डू, रसगुल्ले मँगाओ। पेट भर भोजन कर लूँ। फिर आध सेर मलाई खाऊँगा, उसके ऊपर आध सेर बादाम की तह जमाऊँगा। बची-खुची कसर मलाईवाले दही से पूरी कर दूँगा। फिर देखूँगा, भूख क्योंकर पास फटकती है! तीन दिन तक तो साँस ही न ली जायगी, भूख की कौन चलावे। इतने में तो सारे शहर में खलबली मच जायगी। भाग्य का सूर्य उदय हुआ है, इस समय आगा-पीछा करने से पछताना पड़ेगा। बाज़ार न बन्द हुआ, तो समझ लो, मालामाल हो जाऊँगा। नहीं तो यहाँ गाँठ से क्या जाता है? सौ रुपए तो हाथ लग ही गये।

इधर तो भोजन का प्रबन्ध हुआ, उधर पंडित मोटेराम ने डौंड़ी पिटवा दी, कि संध्या-समय टाउन-हाल के मैदान में पंडित मोटेराम देश की राजनीतिक समस्या पर व्याख्यान देंगे, लोग अवश्य आवें। पंडितजी सदैव राजनीतिक विषयों से अलग रहते थे। आज वह इस विषय पर कुछ बोलेंगे, सुनना चाहिये। लोगों को उत्सुकता हुई। पण्डितजी का शहर में बड़ा मान था। नियत समय पर कई हज़ार आदमियों की भीड़ लग गई। पण्डितजी घर से अच्छी तरह तैयार होकर पहुँचे। पेट इतना भरा हुआ था, कि चलना कठिन था! ज्योंही वह वहाँ पहुँचे, दर्शकों ने खड़े होकर इन्हें साष्टांग दण्डवत्-प्रणाम किया।

मोटेराम बोले—नगर-वासियों, व्यापारियों, सेठों, और महाजनों, मैंने सुना है, तुम लोगों ने कांग्रेसवालों के कहने में आकर बड़े लाट साहब के शुभागमन के अवसर पर हड़ताल करने का निश्चय किया है। यह कितनी बड़ी कृतघ्नता है? वह चाहें, तो आज तुम लोगों को तोप के मुँह पर उड़वा दें, सारे शहर को खुदवा डालें। राजा हैं, हँसी-ठट्ठा नहीं। वह तरह देते जाते हैं, तुम्हारी दीनता पर दया करते हैं, और तुम गउओं की तरह हत्या के बल खेत चरने को तैयार हो? लाट साहब चाहें, तो आज रेल बन्द कर दें, डाक बन्द कर दें, माल का आना-जाना बन्द कर दें। तब बताओ, क्या करोगे? वह चाहें, तो आज सारे शहर वालों को जेल में डाल दें। बताओ, क्या करोगे? तुम उनसे भागकर [ ८५ ]कहाँ जा सकते हो? है कहीं का ठिकाना? इसलिए जब इसी देश में और उन्हीं के अधीन रहना है, तो इतना उपद्रव क्यों मचाते हो? याद रखो, तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। ताऊन के कीड़े फैला दें, तो सारे नगर में हाहाकार मच जाय। तुम झाड़ू से आँधी को रोकने चले हो? ख़बरदार, जो किसी ने बाज़ार बन्द किया नहीं तो कहे देता हूँ, यहीं अन्नजल बिना प्राण दे दूँगा।

एक आदमी ने शंका की—महाराज, आपके प्राण निकलते-निकलते महीने भर से कम न लगेगा। तीन दिन में क्या होगा?

