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प्रेम पंचमी/१ मृत्यु के पीछे

विकिस्रोत से
प्रेम-पंचमी
प्रेमचंद, संपादक दुलारेलाल भार्गव

लखनऊ: गंगा पुस्तकमाला कार्यालय, पृष्ठ १ से – १९ तक

 

प्रेम-पंचमी

मृत्यु के पीछे

(१)

बाबू ईश्वरचंद्र को समाचारपत्रों में लेख लिखने की चाट उन्हीं दिनो पड़ी, जब वह विद्याभ्यास कर रहे थे। नित्य नए विषयों की चिंता में लीन रहते। पत्रों में अपना नाम देखकर उन्हें उससे कही ज्यादा खुशी होती थी, जितनी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने या कक्षा में उच्च स्थान प्राप्त करने से। वह अपने कॉलेज के 'गरम-दल' के नेता थे। समाचारपत्रों में परीक्षा-पत्रों की जटिलता या अध्यापकों के अनुचित व्यवहार

की शिकायत का भार उन्हीं के सिर था। इससे उन्हें कॉलेज में नेतृत्व का पद मिल गया था। प्रतिरोध के प्रत्येक अवसर पर उन्हीं के नाम नेतृत्व की गोटी पड़ जाती थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि मैं इस परिमित क्षेत्र से निकलकर संसार के विस्तृत क्षेत्र में अधिक सफल हो सकता हूँ। सार्वजनिक जीवन को यह अपना भाग्य समझ बैठे थे। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अभी एम॰ ए॰ के परीक्षार्थियों में उनका नाम निकलने भी न पाया था कि 'गौरव' के संपादक महोदय ने वानप्रस्थ लेने की ठानी, और पत्रिका का भार ईश्वरचंद्र दत्त के सिर पर रखने का निश्चय किया। बाबूजी को यह समाचार मिला,
प्रेम-पंचमी

तो उछल पड़े। धन्य भाग्य कि मैं इस सम्मान-पद के योग्य समझा गया! इसमे संदेह नही कि वह इस दायित्व के गुरुत्व से भली भाँति परिचित थे, लेकिन कीर्ति-लाभ के प्रेम ने उन्हें बाधक परिस्थितियों का सामना करने पर उद्यत कर दिया। वह इस व्यवसाय मे स्वातंत्र्य, आत्मगौरव, अनु- शीलन और दायित्व की मात्रा को बढ़ाना चाहते थे। भारतीय पत्रों को पश्चिम के आदर्श पर लाने के इच्छुक थे। इन इरादो को पूरा करने का सुअवसर हाथ आया। वे प्रेमोल्लास से उत्तेजित होकर नदी में कूद पड़े।

( २ )

ईश्वरचंद्र की पत्नी एक ऊँचे और धनाढ्य कुल की लड़की थी, और ऐसे कुलो की मर्यादप्रियता तथा मिथ्या गौरव-प्रेम से संपन्न थी। यह समाचार पाकर डरी कि पति महाशय कहीं इस झंझट में फंसकर कानून से मुँह न मोड़ ले। लेकिन जब बाबू साहब ने आश्वासन दिया कि यह कार्य उनके कानून के अभ्यास मे बाधक न होगा, तो कुछ न बोलो।

