प्रेम-द्वादशी/७ गृह-दाह

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गृह-दाह

सत्यप्रकाश के जन्मोत्सव में लाला देवप्रकाश ने बहुत रुपए खर्च किये थे। उसका विद्यारंभ-संस्कार भी खूब धूम-धाम से किया गया। उसके हवा खाने को एक छोटी-सी गाड़ी थी। शाम को नौकर उसे टहलाने ले जाता, एक नौकर उसे पाठशाला पहुँचाने जाता; दिन-भर वहीं बैठा रहता और उसे साथ लेकर घर आता था। कितना सुशील, होनहार बालक था। गोरा मुखड़ा, बड़ी-बड़ी आँखें, ऊँचा मस्तक, पतले-पतले लाल अधर, भरे हुए हाथ-पाँव। उसे देखकर सहसा मुँह से निकल पड़ता था—भगवान् इसे जिला दे, प्रतापी मनुष्य होगा। उसकी बाल-बुद्धि की प्रखरता पर लोगों को आश्चर्य होता था। नित्य उसके मुख-चन्द्र पर हँसी खेलती रहती थी। किसी ने उसे हठ करते या रोते नहीं देखा।

वर्षा के दिन थे। देवप्रकाश स्त्री को लेकर गंगा-स्नान करने गये। नदी खूब चढ़ी हुई थी, मानो अनाथ की आँखें हों। उनकी पत्नी निर्मला जल में बैठकर क्रीड़ा करने लगी। कभी आगे जाती, कभी पीछे जाती, कभी डुबकी मारती, कभी अजुलियों से छीटें उड़ाती। देवप्रकाश ने कहा—अच्छा, अब निकलो, नहीं तो सरदी हो जायगी। निर्मला ने कहा—कहो, तो मैं छाती तक पानी में चली जाऊँ।

देवप्रकाश—और, जो कहीं पैर फिसल जाय!

निर्मला—पैर क्यों फिसलेगा!

यह कहकर वह छाती तक पानी में चली गई। पति ने कहा—अच्छा, अब आगे पैर न रखना; किन्तु निर्मला के सिर पर मौत खेल रही थी। यह जल-क्रीड़ा नहीं—मृत्यु-क्रीड़ा थी। उसने एक पग और आगे बढ़ाया, और फिसल गई। मुँह से एक चीख निकली; दोनो हाथ सहारे के लिए ऊपर उठे, और फिर जल-मग्न हो गये। एक पल में प्यासी [ ९७ ]नदी उसे पी गई। देवप्रकाश खड़े तौलिए से देह पोंछ रहे थे। तुरन्त पानी में कूदे, साथ का कहार भी कूदा। दो मल्लाह भी कूद पड़े। सबने डुबकियाँ मारी, टटोला; पर निर्मला का पता न चला। तब डोंगी मँगवाई गई। मल्लाहों ने बार-बार गोते मारे; पर लाश हाथ न आई। देवप्रकाश शोक में डूबे हुए घर आये। सत्यप्रकाश किसी उपहार की आशा में दौड़ा। पिता ने गोद में उठा लिया, और बड़े यत्न करने पर भी अपनी सिसकी न रोक सके। सत्यप्रकाश ने पूछा—अम्माँ कहाँ हैं?

देव॰—बेटा, गंगा ने उन्हें नेवता खाने के लिए रोक लिया।

सत्यप्रकाश ने उनके मुख की ओर जिज्ञासा-भाव से देखा, और आशय समझ गया—अम्मा, अम्मा कहकर, रोने लगा।

(२)

मातृहीन बालक संसार का सबसे करुणाजनक प्राणी है। दीन-से-दीन प्राणियों को भी ईश्वर का आधार होता है, जो उनके हृदय को सँभालता रहता है। मातृ हीन बालक इस आधार से भी वंचित होता है। माता ही उनके जीवन का एक-मात्र आधार होती है। माता के बिना वह पंख-हीन पक्षी है।

सत्यप्रकाश को एकान्त से प्रेम हो गया। अकेले बैठा रहता। वृक्षों में उसे उस सहानुभूति का कुछ-कुछ अज्ञात अनुभव होता था, जो घर के प्राणियों में उसे न मिलती थी। माता का प्रेम था, तो सभी प्रेम करते थे; माता का प्रेम उठ गया, तो सभी निष्ठुर हो गये! पिता की आँखों में वह प्रेम-ज्योति न रही। दरिद्र को कौन भिक्षा देता है?

छः महीने बीत गये। सहसा एक दिन उसे मालूम हुआ, मेरी नई माता आनेवाली है। दौड़ा हुआ पिता के पास गया और पूछा—क्या मेरी नई माता आवेंगी? पिता ने कहा—हाँ, बेटा, वह आकर तुम्हें प्यार करेंगी।

सत्य॰—क्या मेरी माँ स्वर्ग से आ जायँगी?

देव॰—हाँ, वही आ जायँगी।

सत्य॰—मुझे उसी तरह प्यार करेंगी? [ ९८ ]

देवप्रकाश इसका क्या उत्तर देते! मगर सत्यप्रकाश उस दिन से प्रसन्न मन रहने लगा। अम्मा आवेंगी! मुझे गोद में लेकर प्यार करेंगी! अब मैं उन्हें कभी दिक्क न करूँगा, कभी ज़िद न करूँगा, अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाया करूँगा।

विवाह के दिन आये। घर में तैयारियाँ होने लगीं। सत्यप्रकाश खुशी से फूला न समाता। मेरी नई अम्मा आवेंगी। बारात में वह भी गया। नये-नये कपड़े मिले। पालकी पर बैठा। नानी ने अन्दर बुलाया, और उसे गोद में लेकर एक अशरफ़ी दी। वहीं उसे नई माता के दर्शन हुए। नानी ने नई माता से कहा—बेटी, कैसा सुन्दर बालक है! इसे प्यार करना।

सत्यप्रकाश ने नई माता को देखा, और मुग्ध हो गया। बच्चे भी रूप के उपासक होते हैं। एक लावण्यमयी मूर्ति आभूषणों से लदी सामने खड़ी थी। उसने दोनो हाथों से उसका अञ्चल पकड़कर कहा—'अम्मा!'