मोटेराम ने गरजकर कहा—प्राण शरीर में नहीं रहता, ब्रह्माण्ड में रहता है। मैं चाहूँ, तो योग-बल से अभी प्राण-त्याग कर सकता हूँ। मैंने तुम्हें चेतावनी दे दी; अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। मेरा कहना मानोगे, तो तुम्हारा कल्याण होगा। न मानोगे, तो हत्या लगेगी, संसार में कहीं मुँह न दिखा सकोगे। बस, यह लो मैं यहीं आसन जमाता हूँ।

(३) शहर में यह समाचार फैला, तो लोगों के होश उड़ गये। अधिकारियों की इस नई चाल ने उन्हें हतबुद्धि-सा कर दिया। कांग्रेस के कर्मचारी तो अब भी कहते थे—यह सब पाखण्ड है। राजभक्तों ने पण्डित को कुछ दे-दिलाकर यह स्वाँग खड़ा किया है। जब और कोई बस न चला, फ़ौज, पुलिस, क़ानून, सभी युक्तियों से हार गये, तो यह नई माया रची है। यह और कुछ नहीं, राजनीति का दिवाला है। नहीं तो पंडितजी ऐसे कहाँ के देश-सेवक थे, जो देश की दशा से दुःखी होकर व्रत ठानते। इन्हें भूखों मरने दो, दो दिन में चें बोल जायँगे। इस नई चाल की जड़ अभी से काट देनी चाहिये। कहीं यह चाल सफल हो गई, तो समझ लो, अधिकारियों के हाथ में एक नया शस्त्र आ जायगा, और वह सदैव इसका प्रयोग करेंगे। जनता इतनी समझदार तो है नहीं, कि इन रहस्यों को समझे। गीदड़-भबकी में आ जायगी।

लेकिन नगर के बनिये-महाजन, जो प्रायः धर्म-भीरु होते हैं, ऐसे [ ८६ ]घबरा गये, कि उन पर इन बातों का कुछ असर ही न होता था। वे कहते थे—साहब, आप लोगों के कहने से सरकार से बुरे बनें। नुक़सान उठाने को तैयार हुए। रोजगार छोड़ा। कितनों के दिवाले हो गये। अफ़सरों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। पहले जहाँ जाते थे, अधिकारी लोग 'आइये सेठजी' कहकर सम्मान करते थे, अब रेलगाड़ियों में धक्के खाते हैं; पर कोई नहीं सुनता। आमदनी चाहे कुछ हो या नहीं, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स) बढ़ा दिया जाता है। यह सब सहा और सहेंगे; लेकिन धर्म के मामले में हम आप लोगों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते। जब एक विद्वान्, कुलीन, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्योंकर भोजन करके टाँगें फैलाकर सोवें? कहीं मर गया, तो भगवान् के सामने क्या जवाब देंगे?

सारांश यह कि कांग्रेसवालों की एक न चली। व्यापारियों का एक डेपुटेशन नव बजे रात को पंडितजी की सेवा में उपस्थित हुआ। पंडितजी ने आज भोजन तो खूब डटकर किया था। लेकिन भोजन डटकर करना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। महीने में प्रायः बीस दिन वह अवश्य ही न्योता पाते थे, और निमन्त्रण में डटकर भोजन करना एक स्वाभाविक बात है। अपने सहभोजियों की देखा-देखी, लाग-डाट की धुन में या गृह-स्वामी के सविनय आग्रह से और सबसे बढ़कर पदार्थों की उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो ही जाता है। पंडितजी की जठराग्नि ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होती रहती थी, अतएव इस समय भोजन का समय आ जाने से उनकी नीयत कुछ डावाँ-डोल हो रही थी। यह बात नहीं कि वह भूख से व्याकुल थे; लेकिन भोजन का समय आ जाने पर अगर पेट अफरा हुआ न हो, अजीर्ण न हो गया हो, तो मन में एक प्रकार की भोजन की चाह होने लगती है। शास्त्रीजी की इस समय यही दशा हो रही थी। जी चाहता था, किसी खोंचेवाले को पुकारकर कुछ ले लेते; किन्तु अधिकारियों ने उनकी शरीर रक्षा के लिए वहाँ कई सिपाहियों को तैनात कर दिया था। वे सब हटने का नाम न लेते थे। पंडितजी की विशाल बुद्धि इस समय वही समस्या हल कर रही थी, कि [ ८७ ]इन यमदूतों को कैसे टालूँ? ख़ामख़ाह इन पाजियों को यहाँ खड़ा कर दिया! मैं कोई कैदी तो हूँ नहीं, कि भाग जाऊँगा।

