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प्रेम पंचमी/२ आभूषण

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प्रेम-पंचमी
प्रेमचंद, संपादक दुलारेलाल भार्गव

लखनऊ: गंगा पुस्तकमाला कार्यालय, पृष्ठ २० से – ५२ तक

 

आभूषण
( १ )

आभूषणों की निंदा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम असहयोग का उत्पीड़न सह सकते हैं; पर ललनाओं के निर्दय, घातक वाक्य-बाणो को नहीं सह सकते। तो भी इतना अवश्य कहेंगे कि इस तृष्णा की पूति के लिये जितना त्याग किया जाता है, उसका सदुपयोग करने से महान् पद प्राप्त हो सकता है।

यद्यपि हमने किसी रूप-हीना महिला की आभूषणों की सजा- वट से रूपवती होते नहीं देखा, तथापि हम यह भी मान लेते हैं कि रूप के लिये आभूषणों की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी घर के लिये दीपक की। किंतु शारीरिक शोभा के लिये हम मन को कितना मलिन, चित्त को कितना अशांत और आत्मा को कितना कलुषित बना लेते हैं, इसका हमे कदाचित् ज्ञान ही नहीं होता। इस दीपक को ज्योति मे आँखें धुँँधली हो जाती है। यह चमक- दमक कितनी ईर्षा, कितने द्वेष, कितनी प्रतिस्पर्धा, कितनी दुश्चिता और कितनी दुराशा का कारण है; इसकी केवल कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्हे भूषण नहीं, दूषण कहना अधिक उपयुक्त है। नहीं तो यह कब हो सकता था कि कोई नववधू, पति के घर आने के तीसरे ही दिन, अपने पति से कहती कि “मेरे पिता ने तुम्हारे पल्ले बाँधकर मुझे तो कुएँ में ढकेल दिया!” शीतला आज अपने गाँव के ताल्लुकेदार कुँअर सुरेशसिंह की नवविवाहिता वधू को देखने गई थी। उसके सामने ही वह मंत्र-मुग्ध-सी हो गई। बहू के रूप-लावण्य पर नहीं, उसके आभूषणो की जगमगाहट पर उसकी टकटकी लगी रही। और, वह जब से घर लौटकर आई, उसकी छाती पर साँप लोटता रहा। अंत को ज्यो ही उसका पति घर आया, वह उस पर बरस पड़ी, और दिल में भरा हुआ ग़ुबार पूर्वोक्त शब्दों में निकल पड़ा। शीतला के पति का नाम विमलसिह था। उसके पुरखे किसी जमाने में इलाक़ेदार थे। इस गाँव पर भी उन्हीं का सोलहो आने अधिकार था। लेकिन अब इस घर की दशा हीन हो गई है। सुरेशसिह के पिता ज़मीदारी के काम में दक्ष थे। विमलसिह का सब इलाक़ा किसी-न-किसी प्रकार से उनके हाथ आ गया। विमल के पास सवारी का टट्टू भी न था। उसे दिन में दो बार भोजन भी मुशकिल से मिलता था। उधर सुरेश के पास हाथी, मोटर और कई घोड़े थे; दस-पाँच बाहर के आदमी नित्य द्वार पर पड़े रहते थे। पर इतनी विष- मता होने पर भी दोनो में भाई-चारा निभाया जाता था, शादी- व्याह में, मूँँडन-छेदन में परस्पर आना-जाना होता रहता था। सुरेश विद्या-प्रेमी थे, हिदुस्थान में ऊँची शिक्षा समाप्त करके वह योरप चले गए, और सब लोगो की शंकाओ के विपरीत वहाँ से आर्य-सभ्यता के परम भक्त बनकर लौटे थे। वहाँ के जड़वाद, कृत्रिम भोगलिप्सा और अमानुपिक मदांधता के उनकी आँखें खोल दी थीं। पहले वह घरवालों के बहुत ज़ोर देने पर भी विवाह करने को राज़ी नहीं हुए। लड़की से पूर्व परिचय हुए बिना प्रणय नहीं कर सकते थे। पर योरप से लौटने पर उनके वैवाहिक विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। उन्होंने उसी पहले की कन्या से, बिना उसके आचार- विचार जाने हुए, विवाह कर लिया। अब वह विवाह को प्रेम का बंधन नहीं, धर्म का बंधन समझते थे। उसी सौभाग्यवती बधू को देखने के लिये आज शीतला, अपनी सास के साथ, सुरेश के घर गई थी। उसी के आभूषणों की छटा देखकर वह मर्माहत-सी हो गई है। विमल ने व्यथित होकर कहा― तो माता-पिता से कहा होता, सुरेश से ब्याह कर देते। वह तुम्हे गहनों से लाद सकते थे।

शीतला―तो गाली क्यों देते हो?

विमल―गाली नहीं देता, बात कहता हूँ। तुम-जैसी सुंदरी को उन्होंने नाहक मेरे साथ व्याहा।

शीतला―लजाते तो हो नहीं, उलटे और ताने देते हो!

विमल―भाग्य मेरे वश में नहीं है। इतना पढ़ा भी नहीं हूँ कि कोई बड़ी नौकरी करके रुपए कमाऊँ।

शीतला―यह क्यों नहीं कहते कि प्रेम ही नहीं है। प्रेम हो, तो कंचन बरसने लगे।

विमल―तुम्हें गहनों से बहुत प्रेम है?

शीतला―सभी को होता है। मुझे भी है। विमल―अपने को अभागिनी समझती हो?

शीतला―हूँ ही, समझना कैसा? नहीं तो क्या दूसरे को देखकर तरसना पड़ता?

विमल―गहने बनवा दूँँ, तो अपने को भाग्यवती समझने लगोगी?

शीतला―( चिढ़कर ) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो, जैसे सुनार दरवाज़े पर बैठा है।

विमल―नहीं, सच कहता हूँ, बनवा दूँँगा। हाँ, कुछ दिन सबर करना पड़ेगा।

( २ )

समर्थ पुरुषों को बात लग जाती है, तो वे प्राण ले लेते हैं। सामर्थ्य-हीन पुरुष अपनी ही जान पर खेल जाता है। विमल- सिह ने घर से निकल जाने की ठानी। निश्चय किया, या तो इसे गहनो से ही लाद दूँँगा या वैधव्य-शोक से; या तो आभू- षण ही पहनेगी या सेंदुर को भी तरसेगी।

दिन-भर वह चिंता में डूबा पड़ा रहा। शीतला को उसने प्रेम से संतुष्ट करना चाहा था। आज अनुभव हुआ कि नारी का हृदय प्रेम-पाश से नहीं बँधता, कंचन के पाश ही से बँध सकता है। पहर रात जाते-जाते वह घर से चल खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा। ज्ञान से जागे हुए विराग में चाहे मोह का संस्कार हो, पर नैराश्य से जागा हुआ विराग अचल होता है। प्रकाश में इधर-उधर की वस्तुओं को देखकर मन विचलित हो सकता है। पर अंधकार में किसका साहस है, जो लीक से जौ-भर भी हट सके।

