प्रेम पंचमी/५ गृह-दाह

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प्रेम-पंचमी  (1930) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ९१ ]


गृह-दाह
( १ )

सत्यप्रकाश के जन्मोत्सव में लाला देवप्रकाश ने बहुत रुपए खर्च किए थे। उसका विद्यारंभ-संस्कार भी खूब धूम-धाम से किया गया। उसके हवा खाने को एक छोटी-सी गाड़ी थी। शाम को नौकर उसे टहलाने ले जाता। एक नौकर उसे पाठ- शाला पहुँचाने जाता, दिन-भर वही बैठा रहता और उसे साथ लेकर घर आता था। कितना सुशील, होनहार बालक था! गोरा मुखड़ा, बड़ी-बड़ी आँखे, ऊँचा मस्तक, पतले-पतले लाल अधर, भरे हुए हाथ-पाँव। उसे देखकर सहसा मुँह से निकल पड़ता था―भगवान् इसे जिला दे, प्रतापी मनुष्य होगा। उसकी बाल-बुद्धि को प्रखरता पर लोगों को आश्चर्य होता था। नित्य उसके मुख-चंद्र पर हँसी खेलती रहती थी। किसी ने उसे हठ करते या रोते नहीं देखा।

वर्षा के दिन थे। देवप्रकाश बहन को लेकर गंगा-स्नान करने गए। नदी खूब चढ़ी हुई थी, मानो अनाथ को आँखे हों। उसको पत्नी निर्मला जल में बैठकर क्रीड़ा करने लगी। कभी आगे जाती, कभी पीछे जाती, कभी डुबकी मारती, कभी अंंजु- लियो से छोटे उड़ाती। देवप्रकाश ने कहा―अच्छा, अब [ ९२ ]निकलो, नहीं तो सरदी हो जायगी। निर्मला ने कहा―कहो, तो मैं छाती तक पानी में चली जाऊँ?

देवप्रकाश―और, जो कही पैर फिसल जाय!

निर्मला―पैर क्या फिसलेगा!

यह कहकर वह छाती तक पानी में चली गई। पति ने कहा―अच्छा, अब आगे पैर न रखना। किंतु निर्मला के सिर पर मौत खेल रही थी। यह जल-क्रीड़ा नहीं―मृत्यु-क्रीड़ा थी। उसने एक पग और आगे बढ़ाया और फिसल गई। मुँँह से एक चीख़ निकली; दोनो हाथ सहारे के लिये ऊपर उठे और फिर जल-मग्न हो गए। एक पल में प्यासी नदी उसे पी गई। देवप्रकाश खड़े तौलिए से देह पोछ रहे थे। तुरंत पानी में कूदे, साथ का कहार भी कूदा। दो मल्लाह भी कूद पड़े। सब ने डुबकियाँ मारी, टटोला; पर निर्मला का पता न चला। तब डोंगी मँगवाई गई। मल्लाहो ने बार-बार ग़ोते मारे; पर लाश हाथ न आई। देवप्रकाश शोक में डूबे हुए घर आए। सत्यप्रकाश किसी उपहार की आशा में दौड़ा। पिता ने गोद में उठा लिया, और बड़े यत्न करने पर भी अपनी सिसकी न रोक सके। सत्यप्रकाश ने पूछा―अम्मा कहाँ हैं?

देव॰―बेटा, गंगा ने उन्हें नेवता खाने के लिये रोक लिया।

सत्यप्रकाश ने उनके मुख की ओर जिज्ञासा-भाव से देखा

और आशय समझ गया। ‘अम्मा, अम्मा’ कहकर रोने लगा। [ ९३ ]
( २ )

मातृहीन बालक संसार का सबसे करुणाजनक प्राणी है। दीन-से-दीन प्राणियों को भी ईश्वर का आधार होता है, जो उनके हृदय को सँभालता रहता है। मातृहीन बालक इस आधार से भी वंचित होता है। माता हो उसके जीवन का एक-मात्र आधार होती है। माता के बिना वह पंख-हीन पक्षी है।

सत्यप्रकाश को एकांत से प्रेम हो गया। अकेले बैठा रहता। वृक्षों में उसे उस सहानुभूति का कुछ-कुछ अज्ञात अनुभव होता था, जो घर के प्राणियों में उसे न मिलती थी। माता का प्रेम था, तो सभी प्रेम करते थे; माता का प्रेम उठ गया, तो सभी निष्ठुर हो गए। पिता की आँखों में भी वह प्रेम-ज्योति न रही। दरिद्र को कौन भिक्षा देता है?

छः महीने बीत गए! सहसा एक दिन उसे मालूम हुआ, मेरी नई माता आनेवाली है। दौड़ा पिता के पास गया और पूछा―क्या मेरी नई माता आवेगी? पिता ने कहा―हाँ, बेटा, वह आकर तुम्हें प्यार करेंगी।

सत्य॰―क्या मेरी माँ स्वर्ग से आ जायँगी?

देव॰―हाँ, वही आ जायँगी।

सत्य॰―मुझे उसी तरह प्यार करेंगी?

देवप्रकाश इसका क्या उत्तर देते? मगर सत्यप्रकाश उस दिन से प्रसन्न-मन रहने लगा। अम्मा आवेगी! मुझे गोद में लेकर प्यार करेगी! अब मैं उन्हे कभी दिक न [ ९४ ]करूँगा, कभी ज़िद न करूँगा, अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाया करूँगा।

विवाह के दिन आए। घर में तैयारियाँँ होने लगीं। सत्य- प्रकाश खुशी से फूला न समाता। मेरी नई अम्मा आवेगी। बरात में वह भी गया। नए-नए कपड़े मिले। पालकी पर बैठा। नानी ने अंदर बुलाया, और उसे गोद में लेकर एक अशरफी दी। वहीं उसे नई माता के दर्शन हुए। नानी ने नई माता से कहा―बेटी, कैसा सुदर बालक है! इसे प्यार करना।

सत्यप्रकाश ने नई माता को देखा और मुग्ध हो गया। बच्चे भो रूप के उपासक होते हैं। एक लावण्यमयी मूर्ति आभूषणों से लदी सामने खड़ी थी। उसने दोना हाथो से उसका अचल पकड़कर कहा―अम्मा!