लेकिन ईश्वरचंद्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि पत्र- संपादन एक बहुत हो ईर्पा-युक्त कार्य है, जो चित्त की समग्र वृत्तियों का अपहरण कर लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक साधन और ख्याति-लाभ का एक यंत्र समझा था। इसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। इससे द्रव्योपार्जन का विचार तक न किया था। लेकिन नौका मे बैठकर उन्हें अनुभव हुआ कि यात्रा उतनी सुखद नहीं है, जितनी समझ थी। लेखो के संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्तन, लेखक- गण से पत्र-व्यवहार, चित्ताकर्षक विषयो की खोज, और सहयोगियों से आगे बढ़ जाने की चिंता में उन्हे कानून का अध्ययन करने का अवकाश ही न मिलता था। सुबह को किताबे खोलकर बैठते कि १०० पृष्ठ समाप्त किए बिना कदापि न उठूँगा, किंतु ज्यो ही डाक का पुलिदा आ जाता, वह अधीर होकर उस पर टूट पड़ते, किताब खुली-की खुली रह जाती थी। वारंवार संकल्प करते कि अब नियमित रूप से पुस्तका- बलोकन करूँगा, और एक निर्दिष्ट समय से अधिक संपादन- कार्य में न लगाऊँगा। लेकिन पत्रिकाओ का बंडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता। पत्रो की नोक-झोंक, पत्रिकाओं के तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना, कवियों के काव्य चमत्कार, लेखको का रचना-कौशल इत्यादि सभी बातें उन पर जादू का काम करती। इस पर छपाई की कठिनाइयाँ, ग्राहक-संख्या बढ़ाने की चिंता और पत्रिका की सर्वांगसुदर बनाने की आकांक्षा और भी प्राण को संकट में डाले रहती थी। कभी-कभी उन्हें खेद होता कि व्यर्थ ही इस झमेले में पड़ा। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गए, और वह इसके लिये बिलकुल तैयार न थे। उसमे सम्मिलित न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम का श्रीगणेश है, इसी कारण ये सब बाधाएँ उपस्थित होती है। अगले वर्ष यह काम एक सुव्यवस्थित रूप में आ जायगा, और तब मैं निश्चिंत होकर परीक्षा में बैठूँँगा। पास कर लेना क्या कठिन है। ऐसे बुद्धू पास हो जाते हैं, जो एक सीधा-सा लेख भी नहीं लिख, सकते, तो क्या मैं ही रह जाऊँगा। मानकी ने उनकी ये बातें सुनीं, तो खूब दिल के फफोले फोड़े―‘मैं तो जानती थी कि यह धुन तुम्हे मटियामेट कर देगी। इसीलिये बार-बार रोकती थी, लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी। आप तो डूबे ही, मुझे भी ले डूबे।’ उनके पूज्य पिता भी बिगड़े, हितैषियों ने भी समझाया―“अभी इस काम को कुछ दिनों के लिये स्थगित कर दो, कानून में उत्तीर्ण होकर निर्द्वद्व देशोद्धार में प्रवृत्त हो जाना।” लेकिन ईश्वरचंद्र एक बार मैदान में आकर भागना निद्य समझते थे। हाँ, उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा की कि दूसरे साल परीक्षा के लिये तन मन से तैयारी करूँगा।

अतएव नए वर्ष के पदार्पण करते ही उन्होंने कानून की पुस्तकें संग्रह की, पाठ्य-क्रम निश्चित किया, रोज़नामचा लिखने लगे, और अपने चंचल और बहानेबाज़ चित्त को चारो ओर से जकड़ा, मगर चटपटे पदार्थों का आस्वादन करने के बाद सरल भोजन कब रुचिकर होता है। कानून में वे घातें कहाँ, वह उन्माद कहाँ, वे चोटें कहाँ, वह उत्तेजना कहाँ, वह हलचल कहाँ। बाबू साहब अब नित्य एक खोई हुई दशा में रहते। जब तक अपने इच्छानुकूल काम करते थे, चौबीस घंटों में घंटे-दो घंटे कानून भी देख लिया करते थे। उस नशे ने मानसिक शक्तियों का शिथिल कर दिया। स्नायु निर्जीव हो गए। उन्हें ज्ञात होने लगा कि अब मैं कानून के लायक नहीं रहा, और इस ज्ञान ने क़ानून के प्रति उदासीनता का रूप धारण किया। मन में संतोष-वृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारब्ध और पूर्व संस्कार के सिद्धांतों की शरण लेने लगे।

एक दिन मानकी ने कहा―“यह क्या बात है? क्या क़ानून से फिर जी-उचाट हुआ?”

ईश्वरचंद्र ने दुस्साहस-पूर्ण भाव से उत्तर दिया―“हाँ, भई, मेरा जी उससे भागता है।”

मानकी ने व्यंग्य से कहा―“बहुत कठिन है?”

