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बिखरे मोती/क़िस्मत

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बिखरे मोती
सुभद्रा कुमारी चौहान

जबलपुर: उद्योग मंदिर, पृष्ठ ९४ से – १०३ तक

 

क़िस्मत

[ १ ]


"भौजी, तुम सदी सफेद धोती क्यों पहनती हो ?

"मैं क्या बताऊँ, मुन्नी”।

“क्यों भौजी ! क्या तुम्हें अम्मा रंगीन धोती नहीं पहिनने देती ।"

"नहीं मुन्नी ! मेरी किस्मत ही नहीं पहिनने देती, अम्मा भी क्या करें ?

"किस्मत कौन है, भौजी ! वह भी क्या अम्मा की तरह तुमसे लड़ा करती है और गालियाँ देती है ।”

सात साल की मुन्नी ने किशोरी के गले में बाहें डाल

कर पोठ पर झूलते हुए पूँछ–“किस्मत कहाँ है ? भौजी मुझे भी बता दो ।”

सिल पर का पिसा हुआ मसाला कटोरी में उठाते हुए किशोरो ने एक ठंडी साँस ली; बोली-किस्मत कहाँ है मुन्नी,क्या बताऊँ।"

अँचल से आँसू पोंछकर किशोरी ने तरकारी बघार दी। खाना तैयार होने में अभी आध घन्टे की देर थी। इसी समय मुन्नी की माँ गरजती हुई चौके में अई; बोली दस, साढ़े दस बज रहे हैं। अभी तक खाना भी नहीं बना ! बच्चे क्या भूखे ही स्कूल चले जायेंगे ? बाप रे बाप !! मैं तो इस कुलच्छनी से हैरान हो गई। घर में ऐसा कौन सा भारी कम है, जो समय पर खाना भी नहीं तैयार होता है दुनियाँ में सभी औरतें काम करती हैं। था तू ही अनोखी काम करने वाली है !"

एक साँस में, मुन्नी की माँ इतनी बातें कह गईं; और पटा बिछाकर चौके में बैठ गई। किशोरी ने डरते-डरते कहा-“अम्मा जी, अभी तो नौ हो बजे हैं; आध घंटे में सब तैयार हो जाता है; तुम क्यों तकलीफ करती हो ?”.

चिमटा खींच फर किशोरी को मारती हुई सास
बोलीं-“तु सच्ची और में झूठी ? दस बार राँड से कह दिया कि जवान ने लड़ाया कर; पर मुँह चलाए ही चली जाती है । तू भूली किस घमंड में है ? तेरे सरीखी पचास को तो में उँगलियों पर नचा दूँ। चल हट निकल चौके से।”

आँख पोंछती हुई किशोरी चौके से बाहर हो गई। ज़रा सी मुन्नी अपनी माँ का यह कठोर व्यवहार विस्मये 'भरी आँखों से देखती रह गई। किशोरी के जाते ही वह भी चुपचाप उनके पीछे चली । किन्तु तुरंत ही माता की डाँट से वह लोट पड़ी।

इस घर में प्रायः प्रति दिन ही इस प्रकार होता रहता था ।

[ २ ]

बच्चे खाना खाकर, समय से आधा घंटे पहले ही स्कूल पहुँच गए । खाना बनाकर जब मुन्नी को माँ हाथ धो रही थी तब उनके पति रामकिशोर मुवक्किलो से किसी प्रकार छुट्टी पाकर घर आए । सुनसान घर देखकर बोले – बच्चे कहाँ गये सब ?

नथुने फुलाती हुई मुन्नी की माँ ने कहा-“स्कूल गए; और कहाँ जाते ? कितना समय हो गया; कुछ ख़बर,भी है?"
घड़ी निकाल कर देखते हुए रामकिशोर बोले-“अभी साढ़े नौ ही तो बजे हैं मुझे कचहरी भी तो जाना है न ?”