कितना अरुचिकर शब्द था, कितना लज्जायुक्त, कितना अप्रिय! वह ललना, जो 'देवप्रिया' नाम से संबोधित होती थी, उत्तरदायित्व, त्याग और क्षमा का संबोधन न सह सकी। अभी वह प्रेम और विलास का सुख-स्वप्न देख रही थी―यौवन- काल की मदमय वायु-तरँगों में आंदोलित हो रही थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भंग कर दिया। कुछ रुष्ट होकर बोली―मुझे अम्मा मत कहो।

सत्यप्रकाश ने विस्मित नेत्रों से देखा। उसको बाल-स्वप्न भंग हो गया। आँखें डबडबा गई। नानी ने कहा―बेटी, [ ९५ ]देखो, लड़के का दिल छोटा हो गया। वह क्या जाने, क्या कहना चाहिए। अम्मा कह दिया, तो तुम्हें कौन-सी चोट लग गई?

देवप्रिया ने कहा―मुझे अम्मा न कहे।

( ३ )

सौत का पुत्र विमाता की आँखों में क्यों इतना खटकता है, इसका निर्णय आज तक किसी मनोभाव के पंडित ने नहीं किया। हम किस गिनती में हैं। देवप्रिया जब तक गर्भिणी न हुई, वह सत्यप्रकाश से कभी-कभी बाते करती, कहानियाँ सुनाती; किंतु गर्भिणी होते ही उसका व्यवहार कठोर हो गया। प्रसव-काल ज्यों-ज्यों निकट आता था, उसकी कठोरता बढ़ती ही जाती थी। जिस दिन उसकी गोद में एक चाँद-से बच्चे का आगमन हुआ, सत्यप्रकाश खूब उछला-कूदा और सौर-गृह में दौड़ा हुआ बच्चे को देखने गया। बच्चा देवप्रिया की गोद में सो रहा था। सत्यप्रकाश ने बड़ी उत्सुकता से बच्चे को विमाता को गोद से उठाना चाहा कि सहसा देवप्रिया ने सरोष स्वर में कहा―ख़बरदार, इसे मत छूना, नहीं तो कान पकड़कर उखाड़ लूँगी।

वालक उलटे पाँँव लौट आया, और कोठे की छत पर जाकर ख़ूब रोया। कितना सुदर बच्चा है! मैं उसे गोद में लेकर बैठता, तो कैसा मज़ा आता! मैं उसे गिराता थोड़े ही, फिर इन्होंने मुझे झिड़क क्यों दिया? भोला बालक क्या जानता [ ९६ ]था कि इस झिड़की का कारण माता की सावधानी नहीं, कुछ और है।

शिशु का नाम ज्ञानप्रकाश रक्खा गया था। एक दिन वह सो रहा था। देवप्रिया स्नानागार में थी। सत्यप्रकाश चुपके से आया, ओर बच्चे का ओढ़ना हटाकर उसे अनुरागमय नेत्रों से देखने लगा। उसका जी कितना चाहा कि उसे गोद से लेकर प्यार करूँ; पर डर के मारे उसने उसे उठाया नहीं, केवल उसके कपोलों को चूमने लगा। इतने में देवप्रिया निकल आई। सत्यप्रकाश को बच्चे को चूमते देखकर आग हो गई। दूर ही से डाँटा―हट जा वहाँ से!

सत्यप्रकाश दीन नेत्रों से माता को देखता हुआ बाहर निकल आया।

संध्या-समय उसके पिता ने पूछा―तुम लल्ला को क्यों रुलाया करते हो?

सत्य॰―मैं तो उसे कभी नहीं रुलाता। अम्मा खेलाने को नहीं देती।

देव॰―झूठ बोलते हो, आज तुमने बच्चे को चुटकी काटी।

सत्य॰―जी नहीं, मैं तो उसकी मुच्छियाँ ले रहा था।

देव॰―झूठ बोलता है!

सत्य॰―मैं झूठ नहीं बोलता।

देवप्रकाश को क्रोध आ गया। लड़के को दो-तीन तमाचे लगाए। पहली बार यह ताड़ना मिली, और निपराध! इसने

उसके जीवन की काया-पलट कर दी। [ ९७ ]
( ४ )

उस दिन से सत्यप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह घर में बहुत कम आता; पिता आते, तो उनसे मुँँह छिपाता फिरता। कोई खाना खाने को बुलाने आता, तो चोरों की भाँति दबकता हुआ जाकर खा लेता; न कुछ माँगता, न कुछ बोलता। पहले अत्यंत कुशाग्रबुद्धि था। उसकी सफाई, सलीके और फुरती पर लोग मुग्ध हो जाते थे। अब वह पढ़ने से जी चुराता, मैले-कुचैले कपड़े पहने रहता। घर में कोई प्रेम करनेवाला न था! बाज़ार के लड़कों के साथ गली-गली घूमता, कनकौवे लूटता। गालियाँ बकना भी सीख गया। शरीर दुर्बल हो गया। चेहरे की कांति ग़ायब हो गई। देवप्रकाश को अब आए दिन उसकी शरारतों के उलहने मिलने लगे, और सत्यप्रकाश नित्य घुड़कियाँँ और तमाचे खाने लगा, यहाँ तक कि अगर वह कभी घर में किसी काम से चला जाता, तो सब लोग दूर-दूर कहकर दौड़ते।

ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिये मास्टर आता था। देवप्रकाश उसे रोज़ सैर कराने साथ ले जाते। हँसमुख लड़का था। देव- प्रिया उसे सत्यप्रकाश के साए से भी बचाती रहती थी। दोनो लड़को में कितना अतर था! एक साफ-सुथरा, सुदर कपड़े पहने, शील और विनय का पुतला, सच बोलनेवाला; देखने- वालों के मुँह से अनायास ही दुआ निकल आती थी। दूसरा मैला, नटखट, चोरों की तरह मुँह छिपाए हुए, मुँहफट, बात[ ९८ ]बात पर गालियाँ बकनेवाला। एक हरा-भरा पौधा, प्रेम में लावित, स्नेह से सिचित; दूसरा सूखा हुआ, टेढ़ा, पल्लवहीन नववृक्ष, जिसकी जड़ो को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देखकर पिता की छाती ठंडी होती; दूसरे को देखकर देह में आग लग जाती।

आश्चर्य यह था कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेश-मात्र भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह ज्ञानप्रकाश के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही एक हरियाली थी। ईर्ष्या साम्य-भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से कही ऊँँचा, कही भाग्यशाली समझता। उसमे ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था।

घृणा से घृणा उत्पन्न होती है; प्रेम से प्रेम। ज्ञानप्रकाश भी बड़े भाई को चाहता था। कभी-कभी उसका पक्ष लेकर अपनी माँ से वाद-विवाद कर बैठता। कहता―भैया की अचकन फट गई है, आप नई अचकन क्यों नहीं बनवा देती? माँ उत्तर देती―उसके लिये वही अचकन अच्छी है। अभी क्या, अभी तो वह नंगा फिरेगा। ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था कि अपने जेब-ख़र्च से बचाकर कुछ अपने भाई को दे, पर सत्य- प्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शांतिमय आनंद का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिये वह सद्भावों के [ ९९ ]साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दो और अप्रिय बात न निकलती। एक क्षण के लिये उसकी सोई हुई आत्मा जाग उठती।

एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने पूछा―तुम आजकल पढ़ने क्यो नहीं जाते? क्या सोच रक्खा है कि मैंने तुम्हारी जिदगी-भर का ठेका ले रक्खा है?