अधिकारियों ने शायद यह व्यवस्था इसलिए कर रखी थी, कि कांग्रेसवाले ज़बरदस्ती पंडितजी को वहाँ से भगाने की चेष्टा न कर सकें। कौन जाने, वे क्या चाल चलें। कहीं किसी कुत्ते ही को उन पर छोड़ दें, या दूर से पत्थर पर फेंकने लगें! ऐसे अनुचित और अपमानजनक व्यवहारों से पंडितजी की रक्षा करना अधिकारियों का कर्तव्य था।

वह अभी इसी चिन्ता में थे, कि व्यापारियों का डेपुटेशन आ पहुँचा। पंडितजी कुहनियों के बल लेटे हुए थे, सँभल बैठे। नेताओं ने उनके चरण छूकर कहा—महाराज, हमारे ऊपर आपने क्यों यह कोप किया है? आपकी जो आज्ञा हो, वह हम शिरोधार्य करें। आप उठिये, अन्न-जल ग्रहण कीजिये। हमें नहीं मालूम था, कि आप सचमुच यह व्रत ठाननेवाले हैं; नहीं तो हम पहले ही आपसे विनती करते। अब कृपा कीजिये, दस बजने का समय है। हम आपका वचन कभी न टालेंगे।

मोटे॰—ये कांग्रेसवाले तुम्हें मटिया-मेट करके छोड़ेंगे! आप तो डूबते ही हैं, तुम्हें भी अपने साथ ले डूबेंगे। बाज़ार बन्द रहेगा, तो इससे तुम्हारा ही टोटा होगा; सरकार को क्या? तुम नौकरी छोड़ दोगे, आप भूखों मरोगे; सरकार को क्या? तुम जेल जाओगे आप चक्की पीसोगे, सरकार को क्या? न जाने इन सबको क्या सनक सवार हो गई है, कि अपनी नाक कटाकर दूसरों का असगुन मनाते हैं। तुम इन कुपंथियों के कहने में न आओ। क्यों, दूकानें खुली रखोगे?

सेठ—महाराज, जब तक शहर-भर के आदमियों की पंचायत न हो जाय, तब तक हम इसका बीमा कैसे ले सकते हैं? कांग्रेसवालों ने कहीं लूट मचवा दी, तो कौन हमारी मदद करेगा? आप उठिये, भोजन पाइये, हम कल पंचायत करके आपकी सेवा में जैसा कुछ होगा, हाल देंगे।

मोटे॰—तो फिर पंचायत करके आना। [ ८८ ]डेपुटेशन जब निराश होकर लौटने लगा, तो पंडितजी ने कहा—किसी के पास सुँघनी तो नहीं है? एक महाशय ने डिबिया निकालकर दे दी।

(४)

लोगों के जाने के बाद मोटेराम ने पुलीसवालों से पूछा—तुम यहाँ क्यों खड़े हो?

सिपाहियों ने कहा—साहब का हुक्म है, क्या करें?

मोटे॰—यहाँ से चले जाओ।

सिपाही—आपके कहने से चले जायँ? कल नौकरी छूट जायगी, तो आप खाने को देंगे?

मोटे॰—हम कहते हैं, चले जाओ, नहीं तो हम ही यहाँ से चले जायँगे। हम कोई कैदी नहीं है, जो तुम घेरे खड़े हो।

सिपाही—चले क्या जाइयेगा, मजाल है।

मोटे॰—मजाल क्यों नहीं है बे! कोई जुर्म किया है?

सिपाही—अच्छा जाओ तो, देखें!

पंडितजी ब्रह्म-तेज में आकर उठे, और एक सिपाही को इतनी ज़ोर से धक्का दिया, कि वह कई क़दम पर जा गिरा। दूसरे सिपाहियों की हिम्मत छुट गई। पंडितजी को उन सबने थलथल समझ लिया था, उनका पराक्रम देखा, तो चुपके से सटक गये।

मोटेराम—अब लगे इधर-उधर नजरें दौड़ाने, कि कोई खोंचेवाला नज़र आ जाय, तो उससे कुछ लें; किन्तु तुरंत ध्यान आ गया, कहीं उसने किसी से कह दिया, तो लोग तालियाँ बजाने लगेंगे। नहीं, ऐसी चतुराई से काम करना चाहिये, कि किसी को कानोकान ख़बर न हो। ऐसे ही संकटों में तो बुद्धि-बल का परिचय मिलता है। एक क्षण में उन्होंने इस कठिन प्रश्न को हल कर लिया।

