बिखरे मोती/थाती

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बिखरे मोती  (1932) 
द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान
[ १४५ ]
 

थाती

[१]

क्यों रोती हूँ। इसे नाहक पूँछ कर जले पर नमक न छिड़को! जरा ठहरो! जी भर कर रो भी तो लेने दो; न जाने कितने दिनों के बाद आज मुझे खुलकर रोने का अवसर मिला है। मुझे रोने में सुख, मिलता है; शान्ति मिलती है। इसीलिए मैं रोती हूँ। रहने दो; इसमें बाधा न ढालो; रोने दो।

क्या कहा? 'किसके लिए रोती हूँ'? आह!! उसे सुनकर क्या करोगे? उससे मुझे कुछ लाभ न होगा; पूछो ही न तो अच्छा है। मेरी यह पीड़ा ही तो मेरी सम्पत्ति [ १४६ ]है, जिसे मैं बड़ी सावधानी से अपने हृदय में छिपाए हूँ । इतने पर भी सुनना ही चाहते हो तो लो कहती हूँ, किन्तु देखो ! जो कहूँ वही सुनना और कुछ न पूछना ।

वे एक धनवान माता-पिता के बेटे थे। ईश्वर ने उन्हें अनुपम रूप दिया था। जैसा उनका कलेवर सुन्दर था, उससे कहीं अधिक सुन्दर थी उनका हृदय । वे बड़े ही नेक, दयालु और उदार प्रकृति के पुरुष थे । गाँव के बच्चे उन्हें देखते ही खुश हो जाते, बूढ़े आशीर्वाद की वर्षा करते, स्त्रियाँ उन्हें अपना सच्चा भाई और हितू समझती और नवजवान उनके इशारे पर नाचते थे। तात्पर्य यह कि वे सभी के प्यारे थे और सभी पर उनका स्नेह था ।

में उन्हीं के गाँव की बहू थी। मेरे पति वहीं प्राइमरी पाठशाला में मास्टर थे । घर में बूढ़ी सास थीं, मेरे पति थे और मैं थी। मँहगी का ज़माना था; २८}} में मुश्किल से गुजर होती थी ! घर के प्रायः सभी छोटे-मोटे काम हाथ से ही करने पड़ते थे।

एक दिन की बात है, मैं वैसे ही व्याह कर आई थी। मैं थीं शहर की लड़की; वहाँ तो नलों से काम चलता था; भला कुएं से पानी भरनी मैं क्या जानती मेरी
[ १४७ ] 'सास मुझे अपने साथ कुएँ पर पानी भरना सिखा रही थीं । अचानक वे न जाने कहाँ से आगए, हँसकर बोले- “क्या पानी भरने की शिक्षा दे रही हो, माँ जी ? अपने ऐसी अल्हड़ लड़की व्याही ही क्यों, जिसे पानी भरना भी नहीं आता ।” मैने घूँघट के भीतर ही ज़रा सा मुस्कुरा दिया ।

सास ने कहा--बेटा ! इसे कुछ नहीं आता ! बस रोटी भर अच्छा बनाती है, न पीसना जाने न कूटना । गोबर से तो इसे जैसे घिन आती हो, बड़ी मुश्किल से तो कहीं कंडे थापती है, तो उसके बाद दस वार हाथ धोती है । हम तो बेटा ! गरीब आदमी हैं। हमारे घर में तो सभी कुछ करना पड़ेगा।

[ २ ]

दूसरे दिन मुझे अकेली ही पानी भरने जाना पड़ा। मैं रस्सी और घड़ा लेकर पानी भरने गई तो जरूर, पर दिल धड़क रहा था—कि बनता है या नहीं। न सास साथ थीं, और न कोई कुएँ पर ही था। मैंने घूँघट खोल लिया। और रस्सी को अच्छी तरह से घड़े के मुँह से बाँध कर कुएँ में डाल दिया। ‘डब’ ‘डब' करके बड़ी देर में कहीं
[ १४८ ]घड़े में पानी भरा—उसे खींचने लगी। किसी प्रकार खिंचता ही न था। ज्यों-त्यों करके आधी रस्सी खींच पाई थी कि वे सामने से आते हुए दिखाई दिए। कुँआ उनके अहाते के ही अन्दर था और बंगले में जाने का रास्ता भी वहीं से था। सामने से वे आते हुए दिखे, लाज के मारे ज्योहीं मैंने घूँघट सरकाने के लिए एक हाथ से रस्सी छोड़ी, त्योहीं अकेला दुसरा हाथ, पानी से भरे हुए घड़े का वज़न न सम्हाल सका। झटके के साथ रस्सी समेत घड़ा कुँए में जा गिरा। मैं भी गिरते-गिरते बची। एक मिनट में यह सब कुछ हो गया। वे बंगले से कुँए के पास आ चुके थे। मैं बड़ी घबराई, घूँघट-ऊँघट सरकाना तो भूल गई। झुककर कुँए में देखने लगीं। मेरे पास रस्सी और घड़ा निकालने का कोई साधन ही न था; निरुपाय हो कातर दृष्टि से उनकी ओर देखा। मेरी अवस्था पर शायद उन्हें दया आ गई। वे पास आकर बोले—"आप घबराइए नहीं, मैं अभी घड़ा निकलवाए देता हूँ," फिर कुछ रुककर मुस्कराते हुए बोले—"किन्तु अपने यह साबित कर दिया कि आप शहर की एक अल्हड़ लड़की हैं।"