सत्य॰―मेरे ऊपर जुर्माने और फीस के कई रुपए हो गए हैं। जाता हूँ, तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।

देव॰―फीस क्यो बाकी है? तुम तो महीने-महीने ले लिया करते हो न?

सत्य॰―आए दिन चंदे लगा करते हैं। फीस के रुपए चंदे में दे दिए।

देव॰―और जुर्माना क्यो हुआ?

सत्य॰―फीस न देने के कारण।

देव॰―तुमने चंदा क्यो दिया?

सत्य॰―ज्ञानू ने चंदा दिया, तो मैंने भी दिया।

देव॰―तुम ज्ञानू से जलते हो?

सत्य॰―मैं ज्ञानू से क्यो जलने लगा। यहाँ हम और वह दो हैं, बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे पास कुछ नहीं है।

देव॰―क्यों, यह कहते शर्म आती है?

सत्य॰―जी हाँ, आपकी बदनामी होगी। [ १०० ]देव॰―अच्छा, तो आप मेरी मान-रक्षा करते हैं! यह क्यों नहीं कहते कि पढ़ना अब मँजूर नही। मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हे एक-एक क्लास में तीन-तीन साल पढ़ाऊँ; ऊपर से तुम्हारे खर्च के लिये भी प्रतिमास कुछ दूँँ। ज्ञान बाबू तुमसे कितना छोटा है, लेकिन तुमसे एक ही दफा नीचे है। तुम इस साल ज़रूर ही फेल होओगे; वह ज़रूर ही पास होगा। अगले साल तुम्हारे साथ हो जायगा। तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी न।

सत्य॰―विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है।

देव॰―तुम्हारे भाग्य में क्या है?

सत्य॰―भीख माँँगना।

देव॰―तो फिर भीख ही माँँगो। मेरे घर से निकल जाओ।

देवप्रिया भी आ गई। बोली―शरमाता तो नहीं, और बातों का जवाब देता है।

सत्य॰―जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है, वे ही बच- पन में अनाथ हो जाते हैं।

देवप्रिया―ये जली-कटी बाते अब मुझसे न सही जायँगी। मैं ख़ून का घूँट पी-पीकर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश―बेहया है। कल से इसका नाम कटवा दूँँगा। भीख माँँगनी है, तो भीख ही माँगो।

( ५ )

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी [ १०१ ]उसकी उम्र अब १६ साल की हो गई थी। इतनी बाते सुनने के बाद उसे उस घर में रहना असह्य हो गया था। जब तक हाथ- पाँँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्त्सना सब कुछ सहकर घर में रहता रहा। अब हाथ-पाँव हो गए थे, उस बंधन में क्यों रहता! आत्मा- भिमान, आशा की भाँति, चिरजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बग़ल में दबाई, एक छोटा- सा बैग हाथ में लिया और चाहता था कि चुपके से बैठक से निकल जाय कि ज्ञानू आ गया, और उसे जाने को तैयार देखकर बोला―कहाँ जाते हो, भैया?

सत्य॰―जाता हूँ, कही नौकरी करूँगा।

ज्ञान॰―मैं जाकर अम्मा से कहे देता हूँ।

सत्य॰―तो फिर मैं तुमसे भी छिपाकर चला जाऊँगा।

ज्ञान॰―क्यों चले जाओगे? तुम्हें मेरी ज़रा भी मुहब्बत नहीं?

सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा―तुम्हे छोड़कर जाने को जी तो नहीं चाहता, लेकिन जहाँ कोई पूछनेवाला नहीं है, वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कही दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा, और पेट पालता रहूँगा; और किस लायक हूँ?

ज्ञान॰―तुमसे अम्मा क्यो इतना चिढ़ती हैं? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती हैं। [ १०२ ]सत्य॰―मेरे नसीब खोटे हैं, और क्या।

ज्ञान॰―तुम लिखने-पढ़ने में जी नहीं लगाते?

सत्य॰―लगता ही नहीं, कैसे लगाऊँ? जब कोई परवा नहीं करता, तो मैं भी सोचता हूँ―उँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से!

ज्ञान॰―मुझे भूल तो न जाओगे? मैं तुम्हारे पास ख़त लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।

सत्य॰―तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्ठी लिखूँँगा।

ज्ञान॰―( रोते-रोते ) मुझे न-जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है।

सत्य॰―मैं तुम्हे सदैव याद रक्खूँँगा।

यह कहकर उसने फिर भाई को गले से लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी भी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था।

( ६ )

सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँँचा, इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस को मात्रा अधिक होती है। वे हवा में क़िले बना सकते है―धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँँचना ऐसा कष्ट-साध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहले ही उसने निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके बैग में [ १०३ ]लिखने की सामग्री मौजूद थी। बड़े शहरों में जीविका का प्रश्न कठिन भी है, और सरल भी। सरल है उनके लिये, जो हाथ से काम कर सकते हैं; कठिन है उनके लिये, जो क़लम से काम करते है। सत्यप्रकाश मजदूरी करना नीच समझता था। उसने एक धर्मशाला में असबाब रक्खा। बाद में शहर के मुख्य- मुख्य स्थानों का निरीक्षण कर एक डाकघर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया, और अपढ़ मज़दूरों की चिट्टियाँ, मनीऑर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा। पहले कई दिन तो उसको इतने पैसे भी न मिले कि भरपेट भोजन करता, लेकिन धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी। वह मज़दूरों से इतने विनय के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता कि बस, वे पत्र को सुनकर बहुत प्रसन्न होते। अशिक्षित लोग एक ही बात को दो-दो, तीन-तीन बार लिखते हैं। उनकी दशा ठीक रोगियों की-सी होती है, जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृत्तांत कहते नहीं थकते। सस्य- प्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप देकर मज़दूरो को मुग्ध कर देता था। एक संतुष्ट होकर जाता, तो अपने कई अन्य भाइयों को खोज लाता। एक ही महीने में उसे १) रोज मिलने लगा। उसने धर्मशाला से निकलकर शहर से बाहर ५) महीने पर एक छोटी- सी कोठरी ले ली। एक जून बनाता, दोनो जून खाता। बर्तन अपने हाथों से धोता। जमीन पर सोता। उसे अपने निर्वासन पर ज़रा भी खेद और दुःख न था। घर के लोगों की कभी [ १०४ ]याद न आती। वह अपनी दशा पर संतुष्ट था। केवल ज्ञान- प्रकाश की प्रेम-युक्त बातें न भूलतीं। अंधकार में यही एक प्रकाश था। बिदाई का अंतिम दृश्य आँखों के सामने फिर करता। जीविका से निश्चित होकर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा। उत्तर आया। उसक आनंद की सीमा न रही। ज्ञानू मुझे याद करके रोता है, मेरे पास आना चाहता है, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है। प्यासे को पानी से जो तृप्ति होती है, वही तृप्ति इस पत्र से सत्यप्रकाश को हुई। मैं अकेला नहीं हूँ, कोई मुझे भी चाहता है―मुझे भी याद करता है!

उस दिन से सत्यप्रकाश को यह चिंता हुई कि ज्ञानू के लिये कोई उपहार भेजूँँ। युवकों को मित्र बहुत जल्द मिल जाते हैं। सत्यप्रकाश की भी कई युवकों से मित्रता हो गई थी। उनके साथ कई बार सिनेमा देखने गया। कई बार बूटी-भंग, शराब-क़वाब की भी ठहरी। आइना, तेल, कंघी का शौक़ भी पैदा हुआ। जो कुछ पाता, उड़ा देता; बड़े वेग से नैतिक पतन और शारीरिक विनाश की ओर दौड़ा चला जाता था। इस प्रेम-पत्र ने उसके पैर पकड़ लिए। उपहार के प्रयास ने इन दुव्यसनों को तिरोहित करना शुरू किया। सिनेमा का चसका छूटा। मित्रों को हीले-हवाले करके टालने लगा। भोजन भी रूखा-सूखा करने लगा। धन-संचय की चिंता ने सारी इच्छाओं को परास्त कर दिया। उसने निश्चय किया कि एक अच्छी-सी घड़ी भेजूँँ। उसका दाम कम-से-कम ४०) होगा। अगर तीन महीने [ १०५ ]तक एक कौड़ी का भी अपव्यय न करूँ, तो घड़ी मिल सकती है। ज्ञानू घड़ी देखकर कैसा खुश होगा। अम्मा और बाबूजी भी देखेंगे। उन्हे मालूम हो जायगा कि मैं भूखों नहीं मर रहा हूँ। किफायत की धुन में वह बहुधा दिया-बत्ती भी न करता। बड़े सबेरे काम करने चला जाता और सारे दिन दो-चार पैसे की मिठाई खाकर काम करता रहता। उसके ग्राहकों की संख्या दिन-दूनी होती जाती थी। चिट्ठी-पत्री के अतिरिक्त अब उसने तार लिखने का भी अभ्यास कर लिया था। दो ही महीनों में उसके पास ५०) एकत्र हो गए; और जब घड़ी के साथ सुनहरी चेन का पारसल बनाकर ज्ञानू के नाम भेज दिया, तो उसका चित्त इतना उत्साहित था, मानो किसी निस्संतान के बालक हुआ हो।

( ७ )

'घर' कितनी ही कोमल, पवित्र, मनोहर स्मृतियों को जाग्रत कर देता है! यह प्रेम का निवास स्थान है। प्रेम ने बहुत तपस्या करके यह वरदान पाया है।

किशोरावस्था में 'घर' माता-पिता, भाई-बहन, सखी-सहेली के प्रेम की याद दिलाता है; प्रौढ़ावस्था में गृहिणी और बाल- बच्चों के प्रेम की। यही वह लहर है, जो मानव-जीवन-मात्र को स्थिर रखती है, उसे समुद्र की वेगवती लहरो में बहने और चट्टानों से टकराने से बचाती है। यही वह मंडप है, जो जीवन को समस्त विघ्न-बाधाओ से सुरक्षित रखता है। [ १०६ ]सत्यप्रकाश का 'घर' कहाँ था? वह कौन-सी शक्ति थी, जो कलकत्ते के विराट् प्रलोभनों से उसकी रक्षा करती थी?― माता का प्रेम, पिता का स्नेह, बाल-बच्चों की चिंता?―नहीं, उसका रक्षक, उद्धारक, उसका परितोषक केवल ज्ञानप्रकाश का स्नेह था। उसी के निमित्त वह एक-एक पैसे की किफायत करता। उसी के लिये वह कठिन परिश्रम करता―धनोपार्जन के नए-नए उपाय सोचता। उसे ज्ञानप्रकाश के पत्रों से मालूम हुआ था कि इन दिनों देव काश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं। वह एक घर बनवा रहे हैं, जिसमे व्यय अनुमान से अधिक हो जाने के कारण ऋण लेना पड़ा है; इसलिये अब ज्ञानप्रकाश का पढ़ाने के लिये घर पर मास्टर नहीं आता। तब से सत्यप्रकाश प्रतिमास ज्ञानू के पास कुछ-न-कुछ अवश्य भेज देता था। वह अब केवल पत्र-लेखक न था, लिखने के सामान की एक छोटी-सी दूकान भी उसने खोल ली थी। इससे अच्छी आमदनी हो जाती थी। इस तरह पाँच वर्ष बीत गए। रसिक मित्रों ने जब देखा कि अब यह हत्थे नहीं चढ़ता, तो उसके पास आना-जाना छोड़ दिया।

( ८ )

संध्या का समय था। देवप्रकाश अपने मकान में बठे देव- प्रिया से ज्ञानप्रकाश के विवाह के संबंध में बातें कर रहे थे। ज्ञानू अब १७ वर्ष का सुदरयुवक था। बाल-विवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभ-मुहूर्त को न टाल सकते [ १०७ ]थे, विशेषतः जब कोई महाशय ५,०००) दायज देने को प्रस्तुत हों।

देवप्रकाश―मैं तो तैयार हूँ, लेकिन तुम्हारा लड़का भी तो तैयार हो।

देवप्रिया―तुम बातचीत पक्की कर लो, वह तैयार हो ही जायगा। सभी लड़के पहले ‘नहीं’ करते हैं।

देवप्रकाश―ज्ञानू का इनकार केवल संकोच का इनकार नहीं है, वह सिद्धांत का इनकार है। वह साफ़-साफ़ कह रहा है कि जब तक भैया का विवाह न होगा, मैं अपना विवाह करने पर राज़ी नहीं हूँ।

देवप्रिया―उसकी कौन चलाए, वहाँ कोई रखैल रख ली होगी, विवाह क्यों करेगा? वहाँ कोई देखने जाता है?