दैवयोग से उसी समय एक खोंचेवाला आता दिखाई दिया। ग्यारह बज चुके थे, चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया था। पंडितजी ने बुलाया—खोंचेवाले, ओ खोंचेवाले! [ ८९ ]

खोंचेवाला—कहिये, क्या दूँ? भूख लग आई न? अन्न-जल छोड़ना साधुओं का काम है, हमारा-आपका काम नहीं है।

पंडित—अबे क्या बकता है? यहाँ किसी साधू से कम हैं? चाहें, तो महीनों पड़े रहें, और भूख-प्यास न लगे। तुझे तो केवल इसलिए बुलाया है, ज़रा अपनी कुप्पी मुझे दे! देखूँ तो, वहाँ क्या रेंग रहा है। मुझे भय होता है, कहीं साँप न हो।

खोंचेवाले ने कुप्पी उतार कर दे दी। पंडितजी उसे लेकर इधर-उधर ज़मीन पर कुछ खोजने लगे। इतने में कुप्पी उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ी, और बुझ गई। सारा तेल बह गया। पंडितजी ने उसमें एक ठोकर और लगाई, कि बचा-खुचा तेल भी बह जाय।

खोंचेवाला—(कुप्पी को हिलाकर) महाराज, इसमें तो ज़रा भी तेल नहीं बचा। अब तक चार पैसे का सौदा बेचता, आपने यह खटराग बढ़ा दिया।

पंडित—भैया, हाथ ही तो है, छूट गिरी, तो अब क्या हाथ काट डालूँ? यह लो पैसे, जाकर कहीं से तेल भरा लाओ।

खोंचेवाला—(पैसे लेकर) तो अब तेल भराकर मैं यहाँ थोड़े ही आऊँगा।

पंडित—खोंचा रखे जाओ, लपककर थोड़ा तेल ले लो; नहीं मुझे कोई साँप काट लेगा, तो तुम्हीं पर हत्या पड़ेगी। कोई जानवर है ज़रूर। देखो, वह रेंगता है। ग़ायब हो गया। दौड़ जाओ पट्ठे, तेल लेते आओ, मैं तुम्हारा खोंचा देखता रहूँगा। डरते हो, तो अपने रुपए पैसे लेते जाओ।

खोंचेवाला बड़े धर्म-संकट में पड़ा। खोंचे से पैसे निकालता है, तो भय है, कि पंडितजी अपने दिल में बुरा मानें, कि मुझे बेईमान समझ रहा है। छोड़कर जाता है, तो कौन जाने, इनकी नीयत क्या हो। किसी की नीयत सदा ठीक नहीं रहती। अन्त को उसने यही निश्चय किया कि खोंचा यहीं छोड़ दूँ, जो कुछ तक़दीर में होगा, वह होगा। वह उधर बाज़ार की तरफ चला, इधर पंडितजी ने खोंचे पर निगाह दौड़ाई, तो [ ९० ]बहत हताश हुए। मिठाई बहुत कम बच रही थी। पाँच-छः चीजें थीं; मगर किसी में दो अदत से ज़्यादा निकलने की गुंजाइश न थी। भंडा फूट जाने का खटका था। पंडितजी ने सोचा, इतने से क्या होगा? केवल क्षुधा और प्रबल हो जायगी, शेर के मुँह खून लग जायगा! गुनाह वेलज्ज़त है। अपनी जगह पर आ बैठे; लेकिन दम भर के बाद प्यास ने फिर ज़ोर किया। सोचे, कुछ तो ढारस हो ही जायगा। आहार कितना ही सूक्ष्म हो, फिर भी आहार ही है। उठे, मिठाई निकाली; पर पहला ही लड्डू मुँह में रखा था, कि देखा खोंचेवाला तेल की कुप्पी जलाये क़दम बढ़ाता चला आ रहा है। उसके पहुँचने के पहले मिठाई का समाप्त हो जाना अनिवार्य था। एक साथ दो चीजें मुँह में रखीं। अभी चबला ही रहे थे, कि वह निशाचर दस क़दम और आगे बढ़ आया। एक साथ चार चीजें मुँह में डालीं और अधकुचली ही निगल गये। अभी छः अंदतें और थीं, और खोंचेवाला फाटक तक आ चुका था। सारी-की-सारी मिठाई मुँह में डाल ली। अब न चबाते बनता है, न उगलते। वह शैतान मोटरकार की तरह कुप्पी चमकता हुआ चला ही आता था। जब वह बिलकुल सामने आ गया, तो पंडितजी ने जल्दी से सारी मिठाई निगल ली; मगर आखिर आदमी ही थे, कोई मगर तो थे नहीं, आँखों में पानी भर आया, गला फँस गया, शरीर में रोमांच हो आया, ज़ोर से खाँसने लगे। खोंचेवाले ने तेल की कुप्पी बढ़ाते हुये कहा—यह लीजिये, देख लीजिये, चले तो हैं आप उपवास करने पर प्राणों का इतना डर है। आपको क्या चिन्ता, प्राण भी निकल जायँगे, तो सरकार बाल-बच्चों की परवस्ती करेगी।