ईश्वरचद्र―कठिन नहीं है, और कठिन भी होता, तो मैं उससे डरनेवाला न था; लेकिन मुझवकालत का पेशा ही पतित प्रतीत होता है। ज्यो-ज्यो वकीलो की आंतरिक दशा का ज्ञान होता है, मुझे उस पेशे से घृणा होती जाती है। इसी शहर में सैकडों वकील और बैरिस्टर पड़े हुए हैं, लेकिन एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं, जिसके हृदय में दया हो, जो स्वार्थपरता के हाथों बिक न गया हो। छल और धूर्तता इस पेशे का मूल- तत्त्व है। इसके बिना किसी तरह निर्वाह नहीं। अगर कोई महाशय जातीय आंदोलन में शरीक भी होते है, तो स्वार्थ- सिद्धि के लिये, अपना ढोल पीटने के लिये। इन लोगों का समग्र जीवन वासना-भक्ति पर अर्पित हो जाता है। दुर्भाग्य से हमारे देश का शिक्षित समुदाय इसी दर्गाह का मुजावर होता जाता है, और यही कारण है कि हमारी जातीय संस्थाओं को शीघ्र वृद्धि नहीं होती। जिस काम में हमारा दिल न हो, हम केवल ख्याति और स्वार्थ के लिये उसके कर्णधार बने हुए हों, वह कभी सफल नहीं हो सकता। यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का अन्याय है, जिसने इस पेशे को इतना उच्च स्थान प्रदान कर दिया है। यह विदेशी सभ्यता का निकृष्टतम स्वरूप है कि देश का बुद्धि-बल स्वयं धनोपार्जन न करके दूसरों की पैदा की हुई दौलत पर चैन करना, शहद की मक्खी न बनकर चीटी बनना, अपने जीवन का लक्ष्य समझता है।

मानकी चिढ़कर बोली―“पहले तो तुम वकीलों की इतनी निंदा न करते थे।”

ईश्वरचंद्र ने उत्तर दिया―“तब अनुभव न था। बाहरी टीम- टाम ने वशीकरण कर दिया था।”

मानकी―क्या जाने तुम्हें पत्रों से क्यों इतना प्रेम है। मैं तो जिसे देखती हूँ, अपनी कठिनाइयों का रोना ही रोते हुए पाती हूँ। कोई अपने ग्राहकों से नए ग्राहक बनाने का अनुरोध करता है, कोई चंदा न वसूल होने की शिकायत करता है। बता दो कि कोई उच्च शिक्षा प्राप्त मनुष्य कभी इस पेशे में आया है। जिसे कुछ नहीं सूझता, जिसके पास न कोई सनद है, न कोई डिग्री, वही पत्र निकाल बैठता है, और भूखों मरने की अपेक्षा रूखी रोटियो पर ही संतोष करता है। लोग विला- यत जाते हैं, कोई पढ़ता है डॉक्टरी, कोई इंजीनियरी, कोई सिविल सर्विस। लेकिन आज तक न सुना कि कोई एडीटरी का काम सीखने गया हो। क्यों सीखे? किसी को क्या पड़ी है कि जीवन की महत्त्वाकांक्षाओं को ख़ाक में मिलाकर त्याग और विराग में उम्र काटे। हाँ, जिनको सनक सवार हो गई हो, उनकी बात ही निराली है।

ईश्वरचंद्र―जीवन का उद्देश्य केवल धन-संचय करना ही नहीं है।

मानकी―अभी तुमने वकीलों को निंदा करते हुए कहा, ये लोग दूसरो की कमाई खाकर मोटे होते हैं। पत्र चलाने- वाले भी तो दूसरों की ही कमाई खाते हैं।

ईश्वरचंद्र ने बग़ले झाँकते हुए कहा―“हम लोग दूसरों की कमाई खाते है, तो दूसरों पर जान भी देते हैं। वकीलों की भाँति किसी को लूटते नहीं।”

मानकी―यह तुम्हारी हठधर्मी है। वकील भी तो अपने मुवक्किलो के लिये जान लड़ा देते है। उनकी कमाई भी उतनी ही हलाल है, जितनी पत्रवालो की। अंतर केवल इतना है कि एक की कमाई पहाड़ी सोता है, दूसरे की बरसाती नाला। एक में नित्य जल-प्रवाह होता है, दूसरे मे नित्य धूल उड़ा करती है। बहुत हुआ, तो बरसात में घड़ी-दो घड़ी के लिये पानी आ गया।

ईश्वर॰―पहले तो मैं यही नहीं मानता कि वकीलों की कमाई हलाल है, और मान भी लूँँ, तो किसी तरह यह नहीं मान सकता कि सभी वकील फूलों की सेज पर सोते हैं। अपना-अपना भाग्य सभी जगह है। कितने ही वकील हैं, जो झूठी गवाहियाँ देकर पेट पालते हैं। इस देश में समाचार-पत्रों का प्रचार अभी बहुत कम है, इसी कारण पत्र-संचालकों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं। योरप और अमेरिका में पत्र चलाकर लोग करोड़पति हो गए हैं। इस समय संसार के सभी समुन्नत देशों के सूत्रधार या तो समाचारपत्रों के संपादक और लेखक है, या पत्रो के स्वामी। ऐसे कितने ही अरब- पति है, जिन्होंने अपनी संपत्ति को नींव पत्रों पर हो खड़ी की थी......।

