बिखरे मोती/अमराई

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बिखरे मोती  (1932) 
द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान

[ १५५ ] से अमराई में सावन के लगते ही झूला पड़ जाता

और विजयादशमी तक्र पड़ा रहता। शाम- सुबह तो बालक-बालिकाएँ और रात में अधिकतर युवतियाँ उस झूले की शोभा बढ़ातीं। यह उन दिनों की बात है। जब सत्याग्रह आन्दोलन अपने पूर्ण विकास पर था। सारे भारतवर्ष में समराभि धधक रही थी। दमन का चक्र अपने पूर्ण वेग से चल रहा था। अखबारों में लाठी- चार्ज, गोली-काण्ड, गिरफ़तारी और सजा की घूम के अतिरिक्त और कुछ रहता ही न था। इस गांव में भी सरकार के दमन का चक्र चल चुका था। कांग्रेस के [ १५६ ]सभापति और मंत्री पकड़ कर जेल में बन्द कर दिए गए थे।


उस दिन राखी थी। बहिनें अपने भाइयों को सदा इस अमराई में ही राखी बांधा करती थीं । वहाँ सब लोग एकत्रित होकर त्योहार मनाया करते थे। वहिनेंं भाइयों को पहिले कुछ खिलाती, माला पहिनातीं, हाथ में नारियल देतीं और तिलक लगा कर हाथ में राखी बांधते हुए कहती, “भाई इस राखी की लाज रखना; लड़ाई के. मैदान में कभी पीट न दिखाना।

एक तरफ़ ती राखी का चित्ताकर्षकं दृश्य था । दूसरी और छोटे-छोटे बच्चे और बच्चियाँ झूले पर झूल रहे थे। उनके सुकुमार हृदयों में भी देश-प्रेम के नन्हें-नन्हें पौधे प्रस्फुटित हो रहे थे। बहादुरी के साथ देश के हित के लिए फांसी पर लटके जाने में वे भी शाचद गौरव समझने थे । पद्दिले तो लड़कियाँ- कजली गा रही थी। एकाएक एक छोटा चालक गा उठा-

झडा ऊंचा रहे हमारा

फिर क्या था; सव बचे 'कजली-वजली तो गए भूल, और लगे चिल्लाने

झंडा ऊंचा रहे हमारा

[ १५७ ]इसकी ख़यर ठाकुर , साहब के.पास पहुँची। अमराई

उन्हीं की थी । अभी तीन.ही महीने पहिले वे राय साहेब हुए थे। आनरेरी मजस्ट्रिट तो थे ही, और थे सरकार के बड़े भारी खैरख्ह । जब उन्होंने सुना कि असराई। तो असहयोगियों का अज्ञा बन गई है; प्राय:इस प्रकार वहाँ रोज ही होता है तो वे वड़े घबराए, फौरन घोड़ा कसवा कर अमराई की और चल बड़े; किन्तु उनके पहुँचने के पहिले ही वहाँ पुलिस भी पहुँच चुकी थी। ठाकुर साहब को देखते ही दरोगा नियामत अली सने विगड़ कर कहा---ठाकुर साहब ! आप से तो हगें ऐसी उम्मीद न थी। मालूम होता है कि आप भी उन्हीं में से हैं। यह सब' आप की ही तबियत से हो रहा है। लेकिन इससे अमन सें खलल पड़ते का खतरा.है । आप ५ भिनट के अन्दर ही यह सब मजमा यहाँ से हटवा दीजिये; वरना हमें मजवूर होकर लाठियाँ चलवानी पड़ेंगी ।

ठाकुर साहब ने नम्रता से कहा-दरोगा जी जरा सत्र रखिए, मैं अभी यहाँ से सब को हटवाए देता हूँ । आपको लाटियाँ चलवाने की नौवत ही क्यों- आएगी ? नियामत
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अली का पारा ११० पर तो था ही, बोले, फिर भी मैं आपको पहले से आगाह कर देना चाहता हूँ कि ज्यादः से ज्यादः दस मिनट लगे; नहीं तो मुझे मजबूरन लाठियांँ चलवानी ही पड़ेगी। ठाकुर साहब ने घोड़े से उतर कर अमराई में पैर रखा ही था कि उनका सात साल का नाती विजय हाथ में लकड़ी की तलवार लिए हुए आकर सामने खड़ा हो गया। ठाकुर साहब को सम्बोधन करके बोला-

दादा ! देखो भेरे पास भी तलवार है; मैं भी बहादुर बनूंगा ।

इतने ही में उसकी बड़ी वहिन कान्ती, जिसकी उमर क़रीब नौ साल की थी, धानी रंग की साड़ी पहने आकर ठाकुर साहेब से बोली-दादा ! ये विजय लकड़ी की तलवार लेकर बड़े वहादुर बनने चले हैं। मैं तो दादा! स्वराज का काम करूंगी और चर्खा चला-चला कर देश को आज़ाद कर देंगी; फिर दादी बतलाओ, मैं बहादुर बनूं कि ये लकड़ी की तलवार वाले ?”

