प्रेम पंचमी/४ अधिकार-चिंता

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प्रेम-पंचमी  (1930) 
द्वारा प्रेमचंद

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अधिकार-चिंता

( १ )

टामी यों देखने में तो बहुत तगड़ा था। भूँकता, तो सुनने- वालों के कानों के परदे फट जाते। डील-डौल भी ऐसा कि अँधेरी रात में उस पर गधे का भ्रम हो जाता। लेकिन उसकी श्वानाचित वीरता किसी संग्राम-क्षेत्र में प्रमाणित न होती थी। दो-चार दफ जब बाज़ार के लेंडियों ने उसे चुनौती दी, तो वह उनका गर्व-मर्दन करने के लिये मैदान में आया। देखनेवालों का कहना है कि वह जब तक लड़ा, जीवट से लड़ा; नर्खा और दाँता से ज्यादा चाटे उसकी दुम ने की। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहता, किंतु जब उस दल को कुमक मँगानी पड़ी, तो रण-शास्त्र के नियमों के अनुसार विजय का श्रेय टामी को ही देना उचित न्याया- नुकूल जान पड़ता है। टामी ने उस अवसर पर कौशल से काम लिया और दाँत निकाल दिए, जो संधि की याचना थी। किंतु तब से उसने ऐसे सन्नीति-विहीन प्रतिद्वंद्वियों के मुँँह लगना उचित न समझा।

इतना शांति-प्रिय होने पर भी टामी के शत्रुओं की संख्या दिनोदिन बढ़ती जाती थी। उसके बराबरवाले तो उससे इस- लिये जलते कि वह इतना मोटा ताजा होकर इतना भीरु क्यों [ ८४ ]है। बाज़ारी दल इसलिये जलता कि टामी के मारे घूरों पर की हड्डियाँ भी न बचने पाती थी। वह घड़ी रात रहे उठता, और हलवाइयों की दूकानों के सामने के दाने और पत्तल, कसाईख़ाने के सामने की हड्डियाँँ और छीछड़े चबा डालता। अतएव इतने शत्रुओं के बीच में रहकर टामी का जीवन संकट- मय होता जाता था। महीनों बीत जाते, और पेट भर भोजन न मिलता। दो-तीन बार उसे मन-माने भोजन करने की ऐसी प्रबल उत्कंठा हुई कि उसने संदिग्ध साधनों द्वारा उसे पूर्ण करने को चेष्टा को; पर जब परिणाम आशा के प्रतिकूल हुआ और स्वादिष्ट पदार्थों के बदले अरुचिकर, दुर्ग्राह्य वस्तुएँ भर- पेट खाने को मिली―जिससे पेट के बदले कई दिन तक पीठ में विषम वेदना होती रही―तो उसने विवश होकर फिर सन्मार्ग का आश्रय लिया। पर डंडो से पेट चाहे भर गया हो, वह उत्कंठा शांत न हुई। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहता था, जहाँ ख़ूब शिकार मिले; ख़रगोश, हिरन, भेड़ो के बच्चे मैदानो में विचर रहे हो, और उनका कोई मालिक न हो; जहाँ किसी प्रतिद्वंद्वी की गंध तक न हो; आराम करने को सघन वृक्षों की छाया हो, पीने को नदी का पवित्र जल। वहाँ मन-माना शिकार करूँ, खाऊँ, और मीठी नीद साऊँ। वहाँ चारो ओर मेरी धाक बैठ जाय; सब पर ऐसा रोब छा जाय कि मुझको ही अपना राजा समझने लगें, और धीरे-धीरे मेरा ऐसा सिक्का बैठ जाय कि किसी द्वेषी को वहाँ पैर रखने का साहस ही न हा। [ ८५ ]संयोग-वश एक दिन वह इन्हीं कल्पनाओं के सुख-स्वप्न देखता हुआ, सिर झुकाए, सड़क छोड़कर गलियों से चला जा रहा था कि सहसा एक सज्जन से उसकी मुठभेड़ हो गई। टामी ने चाहा कि बचकर निकल जाऊँ; पर वह दुष्ट इतना शांति-प्रिय न था। उसने तुरंत झपटकर टामी का टेटुआ पकड़ लिया। टामी ने बहुत अनुनय-विनय की; गिड़गिड़ाकर कहा― ईश्वर के लिये मुझे यहाँ से चले जाने दो; कसम ले लो, जो इधर पैर रक्खूँ। मेरी शामत आई थी कि तुम्हारे अधिकार- क्षेत्र में चला आया। पर उस मदांध और निदय प्राणी ने ज़रा भी रियायत न की। अंत में हारकर टामी ने गर्दभ-स्वर में फरियाद करनी शुरू की। यह कोलाहल सुनकर मोहल्ले के दो-चार नेता लोग एकत्र हो गए; पर उन्होने भी दीन पर दया करने के बदले उलटे उसी पर दंत-प्रहार करना शुरू किया। इस अन्याय-पूर्ण व्यवहार ने टामी का दिल तोड़ दिया। वह जान छोड़कर भागा। उन अत्याचारी पशुओं ने बहुत दूर तक उसका पीछा किया; यहाँ तक कि मार्ग में एक नदी पड़ गई। टामी ने उसमें कूदकर अपनी जान बचाई।