ईश्वरचंद्र सिद्ध करना चाहते थे कि धन, ख्याति और सम्मान प्राप्त करने का, पत्र-संचालन से उत्तम, और कोई साधन नहीं है, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसी जीवन में सत्य और न्याय की रक्षा करने के सच्च अवसर मिलते हैं। परंतु मानकी पर इस वक्तृता का ज़रा भी असर न हुआ। स्थूल दृष्टि को दूर की चीजे़ साफ नहीं दीखती। मानकी के सामने सफल संपादक का कोई उदाहरण न था।

( ३ )

१६ वर्ष गुज़र गए। ईश्वरचंद्र ने संपादकीय जगत् में ख़ूब नाम पैदा किया, जातीय आंदोलनों में अग्रसर हुए, पुस्तकें लिखीं, एक दैनिक पत्र निकाला, अधिकारियों के भी सम्मान- पात्र हुए। बड़ा लड़का बी॰ ए॰ में जा पहुँँचा, छोटे लड़के नीचे के दरजों में थे। एक लड़की का विवाह भी एक धन- संपन्न कुल में किया। विदित यही होता था कि उनका जीवन बड़ा ही सुखमय है। मगर उनकी आर्थिक दशा अब भी संतोष- जनक न थी। खर्च आमदनी से बढ़ा हुआ था। घर की कई हज़ार की जायदाद हाथ से निकल गई, इस पर भी बैंक का कुछ-न-कुछ देना सिर पर सवार रहता था। बाज़ार में भी उनकी साख न थी। कभी-कभी तो यहाँ तक नौबत आ जाती कि उन्हें बाज़ार का रास्ता छोड़ना पड़ता। अब वह अक्सर अपनी युवा- वस्था को अदूरदर्शिता पर अफसोस करते थे। जातीय सेवा का भाव अब भी उनके हृदय में तरंगे मारता था; लेकिन काम तो वह करते थे, और यश वकीलो और सेठो के हिस्सों में आ जाता था। उनकी गिनती अभी तक छुटभैयों में थी। यद्यपिसारा नगर जानता था कि यहाँ के सार्वजनिक जीवन के प्राण वही हैं, पर उनका यथार्थ सम्मान न होता था। इन्हीं कारणों से ईश्वरचंद्र को अब संपादन-कार्य से अरुचि होती थी। दिनादिन उनका उत्साह क्षीण होता जाता था, लेकिन इस जाल से निकलने का कोई उपाय न सूझता था। उनकी रचना में अब सजीवतान न थी, न लेखनी में शक्ति। उनके पत्र और पत्रिका दोनो ही से उदासीनता का भाव झलकता था। उन्होंने सारा भार सहायको पर छोड़ दिया था, ख़ूद बहुत कम काम करते थे। हाँ, दोनो पत्रो की जड़ जम चुकी थी, इसलिये ग्राहक-संख्या कम न होने पाती थी। वे अपने नाम पर चलते थे। लेकिन इस संघर्ष और संग्राम के काल में उदासीनता का निबाह कहाँ! “गोरव” क कई प्रतियोगी खड़े हो गए, जिनके नवीन उत्साह ने “गौरव” से बाज़ी मार ली। उसका बाजार ठंढा होने लगा। नए प्रतियोगियों का जनता ने बड़े हर्ष से स्वागत किया। उनकी उन्नति होने लगी। यद्यपि उनके सिद्धात भी वही, लेखक भी वही, विषय भी वही थे, लेकिन आगंतुको ने उन्ही पुरानी बातों में नई जान डाल दी। उनका उत्साह देख ईश्वरचंद्र को भी जोश आया कि एक बार फिर अपनी रुकी हुई गाड़ी में ज़ोर लगाऊँ; लेकिन न अपने में सामर्थ्य थी, न कोई हाथ बँटाने- वाला नजर आता था। इधर-उधर निराश नेत्रों से देखकर हतात्साह हो जाते थे। हाँ! मैने अपना सारा जोवन सार्व- जनिक कार्यो में व्यतीत किया, खत बाया, सीचा, दिन को दिन और रात को रात न समझा, धूप में जला, पानी में भींगा, और इतने परिश्रम के बाद जब फसल काटने के दिन आए, तो मुझमे हँसिया पकड़ने का भी बूता नहीं। दूसरे लोग, जिनका उस समय कही पता न था, नाज काट-काटकर खलिहान भरे लेते हैं, और मैं खड़ा मुँह ताकता हूँ। उन्हें पूरा विश्वास था कि अगर कोई उत्साहशील युवक मेरा शरीक हो जाता, तो “गौरव” अब भी अपने प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर सकता। सभ्य-समाज में उनकी धाक जमी हुई थी, परिस्थिति उनके अनुकूल थी। ज़रूरत केवल ताज़े खून की थी। उन्हें अपने बड़े लड़के से ज्यादा उपयुक्त इस काम के लिये और कोई न दीखता था। उसकी रुचि भी इस काम की ओर थी, पर मानकी के भय से वह इस विचार को जबान पर न ला सके थे। इसी चिंता में दो साल गुज़र गए, और यहाँ तक नौबत पहुँची कि या तो “गौरव” का टाट उलट दिया जाय, या उसे फिर सँभाला जाय। ईश्वर- चंद्र ने इसके पुनरुद्धार के लिये अंतिम उद्योग करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इसके सिवा और कोई उपाय न था। यह पत्रिका उनके जीवन का सर्वस्व थी। उसे बंद करने की वह कल्पना भी न कर सकते थे। यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा न था, पर प्राण-रक्षा की स्वाभाविक इच्छा ने उन्हें अपना सब कुछ अपनी पत्रिका पर न्योछावर करने का उद्यत कर दिया। फिर दिन-के-दिन लिखने पढ़ने में रत रहने लगे। एक क्षण के लिये भी सिर न उठाते। “गौरव” के लेखो में फिर सजीवता का उद्भव हुआ, विद्वज्जनो में फिर उसकी चर्चा होने लगी, सहयोगियो ने फिर उसके लेखो को उद्धृत करना शुरू किया, पत्रिकाओं में फिर उसको प्रशंसा-सूचक आलोचनाएँ निकलने लगी। पुराने उस्ताद को ललकार फिर अखाड़े में गूँजने लगी।