विमल के पास विद्या न थी, कला-कौशल भी न था; उसे केवल अपने कठिन परिश्रम और कठिन आत्मत्याग ही का आधार था। वह पहले कलकत्ते गया। वहाँ कुछ दिन तक एक सेठ की दरबानी करता रहा। वहाँ जो सुन पाया कि रंगून में मजदूरी अच्छी मिलती है, तो रंगून जा पहुँचा, और बंदर पर माल चढ़ाने-उतारने का काम करने लगा।

कुछ तो कठिन श्रम, कुछ खाने-पीने के असंयम और कुछ जल-वायु की ख़राबी के कारण वह बीमार हो गया। शरीर दुर्बल हो गया, मुख की कांति जाती रही; फिर भी उससे ज्यादा मेह- नती मज़दूर बंदर पर दूसरा न था। और मज़दूर मज़दूर थे, पर यह मज़दूर तपस्वी था। मन में जो कुछ ठान लिया था, उसे पूरा करना ही उसके जीवन का एक-मात्र उद्देश्य था।

उसने घर को अपना कोई समाचार न भेजा। अपने मन से तर्क किया, घर में कौन मेरा हितू है? गहनो के सामने मुझे कौन पूछता है? उसकी बुद्धि यह रहस्य समझने में असमर्थ थी कि आभूषणों की लालसा रहने पर भी प्रणय का पालन किया जा सकता है! और मज़दूर प्रातःकाल सेरो मिठाई खाकर जल-पान करते; दिन-भर―दम-दस-भर पर―गाँजे, चरस और तमाखू के दम लगाते; अवकाश पाते, तो बाज़ार की सैर करते। कितनों ही को शराब का भी शौक था। पैसों के बदले रुपए कमाते, तो पैसों की जगह रुपए खर्च भी कर डालते थे। किसी की देह पर साबित कपड़े तक न थे। पर विमल उन गिनती के दो-चार मज़दूरों में से था, जो संयम से रहते थे, जिनके जीवन का उद्देश्य खा-पीकर मर जाने के सिवा कुछ और भी था। थोड़े ही दिनों में उसके पास थोड़ी-सी संपत्ति हो गई। धन के साथ और मजदूरों पर दबाव भी बढ़ने लगा। यह प्रायः सभी जानते थे कि विमल जाति का कुलीन ठाकुर है। सब ठाकुर ही कहकर उसे पुकारते। संयम और आचार सम्मान-सिद्धि के मंत्र हैं। विमल मज़दूरों का नेता और महाजन हो गया।

विमल को रंगून में काम करते तीन वर्ष हो चुके थे। संध्या हो गई थी। वह कई मज़दूरों के साथ समुद्र के किनारे बैठे बाते कर रहा था।

एक मज़दूर ने कहा―यहाँ की सभी स्त्रियाँ निठु होती हैं। बेचारा झींगुर १० बरस से उस बर्मी स्त्री के साथ रहता था। कोई अपनी व्याही जोरू से भी इतना प्रेम न करता होगा। उस पर इतना विश्वास करता था कि जो कुछ कमाता, उसके हाथ में रख देता। तीन लड़के थे। अभी कल तक दोनो साथ- साथ खाकर लेटे थे। न कोई लड़ाई, न झगड़ा; न बात न चीत; रात को औरत न-जाने कब उठी, और न जाने कहाँ चली गई। लड़कों को छोड़ गई। बेचारा झींगुर बैठा रो रहा है। सबसे बड़ी मुशकिल तो छोटे बच्चे की है। अभी कुल छः महीने का है। कैसे जिएगा, भगवान् ही जाने। विमलसिह ने गंभीर भाव से कहा―गहने बनवाना था कि नहीं?

मज़दूर―रुपए-पैसे तो औरत ही के हाथ में थे। गहने बनवाती, तो उसका हाथ कौन पकड़ता?

दूसरे मज़दूर ने कहा―गहनों से तो लदी हुई थी। जिधर से निकल जाती थी, छम-छम की आवाज़ से कान भर जाते थे।

विमल―जब गहने बनवाने पर भी निठुराई की, तो यही कहना पड़ेगा कि यह जाति ही बेवफा होती है।

इतने में एक आदमी आकर विमलसिह से बोला―चौधरी, अभी मुझे एक सिपाही मिला था। वह तुम्हारा नाम, गाँँव और बाप का नाम पूछ रहा था। कोई बाबू सुरेशसिह हैं?

विमल ने सशंक होकर कहा―हाँ, हैं। मेरे गाँव के इलाक़े- दार और बिरादरी के भाई हैं।

आदमी―उन्होने थाने में कोई नोटिस छपवाया है कि जो विमलसिह का पता लगावेगा, उसे १,०००) का इनाम मिलेगा।

विमल―तो तुमने सिपाही को सब ठीक-ठीक बता दिया?

आदमी―चौधरी, मैं कोई गँवार हूँ क्या? समझ गया, कुछ दाल में काला है; नही तो कोई इतने रुपए क्यो ख़र्च करता। मैंने कह दिया कि उनका नाम विमलसिह नहीं, जसोदा पाँड़े है। बाप का नाम सुक्खू बताया, और घर ज़िला झाँसी में। पूछने लगा, यहाँ कितने दिन से रहता है? मैंने कहा, कोई दस साल से। तब कुछ सोचकर चला गया। सुरेश बाबू से तुमसे कोई अदावत है क्या, चौधरी?

विमल―अदावत तो नहीं थी, मगर कौन जाने, उनकी नीयत बिगड़ गई हो। मुझ पर कोई अपराध लगाकर मेरी जगह-ज़मीन पर हाथ बढ़ाना चाहते हों। तुमने बड़ा अच्छा किया कि सिपाही को उड़नघाई बताई।

आदमी―मुझसे कहता था कि ठीक-ठीक बता दो, तो ५०) तुम्हें भी दिला दूँ। मैंने सोचा―आप तो १,०००) की गठरी मारेगा, और मुझे ५०) दिलाने को कहता है। फटकार बता दी।

एक मज़दूर―मगर जो २००) देने को कहता, तो तुम सब ठीक-ठीक नाम-ठिकाना बता देते? क्यों? धत् तेरे लालची की!

आदमी―( लज्जित होकर ) २००) नहीं, २,०००) भी देता, तो न बताता। मुझे ऐसा विश्वासघात करनेवाला मत समझो। जब जी चाहे, परख लो।

मज़दूरो में यों वाद-विवाद होता ही रहा, विमल आकर अपनी कोठरी में लेट गया। वह सोचने लगा―अब क्या करूँ? जब सुरेश-जैसे सज्जन की नीयत बदल गई, तो अब किसका भरोसा करूँ! नहीं, अब बिना घर गए काम नहीं चलेगा। कुछ दिन और न गया, तो फिर कही का न होऊँगा। दो साल और रह जाता, तो पास में पूरे ५,०००) हो जाते। शीतला की इच्छा कुछ पूरी हो जाती। अभी तो सब मिलाकर ३,०००) ही होंगे, इतने में उसकी अभिलाषा न पूरी होगी। ख़ैर, अभी चलूँ। छ. महीने में फिर लौट आऊँगा। अपनी जायदाद तो बच जायगी। नहीं, छः महीने रहने का क्या काम है? जाने-बाने में एक महीना लग जायगा। घर में १५ दिन से ज्यादा न रहूँगा। वहाँ कौन पूछता है, आऊँ या रहूँ, मरूँ या जिऊँ; वहाँ तो गहनों से प्रेम है।

