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प्रेम-द्वादशी/८ डिक्री के रुपये

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बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ११७ से – १३३ तक

 

डिक्री के रुपए

नईम और कैलास में इतनी शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक अभिन्नता थी, जितनी दो प्राणियों में हो सकती है। नईम दीर्घकाय विशाल वृक्ष था, कैलास बाग़ का कोमल पौदा; नईम को क्रिकेट और फुटबाल, सैर और शिकार का व्यसन था, कैलास को पुस्तकावलोकन का; नईम एक विनोदशील, वाक्चतुर, निर्द्वंद्व, हास्यप्रिय, विलासी युवक था। उसे 'कल' की चिंता कभी न सताती थी। विद्यालय उसके लिए क्रीड़ा का स्थान था, और कभी-कभी बेंच पर खड़े होने का। इसके प्रतिकूल कैलास एक एकान्तप्रिय, आलसी, व्यायाम से कोसों भागनेवाला, आमोद-प्रमोद से दूर रहनेवाला, चिंताशील, आदर्शवादी जीव था। वह भविष्य की कल्पनाओं से विकल रहता था। नईम एक सुसम्पन्न, उच्च पदाधिकारी पिता का एक-मात्र पुत्र था। कैलास एक साधारण व्यवसायी के कई पुत्रों में से एक था। उसे पुस्तकों के लिए प्रचुर धन न मिलता था, वह माँग-जाँचकर काम निकाला करता था। एक के लिए जीवन आनन्द का स्वप्न था, और दूसरे के लिए विपत्तियों का बोझ; पर इतनी विषमताओं के होते हुए भी उन दोनो में घनिष्ठ मैत्री और निःस्वार्थ, विशुद्ध प्रेम था। कैलास मर जाता पर नईम का अनुग्रह-पात्र न बनता; और नईम मर जाता पर कैलास से बेअदबी न करता। नईम की ख़ातिर से कैलास कभी-कभी स्वच्छ, निर्मल वायु का सुख उठा लिया करता था। कैलास की ख़ातिर से नईम भी कभी-कभी भविष्य के स्वप्न देख लिया करता था। नईम के लिए राज्यपद का द्वार खुला हुआ था, भविष्य कोई अपार सागर न था। कैलास को अपने हाथों से कुआँ खोदकर पानी पीना था, भविष्य एक भीषण संग्राम था, जिसके स्मरण-मात्र से उसका चित्त अशान्त हो उठता था।

(२)

कॉलेज से निकलने के बाद नईम को शासन-विभाग में एक उच्च पद प्राप्त होगया, यद्यपि वह तीसरी श्रेणी में पास हुआ था। कैलास प्रथम श्रेणी में पास हुआ था; किन्तु उसे वर्षों एड़ियाँ रगड़ने, ख़ाक छानने और कुएँ झाँकने पर भी कोई काम न मिला। यहाँ तक कि विवश होकर अपनी कलम का आश्रय लेना पड़ा। उसने एक समाचार-पत्र निकाला। एक ने राज्याधिकार का रास्ता लिया, जिसका लक्ष्य धन था, और दूसरे ने सेवा-मार्ग का सहारा लिया, जिसका परिणाम ख्याति, कष्ट और कभी-कभी कारागार होता है। नईम को उसके दफ़्तर के बाहर कोई न जानता था; किन्तु वह बँगले में रहता, मोटर पर हवा खाता, थिएटर देखता और गरमियों में नैनीताल की सैर करता था। कैलास को सारा संसार जानता था; पर उसके रहने का मकान कच्चा था, सवारी के लिए अपने पाँव थे। बच्चों के लिए दूध भी मुश्किल से मिलता था, साग-भाली में काट-कपट करना पड़ता था। नईम के लिए सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी, कि उसके केवल एक पुत्र था; पर कैलास के लिए सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात उसकी सन्तान-वृद्धि थी, जो उसे पनपने न देती थी। दोनों मित्रों में पत्र-व्यवहार होता रहता था। कभी-कभी दोनों में मुलाकात भी हो जाती थी। नईम कहता था—यार, तुम्ही मज़े में हो, देश और जाति की कुछ सेवा तो कर रहे हो। यहाँ तो पेट-पूजा के सिवा और किसी काम के न हुए; पर यह पेट-पूजा उसने कई दिनों की कठिन तपस्या से हृदयंगम कर पाई थी, और वह उसके प्रयोग के लिए अवसर ढूँढ़ता रहता था।

कैलास खूब समझता था, कि यह केवल नईम की विनयशीलता है। वह मेरी कुदशा से दुःखी होकर मुझे इस उपाय से सांत्वना देना चाहता है; इसलिये वह अपनी वास्तविक स्थिति को उससे छिपाने का विफल प्रयत्न किया करता था।

विष्णुपुर की रियासत में हाहाकार मचा हुआ था। रियासत का मैनेजर अपने बँगले में, ठीक दोपहर के समय, सैकड़ों आदमियों के सामने, क़त्ल कर दिया गया था। यद्यपि खूनी भाग गया था; पर अधिकारियों को सन्देह था, कि कुँअर साहब की दुष्प्रेरणा से ही यह हत्याभिनय हुआ है। कुँअर साहब अभी बालिग़ न हुए थे। रियासत का प्रबन्ध कोर्ट आफ् वार्ड द्वारा होता था। मैनेजर पर कुँअर साहब की देख-रेख का भाग भी था। विलास-प्रिय कुँअर को मैनेजर का हस्तक्षेप बहुत ही बुरा मालूम होता था। दोनो में वर्षों से मनमुटाव था। यहाँ तक कि कई बार प्रत्यक्ष कटु वाक्यों की नौबत भी था पहुँची थी; अतएव कुँअर साहब पर सन्देह होना स्वाभाविक ही था। इस घटना का अनुसंधान करने के लिए ज़िले के लिए हाकिम ने मिरज़ा नईम को नियुक्त किया। किस पुलिस कर्मचारी द्वारा तहक़ीक़ात कराने में कुँअर साहब के अपमान का भय था।