लेकिन पत्रिका के पुनः संस्कार के साथ उनका शरीर और भी जर्जर होने लगा। हृद्-रोग के लक्षण दिखाई देने लगे। रक्त न्यूनता से मुख पर पीलापन छा गया। ऐसी दशा में वह सुबह से शाम तक अपने काम में तल्लीन रहते। देश में धन और श्रम का संग्राम छिड़ा हुआ था। ईश्वरचंद्र की सदय प्रकृति ने उन्हें श्रम का सपक्षी बना दिया था। धन-वादियों का खंडन और प्रतिवाद करते हुए उनके ख़ूब में गरमी आ जाती थी, शब्दों से चिनगारियाँ निकलने लगती थीं, यद्यपि ये चिन- गारियाँ केंद्रस्थ गरमी अंत का किए देती थीं।

एक दिन रात के दस बज गए थे। सरदी ख़ूब पड़ रही थी। मानकी दबे-पैर उनके कमरे में आई। दीपक की ज्योति में उनके मुख का पीलापन और भी स्पष्ट हो गया था। वह हाथ में कलम लिए किसी विचार में मग्न थे। मानकी के आने की उन्हें ज़रा भी आहट न मिली। मानकी एक क्षण तक उन्हें वेदनायुक्त नेत्रों से ताकती रही। तब बोली―“अब तो यह पोथा बंद करो। आधी रात होने को आई। खाना पानी हुआ जाता है।”

ईश्वरचंद्र ने चौककर सिर उठाया, और बोले―‘क्यो क्या आधी रात हो गई? नहीं, अभी मुश्किल से दस बजे होंगे। मुझे अभी ज़रा भी भूख नहीं है।”

मानकी―कुछ थोड़ा-सा खा लेना।

ईश्वर॰―एक ग्रास भी नहीं। मुझे इसी समय अपना लेख समाप्त करना है।

मानकी―मैं देखती हूँ, तुम्हारी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती है, दवा क्यों नहीं करते? जान खपाकर थोड़े ही काम किया जाता है।

ईश्वर॰―अपनी जान को देखूँँ या इस घोर सग्राम को देखूँ, जिसने समस्त देश में हलचल मचा रक्खी है। हज़ारों-लाखों जानों की हिमायत में एक जान न भी रहे, तो क्या चिंता? मानकी―कोई सुयोग्य सहायक क्यों नहीं रख लेते?