पंडितजी को क्रोध तो ऐसा आया, कि इस पाजी को खोटी-खरी सुनाऊँ, लेकिन गले से आवाज़ न निकली। कुप्पी चुपके से ले ली, और झूठ-मूठ इधर-उधर देखकर लौटा दी।

खोंचावाला—आपको क्या पड़ी थी, जो चले सरकार का पच्छ करने? कहीं कल दिन-भर पंचायत होगी, तो रात तक कुछ तय होगा। तब तक को आपकी आँखों में तितलियाँ उड़ने लगेंगी। [ ९१ ]

यह कह कर वह चला गया और पंडितजी भी थोड़ी देर तक खाँसने के बाद सो रहे।

(५)

दूसरे दिन सवेरे ही से व्यापारियों ने मिस्कौट करनी शुरू की। उधर कांग्रेसवालों में भी हलचल मची। अमन-सभा के अधिकारियों ने भी कान खड़े किये। यह तो इन भोले-भाले बनियों को धमकाने की अच्छी तरकीब हाथ आई। पंडित-समाज ने अलग एक सभा की, और उसमें यह निश्चय किया, कि पंडित मोटेराम को राजनीतिक मामलों में पड़ने का कोई अधिकार नहीं है। हमारा राजनीति से क्या संबन्ध? ग़रज़ सारा दिन इसी वाद-विवाद में कट गया और किसी ने पंडितजी की ख़बर न ली। लोग खुल्लम-खुल्ला कहते थे, कि पंडितजी ने एक हज़ार रुपए सरकार से लेकर यह अनुष्ठान किया है। बेचारे पंडितजी ने रात तो लोट-पोटकर काटी; पर उठे तो शरीर मुरदा-सा जान पड़ता था। खड़े होते थे, तो आँखें तिल मिलाने लगती थीं, सिर में चक्कर आ जाता था। पेट में जैसे कोई बैठा हुआ कुरेद रहा हो! सड़क की तरफ़ आँखें लगी हुई थीं, कि लोग मनाने तो नहीं आ रहे हैं। संध्योपासन का समय इसी परीक्षा में कट गया। इस समय पूजन के पश्चात् नित्य नाश्ता किया करते थे। आज अभी मुँह में पानी भी न गया था। न जाने वह शुभ घड़ी कब आवेगी। फिर पंडिताइन पर क्रोध आने लगा। आप तो रात को भर-पेट खाकर सोई होगी, इस वक्त भी जलपान कर चुकी होगी; पर इधर भूलकर भी न झाँका, कि मरे या जीते हैं। कुछ बात करने ही के बहाने से क्या थोड़ा-सा मोहनभोग बनाकर न ला सकती थी? पर किसे इतनी चिंता है? पर रुपए लेकर रख लिये, फिर जो कुछ मिलेगा, वह भी रख लेगी। मुझे अच्छा उल्लू बनाया?