देवप्रकाश―( झुँँझलाकर ) रखैल रख ली होती, तो तुम्हारे लड़के को ४०) महीने न भेजता, और न वे चीजे ही देता, जिन्हे पहले महीने से अब तक बरावर देता चला आता है। न-जाने क्यों तुम्हारा मन उसकी ओर से इतना मैला हो गया है! चाहे वह जान निकालकर भी दे दे, लेकिन तुम न पसीजोगी।

देवप्रिया नाराज़ होकर चली गई। देवप्रकाश उससे यही कहलाया चाहते थे कि पहले सत्यप्रकाश का विवाह करना उचित है, किंतु वह कभी इस प्रसंग को आने ही न देती थी। स्वयं देवप्रकाश की यह हार्दिक इच्छा थी कि पहले बड़े लड़के का विवाह करे, पर उन्होने भी आज तक सत्यप्रकाश [ १०८ ]को कोई पत्र न लिखा था। देवप्रिया के चले जाने के बाद उन्होने आज पहली बार सत्यप्रकाश को पत्र लिखा। पहले इतने दिनों तक चुपचाप रहने के लिये क्षमा माँगी, तब उसे एक बार घर आने का प्रेमाग्रह किया। लिखा, अब मैं कुछ ही दिनों का मेहमान हूँ। मेरी अभिलाषा है, तुम्हारा और तुम्हारे छोटे भाई का विवाह देख लूँँ। मुझे बहुत दुःख होगा, यदि तुम यह विनय स्वीकार न करोगे। ज्ञानप्रकाश के अस- मंजस की बात भी लिखी। अंत में इस बात पर जोर दिया कि किसी और विचार से नहीं, तो ज्ञान के प्रेम के नाते ही तुम्हें इस बंधन में पड़ना होगा।

सत्यप्रकाश को यह पत्र मिला, तो उसे बहुत खेद हुआ। मेरे भ्रातृस्नेह का यह परिणाम होगा, मुझे न मालूम था। इसके साथ ही उसे यह ईर्ष्यामय आनंद हुआ कि अम्मा और दादा को अब तो कुछ मानसिक पीड़ा होगी। मेरी उन्हें क्या चिंता थी? मैं मर भी जाऊँ, तो भी उनकी आँखों में आँसू न आवे। ७ वर्ष हो गए, कभी भूलकर भी पत्र न लिखा कि मरा है, या जीता है। अब कुछ चेतावनी मिलेगी। ज्ञानप्रकाश अंत में विवाह करने पर राजी तो हो ही जायगा, लेकिन सहज में नहीं। कुछ न हो, तो मुझे तो एक बार अपने इनकार के कारण लिखने का अवसर मिला। ज्ञानू को मुझसे प्रेम है, लेकिन उसके कारण मैं पारिवारिक अन्याय का दोषी न बनूँगा। हमारा पारिवारिक जीवन संपूर्णतः अन्यायमय है। यह कुमति और वैमनस्य, करता [ १०९ ]और नृशंसता का बीजारोपण करता है। इसी माया में फँसकर मनुष्य अपनी प्यारी संतान का शत्रु हो जाता है। ना, मैं आँखों देखकर यह मक्खी न निगलूँँगा। मैं ज्ञानू को समझाऊँगा अवश्य। मेरे पास जो कुछ जमा है, वह सब उसके विवाह के निमित्त अर्पण भी कर दूँँगा। बस, इससे ज्य़ादा मैं और कुछ नहीं कर सकता। अगर ज्ञानू भी अविवाहित ही रहे, तो संसार कौन सूना हो जायगा? ऐसे पिता का पुत्र क्या वंशपरंपरा का पालन न करेगा? क्या उसके जीवन में फिर वही अभिनय न दुहराया जायगा, जिसने मेरा सर्वनाश कर दिया?

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने ५००) पिता के पास भेजे, ओर पत्र का उत्तर लिखा कि मेरा अहोभाग्य, जो आपने मुझे याद किया। ज्ञानू का विवाह निश्चित हो गया, इसकी बधाई! इन रुपयो से नववधू के लिये कोई आभूषण बनवा दीजिएगा। रही मेरे विवाह की बात। सो मैने अपनी आँखों से जो कुछ देखा और मेरे सिर पर जो कुछ बीती है, उस पर ध्यान देते हुए यदि मैं कुटुब-पाश में फँसू, तो मुझसे बड़ा उल्लू संसार में न होगा। आशा है, आप सुझे क्षमा करेंगे। विवाह की चर्चा हो से मेरे हृदय को आघात पहुँचता है।

दूसरा पत्र ज्ञानप्रकाश को लिखा कि माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करो। मैं अपढ़, मूर्ख, बुद्धि-हीन आदमी हूँ; मुझे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं है। खेद है, मैं तुम्हारे विवाह के शुभोत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा, लेकिन [ ११० ]मेरे लिये इससे बढ़कर आनंद और संतोष का विषय नहीं हो सकता।

( ९ )

देवप्रकाश यह पढ़कर अवाक् रह गए। फिर आग्रह करने का साहस न हुआ। देवप्रिया ने नाक सिकोड़कर कहा― यह लौडा देखन ही को सीधा है, है जहर का बुझाया हुआ! सौ कोस पर बैठा हुआ बरछियों से कैसा छेद रहा है।