कितना अरुचिकर शब्द था, कितना लज्जा-युक्त, कितना अप्रिय! वह ललना, जो 'देवप्रिया' नाम से संबोधित होती थी, उत्तरदायित्व, त्याग और क्षमा का संबोधन न सह सकी। अभी वह प्रेम और विलास का सुख-स्वप्न देख रही थी—यौवनकाल की मदमय वायु तरंगों में आंदोलित हो रही थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भंग कर दिया। कुछ रुष्ट होकर बोली—मुझे अम्मा मत कहो।

सत्यप्रकाश ने विस्मित नेत्रों से देखा। उसका बाल-स्वप्न भंग हो गया। आँखें डबडबा गईं। नानी ने कहा—बेटी, देखो लड़के का दिल छोटा हो गया। वह क्या जाने, क्या कहना चाहिये। अम्मा कह दिया, तो तुम्हें कौन-सी चोट लग गई?

देवप्रिया ने कहा—मुझे अम्मा न कहे।

(३)

सौत का पुत्र विमाता की आँखों में क्यों इतना खटकता है, इसका निर्णय आज तक किसी मनोभाव के पण्डित ने नहीं किया। हम किस गिनती में हैं। देवप्रिया जब तक गर्भिणी न हुई थी, वह सत्यप्रकाश से [ ९९ ]कभी-कभी बातें करती, कहानियाँ सुनाती; किन्तु गर्भिणी होते ही उसका व्यवहार कठोर हो गया। प्रसव-काल ज्यों-ज्यों निकट आता था, उसकी कठोरता बढ़ती ही जाती थी। जिस दिन उसकी गोद में एक चाँद-से बच्चे का आगमन हुआ, सत्यप्रकाश खूब उछला-कूदा और सौर-गृह में दौड़ा हुआ बच्चे को देखने गया। बच्चा देवप्रिया की गोद में सो रहा था। सत्यप्रकाश ने बड़ी उत्सुकता से बच्चे को विमाता की गोद से उठाना चाहा। सहसा देवप्रिया ने सरोष-स्वर में कहा—खबरदार, इसे मत छूना, नहीं तो कान पकड़कर उखाड़ लूँगी।

बालक उलटे पाँव लौट आया और कोठे की छत पर जाकर खूब रोया। कितना सुन्दर बच्चा है! मैं उसे गोद में लेकर बैठता, तो कैसा मज़ा आता! मैं उसे गिराता थोड़े ही, फिर इन्होंने मुझे झिड़क क्यों दिया? भोला बालक क्या जानता था, कि इस झिड़की का कारण माता की सावधानी नहीं, कुछ और है।

शिशु का नाम ज्ञानप्रकाश रखा गया था। एक दिन वह सो रहा था। देवप्रिया स्नानागार में थी। सत्यप्रकाश चुपके से आया और बच्चे का ओढ़ना हटाकर उसे अनुरागमय नेत्रों से देखने लगा। उसका जी कितना चाहा, कि उसे गोद में लेकर प्यार करूँ; पर डर के मारे उसने उसे उठाया नहीं; केवल उसके कपोलों को चूमने लगा। इतने में देवप्रिया निकल आई। सत्यप्रकाश को बच्चे चूमते देखकर आग हो गई। दूर ही से डाँटा—'हट जा वहाँ से!'

सत्यप्रकाश दीन नेत्रों से माता को देखता हुआ बाहर निकल आया।

संध्या-समय उसके पिता ने पूछा—तुम लल्ला को क्यों रुलाया करते हो?

सत्य॰—मैं तो उसे कभी नहीं रुलाता। अम्मा खेलाने को नहीं देतीं।

देव॰—झूठ बोलते हो, आज तुमने बच्चे को चुटकी काटी?

सत्य॰—जी नहीं, मैं तो उसकी मुच्छियाँ ले रहा था।

देव॰—झूठ बोलता है! [ १०० ]

सत्य॰—मैं झूठ नहीं बोलता।

देवप्रकाश को क्रोध आ गया। लड़के को दो-तीन तमाचे लगाये। पहली बार यह ताड़ना मिली और निरपराध! इसने उसके जीवन की काया-पलट कर दी।

(४)

उस दिन सत्यप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह घर में बहुत कम आता; पिता आते, तो उनसे मुँह छिपाता फिरता। कोई खाना खाने को बुलाने आते, तो चोरों की भाँति दबकता हुआ जाकर खा लेता, न कुछ माँगता, न कुछ बोलता। पहले अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि था। उसकी सफ़ाई, और सलीके और फुरती पर लोग मुग्ध हो जाते थे। अब वह पढ़ने से जी चुराता, मैले-कुचैले कपड़े पहने रहता। घर में कोई प्रेम करनेवाला न था! बाज़ार के लड़कों के साथ गली-गली घूमता, कनकौए लूटता। गालियाँ बकना भी सीख गया। शरीर दुर्बल हो गया। चेहरे की कांति गायब हो गई। देवप्रकाश को अब आये-दिन उसकी शरारतों के उलहने मिलने लगे, और सत्यप्रकाश नित्य घुड़कियाँ और तमाचे खाने लगा। यहाँ तक कि अगर वह कभी घर में किसी काम से चला जाता, तो सब लोग दूर-दूर कहकर दौड़ते।

ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए मास्टर आता था। देवप्रकाश उसे रोज़ सैर कराने साथ ले जाते। हँसमुँख लड़का था। देवप्रिया उसे सत्यप्रकाश के साए से भी बचाती रहती थी। दोनो लड़कों में कितना अंतर था! एक साफ़-सुथरा, सुन्दर कपड़े पहने, शील और विनय का पुतला, सच बोलनेवाला। देखनेवालों के मुँह से अनायास ही दुआ निकल आती थी। दूसरा मैला, नटखट, चोरों की तरह मुँह छिपाये हुए, मुँहफट, बात-बात पर गालियाँ बकनेवाला। एक हरा-भरा पौदा, प्रेम में प्लावित, स्नेह से सिंचित। दूसरा सूखा हुआ, टेढ़ा, पल्लवहीन नव वृक्ष, जिसकी जड़ों को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देखकर पिता की छाती ठंढी होती, दूसरे को देखकर देह में आग लग जाती।

आश्चर्य यह था, कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेशमात्र [ १०१ ]भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह ज्ञानप्रकाश के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही एक हरियाली थी। इर्ष्या साम्य-भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से कहीं ऊँचा, कहीं भाग्यशाली समझता। उसमें ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था!

घृणा से घृणा उत्पन्न होती है; प्रेम से प्रेम। ज्ञानप्रकाश भी बड़े भाई को चाहता था! कभी-कभी उसका पक्ष लेकर अपनी माँ से वाद-विवाद कर बैठता। कहता, भैया की अचकन फट गई है; आप नई अचकन क्यों नहीं बनवा देतीं? माँ उत्तर देती—उसके लिए वही अचकन अच्छी है। अभी क्या, अभी तो वह नंगा फिरेगा। ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था, कि अपने जेब-ख़र्च से बचाकर कुछ अपने भाई को दे; पर सत्यप्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शान्तिमय आनन्द का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिए वह सद्भावों के साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दी और अप्रिय बात न निकलती। एक क्षण के लिए उसकी सोई हुई आत्मा जाग उठती।

एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने पूछा—तुम आजकल पढ़ने क्यों नहीं जाते? क्या सोच रखा है, कि मैंने तुम्हारी ज़िंदगी-भर का ठेका ले रखा है?

सत्य॰—मेरे उपर जुर्माने और फीस के कई रुपए हो गये हैं। जाता हूँ, तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।

देव॰—फीस क्यों बाकी है? तुम तो महीने-महीने ले लिया करते हो न?

सत्य॰—आये-दिन चंदे लगा करते हैं। फ़ीस के रुपए चंदे में दे दिये।

देव॰—और जुर्माना क्यों हुआ?

सत्य॰—फ़ीस न देने के कारण।

देव॰—तुमने चंदा क्यों दिया? [ १०२ ]सत्य॰—ज्ञानू ने चन्दा दिया, तो मैंने भी दिया।

देव॰—तुम ज्ञानू से जलते हो?

सत्य॰—मैं ज्ञानू से क्यों जलने लगा? यहाँ हम और वह दो हैं, बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे पास कुछ नहीं है।

देव॰—क्यों, यह कहते शर्म आती है?

सत्य॰—जी हाँ, आपकी बदनामी होगी।

देव॰—अच्छा तो आप मेरी मान-रक्षा करते हैं। यह क्यों नहीं कहते, कि पढ़ना अब मंज़ूर नहीं है। मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हें एक-एक क्लास में तीन-तीन साल पढ़ाऊँ; ऊपर से तुम्हारे ख़र्च के लिए भी प्रतिमास कुछ दूँ। ज्ञानबाबू तुमसे कितना छोटा है; लेकिन तुमसे एक ही दफ़ा नीचा है। तुम इस साल ज़रूर ही फ़ेल होगे; वह ज़रूर ही पास होगा। अगले साल तुम्हारे साथ हो जायगा। तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी न?

सत्य॰—विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है।

देव॰—तुम्हारे भाग्य में क्या है?

सत्य॰—भीख माँगना।

देव॰—तो फिर भीख ही माँगो। मेरे घर से निकल जाओ। देवप्रिया भी आ गई। बोली—शरमाता तो नहीं और बातों का जवाब देता है।

सत्य॰—जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है, वे ही बचपन में अनाथ हो जाते हैं।

देवप्रिया—ये जली-कटी बातें अब मुझसे न सही जायँगी। मैं ख़ून का घूट पी-पीकर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश—बेहया है। कल से इसका नाम कटवा दूँगा। भीख माँगनी है, तो भीख ही माँगे।

(५)

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब सोलह साल की हो गई थी। इतनी बातें सुनने के बाद [ १०३ ]उसे घर में रहना असह्य हो गया था। जब तक हाथ-पाँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्तस्ना सब कुछ सहकर घर में रहता रहा। अब हाथ-पाँव हो गये थे, उस बन्धन में क्यों रहता! आत्माभिमान आशा की भाँति चिरंजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे; दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बग़ल में दबाई; एक छोटा-सा बेग हाथ में लिया और चाहता था, कि चुपके से बैठके से निकल जाय, कि ज्ञानू आ गया, और उसे जाने को तैयार देख बोला—कहाँ जाते हो, भैया?

सत्य॰—जाता हूँ, कहीं नौकरी करूँगा।

ज्ञानू—मैं जाकर अम्मा से कहे देता हूँ।

सत्य॰—तो फिर मैं तुम से भी छिपाकर चला जाऊँगा।

ज्ञानू–क्यों चले जाओगे? तुम्हें मेरी ज़रा भी मुहब्बत नहीं?

सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा—तुम्हे छोड़कर जाने को जी तो नहीं चाहता; लेकिन जहाँ कोई पूछनेवाला नहीं है, वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कहीं दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा, और पेट पालता रहूँगा; किस लायक हूँ?

ज्ञानू—तुमसे अम्मा क्यों इतना चिढ़ती हैं? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती है!

सत्य॰—मेरे नसीब खोटे हैं और क्या।

ज्ञानू—तुम लिखने-पढ़ने में जी नहीं लगाते?

सत्य॰—लगता ही नहीं, कैसे लगाऊँ? जब कोई परवा नहीं करता, तो मैं भी सोचता हूँ—उँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से!

ज्ञानू—मुझे भूल तो नहीं जाओगे? मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।

सत्य॰—तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्ठी लिखूँगा।

ज्ञानू—(रोते-रोते) मुझे न जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है! [ १०४ ]

सत्य॰—मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा।

यह कहकर उसने फिर भाई को गले से लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था!

(६)

सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँचा, इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस की मात्रा अधिक होती है। वे हवा के किले बना सकते हैं—धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँचना ऐसा कष्ट-साध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहले ही उसने निश्चय कर लिया था, कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके बेग में लिखने की सामग्री मौजूद थी। बड़े शहरों में जीविका का प्रश्न कठिन भी है, और सरल भी। सरल है उनके लिए, जो हाथ से काम कर सकते हैं, कठिन है उनके लिये जो क़लम से काम करते हैं। सत्यप्रकाश मज़दूरी करना नीच काम समझता था। उसने धर्मशाला में असबाब रखा, बाद को शहर के मुख्य-मुख्य स्थानों का निरीक्षण कर एक डाक घर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया, और अपढ़ मज़दूरों की चिट्ठियाँ, मनीआर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा। पहले कई दिन तो उसको इतने पैसे न मिले, कि पेट-भर भोजन करता; लेकिन धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी। वह मज़दूरों से इतने विन्य के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता, कि बस, वे पत्र को सुनकर बहुत प्रसन्न होते। अशिक्षित लोग एक ही बात को दो-दो तीन-तीन बार लिखाते हैं। उनकी दशा ठीक उन रोगियों की-सी होती है, जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृत्तान्त कहते नहीं थकते। सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप देकर मज़दूरों को मुग्ध कर देता था। एक संतुष्ट होकर जाता, तो अपने कई अन्य भाइयों को खोज लाता। एक ही महीने में उसे एक रुपया रोज़ मिलने लगा। उसने धर्मशाला से निकलकर शहर से बाहर पाँच रुपए महीने पर एक छोटी-सी कोठरी ले ली एक वक़्त बनाता, दोनों वक़्त खाता। बर्तन अपने हाथों से धोता। ज़मीन [ १०५ ]पर सोता। उसे अपने निर्वासन पर ज़रा भी खेद और दुःख न था। घर के लोगों की कभी याद न आती। वह अपनी दशा पर सन्तुष्ट था। केवल ज्ञानप्रकाश की प्रेमयुक्त बातें न भूलतीं। अंधकार में यही एक प्रकाश था। बिदाई का अन्तिम दृश्य आँखों के सामने फिरा करता। जीविका से निश्चिन्त होकर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा। उत्तर पाया। उसके आनन्द की सीमा न रही। ज्ञानू मुझे याद करके रोता है, मेरे पास आना चाहता है, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है। प्यासे को पानी से जो तृप्ति होती है, वह तृप्ति उस पत्र से सत्यप्रकाश को हुई। मैं अकेला नहीं हूँ, कोई मुझे भी चाहता है—मुझे भी याद करता है।

उस दिन से सत्यप्रकाश को यह चिन्ता हुई कि ज्ञानू के लिए कोई उपहार भेजूँ। युवकों को मित्र बहुत जल्द मिल जाते हैं। सत्यप्रकाश की भी कई युवकों से मित्रता हो गई थी। उनके साथ कई बार सिनेमा देखने गया। कई बार बूटी-भंग, शराब-कबाब की भी ठहरी। आईना, तेल, कंघी का शौक़ भी पैदा हुआ, जो कुछ पाता उड़ा देता; बड़े वेग से नैतिक पतन और शारीरिक विनाश की ओर दौड़ा चला जाता था। इस प्रेम पत्र ने उसके पैर पकड़ लिये। उपहार के प्रयास ने इन दुर्व्यसनों को तिरोहित करना शुरू किया। सिनेमा का चसका छूटा, मित्रों को हीले-हवाले करके टालने लगा। भोजन भी रूखा-सूखा करने लगा। धन-संचय की चिंता ने सारी इच्छाओं को परास्त कर दिया। उसने निश्चय किया, कि एक अच्छी-सी घड़ी भेजूँ। उसका दाम कम-से-कम चालीस रुपया होगा; अगर तीन महीने तक एक कौड़ी का भी अपव्यय न करूँ, तो घड़ी मिल सकती है। ज्ञानू घड़ी देखकर कैसा खुश होगा। अम्मा और बाबूजी भी देखेंगे। उन्हें मालूम हो जायगा, कि मैं भूखों नहीं मर रहा हूँ। किफ़ायत की धुन में वह बहुधा दिया-बत्ती भी न करता। बड़े सवेरे काम करने चला जाता, और सारे दिन दो-चार पैसे की मिठाई खाकर काम करता रहता। उसके ग्राहकों की संख्या दिन-दूनी होती जाती थी। चिट्ठी-पत्री के अतिरिक्त अब उसने तार लिखने का भी अभ्यास कर लिया था। दो ही महीनों में उसके पास पचास रुपए एकत्र हो गये; [ १०६ ]और जब घड़ी के साथ सुनहरी चेन का पारसल बनाकर ज्ञानू के नाम भेज दिया, तो उसका चित्त इतना उत्साहित था, मानो किसी निस्संतान के बालक हुआ हो।