मैं जरा हँसी और अपना घूँघट सरकाने लगी। मुझे [ १४९ ]घूँघट सरकाते देख वे ज़रा मुस्कराए; मैं भी ज़रा हँस पड़ी; पर कुछ बोली नहीं। उनके नौकर आए और देखते ही देखते रस्सी समेत घड़ा निकाल लिया गया। मैं घड़ा उठाकर अपने घर की तरफ़ चली। शब्दों में नहीं, किन्तु कृतज्ञता भरी आँखों से मैंने उनसे कहा—मैं आपके इस उपकार का बदला इस जीवन में कभी न चुका सकूँगी"। क़रीब पौन घंटा कुँए पर लग गया। अम्मा जी की घुड़कियों का डर तो लगा ही था। जल्दी जल्दी आई घड़े को धिनौची पर रख, रस्सी को खूँटी पर टाँगने के लिए मैंने ज्योंही हाथ ऊपर उठाया, देखा कि एक हाथ का सोने का कंगन नहीं है। तुम कहोगे कि पानी भरने वाली और सोने का कंगन, यह कैसा मेल! वह भी बताती हूँ—यह कंगन मेरी माँ का था। मरते समय उन्होंने अनुरोध किया था कि वह कंगन ब्याह के समय मुझे पैर-पुजाई में दिया जाय। इस प्रकार वह कंगन मुझे मिला था। रस्सी टांग कर मैं फिर कुँए की तरफ भागी, देखा तो वे सामने से आ रहे थे। उन्होंने यह कहकर कि "यह तुम्हारे अल्हड़पन की दूसरी निशानी है" कंगन मेरी तरफ बढ़ा दिया। कंगन लेकर चुपचाप मैंने जेब में रख लिया और जल्दी जल्दी घर आई। [ १५० ]'घर आकर देखा, पतिदेव स्कूल से लौटे थे । 'अम्मा जी बड़े क्रोध में उनसे कह रहीं थीं-

देखा नई बहू के लच्छन । एक घड़ा पानी भरने गई तो घंटे भर बाद लौटी, और यहाँ पानी रख कर फिर दीवानी की तरह कुएँ की तरफ़ भागी । मैंने तो पहले ही कहा था कि शहर की लड़की ने व्याहो; पर तुम न माने । बेटा ! भला यह हमारे घर निभने के लच्छन हैं ? और सब तो सब, पर जमीदार के लड़के से बात किये बिना इसकी क्या अंटकी थी ? यह इधर से भागी जा रही थी वह सामने से आ रहा था। उसने जाने क्या इसे दिया और इसने लेकर जेब में रख लिया। मुझे तो यह बातें नहीं सुहाती! फिर तुम्हारी बहू है; तुम जानो; बिगाड़ी चाहे बनाओ। मेरी तरफ उन्होंने गुस्से से देखकर पूँछा-- क्या है तुम्हारी जेब में बतलाओ तो !

मैंने कंगन निकालकर उनके सामने रख दिया। वे फिर डाँट कर बोले-“यह उसके पास कैसे पहुँचा” ?