मुन्नी की माँ तड़प कर बोली-“जरूर तुमने सुन लिया होगा ? दुलारी बहू ने नौ कहा था और तुम साढ़े नौं पर पहुँच गये तो इतना ही क्या काम किया ? तुम उसकी बात कभी झूठी होने दोगे ? मैं तो कहती हूं किं इस घर में नौकर-चाकर तक का मान मुलाहिज़ा है, पर मेरा नहीं सब सच्चे और मैं झूठी, कहके मुन्नी की माँ जोर से रोने लगी।

-"मैं तो यह नहीं कहता कि तुम झूठी हो; घड़ी ही गलत हो गई होगी ? फिर इसमें रोने की तो कोई बात नहीं है"।

कहते-कहते रामकिशोर जी स्नान करने चले गए। वे अपनी स्त्री के स्वभाव को अच्छी तरह जानते थे । किशोरी के साथ वह कितना दुव्र्यवहार करती है, यह भी उनसे छिपा न था । जरा-जरा सी बात पर किशोरी को मार देना और गाली दे देना तो बहुत मामूली बात थी । यही कारण था कि बहू के प्रति उनका व्यवहार बड़ा ही आदर और प्रेम पूर्ण होता । किशोरी उनके पहिले विवाह
की पत्नी के एक मात्र बेटे की बहू थी । विवाह के कुछ ही दिन वाद निर्दयी विधाता ने बेचारी किशोरी का सौभाग्य-सिन्दूर पोछ दिया। उसके मायके में भी कोई न था । वह अभागिनी विधवा सर्वथा दया ही की पात्र थी। किन्तु ज्यों-ज्यों मुन्नी की माँँ देखतीं कि रामकिशोर जी का व्यवहार बहू के प्रति बहुत ही स्नेह-पूर्ण होता है त्यों-त्यों किशोरी के साथ उनका द्वेय भाव बढ़ता ही जाता। रामकिशोर अपनी इस पत्नी से बहुत दबते थे; इन सब बातों को जानते हुए भी वह किशोरी पर किए जाने वाले अत्याचारों को रोक न सकते थे। सौ की सीधी बात तो।यह थी कि पत्नी के खिलाफ कुछ कह के वे अपनी खोपड़ी के बाल न नुचवाना चाहते थे। इसलिए बहूधा वे चुप ही रह जाया करते थे।

आज भी जान गए कि कोई बात जरूर हुई है और किशोरी को ही भूखी-प्यासी पड़ा रहना पड़ेगा। इसलिए कचहरी जाने से पहिले किशोरी के कमरे की तरफ़ गए और कहते गए कि “भूखी न रहना बेटी ! रोटी ज़रूर खा लेना नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा।"

“रोटी जरूर खा लेना नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा।"
रामकिशोर का यह वाक्य मुन्नी की मां ने सुन लिया। उनके सिर से पैर तक आग लग गई, मन ही मन सोचा ।“इस चुडैल पर इतना प्रेम ! कचहरी जाते-जाते उसका लाड़ कर गए; खाना खाने के लिए खुशामद कर.ए; मुझसे बात करने की भी फुर्सत न थी ? खायगी खाना, देखती हूँ, क्या खाती है ?अपने बाप को हाड़ !”

मुन्नी की मां ने खाना खा चुकने के बाद, सब की सब खाना उठा कर कहारिन को दे दिया और चौका उठाकर बाहर चली गई।किशोरी जब चौके में गई तो सब बरतन खाली पड़े थे । भात के बटुए में दो तीन कण चावल के लिपटे थे। किशोरी ने उन्हीं को निकाल कर मुँह में डाल लिया और पानी पी कर अपनी कोठरी में चली आई।

[ ३ ]

आज रामकिशोर जी कचहरी में कुछ काम न होने के कारण जल्दी ही लौट आए। मुन्नी की मां बाहर गई

थी। घर में पत्नी को कहीं न पाकर वे बहू की कोठरी की तरफ़ गए। बहू की दयनीय दशा को देखकर उनकी आँखें भर आई । आज चन्दन जीता होता तब भी क्या इसकी यही दशा रहती ? अपनी भीरुता पर उन्होंने अपने

[ किस्मत

आपको न जाने कितना विक्कारा। उनकी धोती कई जगह से फटकर सी जा चुकी थी। उस धोती से लज्जा निवारण भी कठिनाई से ही हो सकती थी । बिछौनों के नाम से खाट पर कुछ चीथड़े पड़े थे। जमीन पर हाथ को तकिया लगाए, वह पड़ी थी; उसको झपकी सी लग गई थी। पैरों की आहट पाते ही वह तुरन्त उठ बैंठी । रामकिशोर जी को सामने देखते ही संकोच से ज़रा घूँघट सरकाने के लिए उसने ज्योंही धोती खींची, घोती फट गई; हाथ का पकड़ा हुआ हिस्सा हाथ के साथ नीचे चला आया। राम किशोर ने उसका कमल सा मुरझाया हुआ चेहरा और डब-डबाई हुई आँखें देखी । उनका हृदय स्नेह से कातर हो उठा; वे ममत्व भरे मधुर स्वर में बोले–“तुमने खाना खा लिया है बेटी !”<