(७)

'घर' कितनी ही कोमल, पवित्र, मनोहर स्मृतियों को जागृत कर देता है! यह प्रेम का निवास स्थान है। प्रेम ने बहुत तपस्या करके यह वरदान पाया है।

किशोरावस्था में 'घर' माता-पिता, भाई-बहन, सखी सहेली के प्रेम की याद दिलाता है; प्रौढ़ावस्था में गृहिणी और बाल बच्चों के प्रेम की यही वह लहर है, जो मानव-जीवन-मात्र को स्थिर रखती है। उसे समुद्र की वेगवती लहरों में बहने और चट्टानों से टकराने से बचाती है। यही वह मंडप है, जो जीवन को समस्त विघ्न-बाधाओं से सुरक्षित रखता है।

सत्यप्रकाश का घर कहाँ था? यह कौन-सी शक्ति थी, जो कलकत्ते के विराट् प्रलोभनों से उसकी रक्षा करती थी?—माता का प्रेम, पिता का स्नेह, बाल-बच्चों की चिंता?—नहीं उसका रक्षक, उद्धारक उसका परितोषिक केवल ज्ञानप्रकाश का स्नेह था। उसी के निमित्त वह एक-एक पैसे की किफ़ायत करता—उसी के लिए वह कठिन परिश्रम करता—धनोपार्जन के नये-नये उपाय सोचता। उसे ज्ञानप्रकाश के पत्रों से मालूम हुआ, कि इन दिनों देवप्रकाश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। वह एक घर बनवा रहे हैं, जिसमें व्यय अनुमान से अधिक हो जाने के कारण ऋण लेना पड़ा है; इसलिए अब ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए घर पर मास्टर नहीं आता। तब से सत्यप्रकाश प्रतिमास ज्ञानू के पास कुछ-न-कुछ अवश्य भेज देता था। वह अब केवल पत्र-लेखक न था, लिखने के सामान की एक छोटी-सी दूकान भी उसने खोल ली थी। इससे अच्छी आमदनी हो जाती थी। इस तरह पाँच वर्ष बीत गये। रसिक मित्रों ने जब देखा, कि अब यह हत्थे नहीं चढ़ता, तो उसके पास आना-जाना छोड़ दिया। [ १०७ ]

(८)

संध्या का समय था। देवप्रकाश अपने मकान में बैठे देवप्रिया से ज्ञानप्रकाश के विवाह के संबंध में बातें कर रहे थे। ज्ञानू अब सत्रह वर्ष का सुन्दर युवक था। बाल-विवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभ मुहूर्त को न टाल सकते थे। विशेषतः जब कोई महाशय पाँच हज़ार रुपया दायज देने को प्रस्तुत हों।

देवप्रकाश—मैं तो तैयार हूँ; लेकिन तुम्हारा लड़का भी तो तैयार हो।

देवप्रिया—तुम बातचीत पक्की कर लो, वह तैयार हो ही जायगा। सभी लड़के पहले 'नहीं' करते हैं।

देवप्रकाश—ज्ञानू का इनकार केवल संकोच का इनकार नहीं है, यह सिद्धान्त का इनकार है। वह साफ़-साफ़ कह रहा है, कि जब तक भैया का विवाह न होगा, मैं अपना विवाह करने पर राज़ी नहीं हूँ।

देवप्रिया—उसकी कौन चलावे, वहाँ कोई रखैल रख ली होगी। विवाह क्यों करेगा? वहाँ कोई देखने जाता है?

देवप्रकाश—(झुंझलाकर) रखैल रख ली होती, तो तुम्हारे लड़के को चालीस रुपए महीने न भेजता और न वे चीजें ही देता, जिन्हें पहले महीने से अब तक बराबर देता चला आता है। न जाने क्यों तुम्हारा मन उसकी ओर से इतना मैला हो गया है! चाहे वह जान निकालकर भी दे दे; लेकिन तुम न पसीजोगी।

देवप्रिया नाराज़ होकर चली गई। देवप्रकाश उससे यही कहलाया चाहते थे, कि पहले सत्यप्रकाश का विवाह करना उचित है; किन्तु वह कभी इस प्रसंग को आने ही न देती थी। स्वयं देवप्रकाश की यह हार्दिक इच्छा थी, कि पहले बड़े लड़के का विवाह करें; पर उन्होंने भी आज तक सत्यप्रकाश को कोई पत्र न लिखा था। देवप्रिया के चले जाने के बाद उन्होंने आज पहली बार सत्यप्रकाश को पत्र लिखा। पहले इतने दिनों तक चुपचाप रहने के लिए क्षमा माँगी, तब उसे एक बार घर आने का प्रेमाग्रह किया। लिखा, अब मैं कुछ दिनों का मेहमान हूँ। मेरी [ १०८ ]अभिलाषा है, कि तुम्हारा और तुम्हारे छोटे भाई का विवाह देख लूँ। मुझे बहुत दुःख होगा, यदि तुम यह विनय स्वीकार न करोगे। ज्ञानप्रकाश के असमंजस की बात भी लिखी। अन्त में इस बात पर ज़ोर दिया, कि किसी और विचार से नहीं, तो ज्ञान के प्रेम के नाते ही तुम्हें इस बन्धन में पड़ना होगा।