किंतु ज्ञानप्रकाश ने यह पत्र पढ़ा, तो उसे मर्माघात पहुँँचा। दादा और अम्मा के अन्याय ने ही उन्हें यह भीषण व्रत धारण करने पर बाध्य किया है। इन्ही ने उन्हे निर्वासित किया है, और शायद सदा के लिये। न-जाने अम्मा को उनसे क्यों इतनी जलन हुई। मुझे तो अब याद आता है कि किशोरावस्था ही से वह बड़े आज्ञाकारी, विनयशील और गंभीर थे। उन्हें अम्मा की बातों का जवाब देते नहीं सुना। मैं अच्छे-से-अच्छा खाता था, फिर भी उनके तेवर मैले न हुए, हालाँँकि उन्हें जलना चाहिए था। ऐसी दशा में अगर उन्हें गार्हस्थ्य जीवन से घृणा हो गई, तो आश्चर्य ही क्या? फिर मैं क्यों इस विपत्ति में फँसूँँ? कौन जाने, मुझे भी ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़े। भैया ने बहुत सोच-समझकर यह धारणा की है।

संध्या-समय जब उसके माता-पिता बैठे हुए इसी समस्या पर विचार कर रहे थे, ज्ञानप्रकाश ने आकर कहा―मैं कल भैया से मिलने जाऊँगा। [ १११ ]देवप्रिया―क्या कलकत्ते जाओगे?

ज्ञान॰―जी हाँ।

देवप्रिया―उन्हीं को क्यों नहीं बुलाते?

ज्ञान॰―उन्हे कौन मुँह लेकर बुलाऊँ? आप लोगों ने तो पहले ही मेरे मुँह में कालिख लगा दी है। ऐसा देव-पुरुष आप लोगों के कारण विदेश में ठोकर खा रहा है, और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि....

देवप्रिया―अच्छा चुप रह, नहीं ब्याह करना है, न कर, जले पर लोन मत छिड़क! माता-पिता का धर्म है, इसलिये कहती हूँ, नहीं तो यहाँ ठेगे को परवा नहीं है। तू चाहे ब्याह कर, चाहे क्वाँरा रह; पर मेरी आँखों से दूर हो जा।

ज्ञान॰―क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गई?

देवप्रिया―जब तू हमारे कहने ही में नहीं, तो जहाँ चाहे रह। हम भी समझ लेगे कि भगवान् ने लड़का ही नहीं दिया।

देव॰―क्यों व्यर्थ ऐसे कटु वचन बोलती हो?

ज्ञान॰―अगर आप लोगों की यही इच्छा है, तो यही होगा। देवप्रकाश ने देखा कि बात का बतंगड़ हुआ चाहता है, तो ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल दिया, और पत्नी के क्रोध को शांत करने की चेष्टा करने लगे। मगर देवप्रिया फूट-फूटकर रो रही थी, बार-बार कहती थी―मैं इसकी सूरत न देखूँगी। अंत मे देवप्रकाश ने चिढ़कर कहा―तो तुम्ही ने तो कटु वचन कहकर उसे उत्तेजित कर दिया। [ ११२ ]देवप्रिया―यह सब विष उसी चांडाल ने बोया है, जो यहाँ से सात समुद्र-पार बैठा हुआ मुझे मिट्टी में मिलाने का उपाय कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे छीनने हो के लिये उसने यह प्रेम का स्वाँग भरा है। मैं उसकी नस नस पहचानती हूँ। उसका यह मंत्र मेरी जान लेकर छोड़ेगा; नहीं तो मेरा ज्ञानू, जिसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया, यों मुझे न जलाता।

देव॰―अरे, तो क्या वह विवाह ही न करेगा! अभी ग़ुस्से में अनाप-शनाप बक गया है। जरा शांत हो जायगा, तो मैं समझाकर राजी कर दूँँगा।

देवप्रिया―मेरे हाथ से निकल गया।

देवप्रिया की आशंका सत्य निकली। देवप्रकाश ने बेटे को बहुत समझाया। कहा―तुम्हारी माता इस शोक में मर जायगी; किंतु कुछ असर न हुआ। उसने एक बार 'नहीं' कह- कर 'हाँ' न की। निदान वह भी निराश होकर बैठ रहे।

तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों में यह प्रश्न उठता रहा, पर ज्ञानप्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा। माता का रोना-धोना निष्फल हुआ। हाँ, उसने माता की एक बात मान ली―वह भाई से मिलने कलकत्ते न गया।

तीन साल में घर में बड़ा परिवर्तन हो गया। देवप्रिया की तीनो कन्याओं का विवाह हो गया। अब घर में उसके सिवा कोई स्त्री न थी। सूना घर उसे खाए लेता। जब वह नैराश्य और क्रोध से व्याकुल हो जाती, तो सत्यप्रकाश को ख़ूब जी[ ११३ ]भरकर कोसती। मगर दोनों भाइयों में प्रेम-पत्र-व्यवहार बरा- बर होता रहता था।

देवप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र उदासीनता प्रकट होने लगी। उन्होंने पेंशन ले ली थी, और प्राय धर्म-ग्रंथों का अध्ययन किया करते थे। ज्ञानप्रकाश ने भी 'आचार्य' की उपाधि प्राप्त कर ली थी, और एक विद्यालय में अध्यापक हो गए थे। देवप्रिया अब संसार में अकेली थी।

देवप्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी को ओर खीचने के लिये नित्य टोने-टोटके किया करती। बिरादरी में कौन-सी कन्या सुंदर है, गुणवती है, सुशिक्षिता है―उसका बखान किया करती, पर ज्ञानप्रकाश को इन बातो के सुनने की भी फुरसत न थी।