इस तरह मन में निश्चय करके वह दूसरे दिन रँगून से चल पड़ा।

( ३ )

संसार कहता है, गुण के सामने रूप की कोई हस्ती नहीं। हमारे नीति-शास्त्र के आचार्यो का भी यही कथन है। पर वास्तव में यह कितना भ्रम-मूलक है! कुँअर सुरेशसिंह की नववधू मंगलाकुमारी गृह-कार्य मे निपुण, पति के इशारे पर प्राण देने- वाली, अत्यंत विचारशीला, मधुर-भाषिणी और धर्म-भीरु थी; पर सौदर्य-विहीन होने के कारण पति को आँखो से काँँटे के समान खटकती थी। सुरेशसिंह बात-बात पर उस पर झुँझलाते, पर घड़ी-भर मे पश्चात्ताप के वशीभूत होकर उससे क्षमा माँगते; किंतु दूसरे ही दिन फिर वही कुत्सित व्यापार शुरू हो जाता। विपत्ति यह थी कि उनके आचरण अन्य रईसों की भाँति भ्रष्ट न थे। वह दांपत्य जीवन ही में आनंद, सुख, शांति, विश्वास, प्रायः सभी ऐहिक और पारमार्थिक उद्देश्य पूरा करना चाहते थे, और दांपत्य सुख से वंचित होकर उन्हें अपना समस्त जीवन नीरस, स्वाद-हीन और कुंठित जान पड़ता था। फल यह हुआ कि मंगला को अपने ऊपर विश्वास न रहा। वह अपने मन से कोई काम करते हुए डरती कि स्वामी नाराज़ होंगे। स्वामी को खुश रखने के लिये अपनी भूलों को छिपाती, बहाने करती, झूठ बोलती। नौकरों को अपराध लगाकर आत्मरक्षा करना चाहती। पति को प्रसन्न रखने के लिये उसने अपने गुणों की, अपनी आत्मा की अवहेला की; पर उठने के बदले वह पति की नज़रों से गिरती ही गई। वह नित्य नए श्रृंगार करती, पर लक्ष्य से दूर होती जाती। पति की एक मधुर मुसकान के लिये, उनके अधरों के एक मीठे शब्द के लिये, उसका प्यासा हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता। लावण्य- विहीन स्त्री वह भिक्षुक नहीं है, जो चंगुल-भर आटे से संतुष्ट हो जाय। वह भी पति का संपूर्ण, अखंड प्रेम चाहती है, और कदाचित् सुंदरियो से अधिक; क्योकि वह इसके लिये असा- धारण प्रयत्न और अनुष्ठान करती है। मंगला इस प्रयत्न में निष्फल होकर और भी संतप्त होती थी।

धीरे धीरे पति पर से उसकी श्रद्धा उठने लगी। उसने तर्क किया कि ऐसे क्रूर, हृदय-शून्य, कल्पना हीन मनुष्य से मैं भी उसी का-सा व्यवहार करूँगी। जो पुरुष केवल रूप का भक्त है, वह प्रेम-भक्ति के योग्य नहीं। इस प्रत्याघात ने समस्या और भी जटिल कर दी।

मगर मगला को केवल अपनी रूप-हीनता ही का रोना न था, शीतला का अनुपम रूप-लालित्य भी उसकी कामनाओ का बाधक था, बल्कि यही उसको आशा-लताओ पर पड़नेवाला तुषार था। मंगला सुंदरी न सही, पर पति पर जान देता था। जो अपने को चाहे, उससे हम विमुख नहीं हो सकते; प्रेम की शक्ति अपार है। पर शीतला की मूर्ति सुरेश के हृदय-द्वार पर बैठी हुई मंगला को अंदर न जाने देती थी, चाहे वह कितना ही वेष बदलकर आवे। सुरेश इस मूर्ति को हटाने की चेष्टा करते थे, उसे बलात् निकाल देना चाहते थे; किंतु सौंदर्य का आधिपत्य धन के आधिपत्य से कम दुर्निवार नहीं होता। जिस दिन शीतला इस घर में मँगला का मुँह देखने आई थी, उसी दिन सुरेश की आँखो ने उसकी मनोहर छवि की एक झलक देख ली थी। वह एक झलक मानो एक क्षणिक किया थी, जिसने एक ही धावे मे समस्त हृदय-राज्य को जीत लिया― उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया।

सुरेश एकांत में बैठे हुए शीतला के चित्र को मंगला से मिलाते, यह निश्चय करने के लिये कि उनमे अंतर क्या है? एक क्यों मन को खीचती है, दूसरी क्यों उसे हटाती है? पर उनके मन का यह खिचाव केवल एक चित्रकार या कवि का रसास्वादन-मात्र था। वह पवित्र और वासनाओं से रहित था। वह मूर्ति केवल उनके मनोरंजन की सामग्री-मात्र थी। वह अपने मन को बहुत समझाते, संकल्प करते कि अब मँगला को प्रसन्न रक्खूँगा। यदि वह सुंदरी नहीं है, तो उसका क्या दोष? पर उनका यह सब प्रयास मंगला के सम्मुख जाते ही विफल हो जाता था। वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से मंगला के मन के बदलते हुए भावों को देखते; पर एक पक्षाघात-पीड़ित मनुष्य की भाँति घी के घड़े को लुढ़कते देखकर भी रोकने का कोई उपाय न कर सकते। परिणाम क्या होगा, यह सोचने का उन्हे साहस ही न होता। पर जब मंगला ने अंत को बात-बात मे उनकी तीव्र आलोचना करना शुरू कर दिया, वह उनसे उच्छृंखलता का व्यवहार करने लगी, तब उसके प्रति उनका वह उतना सौहार्द भी विलुप्त हो गया। घर में आना-जाना ही छोड़ दिया।

एक दिन संध्या के समय बड़ी गरमी थी। पँखा झलने से आग और भी दहकती थी। कोई सैर करने बग़ीचों में भी न जा सकता था। पसीने की भाँति शरीर से सारी स्फूर्ति बह गई थी। जो जहाँ था, वहीं मुर्दा-सा पड़ा था। आग से सेंके हुए मृदंग की भाँति लोगों के स्वर कर्कश हो गए थे। साधारण बातचीत में भी लोग उत्तेजित हो जाते, जैसे साधारण संघर्ष से वन के वृक्ष जल उठते हैं। सुरेशसिंह कभी चार कदम टहलते, फिर हाँफकर बैठ जाते। नौकरो पर झुँझला रहे थे कि जल्द-जल्द छिड़काव क्यों नहीं करते? सहसा उन्हे अंदर से गाने की आवाज़ सुनाई दी। चौके, फिर क्रोध आया। मधुर गान कानों को अप्रिय जान पड़ा। यह क्या बेवक्त़ की शहनाई है! यहाँ गरमी के मारे दम निकल रहा है, और इन सबको गाने की सूझी है! मंगला ने बुलाया होगा, और क्या! लोग नाहक कहते है कि स्त्रियों के जीवन का आधार प्रेम है। उनके जीवन का आधार वही भोजन, निंद्रा, राग-रंग, आमोद-प्रमोद है, जो समस्त प्राणियों का है। घंटे-भर तो सुन चुका। यह गीत कभी बंद भी होगा या नहीं; सब व्यर्थ में गला फाड़-फाड़- कर चिल्ला रही हैं।

अंत को न रहा गया। जनानखाने में आकर बोले―“यह तुम लोगों ने क्या काँव-काँव मचा रक्खी है? यह गाने-बजाने का कौन-सा समय है? बाहर बैठना मुशकिल हो गया!”