सत्यप्रकाश को यह पत्र मिला, तो उसे बहुत खेद हुआ॥ मेरे भ्रातृ-स्नेह का यह परिणाम होगा, मुझे न मालूम था। इसके साथ ही उसे यह ईर्ष्यामय आनन्द हुआ, कि अम्मा और दादा को अब तो कुछ मानसिक पीड़ा होगी। मेरी उन्हें क्या चिन्ता थी? मैं मर भी जाऊँ, तो भी उनकी आँखों में आँसू न आवें। सात वर्ष हो गये, कभी भूल कर भी पत्र न लिखा, मरा है या जीता है। अब कुछ चेतावनी मिलेगी। ज्ञानप्रकाश अन्त में विवाह करने पर राज़ी तो हो जायगा; लेकिन सहज में नहीं। कुछ न हो, मुझे तो एक बार अपने इनकार के कारण लिखने का अवसर मिला। ज्ञानू को मुझसे प्रेम है; लेकिन उसके कारण मैं पारिवारिक अन्याय का दोषी न बनूँगा। हमारा पारिवारिक जीवन सम्पूर्णतः अन्यायमय है। यह कुमति और वैमनस्य, क्रूरता और नृशंसता का बीजारोपण करता है। इसी माया में फँसकर मनुष्य अपनी प्यारी संतान का शत्रु हो जाता है। न, मैं आँखों देखकर यह जीती मक्खी न निगलूँगा। मैं ज्ञानू को समझाऊँगा अवश्य। मेरे पास जो कुछ जमा है, वह सब उसके विवाह के निमित्त अर्पण भी कर दूँगा। बस, इससे ज्यादा मैं कुछ भी नहीं कर सकता। अगर ज्ञानू भी अविवाहित रहे, तो संसार कौन सूना हो जायगा? ऐसे पिता का पुत्र क्या वंश परंपरा का पालन न करेगा? क्या उसके जीवन में फिर यही अभिनय न दुहराया जायगा, जिसने मेरा सर्वनाश कर दिया?

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने पाँच सौ रुपए पिता के पास भेजे, और पत्र का उत्तर लिखा, कि मेरा अहोभाग्य, जो आपने मुझे याद किया। ज्ञानू का विवाह निश्चित हो गया, इसकी बधाई! इन रुपयों से नव-बधू के लिए कोई आभूषण बनवा दीजियेगा। रही मेरे विवाह की बात, सो मैंने [ १०९ ]अपनी आँखों से जो कुछ देखा और मेरे सिर पर जो कुछ बीती है, उस पर ध्यान देते हुए यदि मैं कुटुम्ब-पाश में फसूँ, तो मुझसे बड़ा उल्लू संसार में न होगा। आशा है, आप मुझे क्षमा करेंगे। विवाह की चर्चा ही से मेरे हृदय को आघात पहुँचता है।

दूसरा पत्र ज्ञानप्रकाश को लिखा, कि माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करो। मैं अपढ़, मूर्ख, बुद्धिहीन आदमी हूँ। मुझे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं। मैं तुम्हारे विवाह के शुभोत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा, लेकिन मेरे लिए इससे बढ़कर आनन्द और संतोष का विषय नहीं हो सकता।

(९)

देवप्रकाश यह पढ़कर अवाक् रह गये। फिर आग्रह करने का साहस न हुआ। देवप्रिया ने नाक सिकोड़कर कहा—यह लौंडा देखने ही को सीधा है, है ज़हर का बुझाया हुआ! सौ कोस पर बैठा हुआ बर्छियों से कैसा छेद रहा है।

किंतु ज्ञानप्रकाश ने यह पत्र पढ़ा, तो उसे मर्माघात पहुँचा। दादा और अम्मा के अन्याय ने ही उन्हें यह भीषण व्रत धारण करने पर बाध्य किया है। इन्हीं ने उन्हें निर्वासित किया है, और शायद सदा के लिए। न जाने अम्मा को इनसे क्यों इतनी जलन हुई। मुझे तो अब याद आता है, कि किशोरावस्था ही से वह बड़े आज्ञाकारी, विनयशील और गंभीर थे। उन्हें अम्मा की बातों का जवाब देते नहीं सुना। मैं अच्छे-से-अच्छा खाता था, फिर भी, उनके तेवर मैले न हुए, हालाँकि उन्हें जलना चाहिये था। ऐसी दशा में अगर उन्हें गार्हस्थ्य-जीवन से घृणा हो गई, तो आश्चर्य ही क्या? फिर मैं ही क्यों इस विपत्ति में फसूँ? कौन जाने, मुझे भी ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़े। भैया ने बहुत सोच-समझकर यह धारणा की है।

संध्या-समय जब उसके माता-पिता बैठे हुए उसी समस्या पर विचार कर रहे थे, ज्ञानप्रकाश ने आकर कहा—मैं कल भैया से मिलने जाऊँगा।

देवप्रिया—क्या कलकत्ते जाओगे? [ ११० ]

ज्ञान॰—जी, हाँ।

देवप्रिया—उन्हीं को क्यों नहीं बुलाते?

ज्ञान॰—उन्हें कौन मुँह लेकर बुलाऊँ? आप लोगों ने तो पहले ही मेरे मुँह में कालिख लगा दी है। ऐसा देव-पुरुष आप लोगों के कारण विदेश में ठोकर खा रहा है, और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि—

देवप्रिया—अच्छा चुप रह, नहीं ब्याह करना है, न कर, जले पर नमक मत छिड़क! माता-पिता का धर्म है; इसलिए कहती हूँ, नहीं तो यहाँ ठेंगे को परवा नहीं है। तू चाहे ब्याह कर, चाहे क्वाँरा रह; पर मेरी आँखों से दूर हो जा।

ज्ञान॰—क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गई?

देवप्रिया—जब तू हमारे कहने ही में नहीं, तो जहाँ चाहे रह। हम भी समझ लेंगे, कि भगवान् ने लड़का ही नहीं दिया।

देव॰—क्यों व्यर्थ ऐसे कटु वचन बोलती हो?