विजय की तलवार का पहिला वार कान्ती पर ही हुआ; उसने कान्ती की ओर गुस्से से देखते हुए कहा-
[ १५९ ] "देख लेना किसी दिन फाँसी पर न लटक जाऊं तो कहना। लकड़ी की तलवार है तो क्या हुआ; मारा कि नहीं तुम्हें ?

बच्चों की इन बातों में.ठाकुर साहब क्षण भर के लिए अपने आपको भूल म गए। उधर १० मिनट से ११ होते ही दरोगा नियामत अली ने अपने जवानों को लाठियां चलाने का हुक्म दे ही तो दिया । देखते ही देखते अमराई में लाठियाँ बरसने लगी। आज अमराई में ठाकुर साहब के भी घर की स्त्रियाँ और बच्चे थे और गाँव के भी प्रायः सभी घरों की स्त्रियाँ बच्चे और युवक त्यौहार मनाने आए थे। उनकी थालियाँ राखी, नारियल, केशर, रोली, चन्दन और फूल मालाओं से सजी हुई रखी थीं। किन्तु कुछ ही देर बाद वे थालियाँ, जिनमें रोली और चन्दन था, खून से भर गई।

[ ३ ]

जब पुलिस मजमें को तितर-बितर करके चली गई तो देखा गया कि घायलों की संख्या करीब तीस के थी । जिनमें अधिकतर बच्चे, कुछ स्त्रियाँ और सात-आठ युवक
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थे। विजय को सबसे ज्यादः चोट आई थीं। चोट तो कान्ती को भी थी, किन्तु विजय से कम । ठाकुर साहब का तो परिवार का परिवार ही घायल था । घायलों को उनके घरों में पहुँचाया गया और अमराई में पुलिस को पहरा बैठ गया ।

विजय की चोट गहरी थी, दशा बिगड़ती जा रही थी। जिस समय वह अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा था उसी समय कोर्ट से ठाकुर साहब के लिए सम्मन आया। उन्हें कोर्ट में यह पूंछने के लिए बुलाया गया था कि उनका आम का बगीचा असहयोगियों का अङा कैसे और किसके हुक्म से बनाया गया । ठाकुर साहेब भी आनरेरी मजिस्ट्रेटी का इस्तीफा, राय साहिबी का त्याग पत्र जेब में लिए हुए कोर्ट पहुँचे । उनका बयान इस प्रकार था ।

मेरा बगीचा असहयोगियों का अङा कभी नहीं रहा है। क्योंकि मैं अभी तक सरकार का बड़ा भारी खैर- वाह रहा हूं। मुझे सरकार की नीति पर विश्वास था; और अपने घर में बैठा हुआ मैं अखवारी दुनिया का विश्वास कम करता था। मुझे यक़ीन ही न आता था
[ १६१ ] कि न्याय की आड़ में सरकार निरीह बालक, स्त्रियों और पुरुषों पर कैसे लाठियाँ चलवा सकती है ? परन्तु आज तो सारा भेद मेरी आँखों के ही आगे विपैले अक्षरों में लिखा गया है। मेरी तो यह विश्वास हो गया है कि इस शासन- विधान में, जो प्रजा को हितकर नहीं हैं, अवश्य परिवर्तन होना चाहिए। हर एक हिन्दुस्तानी का धर्म है कि वह शासन-सुधार के काम में पूरा-पूरा सहयोग दे । मैं भी अपना धर्म पालन करने के लिए विवश हैं और यह मेरी राय साहिवी और आनरेरी मजिस्ट्रेटी का त्याग-पत्र है। ठाकुर साहव तुरंत कोर्ट से बाहर हो गए।

[ ४ ]

दूसरे ही दिन से उस अमराई में रोज ही कुछ आदमी राष्ट्रीय गाने गाते हुए गिरफ्तार होते है और साठ साल के बूड़े ठाकुर साहब को, सरकार के इतने दिन की खैर- ख्वाही के पुरस्कार स्वरूप छै महीने की सख्त सजा और ५००) का जुरमाना हुआ। जुरमाने में उनकी अमराई नीलाम कर ली गई । जहाँ हर साल बरसात में बच्चे झूला झूलते थे वहीं पर पुलिस के जवानों के रहने के। लिए पुलिस-चौकी चनने लगी।