क़िस्सा-कोताह, पंडितजी ने दिन-भर इन्तज़ार किया; पर कोई मनानेवाला नज़र न आया। लोगों के दिल में यह सन्देह पैदा हुआ था, कि पंडितजी ने कुछ ले-देकर यह स्वाँग रचा है, स्वार्थ के वशीभूत होकर यह पाखण्ड खड़ा किया, वही उनको मनाने में बाधक होता था। [ ९२ ]

(६)

रात के नौ बज गये थे। सेठ भोंदूमल ने, जो व्यापारी-समाज के नेता थे, निश्चयात्मक भाव से कहा—मान लिया, पंडितजी ने स्वार्थ-वश ही यह अनुष्ठान किया है, पर इससे वह कष्ट तो कम नहीं हो सकता, जो अन्न-जल के बिना प्राणी-मात्र को होता है। यह धर्म-विरुद्ध है, कि एक ब्राह्मण हमारे ऊपर दाना-पानी त्याग दे, और हम पेट भर-भरकर चैन की नींद सोवें। अगर उन्होंने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, तो उसका दण्ड उन्हें भोगना पड़ेगा। हम क्यों अपने कर्तव्य से मुँह फेरें?

कांग्रेस के मंत्री ने दबी हुई आवाज़ से कहा—मुझे तो जो कुछ कहना था, वह मैं कह चुका। आप लोग समाज के नेता हैं, जो फ़ैसला कीजिये, हमें मंजूर है! चलिये, मैं भी आप के साथ चला चलूँगा। धर्म का कुछ अंश मुझे भी मिल जायगा; पर एक विनती सुन लीजिये। आप लोग पहले मुझे वहाँ जाने दीजिये। मैं एकान्त में उनसे दस मिनट बातें करना चाहता हूँ। आप लोग फाटक पर खड़े रहिएगा। जब मैं वहाँ से लौट आऊँ, तो फिर जाइयेगा। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? प्रार्थना स्वीकृत हो गई।

मंत्रीजी पुलिस विभाग में बहुत दिनों तक रह चुके थे, मानव-चरित्र की कमजोरियों को जानते थे। वह सीधे बाज़ार गये, और पाँच रुपए की मिठाई ली। उसमें मात्रा से अधिक सुगन्ध डालने का प्रयत्न किया, चाँदी के वरक़ लगबाये और एक दोना में लेकर रूठे हुए ब्रह्मदेव की पूजा करने चले। एक झंझर में ठण्ढा पानी लिया और उसमें केवड़े का जल मिलाया। दोनों ही चीजों से खुशबू की लपटें उड़ रही थीं। सुगन्ध में कितनी उत्तेजक शक्ति है, कौन नहीं जानता! इससे बिना भूख-की-भूख लग जाती है, भूखे आदमी की तो बात ही क्या?

पंडितजी इस समय भूमि पर अचेत पड़े हुए थे। रात को कुछ नहीं मिला। दस-पाँच छोटी-मोटी मिठाइयों का क्या ज़िक्र। दोपहर को कुछ नहीं मिला और इस वक्त भी भोजन की वेला टल गई थी। भूख में अब आशा की व्याकुलता नहीं, निराशा की शिथिलता थी। सारे अङ्ग ढीले [ ९३ ]पड़ गये थे। यहाँ तक कि आँखें भी न खुलती थीं। उन्हें खोलने की बार-बार चेष्टा करते; पर वे आप-ही-आप बंद हो जातीं। ओंठ सूख गये थे। जिन्दगी का कोई चिह्न था, तो बस, उनका धीरे-धीरे कराहना। ऐसा घोर संकट उनके ऊपर कभी न पड़ा था। अजीर्ण की शिकायत तो उन्हें महीने में दो-चार बार हो जाती थी, जिसे वह हड़ आदि की फंखियों से शांत कर लिया करते थे; पर अजीर्णावस्था में ऐसा कभी न हुआ था, कि उन्होंने भोजन छोड़ दिया हो। नगर-वासियों को, अमन-सभा को, सरकार को, ईश्वर को, कांग्रेस और धर्मपत्नी को जी भरकर कोस चुके थे। किसी से कोई आशा न थी। अब इतनी शक्ति भी न रही थी, कि स्वयं खड़े होकर बाज़ार जा सकें। निश्चय हो गया था, कि आज रात को अवश्य प्राण-पखेरू उड़ जायँगे। जीवन-सूत्र कोई रस्सी तो है नहीं, कि चाहे जितने झटके दो टूटने का नाम न ले।