सन्नाटा छा गया, जैसे शोर-ग़ुल मचानेवाले बालकों में मास्टर पहुँच जाय! सभी ने सिर झुका लिए, और सिमट गईं।

मंगला तुरंत उठकर सामनेवाले कमरे में चली गई। पति को बुलाया, और आहिस्ते से बोली―क्यों इतना बिगड़ रहे हो?

“मैं इस वक्त़ गाना नहीं सुनना चाहता।”

“तुम्हे सुनाता ही कौन है? क्या मेरे कानों पर भी तुम्हारा अधिकार है?”

“फ़ुज़ूल की बमचख़―”

“तुमसे मतलब?”

“मैं अपने घर में यह कोलाहल न मचने दूँँगा!”

“तो मेरा घर कही और है?”

सुरेशसिंह इसका उत्तर न देकर बोले―इन सबसे कह दो, फिर किसी वक्त़ आवें। मंगला―इसलिये कि तुम्हे इनका आना अच्छा नहीं लगता?

“हाँ, इसीलिये!”

“तुम क्या सदा वही करते हो, जो मुझे अच्छा लगे? तुम्हारे यहाँ मित्र आते हैं, हँसी-ठट्ठे की आवाज़ अंदर सुनाई देती है। मैं कभी नहीं कहती कि इन लोगों का आना बंद कर दो। तुम मेरे कामो में दस्तंदाज़ी क्यो करते हो?”

सुरेश ने तेज़ होकर कहा―इसलिये कि मैं घर का स्वामी हूँ।

मंगला―तुम बाहर के स्वामी हो; यहाँ मेरा अधिकार है।

सुरेश―क्यों व्यर्थ की बक-बक करती हो? मुझे चिढ़ाने से क्या मिलेगा?

मंगला जरा देर चुपचाप खड़ी रही। वह पति के मनोगत भावों को मीमांसा कर रही थी। फिर बोली―अच्छी बात है। अब इस घर में मेरा कोई अधिकार नहीं, तो न रहूँगी। अब तक भ्रम से थी। आज तुमने वह भ्रम मिटा दिया। मेरा इस घर पर अधिकार कभी नहीं था। जिस स्त्री का पति के हृदय पर अधिकार नहीं, उसका उसकी संपत्ति पर भी कोई अधिकार नहीं हो सकता।

सुरेश ने लज्जित होकर कहा―बात का बतँगड़ क्यो बनाती हो! मेरा यह मतलब न था। कुछ-का-कुछ समझ गई।

मंगला―मन की बात आदमी के मुँँह से अनायास ही निकल जाती है। फिर सावधान होकर हम अपने भावो को छिपा लेते हैं। सुरेश को अपनी असज्जनता पर दुःख तो हुआ, पर इस भय से कि मैं इसे जितना ही मनाऊँगा, उतना ही यह और जली-कटी सुनावेगी, उसे वहीं छोड़कर बाहर चले आए।

प्रातःकाल ठंडी हवा चल रही थी। सुरेश खुमारी में पड़े हुए स्वप्न देख रहे थे कि मंगला सामने से चली जा रही है। चौक पड़े। देखा, द्वार पर सचमुच मंगला खड़ी है। घर की नौकरानियाँ आँचल से आँखें पोछ रही हैं। कई नौकर आस- पास खड़े हैं। सभी की आँखें सजल और मुख उदास हैं। मानो बहू बिदा हो रही है।

सुरेश समझ गए कि मंगला को कल की बात लग गई। पर उन्होंने उठकर कुछ पूछने की, मनाने की या समझाने को चेष्टा न की। यह मेरा अपमान कर रही है, सिर नीचा कर रही है। जहाँ चाहे, जाय। मुझसे कोई मतलब नहीं। यों बिना कुछ पूछे-पाछे चले जाने का अर्थ यह है कि मैं इसका कोई नहीं। फिर मैं इसे रोकनेवाला कौन!

वह यो ही जड़वत् पड़े रहे, और मंगला चली गई। उनकी तरफ मुँह उठाकर भी न ताका।

( ४ )

मंगला पाँव-पैदल चली जा रही थी। एक बड़े ताल्लुक़ेदार की औरत के लिये यह मामूली बात न थी। हर किसी की हिम्मत न पड़ती कि उससे कुछ कहे। पुरुष उसकी राह छोड़- कर किनारे खड़े हो जाते थे। नारियाँ द्वार पर खड़ी करुण कौतूहल से देखती थीं, और आँखों से कहती थीं―हा निर्दयी पुरुष! इतना भी न हो सका कि डोले पर तो बैठा देता।

इस गाँव से निकलकर मंगला उस गाँव मे पहुँँची, जहाँ शीतला रहती थी। शीतला सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो गई, और मंगला से बोली―बहन, ज़रा आकर दम ले लो।

मंगला ने अंदर जाकर देखा, तो मकान जगह-जगह से गिरा हुआ था। दालान में एक वृद्धा खाट पर पड़ी थी। चारो ओर दरिद्रता के चिह्न दिखाई देते थे।

शीतला ने पूछा―यह क्या हुआ?

मंगला―जो भाग्य में लिखा था।

शीतला―कुँअरजी ने कुछ कहा-सुना क्या?

मंगला―मुँँह से कुछ न कहने पर भी तो मन की बात छिपी नहीं रहती।

शीतला―अरे, तो क्या अब यहाँ तक नौबत आ गई!

दुःख की अंंतिम दशा संकोच-हीन होती है। मंगला ने कहा― चाहती, तो अब भी पड़ी रहती। उसी घर में जीवन कट जाता। पर जहाँ प्रेम नहीं, पूछ नहीं, मान नहीं, वहाँ अब नहीं रह सकती।

शीतला―तुम्हारा मायका कहाँ है?

मंगला―मायके कौन मुँँह लेकर जाऊँगी?

शीतला―तब कहाँ जाओगी?