मोहल्ले के और घरों में नित्य ही विवाह होते रहते थे। बहुएँ आती थी, उनकी गोद में बच्चे खेलने लगते थे, घर गुलजार हो जाता था। कही विदाई होती थी, कही बधाइयाँ आती थी, कही गाना-बजाना होता था, कही बाजे बजते थे। यह चहल पहल देखकर देवप्रिया का चित्त चंचल हो जाता। उसे मालूम होता, मैं ही संसार में सबसे अभागिनी हूँ। मेरे ही भाग्य में यह सुख भोगना नहीं बदा है। भगवान् ऐसा भी कोई दिन आवेगा कि मैं अपनी बहू का मुख चँद्र देखूँगी, बालकों को गोद में खिलाऊँगी। वह भी कोई दिन होगा कि मेरे घर में भी आनंदोत्सव के मधुर गान की ताने उठेगी! रात-दिन ये ही बातें सोचते-सोचते देवप्रिया की दशा उन्मादिनी की-सी हो गई। [ ११४ ]आप-ही-आप सत्यप्रकाश को कोसने लगती—वही मेरे प्राणों का घातक है। तल्लीनता उन्माद का प्रधान गुण है। तल्लीनता अत्यंत रचनाशील होती है। वह आकाश में देवताओ के विमान उड़ाने लगती है। अगर भोजन में नमक तेज़ हो गया, तो यह शत्रु ने कोई रोड़ा रख दिया होगा। देवप्रिया को अब कभी-कभी धोखा हो जाता कि सत्यप्रकाश घर में आ गया है, वह मुझे मारना चाहता है, ज्ञानप्रकाश को विष खिलाए देता है। एक दिन उसने सत्यप्रकाश के नाम एक पत्र लिखा, और उसमे जितना कोसते बना, कोसा―तू मेरे प्राणो का वैरी है, मेरे कुल का घातक है, हत्यारा है। वह कौन दिन आवेगा कि तेरी मिट्टी उठेगी। तूने मेरे लड़के पर वशीकरण-मंत्र चला दिया है। दूसरे दिन फिर ऐसा ही एक पत्र लिखा, यहाँ तक- कि यह उसका नित्य का कर्म हो गया। जब तक एक चिट्ठी में सत्यप्रकाश को गालियाँ न दे लेती, उसे चैन ही न आता! इन पत्रो को वह कहारिन के हाथ डाकवर भिजवा दिया करती थी।

( १० )

ज्ञानप्रकाश का अध्यापक होना सत्यप्रकाश के लिये घातक हो गया। परदेश मे उसे यही संतोष था कि मैं संसार में निरा- धार नहीं हूँ। अब यह अवलंब जाता रहा। ज्ञानप्रकाश ने ज़ोर देकर लिखा―अब आप मेरे हेतु कोई कष्ट न उठावें। मुझे अपनी गुज़र करने के लिये काफी से ज्यादा मिलने लगा है।

यद्यपि सत्यप्रकाश की दूकान खूब चलती थी, लेकिन कल[ ११५ ]कत्ते जैसे शहर में एक छोटे-से दूकानदार का जीवन बहुत सुखी नहीं होता। ६०)-७०) की मासिक आमदनी होती ही क्या है? अब तक वह जो कुछ बचाता था, वह वास्तव में बचत न थी, बल्कि त्याग था। एक वक्त़ रूखा-सूखा खाकर, एक तंग आर्द्र कोठरी में रहकर २५)-३०) बच रहते थे। अब दोनो वक्त़ भोजन मिलने लगा। कपड़े भी ज़रा साफ पहनने लगा। मगर थोड़े ही दिनों में उसके खर्च में औषधियों की एक मद बढ़ गई। फिर वही पहले की सी दशा हो गई। बरसो तक शुद्ध वायु, प्रकाश आर पुष्टिकर भोजन से वंचित रहकर अच्छे-से-अच्छा स्वास्थ्य भी नष्ट हो सकता है। सत्यप्रकाश को अरुचि, मंदाग्नि आदि रोगो ने आ घरा। कभी-कभी ज्वर भी आ जाता। युवावस्था में आत्मविश्वास होता है। किसा अवलंब की परवा नहीं होती। वयोवृद्धि दूसरो का मुँह ताकती है, कोई आश्रय ढूढ़ती है। सत्यप्रकाश पहले सोता, तो एक ही करवट में सवेरा हो जाता। कभी बाज़ार से पूरियाँ लेकर खा लेता, कभी मिठाई पर टाल देता। पर अब रात को अच्छी तरह नींद न आती, बाजारू भोजन से घृणा होती, रात को घर आता, तो थककर चूर-चूर हो जाता। उस वक्त़ चूल्हा जलाना, भोजन पकाना बहुत अखरता। कभी-कभी वह अपने अकेलेपन पर रोतो। रात को जब किसी तरह नींद न आती, तो उसका मन किसी से बाते करने को लालायित होने लगता। पर वहाँ निशांधकार के सिवा और कौन था? दीवालों के कान चाहे हो, मुँह नहीं [ ११६ ]< होता। इधर ज्ञानप्रकाश के पत्र भी अब कम आते थे, और वे भी रूखे। उनमें अब हृदय के सरल उद्गारों का लेश भी न रहता। सत्यप्रकाश अब भी वैसे ही भावमय पत्र लिखता था; पर एक अध्यापक के लिये भावुकता कब शोभा देती है? शनैः- शनैः सत्यप्रकाश को भ्रम होने लगा कि ज्ञानप्रकाश भी मुझसे निष्ठुरता करने लगा, नहीं तो क्या मरे पास दो-चार दिन के लिये आना असंभव था? मेरे लिये तो घर का द्वार बंद है, पर उसे कौन-सी बाधा है? उस गरीब को क्या मालूम कि यहाँ ज्ञानप्रकाश ने माता से कलकत्ते न जाने को कसम खा ली है। इस भ्रम ने उसे और भी हताश कर दिया।

शहरों में मनुष्य बहुत होते हैं, पर मनुष्यता बिरले ही में होती है। सत्यप्रकाश उस बहु-संख्यक स्थान में भी अकेला था। उसके मन में अब एक नई आकांक्षा अंकुरित हुई। क्यों न घर लोट चलूँ? किसी संगिनी के प्रेम की क्यों न शरण लूँ? वह सुख और शांति और कहाँ मिल सकती है? मेरे जीवन के निराशांधकार का और कौन ज्योति आलोकित कर सकती है? वह इस आवेश को अपनी संपूर्ण विचार-शक्ति से रोकता, पर जिस भाँति किसी बालक को घर में रक्खी हुई मिठाइयों की याद बार-बार खेल से घर खींच लाती है, उसी तरह उसका चित्त भी बार-बार उन्हीं मधुर चिंताओं में मग्न हो जाता था। वह सोचता―मुझे विधाता ने सब सुख से वंचित कर दिया है, नहीं तो मेरी दशा ऐसी हीन क्यों होती? मुझे ईश्वर ने बुद्धि न दी [ ११७ ]थी क्या? क्या मैं श्रम से जी चुराता था? अगर बालपन ही में मेरे उत्साह और अभिरुचि पर तुषार न पड़ गया होता, मेरी बुद्धि—शक्तियों का गला न घोट दिया गया होता, तो मैं भी आज आदमी होता, पेट पालने के लिये इस विदेश में न पड़ा रहता। नहीं, मैं अपने ऊपर यह अत्याचार न करूँँगा।