नईम को अपने भाग्य-निर्माण का स्वर्ण सुयोग प्राप्त हुआ। वह न त्यागी था, न ज्ञानी। सभी उसके चरित्र की दुर्बलता से परिचित थे; अगर कोई न जानता था, तो हुक्काम लोग। कुँअर साहब ने मुँह-माँगी मुराद पाई। नईम जब विष्णुपुर पहुँचा, तो उसका असामान्य आदर-सत्कार हुआ। भेंट चढ़ने लगीं, अरदली के चपरासी, पेशकार, साईस, बावर्ची, खिदमतगार, सभी के मुँह तर और मुट्ठियाँ गरम होने लगीं। कुँअर साहब के हवाली-मवाली रात-दिन घेरे रहते, मानो दामाद ससुराल आया हो।

एक दिन प्रातःकाल कुँअर साहब की माता आकर नईम के सामने हाथ बाँधे खड़ी हो गई। नईम लेटा हुआ हुक्का पी रहा था। तप, संयम और वैधव्य की यह तेजस्वी प्रतिमा देखकर वह उठ बैठा।

रानी उसकी ओर वात्सल्य-पूर्ण लोचनों से देखती हुई बोली—हुज़ूर मेरे बेटे का जीवन आपके हाथ में है। आपही उसके भाग्य-विधाता हैं। आपको उसी माता की सौगंद है, जिसके आप सुयोग्य पुत्र हैं, मेरे लाल की रक्षा कीजियेगा। मैं अपना सर्वस्व आपके चरणों पर अर्पण करती हूँ। स्वार्थ में दया के संयोग से नईम को पूर्ण रीति से वशीभूत कर लिया।

(३)

उन्हीं दिनों कैलास नईम से मिलने आया। दोनो मित्र बड़े तपाक से गले मिले। नईम ने बातों-बातों में यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया, और कैलास पर अपने कृत्य का औचित्य सिद्ध करना चाहा।

कैलास ने कहा—मेरे विचार में पाप सदैव पाप है, चाहे वह किसी आवरण में मंडित हो।

नईम—और मेरा विचार है कि अगर गुनाह से किसी की जान बचती हो, तो वह ऐन सवाब है। कुँअर साहब अभी नौ जवान आदमी हैं। बहुत ही होनहार, बुद्धिमान्, उदार और सहृदय हैं। आप उनसे मिलें तो खुश हो जायँ। उनका स्वभाव अत्यन्त विनम्र है। मैं, जो यथार्थ में दुष्ट प्रकृति का मनुष्य था, बरबस कुँअर साहबको दिक किया करता था। यहाँ तक कि एक मोटरकार के लिए इसने रुपए न स्वीकार किये, न सिफ़ारिश की। मैं नहीं कहता, कि कुँअर साहब का यह कार्य स्तुत्य है; लेकिन बहस यह है, कि उनको अपराधी सिद्ध करके उन्हें कालेपानी की हवा खिलाई जाय; या निरपराध सिद्ध करके उनकी प्राणरक्षा की जाय? और भई, तुमसे तो कोई परदा नहीं है, पूरे बीस हज़ार की थैली है। बस, मुझे अपनी रिपोर्ट में यह लिख देना होगा, कि व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण यह दुर्घटना हुई है, राजा साहब का इससे कोई सम्पर्क नहीं। जो शहादतें मिल सकीं, उन्हें मैंने ग़ायब कर दिया। मुझे इस कार्य के लिए नियुक्त करने में अधिकारियों की एक मसलहत थी। कुँअर साहब हिन्दू हैं; इसलिए किसी हिन्दू-कर्मचारी को नियुक्त न करके जिलाधीश ने यह भार मेरे सिर पर रखा। यह सांप्रदायिक विरोध मुझे निस्पृह सिद्ध करने के लिए काफ़ी है। मैंने दो-चार अवसरों पर कुछ तो हाकिमों की प्रेरणा से और कुछ स्वेच्छा से मुसलमानों के साथ पक्षपात किया, जिससे यह मशहूर हो गया है, कि मैं हिन्दुओं का कट्टर दुश्मन हूँ। हिन्दू लोग मुझे पक्षपात का पुतला समझते हैं। यह भ्रम मुझे आक्षेपों से बचाने के लिए काफी है। बताओ, हूँ तकदीरवर कि नहीं?

कैलास—अगर कहीं बात खुल गई, तो?