ईश्वरचद्र ने ठंढी साँस लेकर कहा―“बहुत खोजता हूँ, पर कोई नहीं मिलता। एक विचार कई दिनो से मेरे मन में उठ रहा है, अगर तुम धैर्य से सुनना चाहो, तो कहूँ।”

मानकी―कहो, मानने लायक होगा, तो मानूँँगी क्यों नहीं!

ईश्वरचंद्र―मैं चाहता हूँ कि कृष्णचंद्र को अपने काम में शरीक कर लूँँ। अब तो वह एम्॰ ए॰ भी हो गया। इस पेशे से उसे रुचि भी है। मालूम होता है, ईश्वर ने उसे इसी काम के लिये बनाया है।

मानकी ने अवहेलना-भाव से कहा―“क्या अपने साथ उसे भी ले डूबने का इरादा है? कोई घर की सेवा करनेवाला भी चाहिए कि सब देश को ही सेवा करेगे।”

ईश्वर॰―कृष्णचंद्र यहाँ बुरा न रहेगा।

मानकी―क्षमा कीजिए। बाज़ आई। वह कोई दूसरा काम करेगा, जहाँ चार पैसे मिले। यह घर-फूँँक काम आप ही को मुबारक रहे।

ईश्वर॰―वकालत में भेजोगी, पर देख लेना, पछताना पड़ेगा। कृष्णचंद्र उस पेशे के लिये सर्वथा अयोग्य है।

मानकी―वह चाहे मजूरी करे, पर इस काम में न डालूँँगी।

ईश्वर॰―तुमने मुझे देखकर समझ लिया कि इस काम में घाटा-ही-घाटा है। पर इसी देश में ऐसे भाग्यवान् लोग मौजूद है, जो पत्रो की बदौलत धन और कीर्ति से मालामाल हो रहे हैं।

मानकी―इम काम में तो अगर कंचन भी वरसे, तो मैं कृष्ण को न आने दूँ। सारा जीवन वैराग्य मे कट गया। अब कुछ दिन भोग भी करना चाहती हूँ।

यह जाति का सच्चा सेवक अंत को जातीय कष्टों के साथ रोग के कष्टों को न सह सका। इस वार्तालाप के बाद मुश्किल से ९ महीने गुज़रे थे कि ईश्वरचंद्र ने संसार से प्रस्थान किया। उनका सारा जीवन सत्य के पोषण, न्याय की रक्षा और अन्याय के विरोध में कटा था। अपने सिद्धांतों के पालन में उन्हें कितनी ही बार अधिकारियों की तीव्र दृष्टि का भोजन बनना पड़ा था, कितनी ही बार जनता का अविश्वास, यहाँ तक कि मित्रों की अवहेलना भी सहनी पड़ी थी, पर उन्होंने अपनी आत्मा का कभी खून नहीं किया। आत्मा के गौरव के सामने धन को कुछ न समझा।

इस शोक-समाचार के फैलते ही सारे शहर में कुहराम मच गया। बाज़ार बंद हो गए, शोक के जलसे होने लगे, पत्रों ने प्रतिद्वंद्विता का भाव त्याग दिया, चारो ओर से एक ध्वनि आती थी कि देश से एक स्वतंत्र, सत्यवादी और विचार- शील संपादक तथा एक निर्भीक, त्यागी देशभक्त उठ गया, और उसका स्थान चिरकाल तक ख़ालो रहेगा। ईश्वरचंद्र इतने बहुजन-प्रिय है, इसका उनके घरवालो को ध्यान भी न था। उनका शव निकला, तो सारा शहर अर्थी के साथ था। उनके स्मारक बनने लगे। कहीं छात्रवृत्तियाँ दी गई, कहीं उनकें चित्र बनवाए गए, पर सबसे अधिक महत्त्वशाली वह मूर्ति थी, जो श्रमजीवियों की ओर से उनकी स्मृति में प्रतिष्ठित हुई थी।