ज्ञान॰—अगर आप लोगों की यह इच्छा है, तो यही होगा।

देवप्रकाश ने देखा, कि बात का बतंगड़ हुआ चाहता है, तो ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल दिया, और पत्नी के क्रोध को शांत करने की चेष्टा करने लगे; मगर देवप्रिया फूट-फूटकर रो रही थी, बार-बार कहती थी—मैं इसकी सूरत न देखूँगी। अन्त को देवप्रकाश ने चिढ़कर कहा—तो तुम्हीं ने तो कटु वचन कहकर उसे उत्तेजित कर दिया।

देवप्रिया—यह सब विष उसी चांडाल ने बोया है, जो यहाँ से सात समुद्र पार बैठा हुआ मुझे मिट्टी में मिलाने का उद्योग कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे छीनने ही के लिए उसने यह प्रेम का स्वाँग रचा है। मैं उसकी नस-नस पहचानती हूँ। उसका यह मंत्र मेरी जान लेकर छोड़ेगा; नहीं तो मेरा ज्ञानू, जिसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया, यों मुझे न जलाता।

देव॰—अरे, तो क्या वह विवाह ही न करेगा! अभी गुस्से में अनाप-शनाप बक गया है। ज़रा शांत हो जायगा, तो मैं समझाकर राजी कर दूँगा। [ १११ ]

देवप्रिया—मेरे हाथ से निकल गया।

देवप्रिया की आशंका सत्य निकली। देवप्रकाश ने बेटे को बहुत समझाया। कहा—तुम्हारी माता इस शोक में मर जायगी; किन्तु कुछ असर न हुआ। उसने एक बार 'नहीं' कहकर, 'हाँ' न की। निदान पिता भी निराश होकर बैठ रहे।

तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों यह प्रश्न उठता रहा; पर ज्ञानप्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल था। माता का रोना-धोना निष्फल हुआ। हाँ, उसने माता की एक बात मान ली—वह भाई से मिलने कलकत्ते न गया।

तीन साल में घर में बड़ा परिवर्तन हो गया। देवप्रिया की तीनों कन्याओं का विवाह हो गया। अब घर में उसके सिवा कोई स्त्री न थी। सूना घर उसे खाये लेता था! जब वह नैराश्य और क्रोध से व्याकुल हो जाती, तो सत्यप्रकाश को खूब जी भर कोसती; मगर दोनो भाइयों में प्रेम पत्र व्यवहार बराबर होता रहता था।

देवप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र उदासीनता प्रकट होने लगी। उन्होंने पेंशन ले ली थी, और प्रायः धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया करते थे। ज्ञानप्रकाश ने भी 'आचार्य' की उपाधि प्राप्त कर ली थी, और एक विद्यालय में अध्यापक हो गये थे। देवप्रिया अब संसार में अकेली थी।

देवप्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी की ओर खींचने के लिए नित्य टोने-टोकने किया करती। बिरादरी में कौन-सी कन्या सुन्दर है, गुणवती है, सुशिक्षिता है—उनका बखान किया करती; पर ज्ञानप्रकाश को इन बातों के सुनने की भी फ़ुरसत न थी।

मोहल्ले के और घरों में नित्य ही विवाह होते रहते थे। बहुएँ आती थीं, उनकी गोद में बच्चे खेलने लगते थे, घर गुलज़ार हो जाता था। कहीं बिदाई होती थी, कहीं बधाइयाँ आती थीं, कहीं गाना-बजाना होता था, कहीं बाजे बजते थे; यह चहल-पहल देखकर देवप्रिया का चित्त चंचल हो जाता। उसे मालूम होता, मैं ही संसार में सबसे अभागिन हूँ। मेरे ही भाग्य में यह सुख भोगना नहीं बदा। भगवान् ऐसा [ ११२ ]भी कोई दिन आवेगा, कि मैं अपनी बहू का मुख-चन्द्र देखूँगी, बालकों को गोद में खिलाऊँगी? वह भी कोई दिन होगा, कि मेरे घर में भी आनन्दोत्सव के मधुर गान की तानें उठेंगी? रात-दिन ये ही बातें सोचते-सोचते देवप्रिया की दशा उन्मादिनी की सी हो गई। आप-ही-आप सत्यप्रकाश को कोसने लगी—वही मेरे प्राणों का घातक है! तल्लीनता उन्माद का प्रधान गुण है। तल्लीनता अत्यन्त रचनाशील होती है। वह आकाश में देवताओं के विमान उड़ाने लगती है। अगर भोजन में नमक तेज हो गया, तो यह शत्रु ने कोई रोड़ा रख दिया होगा। देवप्रिया को अब कभी-कभी धोखा हो जाता, कि सत्यप्रकाश घर में आ गया है, वह मुझे मारना चाहता है, ज्ञानप्रकाश को विष खिलाये देता है। एक दिन उसने सत्यप्रकाश के नाम एक पत्र लिखा, और उसमें जितना कोसते बना, कोसा—तू मेरे प्राणों का बैरी है, मेरे कुल का घातक है, हत्यारा है। वह कौन दिन आवेगा, कि मिट्टी उठेगी। तूने मेरे लड़के पर वशीकरण-मंत्र चला दिया है। दूसरे दिन फिर ऐसा ही एक पत्र लिखा, यहाँ तक कि यह उसका नित्य का कर्म हो गया। जब तक एक चिट्ठी में सत्यप्रकाश को गालियाँ न दे लेती, उसे चैन ही न आता! इन पत्रों को वह कहारिन के हाथ डाकघर भिजवा दिया करती थी।

(१०)