नईम—तो यह मेरी समझ का फेर, मेरे अनुसंधान का दोष, मानव प्रकृति के एक अटल नियम का उज्ज्वल उदाहरण होगा! मैं कोई सर्वज्ञ तो हूँ नहीं। मेरी नीयत पर आँच न आने पावेगी। मुझपर रिशवत लेने का संदेह न हो सकेगा। आप इसके व्यवहारिक कोण पर न जाइये, केवल नैतिक कोण पर निगाह रखिये। यह कार्यनीति के अनुकूल है या नहीं? आध्यात्मिक सिद्धान्तों को न खींच लाइयेगा, केवल नीति के सिद्धान्तों से इसकी विवेचना कीजिये।

कैलास—इसका एक अनिवार्य फल यह होगा, कि दूसरे रईसों को भी ऐसे दुष्कृत्यों की उत्तेजना मिलेगी। धन से बड़े-से-बड़े पापों पर परदा पड़ सकता है, इस विचार के फैलने का फल कितना भयंकर होगा, इसका आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं।

नईम—जी नहीं, मैं यह अनुमान नहीं कर सकता। रिशवत अब भी नब्बे फी सदी अभियोगों पर परदा डालती है। फिर भी पाप का भय प्रत्येक के हृदय में है।

दोनो मित्रों में देर तक इस विषय में तर्क-वितर्क होता रहा; लेकिन कैलास का न्याय-विचार नईम के हास्य और व्यंग्य से पेश न पा सका।

(४)

विष्णुपुर के हत्याकांड पर समाचार-पत्रों में आलोचना होने लगी। सभी पत्र एक स्वर से राजा साहब को ही लांछित करते और गवर्नमेंट को राजा साहब का अनुचित पक्षपात करने का दोष लगाते थे लेकिन इसके साथ यह भी लिख देते थे, कि अभी यह अभियोग विचाराधीन है; इसलिए इस पर टीका नहीं की जा सकती।

मिरज़ा नईम ने अपनी खोज को सत्य का रूप देने के लिए पूरे एक महीने व्यतीत किये। जब उनकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तो राजनीतिक क्षेत्र में विप्लव मच गया। जनता के संदेह की पुष्टि हो गई।

कैलास के सामने अब एक जटिल समस्या उपस्थित हुई। अभी तक उसने इस विषय पर एक-मात्र मौन धारण कर रखा था। वह यह निश्चय न कर सकता था, कि क्या लिखूँ। गवर्नमेंट का पक्ष लेना अपनी अन्तरात्मा को पद-दलित करना था, आत्म स्वातंत्र्य का बलिदान करना था; पर मौन रहना और भी अपमानजनक था। अन्त को जब सहयोगियों में दो-चार ने उसके ऊपर सांकेतिक रूप से आक्षेप करना शुरू किया कि उसका मौन निरर्थक नहीं है, तब उसके लिए तटस्थ रहना असह्य हो गया। उसके वैयक्तिक तथा जातीय कर्तव्य में घोर संग्राम होने लगा। उस मैत्री को, जिसके अंकुर पचीस वर्ष पहले हृदय में अंकुरित हुए थे, और अब जो सघन, विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुकी थी, हृदय से निकालना, हृदय को चीरना था। वह मित्र, जो उसके दुःख में दुखी और सुख में सुखी होता था, जिसका उदार हृदय नित्य उसकी सहायता के लिए तत्पर रहता था, जिसके घर में जाकर वह अपनी चिन्ताओं को भूल जाता था, जिसके प्रेमालिंगन में वह अपने कष्टों को विसर्जित कर दिया करता था, जिसके दर्शन-मात्र ही से उसे आश्वासन, दृढ़ता तथा मनोबल प्राप्त होता था, उसी मित्र की जड़ खोदनी पड़ेगी! वह बुरी सायत थी, जब मैंने सम्पादकीय क्षेत्र में पदार्पण किया, नहीं तो आज इस धर्म-संकट में क्यों पड़ता! कितना घोर विश्वासघात होगा! विश्वास मैत्री का मुख्य अंग है। नईम ने मुझे अपना विश्वास-पात्र बनाया है, मुझसे कभी परदा नहीं रखा, उसके उन गुप्त रहस्यों को प्रकाश में लाना उसके प्रति कितना घोर अन्याय होगा! नहीं, मैं मैत्री को कलंकित न करूँगा, उसकी निर्मल कीर्ति पर धब्बा न लगाऊँगा, मैत्री पर वज्राघात न करूँगा। ईश्वर वह दिन न लावे, कि मेरे हाथों नईम का अहित हो। मुझे पूर्ण विश्वास है, कि यदि मुझ पर कोई संकट पड़े, तो नईम मेरे लिए प्राण तक दे देने को तैयार हो जायगा। उसी मित्र को मैं संसार के सामने अपमानित करूँ, उसकी गरदन पर कुठार चलाऊँ! भगवान्, मुझे वह दिन न दिखाना।