महीनों तक सत्यप्रकाश के मन और बुद्धि में यह संघर्ष होता रहा। एक दिन वह दूकान से आकर चूल्हा जलाने जा रहा था कि डाकिए ने पुकारा। ज्ञानप्रकाश के सिवा उसके पास और किसी के पत्र न आते थे। आज हो उनका पत्र आ चुका था। यह दूसरा पत्र क्यों? किसी अनिष्ट को आशंका हुई। पत्र लेकर पढ़ने लगा। एक क्षण मे पन्न उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा, और वह सिर थामकर बैठ गया कि जमीन पर न गिर पड़े। यह देवप्रिया की विष- युक्त लेखनी से निकला हुआ ज़हर का तीर था, जिसने एक पल मे उसे संज्ञाहीन कर दिया। उसकी सारो ममीतक व्यथा―क्रोध, नैराश्य, कृतघ्नता, ग्लानि―केवल एक ठंडी साँस में समाप्त हो गई।

वह जाकर चारपाई पर लेट रहा। मानसिक व्यथा आप- से आप पानी हो गई। हा! सारा जीवन नष्ट हो गया! मैं ज्ञानप्रकाश का शत्रु हूँ? मैं इतने दिनों से केवल उसके जीवन को मिट्टी में मिलाने के लिये ही प्रेम का स्वाँग भर रहा हूँ? भगवन्! तुम्हीं इसके साक्षी हो!

तीसरे दिन फिर देवप्रिया का पत्र पहुँचा। सत्यप्रकाश ने उसे लेकर फाड़ डाला। पढ़ने की हिम्मत न पड़ी। [ ११८ ]एक ही दिन पीछे तीसरा पत्र पहुँँचा। उसका भी वही अंत हुआ। फिर तो यह एक नित्य का कर्म हो गया। पत्र आता और फाड़ दिया जाता। किंतु देवप्रिया का अभिप्राय बिना पढ़े ही पूरा हो जाता था―सत्यप्रकाश के मर्मस्थान पर एक चोट ओर पड़ जाती थी।

एक महीने की भीषण हार्दिक वेदना के बाद सत्यप्रकाश को जीवन से घृणा हो गई। उसने दूकान बंद कर दो, बाहर आना- जाना छोड़ दिया। सारे दिन खाट पर पड़ा रहता। वे दिन याद आते, जब माता पुचकारकर गोद में बिठा लेती, और कहती― बेटा! पिता संध्या-समय दफ्तर से आकर गोद में उठा लेते, और कहते―भैया! माता का सजीव मूर्ति उसके सामने आ खड़ी होती, ठीक वैसी ही जब वह गंगा-स्नान करने गई थी। उसकी प्यार-भरी बातें कानो में गूँँजने लगती। फिर वह दृश्य सामने आता, जब उसने नववधू माता को 'अम्मा' कहकर पुकारा था। तब उसके कठोर शब्द याद आ जाते, उसके क्रोध से भरे हुए विकराल नेत्र आँखो के सामने आ जाते। उसे अपना सिसक-सिसककर रोना याद आ जाता। फिर सौरगृह का दृश्य सामने आता। उसने कितने प्रेम से बच्चे को गोद में लेना चाहा था! तब माता के वज्र के-से शब्द कानो में गूँँजने लगते। हाय! उसी वजू ने मेरा सवनाश कर दिया! ऐसी कितनी ही घटनाएँ याद आतीं। कभी विना किसो अपराध के माँँ को डाट बताना, और कभी पिता का निर्दय, निष्ठुर व्यवहार याद आने [ ११९ ]लगता। उनका बात-बात पर त्योरियाँ बदलना, माता के मिथ्यापवादी पर विश्वास करना―हाय! मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया! तब वह करवट बदल लेता, और फिर वही दृश्य आँखों में फिरने लगते। फिर करवट बदलता और चिल्ला उठता―इस जीवन का अंत क्यों नहीं हो जाता!

इस भाँति पड़े-पड़े उसे कई दिन हो गए। संध्या हो गई थी कि सहसा उसे द्वार पर किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने कान लगाकर सुना और चौक पड़ा―कोई परि- चित आवाज थी। दौड़ा, द्वार पर आया, तो देखा, ज्ञानप्रकाश खड़ा है। कितना रूपवान् पुरुष था! वह उसके गले से लिपट गया। ज्ञानप्रकाश ने उसके पैरों को स्पर्श किया। दोनो भाई घर में आए। अंधकार छाया हुआ था। घर की यह दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था, रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलाई। घर क्या था, भूत का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर, पीला मुख, बुझी हुई आँखे देखता और रोता था।

सत्यप्रकाश―मैं आजकल बीमार हूँ।

ज्ञानप्रकाश―यह तो देख ही रहा हूँ।

सत्य॰―तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कैसे चला?

ज्ञान॰―सूचना तो दी थी, आपको पत्र न मिला होगा। [ १२० ]सत्य॰―अच्छा, हाँ दी हागी, पत्र दूकान में पड़ा होगा। मैं इधर कई दिन से दूकान नहीं गया। घर पर सब कुशल है?

ज्ञान॰―माताजी का देहांत हो गया।

सत्य॰―अरे! क्या बीमार थी?

ज्ञान॰―जी नहीं। मालूम नहीं, क्या खा लिया। इधर उन्हें उन्माद-सा हो गया था। पिताजी ने कुछ कटु वचन कहे थे, शायद इसी पर कुछ खा लिया।

सत्य॰―पिताजो तो कुशल से हैं?

ज्ञान॰―हाँ, अभी मरे नहीं हैं।

सत्य॰―अरे! क्या बहुत बीमार हैं?

ज्ञान॰―माता ने विष खा लिया, तो वह उनका मुँह खोल- कर दवा पिला रहे थे। माताजी ने जोर से उनकी दो उँगलियाँ काट लीं। वही विष उनके शरीर में पहुँच गया। तब से सारा शरीर सूज आया है। अस्पताल में पड़े हुए हैं, किसी को देखते है, तो काटने दौड़ते है। बचने की आशा नहीं है।

सत्य॰―तब तो घर ही चौपट हो गया!

ज्ञान॰―ऐसे घर को अब से बहुत पहले चौपट हो जाना चाहिए था।

XXX
 

तीसरे दिन दोनो भाई प्रातःकाल कलकत्ते से बिदा होकर चल दिए।

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