मंगला―ईश्वर के दरबार में। पूछूँँगी, तुमने मुझे सुंदरता क्यों नहीं दी? बदसूरत क्यों बनाया? बहन, स्त्री के लिये इससे अधिक दुर्भाग्य की बात नहीं कि वह रूप-हीन हो। शायद पुरबले जनम की पिशाचिनियाँ ही बदसूरत औरतें होती है। रूप से प्रेम मिलता है, और प्रेम से दुर्लभ कोई वस्तु नहीं।

यह कहकर मंगला उठ खड़ी हुई। शीतला ने उसे रोका नहीं। सोचा―इसे खिलाऊँगी क्या, आज तो चूल्हा जलने की कोई आशा नहीं।

उसके जाने के बाद वह बहुत देर तक बैठी सोचती रही― मैं कैसी अभागिन हूँ। जिस प्रेम को न पाकर यह बेचारी जीवन को त्याग रही है, उसी प्रेम को मैने पाँव से ठुकरा दिया! इसे ज़वर की क्या कमी थी? क्या ये सारे जड़ाऊ जे़वर इसे सुखी रख सके? इसने उन्हें पाँव से ठुकरा दिया। उन्हीं आभूषणों के लिये मैने अपना सर्वस्व खो दिया। हा! न-जाने वह (विमलसिंह ) कहाँ है, किस दशा में है!

अपनी लालसा को, तृष्णा को, वह कितनी ही बार धिक्कार चुकी थी। शीतला की दशा देखकर आज उसे आभूषणो से घृणा हो गई।

विमल को घर छोड़े दो साल हो गए थे। शीतला को अब उनके बारे में भाँति-भाँँति की शंकाएँ होने लगी। आठो पहर उसके चित्त में ग्लानि और क्षोभ की आग सुलगती।

दिहात के छोटे-मोटे ज़मीदारों का काम डाँट-डपट, छीनझपट ही से चला करता है। विमल की खेती बेगार में होती थी। उसके जाने के बाद सारे खेत परती रह गए। कोई जोतनेवाला न मिला। इस खयाल से साझे पर भी किसी ने न जोता कि बीच में कहीं विमलसिंह आ गए, तो साझेदार को अँगूठा दिखा देंगे। असामियों ने लगान न दिया। शीतला ने महाजन से रुपए उधार लेकर काम चलाया। दूसरे वर्ष भी यही कैफियत रही। अब की महाजन ने भी रुपए न दिए। शीतला के गहनों के सिर गई। दूसरा साल समाप्त होते-होते घर की सब लेई- पूँजी निकल गई। फाके होने लगे। बुढ़ी सास, छोटा देवर, ननँद और आप चार प्राणियो का खर्च था। नात-हित भी आते ही रहते थे। उस पर यह और मुसीबत हुई कि मायके में एक फौजदारी हो गई। पिता और बड़े भाई उसमें फँस गए। दो छोटे भाई, एक बहन और माता, चार प्राणी और सिर पर आ डटे। गाड़ी पहले ही मुश्किल से चलती थी, अब ज़मीन में धँस गई।

प्रातःकाल से कलह का आरंभ हो जाता। समधिन समधिन से, साले बहनोई से गुथ जाते। कभी तो अन्न के अभाव से भोजन हो न बनता; कभी, भोजन बनने पर भी, गाली-गलौज के कारण खाने को नौबत न आती। लड़के दूसरों के खेतों में जाकर गन्ने और सटर खाते; बूढ़ियाँ दूसरों के घर जाकर अपना दुखड़ा रोती और ठकुर-सोहाती कहतीं। पुरुष की अनु- पस्थिति में स्त्री के मायकेवालो का प्राधान्य हो जाता है। इस संग्राम में प्रायः विजय-पताका मायकेवालों के ही हाथ रहती है। किसी भाँति घर में नाज आ जाता, तो उसे पीसे कौन! शीतला की माँ कहती, चार दिन के लिये आई हूँ, तो क्या चक्की चलाऊँ? सास कहती, खाने की वेर तो बिल्ली की तरह लपकेंगी, पीसते क्यों जान निकलती है? विवश होकर शीतला को अकेले पीसना पड़ता। भोजन के समय वह महाभारत मचता कि पड़ोसवाले तंग आ जाते! शीतला कभी माँ के पैरों पड़ती, कभी सास के चरण पकड़ती; लेकिन दोनो ही उसे झिड़क देतीं। माँ कहती, तूने यहाँ बुलाकर हमारा पानी उतार लिया। सास कहती, मेरी छाती पर सौत लाकर बैठा दी, अब बातें बनाती है? इस घोर विवाद में शीतला अपना विरह-शोक भूल गई। सारी अमंगल-शंकाएँ इस विरोधाग्नि में शांत हो गईं। बस, अब यही चिंता थी कि इस दशा से छुटकारा कैसे हो? माँँ और सास, दोनो हो का यमराज के सिवा और कही ठिकाना न था; पर यमराज उनका स्वागत करने के लिये बहुत उत्सुक नहीं जान पड़ते थे। सैकडों उपाय सोचती, पर उस पथिक की भाँति, जो दिन-भर चलकर भी अपने द्वार हो पर खड़ा हो, उसकी सोचने की शक्ति निश्चल हो गई थी। चारो तरफ निगाहे दौड़ाती कि कही कोई शरण का स्थान है? पर कही निगाह न जमती।

एक दिन वह इसी नैराश्य की अवस्था में द्वार पर खड़ी थी। मुसीबत में, चित्त की उद्विग्नता में, इंतज़ार में, द्वार से प्रेम-सा हो जाता है। सहसा उसने बाबू सुरेशसिंह को सामने से घोड़े पर जाते देखा। उनकी आँखे उसकी ओर फिरी। आँखें मिल गईं। वह झिझककर पीछे हट गई। किवाड़े बंद कर लिए। कुँअर साहब आगे बढ़ गए। शीतला को खेद हुआ कि उन्होंने मुझे देख लिया। मेरे सिर पर सारी फटी हुई थी, चारो तरफ उसमें पेबंद लगे हुए थे! वह अपने मन में न-जाने क्या कहते होंगे?

कुँअर साहब को गाँँववालों से विमलसिह के परिवार के कष्टों की ख़बर मिली थी। वह गुप्त रूप से उसकी कुछ सहा- यता करना चाहते थे। पर शीतला को देखते ही संकोच ने उन्हें ऐसा दबाया कि द्वार पर एक क्षण भी न रुक सके। मंगला के गृह-त्याग के तीन महीने पीछे आज वह पहली बार घर से निकले थे। मारे शर्म के बाहर बैठना छोड़ दिया था।

इसमे संदेह नहीं कि कुँँअर साहब मन में शीतला के रूप-रस का आस्वादन करते थे। मंगला के जाने के बाद उनके हृदय में एक विचित्र दुष्कामना जग उठी। क्या किसी उपाय से यह सुंदरी मेरी नहीं हो सकती? विमल का मुद्दत से पता नहीं। बहुत संभव है, वह अब संसार में न हो। किंतु वह इस दुष्कल्पना का विचार से दबाते रहते थे। शीतला की विपत्ति की कथा सुनकर भी वह उसकी सहायता करते डरते थे। कौन जाने, वासना यही वेष रखकर मेरे विचार और विवेक पर कुठारा- घात न करना चाहती हो। अंत को लालसा की कपट-लीला उन्हें भुलावा दे ही गई। वह शीतला के घर उसका हाल-चाल पूछने गए। मन मे तर्क किया―यह कितना घोर अन्याय है कि एक अबला ऐसे संकट से हो, और मैं उसकी बात भी न पूछूँँ? पर वहाँ से लौटे, तो बुद्धि और विवेक की रस्सियाँ टूट गई थीं, नौका मोह और वासना के अपार सागर में डुब- कियाँ खा रही थी। आह! यह मनोहर छवि! यह अनु- पम सौदर्य!