लेकिन जातीय कर्तव्य का पक्ष भी निरस्त्र न था। पत्र का सम्पादक परंपरागत नियमों के अनुसार जाति का सेवक है। वह जो कुछ देखता है, वह जाति की विराट् दृष्टि से ही। वह जो कुछ विचार करता है, उस पर भी जातीयता की छाप लगी होती है। नित्य जाति के विस्तृत विचार-क्षेत्र में विचरण करते रहने से व्यक्ति का महत्त्व उसकी दृष्टि में अत्यन्त संकीर्ण हो आता है। वह व्यक्ति को क्षुद्र, तुच्छ, नगण्य समझने लगता है। व्यक्ति का जाति पर बलि देना उसकी नीति का प्रथम अंग है। यहाँ तक कि वह बहुधा अपने स्वार्थ को भी जाति पर वार देता है। उसके जीवन का लक्ष्य महान् और आदर्श पवित्र होता है। वह उन महान् आत्माओं का अनुगामी होता है, जिन्होंने राष्ट्रों का निर्माण किया है, जिनकी कीर्ति अमर हो गई है, जो दलित राष्ट्रों का उद्धार करनेवाली हो गई है। वह यथाशक्ति कोई ऐसा काम न कर सकता, जिससे उसके पूर्वजों की उज्ज्वल विरुदावली में कालिमा लगने का भय हो। कैलास राजनीतिक क्षेत्र में बहुत कुछ यश और गौरव प्राप्त कर चुका था। उसकी सम्मति आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। उसके निर्भीक विचारों ने, उसकी निष्पक्ष टीकाओं ने उसे संपादक-मण्डली का प्रमुख नेता बना दिया था। अतएव इस अवसर पर मैत्री का निर्वाह, केवल उसकी नीति और आदर्श ही के विरुद्ध नहीं, उसके मनोगत भावों के भी विरुद्ध था। इसमें उसका अपमान था, आत्मपतन था, भीरुता थी। यह कर्तव्य-पथ से विमुख होना और राजनीतिक क्षेत्र से सदैव के लिए बहिष्कृत हो जाना था। सोचता, एक व्यक्ति की चाहे वह मेरा कितना ही आत्मीय क्यों न हो, राष्ट्र के सामने क्या हस्ती है? नईम के बनने या बिगड़ने से राष्ट्र पर कोई असर न पड़ेगा, लेकिन शासन की निरंकुशता और अत्याचार पर परदा डालना राष्ट्र के लिए भयंकर सिद्ध हो सकता है। उसे इसकी परवा न थी, कि मेरी आलोचना का प्रत्यक्ष कोई प्रभाव होगा या नहीं। संपादक की दृष्टि में अपनी सम्मति सिंहनाद के समान प्रतीत होती है। वह कदाचित् समझता है, कि मेरी लेखनी शासन कंपायमान कर देगी, विश्व को हिला देगी। शायद सारा संसार मेरी कलम की सरसराहट से थर्रा उठेगा! मेरे विचार प्रकट होते ही युगांतर उपस्थित कर देंगे। नईम मेरा मित्र है; किन्तु राष्ट्र मेरा इष्टदेव है। मित्र के पद की रक्षा के लिए क्या अपने इष्ट पर प्राणघातक आघात करूँ?

कई दिनों तक कैलास के व्यक्तिगत और सम्पादकीय कर्तव्यों में संघर्ष होता रहा। अन्त को जाति ने व्यक्ति को परास्त कर दिया। उसने निश्चय किया, कि मैं इस रहस्य का यथार्थ स्वरूप दिखा दूँगा; शासन के अनुत्तरदायित्व को जनता के सामने खोलकर रख दूँगा; शासन-विभाग के कर्मचारियों को स्वार्थ-लोलुपता का नमूना दिखा दूँगा; दुनिया को दिखा दूँगा कि सरकार किनकी आँखों से देखती है, किनके कानों से सुनती है। उसकी अक्षमता, उसकी अयोग्यता, और उसकी दुर्बलता को प्रमाणित करने का सबसे बढ़कर और कौन-सा उदाहरण मिल सकता है? नईम मेरा मित्र है, तो हो; जाति के सामने वह कोई चीज़ नहीं है। उसकी हानि के भय से मैं राष्ट्रीय कर्तव्य से क्यों मुँह फेरूँ, अपनी आत्मा को क्यों दूषित करूँ, अपनी स्वाधीनता को क्यों कलंकित करूँ? आह, प्राणों से प्रिय नईम! मुझे क्षमा करना, आज तुम-जैसे मित्र रत्न को मैं अपने कर्तव्य की वेदी पर बलि चढ़ाता हूँ; मगर तुम्हारी जगह अगर मेरा पुत्र होता, तो उसे भी इसी कर्तव्य की बलि-वेदी पर भेंट कर देता।

दूसरे दिन से कैलास ने इस दुर्घटना की मीमांसा शुरू की। जो कुछ उसने नईम से सुना था, वह सब एक लेख-माला के रूप में प्रकाशित करने लगा। घर का भेदी लंका ढाहे। अन्य संपादकों को जहाँ अनुमान, तर्क और युक्ति के आधार पर अपना मत स्थिर करना पड़ता था, और इसलिये वे कितना ही अनर्गल, अपवाद-पूर्ण बातें लिख डालते थे, वहाँ कैलास की टिप्पणियाँ प्रत्यक्ष प्रमाणों से युक्त होती थीं। वह पते की बातें कहता था, और उस निर्भीकता के साथ, जो दिव्य अनुभव का निर्देश करती थीं। उसके लेखों में विस्तार कम; पर सार अधिक होता था। उसने नईम को भी न छोड़ा, उसकी स्वार्थ-लिप्सा का खूब खाका उड़ाया। यहाँ तक कि वह धन की संख्या भी लिख दी, जो इस कुत्सित व्यापार पर परदा डालने के लिए उसे दी गई थी। सबसे मज़े की बात यह थी, कि उसने नईम से एक राष्ट्रीय गुप्तचर की मुलाकात का भी उल्लेख किया, जिसने नईम को रुपए लेते देखा था। अंत में गवर्नमेंट को भी चेलेञ्ज दिया, कि जो उसमें साहस हो, तो वह मेरे प्रमाणों को झूठा साबित कर दे। इतना ही नहीं, उसने वह वार्तालाप भी अक्षरशः प्रकाशित कर दिया, जो उसके और नईम के बीच हुआ था। रानी का नईम के पास जाना, उसके पैरों पर गिरना, कुँअर साहब का नईम के पास नाना प्रकार के तोहफे लेकर आना, इन सभी प्रसङ्गों ने उसके लेखों में एक जासूसी उपन्यास का मज़ा पैदा कर दिया।