मानकी को अपने पतिदेव का लोकसम्मान देखकर सुखमय कुतूहल होता था। उसे अब खेद होता था कि मैंने उनके दिव्य गुणों को न पहचाना, उनके पवित्र भावों और उच्च विचारों की कदर न की। सारा नगर उनके लिये शोक मना रहा है। उनकी लेखनी ने अवश्य इनके ऐसे उपकार किए हैं, जिन्हें ये भूल नहीं सकते; और, मैं अंत तक उनके मार्ग का कंटक बनी रही, सदैव तृष्णा के वश उनका दिल दुखाती रही। उन्होंने मुझे साने में मढ़ दिया होता, एक भव्य भवन बनवाया होता, या कोई जायदाद पैदा कर ली होती, तो मैं ख़ुश होती, अपना धन्य भाग्य समझती। लेकिन तब देश में कौन उनके लिये आँसू बहाता, कौन उनका यश गाता। यहीं एक-से-एक धनिक पुरुष पड़े हुए हैं। वे दुनिया से चले जाते है, और किसी को खबर भी नहीं होती। सुनती हूँ, पतिदेव के नाम से छात्रों को वृत्तियाँ दी जायँगी। जो लड़के वृत्ति पाकर विद्या- लाभ करेगे, वे मरते दम तक उनकी आत्मा को आशी- र्वाद देंगे। शोक! मैंने उनके आत्मस्यांग का मर्म न जाना। स्वार्थ ने मेरी आँखों पर पर्दा डाल दिया था। मानकी के हृदय में ज्यों-ज्यों ये भावनाएँ जाग्रत होती जाती थीं, उसकी पति के प्रति श्रद्धा बढ़ती जाती थी। वह गौरवशीला स्त्री थी। इस कीर्तिगान और जनसम्मान से उसका मस्तक ऊँचा हो जाता था। इसके उपरांत अब उसकी आर्थिक दशा पहले की-सी चिंताजनक न थी। कृष्णचंद्र के असाधारण अध्यवसाय और बुद्धि-बल ने उनकी वकालत को चमका दी थी। वह जातीय कामों में अवश्य भाग लेते थे, पत्रों में यथाशक्ति लेख भी लिखते थे, इस काम से उन्हें विशेष प्रेम था। लेकिन मानको उन्हें हमेशा इन कामो से दूर रखने की चेष्टा करती रहती थी। कृष्णचंद्र अपने अपर जब्ऱ करते थे। माँ का दिल दुखाना उन्हें मज़ूर न था।

ईश्वरचंद्र की पहली बरसी थी। शाम को ब्रह्मभोज हुआ। आधी रात तक ग़रीबों को खाना दिया गया। प्रातःकाल मानकी अपनी सेजगाड़ी पर बैठकर गंगा नहाने गई। यह उसकी चिर- संचित अभिलाषा थी, जो अब पुत्र की मातृभक्ति ने पूरी कर दी थी। यह उधर से लौट रही थी कि उसके कानो से बेंड की आवाज़ आई, और एक क्षण के बाद एक जलूस सामने आता हुआ दिखाई दिया। पहले कोतल घोड़ों की माला थी, उसके बाद अश्वारोही स्वयं सेवको की सेना। उसके पीछे सैकड़ों सवारी गाड़ियाँ थी। सबके पीछे एक सजे हुए रथ पर किसी देवता की मूर्ति थी। कितने ही आदमी इस विमान को खींच रहे थे। मानकी सोचने लगी―‘यह किस देवता का विमान है? न तो रामलीला के ही दिन है, न रथयात्रा के। सहसा उसका दिल ज़ोर से उछल पड़ा। यह ईश्वरचंद्र की मूर्ति थी, जो श्रमजीवियों की ओर से बनवाई गई थी, और लोग उसे बड़े मैदान में स्थापित करने को लिए जाते थे। वही स्वरूप था, वही वस्त्र, वही मुखाकृति, मूर्तिकार ने विलक्षण कौशल दिखाया था! मानकी का हृदय वाँसों उछलने लगा। उस्कंठा हुई कि परदे से निकलकर इस जलूस के सम्मुख पति के चरणो पर गिर पड़ूँ। पत्थर की मूर्ति मानव-शरीर से अधिक श्रद्धास्पद होती है। किंतु कौन मुँह लेकर मूर्ति के सामने जाऊँ? उसकी आत्मा ने कभी उसका इतना तिरस्कार न किया था। मेरी धन-लिप्सा उनके पैरो की बेड़ी न बनती, तो वह न-जाने किस सम्मान- पद पर पहुँचते! मेरे कारण उन्हें कितना क्षोभ हुआ!! घर- वालों की सहानुभूति बाहरवालों के सम्मान से कही उत्साह- जनक होती है। मैं इन्हें क्या कुछ न बना सकती थी, पर कभी उभरने न दिया। स्वामीजी, मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारी अप- राधिनी हूँ, मैंने तुम्हारे पवित्र भावो की हत्या की है, मैंने तुम्हारी आत्मा को दुखी किया है। मैने बाज को पिजड़े में बंद करके रक्खा था। शोक!