एक क्षण में उन्मत्तों की भाँँति बकने लगे―यह प्राण और यह शरीर तेरी भेट करता हूँ। संसार हँसेगा, हँसे। महापाप है, ही। कोई चिंता नहीं। इस स्वर्गीय आनंद से मैं अपने को वंचित नहीं रख सकता? वह मुझसे भाग नहीं सकती। इस हृदय को छाती से निकालकर उसके पैरों पर रख दूँँगा। विमल? मर गया। नहीं मरा, तो अब मरेगा। पाप क्या है? कोई बात नही। कमल कितना कोमल, कितना प्रफुल्ल, कितना ललित है! क्या उसके अधरो―

अकस्मात् वह ठिठक गए, जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाय। मनुष्य में बुद्धि के अंतर्गत एक अज्ञात बुद्धि होती है। जैसे रण-क्षेत्र में हिम्मत हारकर भागनेवाले सैनिको को किसी गुप्त स्थान से आनेवाली कुमक सँभाल लेती है, वैसे ही इस अज्ञात बुद्धि ने सुरेश को सचेत कर दिया। वह सँभल गए। ग्लानि से उनकी आँखें भर आईं। वह कई मिनट तक किसी दंडित क़ैदी की भाँति क्षुब्ध खड़े सोचते रहे। फिर विजय-ध्वनि से कह उठे―कितना सरल है। इस विकार के हाथी को सिंह से नहीं, चिउँटी से मारूँगा। शीतला को एक बार ‘बहन’ कह देने से ही यह सब विकार शांत हो जायगा। शीतला! बहन! मैं तेरा भाई हूँ!

उसी क्षण उन्होंने शीतला को पत्र लिखा―बहन, तुमने इतने कष्ट झेले; पर मुझे खबर तक न दी! मैं कोई ग़ैर न था। मुझे इसका दुःख है। खैर, अब ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हें कष्ट न होगा।

इस पत्र के साथ उन्होंने नाज और रुपए भेजे।

शीतला ने उत्तर दिया―मैया, क्षमा करो। जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी। तुमने मेरी डूबती नाव पार लगा दी।

( ५ )

कई महीने बीत गए। संध्या का समय था। शीतला अपनी मैना को चारा चुगा रही थी। उसे सुरेश नेपाल से उसी के वास्ते लाए थे। इतने में सुरेश आकर आँगन में बैठ गए।

शीतला ने पूछा―“कहाँ से आते हो, भैया?”

सुरेश―गया था जरा थाने। कुछ पता नहीं चला। रँगून में पहले कुछ पता मिला था। बाद को मालूम हुआ कि वह कोई और आदमी है। क्या करूँ? इनाम और बढ़ा दूँ?

शीतला―तुम्हारे पास रुपए बढ़े हैं, फूँँको। उनकी इच्छा होगी, तो आप ही आवेंगे।

सुरेश―एक बात पूछूँ, बताओगी? किस बात पर तुमसे रूठे थे?

शीतला―कुछ नहीं, मैंने यही कहा कि मुफे गहने बनवा दो। कहने लगे, मेरे पास है क्या। मैंने कहा ( लज़ाकर ), तो ब्याह क्यों किया? बस बातों-ही-बातों में तकरार मान गए।

इतने में शीतला को सास आ गई। सुरेश ने शीतला की माँ और भाइयों को उनके घर पहुँँचा दिया था, इसलिये यहाँ अब शांति थी। सास ने बहू की बात सुन ली थी। कर्कश स्वर से बोली―बेटा, तुमसे क्या परदा है। यह महारानी देखने ही को गुलाब का फूल हैं, अंदर सब काँटे हैं। यह अपने बनाव- सिगार के आगे विमल की बात ही न पूछती थी। बेचारा इस पर जान देता था; पर इसका मुँह ही न सीधा होता था। प्रेम तो इसे छू नहीं गया। अंत को उसे देश से निकालकर इसने दम लिया!

शीतला ने रुष्ट होकर कहा―क्या वही अनोखे धन कमाने घर से निकले हैं? देश-विदेश जाना मरदो का काम ही है।

सुरेश―योरप में तो धन-भोग के सिवा स्त्री-पुरुष में कोई संबंध ही नहीं होता। बहन ने योरप में जन्म लिया होता, तो हीरे-जवाहिर से जगमगाती होती। शीतला, अब तुम ईश्वर से यही कहना कि सुदरता देते हो, तो योरप में जन्म दो।

शीतला ने व्यथित होकर कहा―‘जिनके भाग्य में लिखा है, वे यही सोने से लदी हुई हैं। मेरी भाँति सभी के करम थोड़े ही फूट गए है।”

सुरेशसिंह को ऐसा जान पड़ा कि शीतला की मुख-कांति मलिन हो गई है। पति-वियोग में भी गहनो के लिये इतनी लालायित है! बोले―“अच्छा, मैं तुम्हें गहने बनवा दूँगा।”

यह वाक्य कुछ अपमान-सूचक स्वर में कहा गया था; पर शीतला की आँखें आनंद से सजल हो आईं, कंठ गद्गद हो गया। उसके हृदय-नेत्रो के सामने मंगला के रत्न जटित आभूषणों का चित्र खिच गया। उसने कृतज्ञता-पूर्ण दृष्टि से सुरेश को देखा। मुँह से कुछ न बोली; पर उसका प्रत्येक अंग कह रहा था― “मैं तुम्हारी हूँ।”

( ६ )

कोयल आम की डालियों पर बैठकर, मछली शीतल निर्मल जल में क्रीडा करके और मृग-शावक विस्तृत हरियालियों में छलाँँगें भरकर इतने प्रसन्न नहीं होते, जितना मंगला के आभू- षणों को पहनकर शीतला प्रसन्न हो रही है। उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते। वह आकाश में विचरती हुई जान पड़ती है। वह दिन-भर आइने के सामने खड़ी रहती है; कभी केशों को सँवारती है, कभी सुरमा लगाती है। कुहरा फट गया और निर्मल स्वच्छ चाँदनी निकल आई है। वह घर का एक तिनका भी नहीं उठाती। उसके स्वभाव में एक विचित्र गर्व का संचार हो गया है।

लेकिन श्रृंगार क्या है? सोई हुई काम-वासना को जगाने का घोर नाद―उद्दीपन का मंत्र। शीतला जब नख-शिख से सज- कर बैठती है, तो उसे प्रबल इच्छा होती है कि मुझे कोई देखे। वह द्वार पर आकर खड़ी हो जाती है। गाँँव की स्त्रियों की प्रशंसा से उसे संतोष नहीं होता। गाँव के पुरुषों को वह श्रृंगार-रस-विहीन समझती है। इसलिये सुरेशसिंह को बुलाती है। पहले वह दिन में एक बार आ जाते थे; अब शीतला के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी नहीं आते।

पहर रात गई थी। घरों के दीपक बुझ चुके थे। शीतला के घर में दीपक जल रहा था। उसने कुँअर साहब के बग़ीचे से बेले के फूल मँगवाए थे, और बैठी हार गूँँथ रही थी―अपने लिये नहीं, सुरेश के लिये। प्रेम के सिवा एहसान का बदला देने के लिये उसके पास और था ही क्या?