इन लेखों ने राजनीतिक क्षेत्र में हलचल मचा दी। पत्र-सम्पादकों को अधिकारियों पर निशाने लगाने के ऐसे अवसर बड़े सौभाग्य से मिलते हैं। जगह-जगह शासन की इस करतूत की निन्दा करने के लिए सभाएँ होने लगीं। कई सदस्यों ने व्यस्थापक-सभा में इस विषय पर प्रश्न करने की घोषणा की। शासकों को कभी ऐसी मुँह की न खानी पड़ी थी। आखिर उन्हें अपनी मान रक्षा के लिए इसके सिवा और कोई उपाय न सूझा, कि वे मिरज़ा नईम को कैलास पर मान-हानि का अभि योग चलाने के लिए विवश करें।

(५)

कैलास पर इस्तग़ासा दायर हुआ। मिरज़ा नईम की ओर से सरकार पैरवी करती थी। कैलास स्वयं अपनी पैरवी कर रहा था। न्याय के प्रमुख संरक्षकों (वकील-बैरिस्टरों) ने किसी अज्ञात कारण से उसकी पैरवी करना अस्वीकार किया। न्यायाधीश को हारकर कैलास को कानून की सनद न रखते हुए भी अपने मुकदमे की पैरवी करने की आज्ञा देनी पड़ी। महीनों अभियोग चलता रहा। जनता में सनसनी फैल गई। रोज़ हज़ारों आदमी अदालत में एकत्र होते थे। बाज़ारों में अभियोग की रिपोर्ट पढ़ने के लिये समाचार-पत्रों की लूट होती थी। चतुर पाठक पढ़े हुये पत्रों से घड़ी रात जाते-जाते दुगुने पैसे खड़े कर लेते थे; क्योंकि उस समय तक पत्र-विक्रेताओं के पास कोई पत्र न बचने पाता था। जिन बातों का ज्ञान पहले गिने-गिनाये पत्र-ग्राहकों को था, उन पर अब जनता की टिप्पणियाँ होने लगीं। नईम की मिट्टी कभी इतनी खराब न हुई थी; गली-गली, घर-घर, उसी की चर्चा थी। जनता का क्रोध उसी पर केन्द्रित हो गया था। वह दिन भी स्मरणीय रहेगा, जब दोनो सच्चे, एक दूसरे पर प्राण देनेवाले मित्र अदालत में आमने-सामने खड़े हुए, और कैलास ने मिरज़ा नईम से जिरह करनी शुरू की। कैलास को ऐसा मानसिक कष्ट हो रहा था, मानो वह नईम की गरदन पर तलवार चलाने जा रहा है। और नईम के लिए तो वह अग्नि-परीक्षा थी। दोनो के मुख उदास थे; एक का आत्मग्लानि से, दूसरे का भय से। नईम प्रसन्न बनने की चेष्टा करता था, कभी-कभी सूखी हँसी भी हँसता था, लेकिन कैलास—आह, उस ग़रीब के दिल पर जो गुज़र रही थी, उसे कौन जान सकता है।

कैलास ने पूछा—आप और हम साथ पढ़ते थे, इसे आप स्वीकार करते हैं?

नईम—अवश्य स्वीकार करता हूँ।

कैलास—हम दोनो में इतनी घनिष्ठता थी, कि हम आपस में कोई परदा न रखते थे, इसे आप स्वीकार करते हैं?

नईम—अवश्य स्वीकार करता हूँ।

कैलास—जिन दिनों आप इस मामले की जाँच कर रहे थे, मैं आपसे मिलने गया था, इसे भी आप स्वीकार करते हैं?

नईम—अवश्य स्वीकार करता हूँ।

कैलास—क्या उस समय आपने मुझसे यह नहीं कहा था, कि कुँअर साहब की प्रेरणा से यह हत्या हुई है?

नईम—कदापि नहीं।

कैलास—आपके मुख से यह शब्द नहीं निकले थे, कि बीस हज़ार की थैलो है?

नईम ज़रा भी न झिझका, ज़रा भी-संकुचित न हुआ। उसको ज़बान में लेश-मात्र भी लुकनत न हुई, वाणी में ज़रा भी थर-थराहट न आई। उसके मुख पर अशान्ति, अस्थिरता या असमंजस का कोई भी चिन्ह न दिखाई दिया। वह अविचल खड़ा रहा। कैलास ने बहुत डरते-डरते यह प्रश्न किया था, उसको भय था, कि नईम इसका कुछ जवाब न दे सकेगा। कदाचित् रोने लगेगा; लेकिन नईम ने निःशंक भाव से कहा—संभव है, आपने स्वप्न में मुझसे यह बातें सुनी हों।

कैलास एक क्षण के लिए दंग हो गया। फिर उसने विस्मय से नईम की ओर नज़र डाल कर पूछा—क्या आपने यह नहीं फरमाया, कि मैंने दो-चार अवसरों पर मुसलमानों के साथ पक्षपात किया है, और इसीलिए मुझे हिन्दू-विरोधी समझकर इस अनुसंधान का भार सौंपा गया है?