किशोरी के मुंह से निकल गया नहीं। फिर वह सम्हल कर बोली “खा तो लिया है बाबू ।”

रामकिशोर मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि तुमने नहीं खाया है। किशोरी कुछ न बोली उसका मुंह दूसरी और था,आँसु टपक रहे थे और वह नाखून से धरती खुरच रही थी।<br


१००

रामकिशोर फिर बोले-तुमने नहीं खाया न ? मुझे

दुःख है कि तुमने भी अपने बूढ़े संसुर की एक ज़रा सी बात न मानी।

किशोरी को बड़ी ग्लानि हो रही थी कि वह क्या उत्तर दे; कुछ देर में बोली-“बाबू मैंने आपको आज्ञा का पालन किया है; जो कुछ चौके में था खा लिया है; झूठ नहीं कहती

रामकिशोर को विश्वास न हुआ कहारिन को बुलाकर पूछा तो कहारिन ने कहा-“मेरे सामने तो बहू ने कुछ नहीं खाया। माँ जी ने चौका पहिले ही से खाली कर दिया था, खाती भी तो क्या ?

पत्नी की नीचता पर कुपित और बहू के सौजन्य पर रामकिशोर जी पानी-पानी हो गये।आज उनके जेब में ५०) थे; उसमें से दस निकाल कर वे बहू को देते हुए बोले । यह रुपये रखो बेटी, तुम्हें यदि जरूरत पड़े तो खर्च करना । इसी समय आँधी की तरह मुन्नी की माँ ने कोठरी में प्रवेश किया । बीच से ही रुपयों को झपट कर छीन लिया; वह किशोरी के हाथ तक पहुँच भी न पाये थे; गुस्से से तड़प कर बोली-~-बाप रे बाप.! अँधेर हो गया; कलजुग जो न

करावे सो थोड़ा ही है। अपने सिर पर की चांदी को तो लाज रखने । बेटी-बहू के सूने घर में घुसते तुम्हें लाज भी न आई? तुम्हारे ही सर चढ़ाने से तो यह इतनी सरचढी है। पर मैं न जानती थी कि बात इतनी बढ़ चुकी हैं। इस बुढ़ापे में भी गढे़ में ही जा के गिरे ! राम, राम ! इसी पाप के बोझ से तो धरती दबी जाती हैं।"

वे तीर की तरह कोठरी से निकल गई। उनके पीछे ही रामकिशोर भी चुपचाप चले गए। वे बहुत वृद्ध तो न थे परन्तु जीवन में नित्य होने वाली इन घटनाओं और जवान बेटे की मृत्यु से वे अपनी उम्र के लिहाज से बहुत बुढे़ हो चुके थे। ग्लानि और क्षोभ से वे बाहर की बैठक में जाकर लेट गए। उन्हें रह-रह कर चन्दन की याद आ रहीं थी । तकिए में मुँह छिपाकर वह रो उठे। पीछे से आकर मुन्नी ने पिता के गले में बाहें डाल दी पूछा- क्यों रोते हो बाबू” रामकिशोर ने विरक्ति के भाव से कहा-अपनी किस्मत के लिए बेटी !”

सवेरे मुन्नी ने भौजी के मुँँह से भी किस्मत का नाम सुना था और उसके बाद उसे रोते देखा था। इस समय अब उसने पिता को भी किस्मत के नाम से रोते देखा तो
उसने विस्मित होकर पूछा—"किस्मत कहां रहती है बाबू? क्या वह अम्मा की कोई लगती है?

मुन्नी के इस भोले प्रश्न से दुःख के समय भी 'रामकिशोर जी को हँसी आगई, और वे बोले—हाँ वह तुम्हारी मां की बहिन है।

मुन्नी ने विश्वास का भाव प्रकट करते हुए कहा "तभी वह तुम्हें भी और भौजी को भी रुलाया करती है।