ज्ञानप्रकाश का अध्यापक होना सत्यप्रकाश के लिए घातक हो गया। परदेश में उसे यही संतोष हुआ था, कि मैं संसार में निराधार नहीं हूँ। अब वह अवलम्ब जाता रहा। ज्ञानप्रकाश ने ज़ोर देकर लिखा—अब आप मेरे लिए कोई कष्ट न उठावें। मुझे अपनी गुज़र करने के लिए काफ़ी से ज्यादा मिलने लगा है।

यद्यपि सत्यप्रकाश की दूकान खूब चलती थी; लेकिन कलकत्ते-जैसे शहर में एक छोटे-से दुकानदार का जीवन बहुत सुखी नहीं होता। साठ-सत्तर रुपए की मासिक आमदनी होती ही क्या है। अब तक वह जो कुछ बचाता था, वह वास्तव में बचत न थी, बल्कि त्याग था। एक वक़्त रूखा-सूखा खाकर, एक तंग सीलन की कोठरी में रहकर बीस[ ११३ ]पचीस रुपए बच रहते थे। अब दोनो वक़्त भोजन मिलने लगा। कपड़े भी ज़रा साफ़ पहनने लगा; मगर थोड़े ही दिनों में उसके ख़र्च में औषधियों की एक मद बढ़ गई। फिर वही पहले की-सी दशा हो गई। बरसों तक शुद्ध वायु, प्रकाश और पुष्टिकर भोजन से वंचित रहकर अच्छे-से-अच्छा स्वास्थ्य भी नष्ट हो सकता है। सत्यप्रकाश को अरुचि, मंदाग्नि आदि रोगों ने आ घेरा। कभी-कभी ज्वर भी आ जाता। युवावस्था में आत्मविश्वास होता है। किसी अवलम्ब की परवा नहीं होती। वयोवृद्धि दूसरों का मुँह ताकती है, कोई आश्रय ढूँढ़ती है। सत्यप्रकाश पहले सोता, तो एक ही करवट में सवेरा हो जाता। कभी बाज़ार से पूरियाँ लेकर खा लेता, कभी मिठाई पर टाल देता; पर अब रात को अच्छी तरह नींद न आती, बाज़ारू भोजन से घृणा होती, रात को घर आता, तो थककर चूर-चूर हो जाता। उस वक़्त चूल्हा जलाना, भोजन पकाना बहुत अखरता। कभी-कभी वह अपने अकेलेपन पर रोता। रात को जब किसी तरह नींद न आती, तो उसका मन किसी से बातें करने को लालायित होने लगता; पर वहाँ निशांधकार के सिवा और कौन था? दीवारों के कान चाहे हों, मुँह नहीं होता। इधर ज्ञानप्रकाश के पत्र भी अब कम आते थे, और वे भी रूखे। उनमें अब हृदय के सरल उद्गारों का लेश भी न रहता। सत्यप्रकाश अब भी वैसे ही भावमय पत्र लिखता था; पर एक अध्यापक के लिए भावुकता कब शोभा देती है? शनैः-शनैः सत्यप्रकाश को भ्रम होने लगा, कि ज्ञानप्रकाश भी मुझसे निष्ठुरता करने लगा, नहीं तो क्या मेरे पास दो-चार दिन के लिए आना असम्भव था? मेरे लिए तो घर का का द्वार बन्द है; पर उसे कौन-सी बाधा है? उस ग़रीब को क्या मालूम, कि यहाँ ज्ञानप्रकाश ने माता से कलकत्ते न जाने की क़सम खा ली है। इस भ्रम ने उसे और भी हताश कर दिया।

शहरों में मनुष्य बहुत होते हैं, पर मनुष्यता विरले ही में होती है। सत्यप्रकाश उस बहुसंख्यक स्थान में भी अकेला था। उसके मन में अब एक नई आकांक्षा अंकुरित हुई। क्यों न घर लौट चलूँ? किसी संगिनी के प्रेम की क्यों न शरण लूँ? वह सुख और शान्ति और कहाँ [ ११६ ]यह दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था, रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलाई। घर क्या था, भूत का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर, पीला मुख, बुझी हुई आँखें देखता और रोता था।

सत्यप्रकाश ने कहा—मैं आज कल बीमार हूँ।

ज्ञानप्रकाश—यह तो देख ही रहा हूँ।

सत्य॰—तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कैसे चला?

ज्ञान॰—सूचना तो दी थी, आपको पत्र न मिला होगा।

सत्य॰—अच्छा, हाँ, दी होगी, पत्र दूकान में डाला गया होगा। मैं इधर कई दिनों से दूकान नहीं गया। घर पर सब कुशल है?

ज्ञान॰—माताजी का देहान्त हो गया।

सत्य॰—अरे! क्या बीमार थीं?

ज्ञान॰—जी नहीं। मालूम नहीं क्या खा लिया। इधर उन्हें उन्माद-सा हो गया था। पिताजी ने कुछ कटु वचन कहे थे, शायद इसी पर कुछ खा लिया।

सत्य॰—पिताजी तो कुशल से हैं?

ज्ञान॰—हाँ अभी मरे नहीं हैं।

सत्य॰—अरे! क्या बहुत बीमार हैं?

ज्ञान॰—माता ने विष खा लिया, तो वह उनका मुँह खोलकर दवा पिला रहे थे। माताजी ने ज़ोर से उनकी दो उँगलियाँ काट लीं। वही विष उनके शरीर में पहुँच गया। तब से सारा शरीर सूज आया है। अस्पताल में पड़े हुए हैं, किसी को देखते हैं, तो काटने दौड़ते हैं। बचने की आशा नहीं है।

सत्य॰—तब तो घर ही चौपट हो गया!

ज्ञान॰—ऐसे घर को अब से बहुत पहले चौपट हो जाना चाहिये था। तीसरे दिन दोनो भाई प्रातःकाल कलकत्ते से विदा होकर चल दिये।