नईम ज़रा भी न झिझका। अविचल, स्थिर और शांत भाव से बोला—आपकी कल्पना-शक्ति वास्तव में आश्चर्य-जनक है। बरसों तक आपके साथ रहने पर भी मुझे यह विदित न हुआ था, कि आप में घटनाओं का आविष्कार करने की ऐसी चमत्कार-पूर्ण शक्ति है।

कैलास ने और कोई प्रश्न न किया। उसे अपने पराभव का दुःख न था, दुःख था नईम की आत्मा के पतन का। वह कल्पना भी न कर सकता था, कि कोई मनुष्य अपने मुँह से निकली हुई बात को इतनी ढिठाई से अस्वीकार कर सकता है, और वह भी उसी आदमी के मुँह पर, जिससे वह बात कही गई हो। यह मानवीय दुर्बलता की पराकाष्ठा है। वह नईम, जिसका अंदर और बाहर एक था, जिसके विचार और व्यवहार में भेद न था, जिसकी वाणी आंतरिक भावों का दर्पण थी, वह नईम वह सरल, आत्माभिमानी, सत्य-भक्त नईम; इतना धूर्त, ऐसा मक्कार हो सकता है! क्या दासता के साँचे में ढलकर मनुष्य अपना मनुष्यत्व भी खो बैठता है? क्या यह दिव्य गुणों के रूपांतरित करने का यंत्र है?

अदालत ने नईम को बीस हज़ार रुपयों की डिक्री दे दी। कैलास पर मानो वज्रपात हो गया।

(६)

इस निश्चय पर राजनीतिक-संसार में फिर कुहराम मचा। सरकारी पक्ष के पत्रों ने कैलास को धूर्त कहा; जन-पक्षवालों ने नईम को शैतान बनाया। नईम के दुस्सहाय ने न्याय की दृष्टि में चाहे उसे निरपराध सिद्ध कर दिया हो; पर जनता की दृष्टि में तो और भी गिरा दिया। कैलास के पास सहानुभूति के पत्र और तार आने लगे। पत्रों में उसकी निर्भीकता और सत्यनिष्ठा की प्रशंसा होने लगी। जगह-जगह सभायें और जलसे हुए और न्यायालय के निश्चय पर असंतोष प्रकट किया गया; किन्तु सूखे बादलों से पृथ्वी की तृप्ति तो नहीं होती? रुपए कहाँ से आवें और वह भी एक दम से बीस हज़ार! आदर्श-पालन का यही मूल्य है; राष्ट्र-सेवा महँगा सौदा है। बीस हज़ार! इतने रुपए तो कैलास ने शायद स्वप्न में देखे भी न हों और अब देने पड़ेंगे। कहाँ से देगा? इतने रुपयों के सूद से ही वह जीविका के चिन्ता से मुक्त हो सकता था; उसे अपने पत्र में अपनी विपत्ति का रोना रोकर चंदा एकत्र करने से घृणा थी। मैंने अपने ग्राहकों की अनुमति लेकर इस शेर से मोर्चा नहीं लिया था। मैनेजर की वकालत करने के लिए किसी ने मेरी गरदन नहीं दबाई थी। मैंने अपना कर्तव्य समझ कर ही शासकों को चुनौती दी। जिस काम के लिए मैं, अकेला मैं ज़िम्मेदार हूँ, उसका भार अपने ग्राहकों पर क्यों डालूँ! यह अन्याय है। सम्भव है, जनता में आन्दोलन करने से दो-चार हज़ार रुपए हाथ आ जायँ; लेकिन यह सम्पादकीय आदर्श के विरुद्ध है। इससे मेरी शान बट्टा में लगता है। दूसरों को यह कहने का क्यों अवसर दूँ, कि और के मत्थे फुलौड़ियाँ खाईं, तो क्या बड़ा जग जीत लिया! जब जानते, कि अपने बल-बूते पर गरजते! निर्भीक आलोचना का सेहरा तो हमारे सिर बँधा; उसका मूल्य दूसरों से क्यों वसूल करूँ? मेरा पत्र बन्द हो जाय, मैं पकड़ कर क़ैद किया जाऊँ, मेरा मकान कुर्क कर लिया जाय, बरतन-भाँड़े नीलाम हो जायँ, यह सब मुझे मंज़ूर है। जो कुछ सिर पड़ेगी, भुगत लूँगा; पर किसी के सामने हाथ न फैलाऊँगा।

सूर्योदय का समय था। पूर्व दिशा से प्रकाश की छटा ऐसी दौड़ी चली आती थी, जैसे आँखों में आँसुओं की धारा। ठंडी हवा कलेजे पर यों लगती थी, जैसे किसी के करुण क्रन्दन की ध्वनि। सामने का मैदान दुःखी हृदय की भाँति ज्योति के बाणों से बिंध रहा था, घर में वह निस्तब्धता छाई हुई थी, जो गृह-स्वामी के गुप्त रोदन की सूचना देती हैं। न बालकों का शोर-गुल था, और न माता की शान्ति प्रसारिणी शब्द-ताड़ना। जब दीपक बुझ रहा हो, तो घर में प्रकाश कहाँ से आये? यह आशा का प्रभाव नहीं शोक का प्रभाव था; क्योंकि आज ही कुर्क-अमीन कैलास की सम्पत्ति को नीलाम करने के लिए आनेवाला था।