मैंने डरते-डरते अपराधिनी की तरह आदि से लेकर
[ १५१ ]अंत तक कुएं पर का सारा क़िस्सा उन्हें सुना दिया। इस पर अम्मा जी और पतिदेव दोनों ही की झिड़कियाँ मुझे सहनी पड़ी। साथ ही ताक़ीद भी कर दी गई कि मैं अब उनसे कभी न बोलूं।

****

क्या पूछते हो? उनका नाम? रहने दो; मुझसे नाम न पूछो। उनका नाम जुबान पर लाने का मुझे अधिकार ही क्या है? तुम्हें तो मेरी कहानी से मतलब है न? हाँ, तो मैं क्या कह रही थी?—मुझसे कहा गया कि मैं उनसे कभी न बोलूं। यदि यह लोग फिर कभी मुझे उनसे बोलते देख लेंगे तो फिर कुशल नहीं। मैंने दीन भाव से कहा, "मुझसे घर के सब काम करवा लो; परन्तु कल से मैं पानी भरने न जाऊंगी।"

इस पर पतिदेव बिगड़ कर बोले—तुम पानी भरने न जाओगी तो मैं तुम्हें रानी बना कर नहीं रख सकता। यहाँ तो जैसा हम कहेंगे वैसा करना पड़ेगा।

उसके बाद क्या बतलाऊँ कि क्या-क्या हुआ? ज्यों-ज्यों मुझे उनसे बोलने को रोका गया, त्यों-त्यों एक बार जी भर कर उनसे बात करने के लिए मेरी उत्कंठा प्रबल होती [ १५२ ] शुई। किन्तु मेरी ग्रह : सा.कभी - पूरी न हुई। बै जाते-जाते एक-दो बातें चोल दिया:करते, जिसके उत्तर में मैं केवल हँस दिया करती थी, लेकिन लोग ग्रह .भी ने सह सके और तिल का ताई वन ग्या।

अंच मुझ पर घरं में अनेक प्रकार के अत्याचार होने लगे। हर दो-चार दिन बाद मुझ पर मार भी पड़ती; परन्तु मैं कर ही क्या सकती थी ? मैं तो उनसे बोलती भी है थी और उनका बोलना वन्द करना मेरी शक्ति से परे था। उन्होंने मुझसे कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कहीं जो अनुचित कही जा सके। उन्हें तो शायद विधाता ने ही रोते हुओं को हँसा देने की कला सिखाई थी। वे ऐसी मी चुटकी लेते । कभी कोई हँसी की बात भी कहते तो इतनी सभ्यता से इतनी नपी-तुला कि मैं चाहे जितनी दुखी हो, चाहूं. जितने रंज में होऊँ पर हँसी आ ही जाती थी ।

किन्तु धीरे-धीरे मुंह पर होने वाले अत्याचारों को पता उन्हें लग ही गया। उनके दयालु हृदय को इससे गहरी घोंट पहुँची । उस दिन, अन्तिम दिन जब में पानी भरने गई। वे कुए पर आए और मुझसे बोले, "मैं तुमसे कुछ कंछना चाहता हूँ। [ १५३ ]उनके स्वर में पीड़ा थी, शब्दों में माधु, और आँखों में न जाने कितनी करुणा का सागर उमड़ रहा था। मैंने आश्चर्य के साथ उनकी और देखा; आज पहिली ही वार तो इस प्रकार वे मेरे पास आकर बोले थे; उन्होंने कहा- “पहिली बात, जो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ वह यह' कि, मैरे ही कारण तुम पर इतने अत्याचार हो रहे हैं, यदि मुझे इसका पता चल जाता तो वे अत्याचार कब के वन्दहो चुके होते । दूसरी बात जो मैं तुमसे कहने आया हूँ वह यह कि आज से मैं तुम पर होने वाले अत्याचार की जड़े ही उखाड़ कर फेंक देता हूँ। तुम खुश रहना, मेरी अल्हड़ रानी ! (वे मुझे इसी नाम से पुकारा करते थे) यदि मैं तुम्हें भूल सका तो फिर यहाँ लौटकर आऊँगा; नहीं तो आज ही सदा के लिए विदा होता हूँ।”

"मुझ पर विजली सी गिरी। मैं कुछ बोल भी न पाई थी कि वे मेरी आंँखों से ओझल हो गए। अब मेरी हालत पहिले से ज्यादः खराब थी। मेरा किसी काम में जी न लगता था । कलेजे में सदा एक आग सी सुलभ करती; पुरन्तु मुझे खुल कर रोने का अधिकार न था। अब तो सभी लोग मुझे पागल कहते हैं। मैं कुछ भी करूंँ, करने देते हैं, इसी लिए तो आज खुल कर रो सकती हूँ ; और तुम्हें
[ १५४ ]भी अपनी कहानी सुना सकती हूँ। किन्तु क्या तुम बता सकोगे कि वे कहाँ हैं? मैं एक बार उन्हें और देखना चाहती हूँ। मेरी यह पीड़ा, मेरा यह उन्माद उन्हीं का दिया हुआ तो है। यदि कोई सहृदय उनका पता बता दे तो मैं उनकी थाती उन्हीं को सौंप दूँ।