सारे दिन मानकी को यही पश्चात्ताप होता रहा। शाम को उससे न रहा गया। वह अपनी कहारिन को लेकर पैदल उस देवता के दर्शन को चली, जिसकी आत्मा को उसने दुःख पहुँचाया था। संध्या का समय था। आकाश पर लालिमा छाई हुई थी। अस्ताचल की ओर कुछ बादल भी हो आए थे। सूर्यदेव कभी मेघ-पट में छिप जाते थे, कभी बाहर निकल आते थे। इस धूप- छाँह में ईश्वरचंद्र की मूर्ति दूर से कभी प्रभात की भाँति प्रसन्न मुख और कभी संध्या की भाँति मलिन देख पड़ती थी। मानकी उसके निकट गई, पर उसके मुख की ओर न देख सकी। उन आँखों में करुण वेदना थी। मानकी को ऐसा मालूम हुआ, मानो वह मेरी ओर तिरस्कार-पूर्ण भाव से देख रही है। उसकी आँखों से ग्लानि और लज्जा के आँसू बहने लगे। वह मूर्ति के चरणों पर गिर पड़ी, और मुँँह ढाँपकर रोने लगी। मन के भाव द्रवित हो गए।

वह घर आई, ता नौ बज गए थे। कृष्णचंद्र उसे देखकर बोले―अम्मा, आज आप इस वक्त कहाँ गई थी?

मानकी ने हर्ष से कहा―गई थी तुम्हारे बाबूजी की प्रतिमा के दर्शन करने। ऐसा मालूम होता है, वह साक्षात खड़े हैं।

कृष्ण॰―जयपुर से बनकर आई है।

मानकी―पहले तो लोग उनका इतना आदर न करते थे।

कृष्ण॰―उनका सारा जीवन सत्य और न्याय की वका- लत में गुजरा है। ऐसे ही महात्माओं की पूजा होती है।

मानकी―लेकिन उन्होंने वकालत कब की?

कृष्ण॰―हाँ, यह वकालत नहीं की, जो मैं और मेरे हज़ारों भाई कर रहे हैं, जिससे न्याय और धर्म का ख़ून हो रहा है। उनकी वकालत उच्च कोटि की थी।

मानकी―अगर ऐसा है, तो तुम भी वही वकालत क्यों नहीं करते?

कृष्ण॰―बहुत कठिन है। दुनिया का जँजाल अपने सिर लीजिए, दूसरो के लिये रोइए, दोनों को रक्षा के लिये लट्ठ लिए फिरिए, अधिकारियों के मुँह आइए, इनका क्रोध और कोप सहिए, और इस कष्ट, अपमान और यंत्रणा का पुरस्कार क्या है? अपनो अभिलाषाओं की हत्या।

मानकी―लेकिन यश तो होता है।

कृष्ण॰―हाँ, यश होता है। लोग आशीर्वाद देते हैं।

मानकी―जब इतना यश मिलता है, तो तुम भी वही काम करो। हम लोग उस पवित्र आत्मा को और कुछ सेवा नहीं कर सकते, तो उसी वाटिका को सींचते जायँ, जो उन्होंने अपने जीवन में इतने उत्सर्ग और भक्ति से लगाई। इससे उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

कृष्णचंद्र ने माता को श्रद्धामय नेत्रों से देखकर कहा― करूँ तो, मगर संभव है, तब यह टीम-टाम न निभ सके। शायद फिर वही पहले की-सी दशा हो जाय।

मानकी―कोई हरज नहीं। संसार में यश तो होगा। आज तो अगर धन की देवी भी मेरे सामने आये, तो मैं आँखें न नीची करूँ।

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