मंत्रीजी ने पुकारा—'शास्त्रीजी?' मोटेराम ने पड़े-पड़े आँखें खोल दीं, उनमें ऐसी करुण-वेदना भरी हुई, जैसे किसी बालक के हाथ से कौना मिठाई छीन ले गया हो।

मंत्रीजी ने दोने की मिठाई सामने रख दी, और झंझर पर कुल्हड़ औंधा दिया। इस काम से सुचित होकर बोले—यहाँ कब तक पड़े रहियेगा?

सुगन्ध ने पण्डितजी की इन्द्रियों पर संजीवनी का काम किया। पण्डितजी उठ बैठे, और बोले—देखें कब तक निश्चय होता है।

मन्त्री—यहाँ कुछ निश्चय-विश्चय न होगा। आज दिन-भर पंचायत हुआ की, कुछ तय न हुआ। कल कहीं शाम को लाट साहब आवेंगे। तब तक तो आपकी न जाने क्या दशा होगी। आपका चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया है।

मोटे॰—यहीं मरना बदा होगा तो कौन टाल सकता है? इस दोने में कलाकंद है क्या?

मन्त्री—हाँ, तरह-तरह की मिठाइयाँ हैं। एक नातेदार के यहाँ बैना भेजने के लिए विशेष रीति से बनवाई है। [ ९४ ]

मोटे॰—जभी इनमें इतनी सुगन्ध है, ज़रा खोलिये तो!

मन्त्री ने मुसकिराकर दोना खोल दिया, और पंडितजी नेत्रों से मिठाइयाँ खाने लगे। अन्धा आँखें पाकर भी संसार को ऐसे तृष्णा-पूर्ण नेत्रों से न देखेगा। मुँह में पानी भर आया। मन्त्रीजी ने कहा—आपका व्रत न होता, तो दो-चार मिठाइयाँ आपको चखाता। पाँच रुपए सेर के दाम दिये हैं।

मोटे॰—तब तो बहुत ही श्रेष्ठ होंगी। मैंने बहुत दिन हुए, कलाकंद नहीं खाया।

मन्त्री—आपने भी तो बैठे-बिठाये झंझट मोल ले लिया। प्राण ही न रहेंगे, तो धन किस काम आवेगा।

मोटे॰—क्या करूँ, फँस गया। मैं इतनी मिठाइयों का जलपान कर जाता था। (हाथ से मिठाइयों को टटोलकर) भोला की दुकान की होंगी।

मन्त्री—चखिये दो-चार।

मोटे॰—क्या चखूँ, धर्म-संकट में पड़ा हूँ।

मन्त्री—अजी चखिये भी। इस समय जो आनन्द प्राप्त होगा, वह लाख रुपए में भी नहीं मिल सकता। कोई किसी से कहने जाता है क्या?

मोटे॰—मुझे भय किसका है? मैं यहाँ दाना-पानी बिना मर रहा हूँ, और किसी को पर्वा ही नहीं। तो फिर मुझे क्या डर? लाओ इधर दोना बढ़ाओ। जाओ सबसे कह देना शास्त्रीजी ने व्रत तोड़ दिया। भाड़ में जाय बज़ार और व्यापार! यहाँ किसी की चिन्ता नहीं। जब किसी में धर्म नहीं रहा, तो मैंने ही धर्म का ठीका थोड़े उठाया है।

यह कहकर पंडितजी ने दोना अपनी तरफ खींच लिया और लगे बढ़-बढ़कर हाथ मारने। यहाँ तक कि एक पल में आधा दोना समाप्त हो गया। सेठ लोग आकर फाटक पर खड़े थे। मन्त्री ने जाकर कहा—ज़रा चलकर तमाशा देखिये। आप लोगों को न बाज़ार खोलना