उसने अंतर्वेदना से विकल होकर कहा—आह! आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अन्त हो जायगा। जिस भवन का निर्माण करने में अपने जीवन के पच्चीस वर्ष लगा दिये, वह आज नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। पत्र की गरदन पर छुरी फिर जायगी, मेरे पैरों में उपहास और अपमान की बेड़ियाँ पड़ जायँगी, मुख में कालिमा लग जायगी, यह शान्ति-कुटीर उजड़ जायगी यह शोकाकुल परिवार किसी मुरझाये हुए फूल की पँखड़ियों की भाँति बिखर जायगा। संसार में उसके लिए कहीं आश्रय नहीं है। जनता की स्मृति चिरस्थायी नहीं होती; अल काल में मेरी सेवायें विस्मृति के अन्धकार में लीन हो जायँगी। किसी को मेरी सुध भी न रहेगी, कोई मेरी विपत्ति पर आँसू बहानेवाला भी न होगा।

सहसा उसे याद आया कि आज के लिए अभी अग्रलेख लिखना है। आज अपने सुहृद पाठकों को सूचना दूँ, कि यह इस पत्र के जीवन का अन्तिम दिवस है, उसे फिर आपकी सेवा में पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त न होगा। हमसे अनेक भूल हुई होंगी। आज हम उनके लिए आप से क्षमा माँगते हैं। आपने हमारे प्रति जो समवेदना और सहृदयता प्रकट की है, उसके लिए हम सदैव आप के कृतज्ञ रहेंगे। हमें किसी से कोई शिकायत नहीं है। हमें इस अकाल मृत्यु का दुःख नहीं है; क्योंकि यह सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है, जो अपने कर्तव्य-पथ पर अविचल रहते हैं। दुःख यही है, कि हम जाति के लिए इससे अधिक बलिदान करने में समर्थ न हुए।

इस लेख को आदि से अन्त तक सोचकर वह कुर्सी से उठा ही था, कि किसी के पैरों की आहट मालूम हुई। गरदन उठाकर देखा, तो मिरज़ा नईम था। वही हँसमुख चेहरा, वहीं मन्द मुसकान, वही क्रीड़ीमय नेत्र। आते ही कैलास के गले से लिपट गया।

कैलास ने गरदन छुड़ाते हुए कहा—क्या मेरे घाव पर नमक छिड़कने, मेरी लाश को पैरों से ठुकराने आये हो?

नईम ने उसकी गरदन को और ज़ोर से दबाकर कहा—और क्या, मुहब्बत के यही तो मज़े हैं!

कैलास—मुझसे दिल्लगी न करो। मरा बैठा हूँ, मार बैठूँगा।

नईम की आँखें सजल हो गईं। बोला—आह ज़ालिम, मैं तेरी ज़बान से यही कटु वाक्य सुनने के लिए तो विकल हो रहा था। जितना चाहे कोसो, खूब गालियाँ दो, मुझे इसमें मधुर-संगीत का आनन्द आ रहा है।

कैलास—और, अभी जब अदालत का कुर्क-अमीन मेरा घर-बार नीलाम करने आवेगा, तो क्या होगा? बोलो, अपनी जान बचाकर तो अलग हो गये।

नईम—हम दोनों मिलकर खूब तालियाँ बजावेंगे, और उसे बन्दर की तरह नचावेंगे।

कैलास—तुम अब पिटोगे मेरे हाथों से! ज़ालिम, तुझे मेरे बच्चों पर भी दया न आई?

नईम—तुम भी तो चले मुझी से ज़ोर आज़माने। कोई समय था, जब बाज़ी तुम्हारे हाथ रहती थी, अब मेरी बारी है। तुमने मौका-महल तो देखा नहीं, मुझी पर पिल पड़े।

कैलास—सरासर सत्य की उपेक्षा करना मेरे सिद्धान्त के विरुद्ध था।

नईम—और सत्य का गला घोटना मेरे सिद्धान्त के अनुकूल।

कैलास—अभी एक पूरा परिवार तुम्हारे गले मढ़ दूँगा, तो अपनी क़िस्मत को रोओगे। देखने में तुम्हारा आधा भी नहीं हूँ; लेकिन सन्तानोत्पत्ति में तुम-जैसे तीन पर भारी हूँ। पूरे सात हैं, कम न बेश।

नईम—अच्छा लाओ, कुछ खिलाते-पिलाते हो, या तक़दीर का मरसिया ही गाये जाओगे? तुम्हारे सिर की क़सम, बहुत भूका हूँ। घर से बिना खाये ही चल पड़ा।

कैलाश—यहाँ आज सोलहो दंड एकादशी है। सब-के-सब शोक में बैठे उसी अदालत के जल्लाद की राह देख रहे हैं। खाने-पीने का क्या ज़िक्र! तुम्हारे बेग में कुछ हो, तो निकालो। आज साथ बैठकर खा लें, फिर तो ज़िन्दगी-भर का रोना है ही।

नईम—फिर तो ऐसी शरारत न करोगे?

कैलास—वाह, यह तो अपने रोम-रोम में व्याप्त हो गई है। जब तक सरकार पशुबल से हमारे ऊपर शासन करती रहेगी, हम उसका विरोध करते रहेंगे। खेद यही है, कि अब मुझे उसका अवसर ही न मिलेगा; किन्तु तुम्हें बीस हज़ार रुपए में से बीस टके भी न मिलेंगे। यहाँ रद्दियों के ढेर के सिवा और कुछ नहीं है।

नईम—अजी, मैं तुमसे बीस हज़ार की जगह उसका पचगुना वसूल कर लूँगा। तुम हो किस फेर में?

कैलास—मुँह धो रखिये!