कहते हैं, एक दिन सबके दिन फिरते हैं। टामी के दिन भी नदी में कूदते ही फिर गए। कूदा था जान बचाने के लिये, हाथ लग गए मोती। तैरता हुआ उस पार पहुँचा, तो वहाँ उसकी चिर-सचित अभिलाषाएँ मूतिमती

हो रही थीं। [ ८६ ]
( २ )

एक विस्तृत मैदान था। जहाँ तक निगाह जाती, हरियाली की छटा दिखाई देती। कहीं नालों का मधुर कलरव था, कहीं झरनों का मंद गान; कहीं वृक्षों के सुखद पुंज, कही रेत के सपाट मैदान। बड़ा सुरम्य, मनोहर दृश्य था।

यहाँ बड़े तेज़ नखोवाले पशु थे, जिनको सूरत देखकर टामी का कलेजा दहल उठता। उन्होंने टामी की कुछ परवा न की। वे आपस में नित्य लड़ा करते; नित्य ख़ून की नदी बहा करती थी। टामी ने देखा, यहाँ इन भयंकर जंतुओं से पेश न पा सकूँगा। उसने कौशल से काम लेना शुरू किया। जब दो लड़नेवाले पशुओं में एक घायल और मुर्दा होकर गिर पड़ता, तो टामी लपककर मांस का कोई टुकड़ा ले भागता और एकांत में बैठकर खाता। विजयी पशु विजय के उन्माद में उसे तुच्छ समझकर कुछ न बोलता।

अब क्या था, टामी के पौ-बारह हो गए। सदा दिवाली रहने लगी। न गुड़ की कमी थी, न गेहूँ की। नित नए पदार्थ उड़ाता और वृक्षों के नीचे आनंद से सोता। उसने ऐसे सुख स्वर्ग की कल्पना भी न की थी। वह मरकर नहीं, जीते-जी स्वर्ग पा गया।

थोड़े ही दिनों में पौष्टिक पदार्थों के सेवन से टामी की चेष्टा ही कुछ और हो गई। उसका शरीर तेजस्वी और सुसंगठित हो गया। अब वह छोटे-मोटे जीवों पर स्वयं हाथ साफ करने लगा। जंगल के जंतु तब चौके, और उसे वहाँ से भगा देने का [ ८७ ]यत्न करने लगे। टामी ने एक नई चाल चली। वह कभी किसी पशु से कहता, तुम्हारा फ़लाँ शत्रु तुम्हें मार डालने की तैयारी कर रहा है। किसी से कहता, फलाँ तुमको गाली देता था। जंगल के जंतु उसके चकमे में आकर आपस में लड़ जाते, और टामी की चाँदी हो जाती। अंत में यहाँ तक नौबत पहुँची कि बड़े-बड़े जंतुओं का नाश हो गया। छोटे-छोटे पशुओं को उससे मुकाबला करने का साहस न होता। उसकी उन्नति और शक्ति देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यह विचित्र जीव आकाश से हमारे ऊपर शासन करने के लिये भेजा गया है। टामी भी अब अपनी शिकारबाजी के जौहर दिखाकर उनको इस भ्रांति को पुष्ट किया करता। वह बड़े गर्व से कहता―परमात्मा ने मुझे तुम्हारे अपर राज्य करने के लिये भेजा है। यह ईश्वर की इच्छा है। तुम आराम से अपने घरों में पड़े रहो, मैं तुमसे कुछ न बोलूँँगा, केवल तुम्हारी सेवा करने के पुरस्कार-स्वरूप तुममें से एक-आध का शिकार कर लिया करूँगा। आख़िर मेरे भी तो पेट है; बिना आहार के कैसे जीवित रहूँगा, और कैसे तुम्हारी रक्षा करूँगा? वह अब बड़ी शान से जंगल में चारो ओर गौरवान्वित दृष्टि से ताकता हुआ विचरा करता।