एकाएक कुत्तों के भूँकने की आवाज़ सुनाई दी, और दम- भर में विमलसिंह ने मकान के अंदर क़दम रक्खा। उनके एक हाथ में संदूक थी, दूसरे हाथ में एक गठरी। शरीर दुर्बल, कपड़े मैले, दाढ़ी के बाल बढ़े हुए, मुख पीला; जैसे कोई कैदी जेल से निकलकर आया हो। दीपक का प्रकाश देखकर वह शीतला के कमरे की तरफ चले। मैना पिजरे में तड़फड़ाने लगी। शीतला ने चौककर सिर उठाया। घबराकर बोली―“कौन?” फिर पहचान गई। तुरंत फूलो की एक कपड़े से छिपा दिया। उठ खड़ी हुई, और सिर झुकाकर पूछा―“इतनी जल्दी सुध ली!”

विमल ने कुछ जवाब न दिया। विस्मित हो-होकर कभी शीतला को देखता और कभी घर को। मानो किसी नए संसार में पहुँँच गया है। यह वह अधखिला फूल न था, जिसकी पँखड़ियाँ अनुकूल जल-वायु न पाकर सिमट गई थी। यह पूर्ण विकसित कुसुम था―ओस के जलकणों से जगमगाता और वायु के झोकों से लहराता हुआ। विमल उसकी सुंदरता पर पहले भी मुग्ध था। पर यह ज्योति वह अग्नि-ज्वाला थी, जिससे हृदय में ताप ओर आँखों में जलन होती थी। ये आभूषण, ये वस्त्र, यह सजावट! उसके सिर में चक्कर-सा आ गया। ज़मीन पर बैठ गया। इस सूर्यमुखी के सामने बैठते हुए उसे लज्जा आती थी। शीतला अभी तक स्तंभित खड़ी थी। वह पानी लाने नहीं दौड़ी, उसने पति के चरण नहीं धोए, उसके पंखा तक नहीं झला। वह हतबुद्धि-सी हो गई थी। उसने कल्पनाओं की कैसी सुरम्य वाटिका लगाई थी! उस पर तुषार पड़ गया! वास्तव में इस मलिन-वदन, अद्ध-नग्न पुरुष से उसे घृणा हो रही थी। यह घर का ज़मीदार विमल न था। वह मज़दूर हो गया था। मोटा काम मुखाकृति पर असर डाले बिना नहीं रहता। मजदूर सुदर वस्त्रों में भी मजदूर ही रहता है।

सहसा विमल की माँँ चौकी। शीतला के कमरे में आई, तो विमल को देखते ही मातृ-स्नेह से विह्वल होकर उसे छाती से लगा लिया। विमल ने उसके चरणो पर सिर रक्खा। उसकी आँखो से आँसुओं की गरम-गरम बूँँदे निकल रही थी। माँँ पुलकित हो रही थी। मुख से बात न निकलती थी।

एक क्षण में विमल ने कहा―अम्मा!

कंठ-ध्वनि ने उसका आशय प्रकट कर दिया। माँ ने प्रश्न समझकर कहा―नहीं बेटा, यह बात नहीं है।

विमल―यह देखता क्या हूँ?

माँ―स्वभाव ही ऐसा है, तो काई क्या करे?

विमल―सुरेश ने मेरा हुलिया क्यो लिखाया था?

माँ―तुम्हारी खोज लेने के लिये। उन्होने दया न की होती, तो आज घर में किसी को जीता न पाते।

विमल―बहुत अच्छा हाता।

शीतला ने ताने से कहा―अपनी ओर से तो तुमने सबको मार ही डाला था। फूलो की सेज बिछा गए थे न?

विमल―अब तो फूलों की सेज ही बिछी हुई देखता हूँ।

शीतला―तुम किसी के भाग्य के विधाता हो?

विमलसिंह उठकर क्रोध से काँपता हुआ बोला―अम्मा, मुझे यहाँ से ले चलो। मैं इस पिशाचिनी का मुँँह नहीं देखना चाहता। मेरी आँखों में खून उतरता चला आता है। मैंने इस कुल-कलंकिनी के लिये तीन साल तक जो कठिन तपस्या की है, उससे ईश्वर मिल जाता; पर इसे न पा सका!

यह कहकर वह कमरे से निकल आया, और माँ के कमरे में लेट रहा। माँ ने तुरंत उसका मुँँह और हाथ-पर धुलाए। वह चूल्हा जलाकर पूरियाँ पकाने लगी। साथ-साथ घर की विपत्ति- कथा भी कहती जाती थी। विमल के हृदय में सुरेश के प्रति जो विरोधाग्नि प्रज्वलित हो रही थी, वह शांत हो गई; लेकिन हृदय-दाह ने रक्त-दाह का रूप धारण किया। ज़ोर का बुखार चढ़ आया। लंबी यात्रा की थकन और कष्ट तो था ही, बरसों के कठिन श्रम और तप के बाद यह मानसिक संताप और भी दुस्सह हो गया।

सारी रात वह अचेत पड़ा रहा। माँ बैठी पंखा झलती और रोती रही। दूसरे दिन भी वह बेहोश पड़ा रहा। शीतला उसके पास एक क्षण के लिये भी न आई। “इन्होने मुझे कौन सोने के कौर खिला दिए है, जो इनकी धौस सहूँ। यहाँ तो ‘जैसे कंता घर रहे, वैसे रहे विदेस।’ किसी की फूटी कौड़ी नहीं जानती। बहुत ताव दिखाकर तो गए थे। क्या लाद लाए?”

संध्या के समय सुरेश की ख़बर मिली। तुरंत दौड़े हुए आए। आज दो महीने के बाद उन्होने इस घर में कदम रक्खा। विमल ने आँखे खोली, पहचान गया। आँखो से आँसू बहन लगे। सुरेश के मुखारविंद पर दया की ज्योति झलक रही थी। विमल ने उनके बारे में जो अनुचित संदेह किया था, उसके लिये वह अपने को धिक्कार रहा था।

शीतला ने ज्या ही सुना कि सुरेशसिंह आए हैं, तुरंत शीशे के सामने गई, केश छिटका लिए और विषाद की मूर्ति बनी हुई विमल के कमरे में आई। कहाँ तो विमल की आँखें बँद थीं, मूर्च्छित-सा पड़ा था, कहाँ शीतला के आते ही आँखे खुल गईं। अग्निमय नेत्रो से उसकी ओर देखकर बोला―अभी आई है? आज के तीसरे दिन आना। कुँअर साहब से उस दिन फिर भट हो जायगी। शीतला उलटे-पाँव चली गई। सुरेश पर घड़ों पानी पड़ गया। मन मे सोचा―कितना रूप-लावण्य है, पर कितना विषाक्त! हृदय की जगह केवल श्रृंगार-लालसा!