नईम—मुझे रुपयों की ज़रूरत है। आओ, कोई समझौता कर लो।

कैलास—कुँअर साहब के बीस हज़ार रुपये डकार गये, फिर भी अभी संतोष नहीं हुआ? बदहज़मी हो जायगी!

नईम—धन से धन की भूख बढ़ती है, तृप्ति नहीं होती। आओ कुछ मामला कर लो। सरकारी कर्मचारियों-द्वारा मामला करने में और भी ज़ेरबारी होगी।

कैलास—अरे तो क्या मामला कर लूँ। यहाँ काग़ज़ों के सिवा और कुछ हो भी तो!

नईम—मेरा ऋण चुकाने-भर को बहुत है। अच्छा इसी बात पर समझौता कर लो कि जो चीज़ चाहूँ, ले लूँ। फिर रोना मत।

कैलास—अजी तुम सारा दफ़्तर उठा ले जाओ, घर उठा ले जाओ, मुझे उठा ले जाओ, और मीठे टुकड़े खिलाओ। क़सम ले लो, जो ज़रा भी चूँ करूँ।

नईम—नहीं, मैं सिर्फ़ एक चीज़ चाहता हूँ, सिर्फ़ एक चीज़।

कैलास के कौतूहल की कोई सीमा न रही। सोचने लगा, मेरे पास ऐसी कौन-सी बहुमूल्य वस्तु है? कहीं मुझसे मुसलमान होने को तो न कहेगा। यही धर्म एक चीज़ है, जिसका मूल्य एक से लेकर असंख्य रखा जा सकता है। ज़रा देखूँ, तो हज़रत क्या कहते हैं?

उसने पूछा—क्या चीज़?

नईम—मिसेज़ कैलास से एक मिनट तक एकान्त में बात-चीत करने की आज्ञा!

कैलास ने नईम के सिर पर एक चपत जमाकर कहा—फिर वही शरारत! सैकड़ों बार तो देख चुके हो, ऐसी कौन-सी इन्द्र की अप्सरा है?

नईम—वह कुछ भी हो, मामला करते हो, तो करो; मगर याद रखना, एकान्त की शर्त है।

कैलास—मंज़ूर है, मगर फिर जो डिग्री के रुपए माँगे गये, तो नोच ही खाऊँगा।

नईम—हाँ, मंज़ूर है।

कैलास—(धीरे से) मगर यार, नाजुक-मिज़ाज स्त्री है; कोई बेहूदा मज़ाक न कर बैठना।

नईम—जी, इन बातों में मुझे आपके उपदेश की ज़रूरत नहीं। मुझे उनके कमरे में ले तो चलिये।

कैलास—सिर नीचा किये रहना।

नईम—अजी आँखों में पट्टी बाँध दो।

कैलास के घर में परदा न था। उमा चिन्ता-मग्न बैठी हुई थी। सहसा नईम और कैलास को देखकर चौंक पड़ी। बोली—आइये मिरज़ाजी, अब की तो बहुत दिनों में याद किया।

कैलास नईम को वहीं छोड़कर कमरे के बाहर निकल आया; लेकिन परदे की बाड़ से छिपकर देखने लगा, कि इनमें क्या बातें होती हैं। उसे कुछ बुरा ख़याल न था, केवल कौतूहल था।

नईम—हम सरकारी आदमियों को इतनी फुरसत कहाँ? डिक्री के रुपए वसूल करने थे; इसलिए चला आया हूँ।

उमा कहाँ तो मुसकरा रही थी, कहाँ रुपयों का नाम सुनते ही उसका चेहरा फ़क़ हो गया। गंभीर स्वर में बोली—हम लोग स्वयं इसी चिन्ता में पड़े हुए हैं। कहीं रुपए मिलने की आशा नहीं है; और उन्हें जनता से अपील करते संकोच होता है।

नईम—अजी, आप कहती क्या हैं? मैंने तो सब रुपए पाई-पाई वसूल कर लिये।

उमा ने चकित होकर कहा—सच! उनके पास रुपए कहाँ थे?

नईम—उनकी हमेशा से यही आदत है। आपसे कह रखा होगा, मेरे पास कौड़ी नहीं है। लेकिन मैंने चुटकियों में वसूल कर लिया। आप उठिये, खाने का इन्तज़ाम कीजिये!

उमा—रुपए भला क्या दिये होंगे। मुझे एतबार नहीं आता।

नईम—आप सरल हैं, और वह, एक ही काइयाँ। उसे तो मैं ही खूब जानता हूँ। अपनी दरिद्रता के दुखड़े गा-गाकर आपको चकमा दिया करता होगा।

कैलास मुसकराते हुए कमरे में आये, और बोले—अच्छा अब निकलिये बाहर! यहाँ भी अपनी शैतानी से बाज़ नहीं आये?

नईम–रुपयों की रसीद तो लिख दूँ!

उमा—क्या तुमने रुपए दे दिये? कहाँ मिले?

कैलास—फिर कभी बतला दूँगा।—उठिये हज़रत!

उमा—बताते क्यों नहीं, कहाँ मिले? मिरज़ाजी से कौन-सा परदा है?

कैलास-नईम, तुम उमा के सामने मेरी तौहीन करना चाहते हो?

नईम—तुमने सारी दुनिया के सामने मेरी तौहीन नहीं की?

कैलास—तुम्हारी तौहीन की, तो उसके लिए बीस हज़ार रुपए नहीं देने पड़े!

नईम—मैं भी उसी टकसाल के रुपए दे दूँगा। उमा, मैं रुपए पा गया। इन बेचारे का परदा ढका रहने दो।