टामी को अब कोई चिंता थी, तो यह कि इस देश में मेरा कोई मुद्दई न उठ खड़ा हो। वह नित्य सजग और सशस्त्र रहने लगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, और उसके सुख-भोग का चसका बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों उसकी चिंता भी बढ़ती जाती थी। [ ८८ ]वह अब बहुधा रात को चौक पड़ता, और किसी अज्ञात शत्रु के पोछे दौड़ता। अक्सर “अंधा कुकुर बतासे भूँँके” वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करता; वन के पशुओं से कहता― ईश्वर न करे कि तुम किसी दूसरे शासक के पंजे में फँस जाओ। वह तुम्हें पीस डालेगा। मैं तुम्हारा हितैषी हूँ; सदैव तुम्हारी शुभ कामना में मग्न रहता हूँ। किसी दूसरे से यह आशा मत रक्खो। पशु एक ही स्वर से कहते―जब तक हम जिएँँगे, आप ही के अधीन रहेंगे!

आखिरकार यह हुआ कि टामी को क्षण-भर भी शांति से बैठना दुर्लभ हो गया। वह रात-रात और दिन-दिन-भर नदी के किनारे इधर-से-उधर चक्कर लगाया करता। दौड़ते-दौड़ते हाँफने लगता, वेदम हो जाता; मगर चित्त को शांति न मिलती। कहीं कोई शत्रु न घुस आए।

लेकिन क्कार का महीना आया, तो टामी का चित्त एक बार फिर अपने पुराने सहचरों से मिलने के लिये लालायित होने लगा। वह अपने मन को किसी भाँति रोक न सका। उसे वह दिन याद आया, जब वह दो-चार मित्रों के साथ किसी प्रेमिका के पीछे गली-गली और कूचे-कूचे में चक्कर लगाता था। दो- चार दिन उसने सब्र किया, पर अंत में आवेग इतना प्रबल हुआ कि वह तक़दीर ठोककर खड़ा हो गया। उसे अब अपने तेज और बल पर अभिमान भी था। दो-चार को तो वह अकेले मज़ा चखा सकता था। [ ८९ ]कितु नदी के इस पार आते ही उसका आत्मविश्वास प्रातः- काल के तम के समान फटने लगा। उसकी चाल मंद पड़ गई, सिर आप-ही-आप झुक गया, दुम सिकुड़ गई। मगर एक प्रेमिका को आते देखकर वह विह्वल हो उठा; उसके पीछे हो लिया। प्रेमिका को उसकी वह कुचेष्टा अप्रिय लगी। उसने तीव्र स्वर से उसकी अवहेलना की। उसकी आवाज़ सुनते ही उसके कई प्रेमी आ पहुँँचे, और टामी को वहाँ देखते ही जामे से बाहर हो गए। टामी सिटपिटा गया। अभी निश्चय न कर सका था कि क्या करूँ कि चारो ओर से उस पर दाँतों और नखों की वर्षा होने लगी। भागते भी न बन पड़ा। देह लहू- लुहान हो गई। भागा भी, तो शैतानों का एक दल पीछे था।

उस दिन से उसके दिल में शँका-सी समा गई। हर घड़ी यह भय लगा रहता कि आक्रमणकारियों का दल मेरे सुख और शांति में बाधा डालने के लिये, मेरे स्वर्ग को विध्वंस करने के लिये, आ रहा है। यह शंका पहले भी कम न थी; अब और भी बढ़ गई।

एक दिन उसका चित्त भय से इतना व्याकुल हुआ कि उसे जान पड़ा, शत्रु-दल आ पहुँचा। वह बड़े वेग से नदी के किनारे आया, और इधर-से-उधर दौड़ने लगा।

दिन बीत गया, रात बीत गई; पर उसने विश्राम न लिया। दूसरा दिन आया और गया; पर टामी निराहार-निर्जल, नदी के किनारे, चक्कर लगाता रहा। [ ९० ]इस तरह पाँँच दिन बीत गए। टामी के पैर लड़खड़ाने लगे, आँखों-तले अँँधेरा छाने लगा। क्षुधा से व्याकुल होकर गिर- गिर पड़ता, पर वह शंका किसी भाँति शांत न होती।

अंत में सातवें दिन अभागा टामी अधिकार-चिंता से ग्रस्त, जर्जर और शिथिल होकर परलोक सिधारा। वन का कोई पशु उसके निकट न गया। किसी ने उसकी चर्चा तक न की; किसी ने उसकी लाश पर आँसू तक न बहाए। कई दिनों तक उस पर गिद्ध और कौए मँडराते रहे; अंत में अस्थि-पंजरों के सिवा और कुछ न रह गया।





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