रोग बढ़ता ही गया। सुरेश ने डॉक्टर बुलवाए। पर मृत्युदेव ने किसी की न मानी। उनका हृदय पाषाण है। किसी भाँति नहीं पसीजता। कोई अपना हृदय निकालकर रख दे, आँसुओं की नदी बहा दे; पर उन्हे दया नहीं आती। बसे हुए घर को उजाड़ना, लहराती हुई खेती को सुखाना उनका काम है। और, उनकी निर्दयता कितनी विनोदमय है! वह नित्य नए रूप बदलते रहते हैं। कभी दामिनी बन जाते हैं, तो कभी पुष्प- माला। कभी सिंह बन जाते हैं, तो कभी सियार। कभी अग्नि के रूप में दिखाई देते हैं, तो कभी जल के रूप में।

तीसरे दिन, पिछली रात को, विमल की मानसिक पीड़ा और हृदय-ताप का अंत हो गया। चोर दिन को कभी चोरी नहीं करता। यम के दूत प्रायः रात का ही सबकी नज़रे बचाकर आते है, और प्राण-रत्न को चुरा ले जाते है। आकाश के फूल मुरझाए हुए थे। वृक्ष-समूह स्थिर थे; पर शोक में मग्न, सिर झुकाए हुए। रात शोक का बाह्य रूप है। रात मृत्यु का क्रीड़ा- क्षेत्र है। उसी समय विमल के घर से आर्त-नाद सुनाई दिया― वह नाद, जिसे सुनने के लिये मृत्युदेव निकल रहते हैं।

शीतला चौक पड़ी, और घबराई हुई मरण-शय्या की ओर चली। उसने मृत-देह पर निगाह डाली, और भयभीत होकर एक पग पीछे हट गई। उसे जान पड़ा, विमलसिंह उसकी ओर अत्यंत तीव्र दृष्टि से देख रहे हैं। बुझे हुए दीपक में उसे भयं- कर ज्योति दिखाई पड़ी। वह मारे भय के वहाँ ठहर न सकी। द्वार से निकल ही रही थी कि सुरेशसिंह से भेंट हो गई। कातर स्वर में बोली―“मुझे यहाँ डर लगता है।” उसने चाहा कि रोती हुई इनके पैरो पर गिर पड़ूँ; पर वह अलग हट गए।

( ७ )

जब किसी पथिक को चलते-चलते ज्ञात होता है कि मैं रास्ता भूल गया हूँ, तो वह सीधे रास्ते पर आने के लिये बड़े वेग से चलता है। झुँझलाता है कि मैं इतना असावधान क्यों हो गया? सुरेश भी अब शांति-मार्ग पर आने के लिये विकल हो गए। मंगला की स्नेहमयी सेवाएँँ याद आने लगी। हृदय में वास्तविक सौदर्योपासना का भाव उदय हुआ। समे कितना प्रेम, कितना त्याग था, कितनी क्षमा थी! उसकी अतुल पति- भक्ति को याद करके कभी-कभी वह तड़प जाते। आह! मैंने घोर अत्याचार किया। ऐसे उज्ज्वल रत्न का आदर न किया। मैं यही जड़वत् पड़ा रहा, और मेरे सामने ही लक्ष्मी घर से निकल गई! मंगला ने चलते-चलते शीतला से जो बातें कही थी, वे उन्हें मालूम थी। पर उन बातों पर विश्वास न होता था। मंगला शांत प्रकृति की थी; वह इतनी उद्दंडता नहीं कर सकती। उसमे क्षमा थी, वह इतना विद्वेष नहीं कर सकती। उनका मन कहता था कि जीती है, और कुशल से है। उसके मायकेवालों को कई पत्र लिखे। पर वहाँ व्यंग्य और कटु वाक्यों के सिवा और क्या रक्खा था? अंत को उन्होंने लिखा―“अब उस रत्न को खोज में मैं स्वयं जाता हूँ। या तो लेकर ही आऊँगा, या कही मुँह में कालिख लगाकर डूब मरूँँगा।”

इस पत्र का उत्तर आया―“अच्छी बात है, जाइए, पर यहाँ से होते हुए जाइएगा। यहाँ से भी कोई आपके साथ चला जायगा।”

सुरेशसिंह को इन शब्दों में आशा की झलक दिखाई दी। उसी दिन प्रस्थान कर दिया। किसी को साथ नहीं लिया।

सुसराल में किसी ने उनका प्रेममय स्वागत नहीं किया। सभी के मुँँह फूले हुए थे। ससुरजी ने तो उन्हे पति-धम पर एक लंबा उपदेश दिया।

रात को जब वह भोजन करके लेटे, तो छोटी साली आकर बैठ गई, और मुसकिराकर बोली―“जीजाजी, कोई सुंदरी अपने रूप हीन पुरुष को छोड़ दे, उसका अपमान करे, तो आप उसे क्या कहेगे?”

सुरेश―( गभीर स्वर से ) कुटिला!

साली―और ऐसे पुरुष को, जो अपनी रूप-हीन स्त्री को त्याग दे?

सुरेश―पशु!

साली―ओर जो पुरुष विद्वान् हो? सुरेश―पिशाच!

साली―(हँसकर) तो मैं भागती हूँ। मुझे आपसे डर लगता है।

सुरेश―पिशाचों का प्रायश्चित्त भी तो स्वीकार हो जाता है।

साली―शर्त यह है कि प्रायश्चित्त सच्चा हो।

सुरेश―यह तो वह अंतर्यामी ही जान सकते हैं।

साली―सच्चा होगा, तो उसका फल भी अवश्य मिलेगा। मगर दीदी को लेकर इधर ही से लोटिएगा।

सुरेश की आशा-नौका फिर डगमगाई। गिड़गिड़ाकर बोले― “प्रभो, ईश्वर के लिये मुझ पर दया करो, मैं बहुत दुखी हूँ। साल-भर से ऐसा कोई दिन नहीं गया कि मैं रोकर न सोया हूँ।”

प्रभा ने उठकर कहा―“अपने किए का क्या इलाज? जाती हूँ, आराम कीजिए।”

एक क्षण में शीतला की माता आकर बैठ गई, और बोली― “बेटा, तुमने तो बहुत पढ़ा-लिखा है, देस-विदेस घूम आए हो, सुंदर बनने की कोई दवा कही नहीं देखी?”

सुरेश ने विनय-पूर्वक कहा―“माताजी, अब ईश्वर के लिये और लज्जित न कीजिए।”

माता―तुमने तो मेरी बेटी के प्राण ले लिए! मैं क्या तुम्हे लज्जित करने से भी गई! जी में तो था कि ऐसी-ऐसी सुनाऊँगी कि तुम भी याद करोगे; पर मेरे मेहमान हो, क्या जलाऊँ? आराम करो। सुरेश आशा और भय की दशा में पड़े करवटें बदल रहे थे कि एकाएक द्वार पर किसी ने धोरे से कहा―“जाती क्यो नहीं, जागते तो है!” किसी ने जवाब दिया―“लाज आती है।”

सुरेश ने आवाज़ पहचानी। प्यासे को पानी मिल गया। एक क्षण में मंगला उनके सम्मुख आई, और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। सुरेश का उसके मुख पर एक अनूठी छवि दिखाई दी, जैसे कोई रोगी स्वास्थ्य-लाभ कर चुका हो।

रूप वही था, पर आँखे और थीं।





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